एमबीएम न्यूज नेटवर्क, नाहन।। दिन शुक्रवार, वक्त करीब शाम के साढ़े चार बजे… नाहन के बाजार में रोज की तरह ही हलचल थी। पिछले दिनों ही बिलासपुर से यहां ट्रांसफर होकर आए एएसआई पदम देव वर्मा हलवाई की दुकान में बैठे हुए थे। इसी दौरान दुकान से एक लड़के ने सामने से आ रही गाय की तरफ एक रोटी डाल दी। पीछे से एक और गाय इस रोटी की तरफ लपकी। एक बुजुर्ग बीच में खड़े थे। पूरी आशंका थी की तेजी से दौड़कर रोटी की तरफ आती गाय और पहले से पास में खड़ी गाय के बीच में फंसकर बुजुर्ग जख्मी हो सकते हैं और कुछ अनहोनी तक हो सकती थी।
इससे पहले कि कोई कुछ कर पाता, एएसआई पदम देव झटके से उठे और बुजुर्ग से लिपटकर उन्हें सुरक्षित कर लिया। उधर तेजी से आती गाय के खुर से पदम देव के पैर का अंगूठा कुचल गया। गाय ने एएसआई को पीछे धकेलने की कोशिश भी की, मगर गनीमत थी कि गाय के सींग नहीं थे तो नुकसान कम हुआ। अगर बुजुर्ग को या पदम देव को गाय टक्कर मारती तो नुकसान गंभीर हो सकता था।
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चेकअप में पता चला है कि एएसआई के पांव में फ्रैक्चर हुआ है। बाजार में मौजूद कई लोगों ने यह दृश्य देखा। पदम बताते हैं कि लोगों ने बाद में पास आकर उन्हें सराहा तो काफी उत्साह बढ़ा।
जानकारी यह भी है कि एएसआई पदम देव वर्मा ने अपनी बिलासपुर में डयूटी के दौरान एक गोशाला भी चलाई थी।
तस्वीर सांकेतिक है।
इस गोशाला में 35 से 40 बेसहारा गऊओं को रखकर देखभाल की जाती थी। वह इस संस्था के खुद अध्यक्ष हैं। इसके अलावा एएसआई पदम देव स्कूलों में जाकर छात्रों को योग की शिक्षा भी देते हैं।
(यह एमबीएम न्यूज नेटवर्क की खबर है और सिंडिकेशन के तहत प्रकाशित की गई है)
एमबीएम न्यूज नेटवर्क, शिमला।। प्रदेश की राजधानी के मुख्य रेलवे स्टेशन के पास फागली क्षेत्र में कल देर शाम गली-सड़ी लाश मिलने से इलाके में सनसनी फैल गई। शव की हालत इतनी बुरी थी कि उसके टुकड़े कर दिए गए थे। शव की हालत से लगता था कि यह काफी दिनों से वहां पड़ा था।
घटनास्थल पर इतनी बदबू आ रही थी कि लोगों का वहां से गुजरना दूभर हो गया था। सूचना मिलते ही थाना बालूगंज पुलिस ने मौके पर पहुंच कर शव को कब्जे में लेकर आगे की कार्रवाई शुरु कर दी है।
वी.पी. शर्मा।। मई 2014 में जब मोदी के नेतृत्व में भगवा सैलाब आया तो दिल्ली के पूरे प्रशासनिक अमले की सूरत बदल गई। सरकारी दायरे के पुराने लोगों का यह पहला सत्ता परिवर्तन नहीं था, मगर बहुत से अधिकारी, कर्मचारी, सलाहकार और नीति निर्माताओं के लिए सरकार बदलाव लेकर आई।
इस बीच एक और ऐतिहासिक चीज़ हुई, जो पहले नहीं हुई थी। डिजिटल युग में भारत के प्रधानमंत्री सरकार की योजनाओं और उपलब्धियों वगैरह को ट्विटर और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से जनता के सामने रख रहे थे। भारत के इतिहास में पहली बार नई सरकार बनने पर सोशल मीडिया अकाउंट्स का भी हस्तांतरण होना था।
मगर बिना वजह के विवाद को टालते हुए आराम से ट्विटर अकाउंट और फेसबुक अकाउंट, क्रमश @PMOIndia और PMO India को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ट्रांसफर कर दिया गया।
सरकार के पैसे से चलने वाले आधिकारिक खातों को सरकार बदलने पर नए पदाधिकारी को ट्रांसफर किया जाता है, जैसे मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी के मामले में हुआ।
इससे अकाउंट तो ट्रांसफर हुए ही, नई और पुरानी सरकार के बीच फॉलोअर, ब्रैंड वैल्यू और नेटवर्क पावर भी ट्रांसफर हुई। इससे एक तरह से सरकारी पदाधिकारियों द्वारा चलाए जाने वाले अकाउंटों को लेकर एक अलिखित नियम बन गया। नियम यह कि सोशल मीडिया अकाउंट पद पर निर्भर करेंगे और उस पद पर नए आने वाले व्यक्ति के लिए ट्रांसफर होंगे।
इससे राजनेताओं या अधिकारियों के निजी सोशल मीडिया अकाउंट्स और उनके पद से जुड़े आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट्स का फर्क भी स्थापित हो गया। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी था ताकि टैक्स देने वालों के पैसे को अपने राजनीतिक अजेंडे के लिए इस्तेमाल न किया जा सके। यानी आधिकारिक अकाउँट्स को सिर्फ सरकार की नीति और जनता के बीच विभिन्न तरह की जागरूकता फैलाने को लेकर ही इस्तेमाल किया जा सकता है। जनता के टैक्स से आई रकम का सही इस्तेमाल करने के लिए ऐसा जरूरी भी है।
भारत समेत पूरी दुनिया में हम देखते हैं कि राजनेता सत्ता में आने पर भी अलग पर्सनल सोशल मीडिया अकाउंट रखते हैं (उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री मोदी का एक अकाउंट Narendra Modi नाम से है जबकि उनके कार्यालय का आधिकारिक अकाउंट PMO India के नाम से है)। सरकारी अकाउंट से अलग यह पर्सनल अकाउंट वह खुद अपने पैसे से चलाते हैं। भारत में कई सारे मुख्यमंत्री और मंत्री आज प्रधानमंत्री द्वारा इसी लाइन पर चले हैं। वे अपने विभागों के ऑफिशल सोशल मीडिया अकाउंट के साथ-साथ अपना निजी सोशल मीडिया अकाउंट भी चला रहे हैं।
वैसे भी नैतिक, सैद्धांतिक और कानूनी बातों को ताक पर रखते हुए कुछ लोग चालाकी भी बरत रहे हैं। जब ज्यादातर नेताओं ने निजी और सरकारी सोशल मीडिया अकाउंट में भेद रखा है, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने ऐसा नहीं किया है। वीरभद्र और उनके दायरे के लोग पारदर्शिता के इन अलिखित सिद्धांतों की खिल्ली उड़ा रहे हैं। जनता के पैसे को वह अपने प्रमोशन और ब्रैंडिंग में इस्तेमाल कर रहे हैं।
सरकारी योजनाओं का प्रचार भी इसी पेज से हो रहा है और मुख्यमंत्री का विज्ञापन भी इसी पेज से हो रहा है।
पहाड़ी राज्य के मुखिया ट्विटर और फेसबुक पर “virbhadrasingh” और “Virbhadra Singh” नाम से हैं। दोनों मीडिया अकाउंट पिछले दिनों गलत वजह से चर्चा में रहे हैं। पिछले कुछ महीनों से ये तथाकथित ‘ऑफिशल’ अकाउंट, जो कि लगता है कि सोशल मीडिया एक्सपर्ट्स (पेज पर दी जाने वाले जानकारियों को देखकर अनाड़ी करना ज्यादा सही होगा) की एक टीम इसे मैनेज करती है और हर महीने सरकारी खजाने से सोशल मीडिया वालों को करीब ढाई लाख रुपये दिए जाते हैं।
जब इन लोगों जांच के अधीन चल रहे मामले के दौरान कुछ बेकसूर लोगों की तस्वीरें रेपिस्ट बताकर अपलोड कर दी थी, तब ये लोग चर्चा में आए थे। मगर लोगों की निजता के अधिकार का उल्लंघन करने के बावजूद मुख्यमंत्री या उनके पेज को संभावने वाोलं के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई, जबकि आईटी ऐक्ट के सेक्शन 66E के तहत ऐसा करने पर 3 साल की सजा हो सकती है। इससे पता चलता है कि जनता के टैक्स के पैसे से पेमेंट लेने वाले ये पेज मैनेजर कितने काबिल हैं और प्रदेश की पुलिस कितनी स्वतंत्र है।
वीरभद्र सिंह के प्रचार के लिए जनता का पैसा क्यों खर्च हो रहा है?
हैरत की बात यह है कि ट्विटर और फेसबुक पर वीरभद्र सिंह जिन दो अकाउँट्स को चलाते हैं, वे प्राइवेट अकाउंट हैं न कि सरकारी अकाउँट। अगर वे सरकारी अकाउंट होते तो उनका नाम ‘Chief Ministers Office Himachal Pradesh” और “CMOHP” होना चाहिए था। मगर सर्च करने पर ऐसे कोई अकाउंट नहीं मिलते। मुख्यमंत्री और उनके कार्यालय द्वारा जारी जानकारियां मुख्यमंत्री के मौजूदा प्राइवेट अकाउंट्स पर ही दी जाती है।
ऐसे में इस पेज को लेकर सैद्धांतिक रूप से सवाल इसलिए भी खड़े होते हैं क्योंकि सरकारी खजाने के पैसे को मुख्यमंत्री के निजी प्रचार अभियान में खर्च किया जा रहा है। इस ढांचे में कोई ऐसा पैमाना नहीं है जिसके आधार पर सरकार के आधिकारिक संदेशों और निजी राजनीति प्रचार के बीच फर्क किया जा सके।
अगर मौजूदा खातों का उद्देश्य सरकार के पैसे से वीरभद्र सिंह के व्यक्तित्व और उनके बेटे की मार्केटिंग करना है तो मुख्यमंत्री और उनकी टीम न सिर्फ नैतिकता को ताक पर रख रही है, बल्कि आईपीसी के सेक्शन 409 का उळ्लंघन भी कर रही है, जिसके तहत उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।
अगर सरकार के पैसे से इस पेज को चलाया जा रहा है तो मुख्यमंत्री के बेटे का प्रमोशन क्यों?
जो प्रदेश पहले से ही भारी-भरकम कर्ज में डूबा हुआ हो, वहां अनुभवी नेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे फिजूलखर्ची पर रोक लगाएं। मगर मुख्यमंत्री और उनके स्टाफ के सदस्य न जाने किस नशे में चूर होकर हिमाचलियों के पैसे पर डाका डालना चाह रहे हैं। पहले से ही खाली होने की कगार पर पहुंचे वित्तकोष से हर साल 30 लाख रुपये निजी विज्ञापन में खर्च करना नैतिकता में इतनी ज्यादा गिरावट है जो भोले-भाले पहाड़ियों ने शायद कभी न देखी हो।
राज्य सरकार के प्रति लोगों के खोए हुए भरोसे को फिर से हासिल करना बहुत मुश्किल काम होगा। शुरुआत ऐसे करनी होगी कि सीएम को यह स्वीकार करना चाहिए कि ये अकाउंट उनके निजी अकाउंट हैं। इसके बाद मुख्यमंत्री को वह सारी रकम सरकारी खजाने में जमा करवानी चाहिए, जो इन सोशल मीडिया अकाउंट्स पर खर्च हुई है। और यह रकम उन्हें अपनी कमाई से भरनी चाहिए।
(एक लॉ फर्म से जुड़े वी.पी. शर्मा विभिन्न समाचार पत्रों के लिए लेख लिखते हैं। उनके लेख राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक मुद्दों पर होते हैं।)
सैर (सायर) पर हार्दिक शुभकामनाएं। खुद जानिए, और शेयर करके दूसरों को भी बताइए कि क्यों मनाई जाती है सैर:
आदर्श राठौर।। आज हिमाचल प्रदेश के मंडी, कांगड़ा, बिलासपुर जिलों समेत हिमाचस प्रदेश के कई इलाकों में ‘सैर’ या ‘सायर’ मनाई जा रही है। यह पर्व हर साल सितंबर महीने में मनाया जाता है। इस दिन सुबह-सुबह ताजा फसल के आटे से रोट बनाए जाते हैं, साथ ही देवताओं को नई फसलों और फलों वगैरह का भोग लगाया जाता है।
पहले इस दिन अखरोट (walnut) से निशाना लगाने वाला खेल भी खेला करते थे। कुछ गांवों में यह परंपरा बची हुई है। इसमें खिलाड़ी जमीन पर बिखरे अखरोटों को दूर से निशाना लगाते हैं। अगर निशाना सही लगे तो अखरोट निशाना लगाने वाले के होते हैं। इस तरह यह खेल बच्चों, बूढ़े और नौजवानों में खासा लोकप्रिय है।
इसी दिन रक्षाबंधन के दिन पहनी गई राखी को भी उतारा जाता है। अखरोट सिर्फ बांटे ही नहीं जाते, इनका खेल भी खेला जाता है। अखरोट सिर्फ बांटे ही नहीं जाते, इनका खेल भी खेला जाता है। मान्यताओं के आधार पर देखें तो आज भादो (भाद्रपद) महीने का भी अंत होता है। भादो के दौरान देवी-देवता बुरी शक्तियों से युद्ध लड़ने देवालयों से चले जाते हैं और सायर वाले दिन लौटते हैं। इस दिन कई ग्रामीण क्षेत्रों के देवालयों में देवी-देवता के गुर खेल के माध्यम से लोगों को देवताओं और बुरी शक्तियों के बीच हुए युद्ध का हाल भी बताते हैं।
वैसे इस त्योहार को मनाए जाने की भी अपनी वजह है। देखा जाए तो यह बरसात का आखिरी दौर है। कई साल पहले भारी बारिश की वजह से लोगों को तरह-तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता था। बरसात में कई संक्रामक बीमारियां फैल जाया करती थीं, जिससे कई लोगों को इलाज न मिल पाने की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ती थी। कई बार भारी बारिश, बाढ़, बिजलनी गिरने से भी तबाही होती थी। न सिर्फ जान-मान का भारी नुकसान होता था, बल्कि फसलें भी तबाह हो जाया करती थीं। ऐसे में अगर सब कुछ सही से निपटे, तो बरसात के खत्म होने पर लोग ईश्वर का शुक्रिया अदा करते थे कि कोई अनहोनी नहीं हुई। देवताओं को नई फसल जैसे कि धान की बाली, भुट्टा (गुल्लु), खट्टा (सिट्रस), ककड़ी वगैरह का भोग लगाया जाता था। आज भी यह परंपरा जारी है।
साथ ही लोग बारिश की वजह से पहले कहीं जा नहीं पाते थे, ऐसे में इस दिन वे अपने संगे-संबंधियों से मुलाकात करने घर से निकलते थे। इस तरह से सैर पर निकलने की वजह से ही इसे सैर कहा जाना लगा, जो कुछ इलाकों में अपभ्रंस होकर सायर हो गया। संबंधियों और बड़े-बुजुर्गों से मिलने जाने की परंपरा को द्रुब देना कहा जाता है। इस दौरान द्रुब (दूब) देकर बड़ों का आशीर्वाद लिया जाता है। द्रुब देने वाला व्यक्ति अपने हाथ में पांच या सात अखरोट और दूब लेता है। इन्हें बुजुर्गों के हाथ में देकर उनके पांव छूए जाते हैं और बुजुर्ग भी दूब अपने कान में लगाकर आशीर्वाद देते हैं। अगर कोई सायर के पर्व पर बड़े बुजुर्गों को द्रुब न दे तो इसका बुरा माना जाता है। यहां तक कि छोटे-मोटे मन मुटाव भी द्रुब देने से मिट जाते हैं। तो आपको भी सैर मुबारक हो। आने वाला साल आपके लिए संपन्नता और अच्छा स्वास्थ्य लाए।
(लेखक मूलत: मंडी जिले के जोगिंदर नगर से हैं और दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप में वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से आभार सहित लिया गया है।)
V.P. Sharma In May 2014 the entire administrative establishment in Delhi was engulfed by a Modi led saffron storm. Bureaucrats, government employees, advisors and policy makers who inhabited the intrigue filled power corridors in the exclusive Lutyens zone were preparing for the massive churn that awaited them on arrival of a new government. For veterans in government circles this wasn’t the first transition and most were confident that historically established precedents on executive change will serve them satisfactorily this time as well.
Yet there was one development for which there was no historical standard to draw lessons from. With the advent of a digital age, the Prime Minister of India was transmitting policy achievements and initiatives of the government on social media platforms of twitter and Facebook. A first in the history of the Indian Republic, a transfer of social media accounts to a new government had to take place. Barring a fruitless controversy at the start of this new process which one can attribute to beginners’ confusion, the twitter and Facebook accounts namely “PMOIndia” and “PMO India” were successfully transferred from Prime Minister Manmohan Singh to Prime Minister Narendra Modi.
This small but notable event amidst an array of brain numbing activities that occur during a governmental transition was significant. Transfer of accounts including all its followers, existing reach, brand value and network power set the precedence for a mature transmission of social media capital between the incoming and outgoing governments. It also established certain unwritten principles pertaining to accounts managed by government executives. Primarily this transition founded a rule that all government social media accounts will be associated with the executive position manned by the official whether elected or unelected and these accounts will transfer to individuals appointed to the positions on an as and when basis. This created a clear distinction between individual personal accounts of politicians or officials and accounts entrusted to them by virtue of the position they hold.
The crucial purpose behind creating such a differentiation is to ensure that tax payer owned and funded technological apparatuses are not used to promote the personal political agendas of politicians and bureaucrats. Rather, official accounts will be used only to communicate government policy and outreach including citizen awareness of various schemes, programs and initiatives undertaken by the government. The underlying logic behind this norm is based on the ethical standards of transparency and accountability citizens demand from the government. Tax money expropriated by means of coercion must always be used to further the public good and strict safeguards must be in place to prevent personal exploitation of citizens’ money by those in power.
All across the world including India we find that despite the unscrupulous nature of politics politicians have usually adhered to this distinction. When in power they maintain distinct personal accounts financially managed by them individually and official accounts financed by the government which are used to transmit authorized government messages from their departments or ministries. Several chief ministers in India have followed the line set by the Prime Minister and are maintaining distinct individual social media accounts separate from the official social media accounts they have as department or ministry heads.
Even in a general atmosphere of respect for morality, ethics and rule of law exceptional rogues are prevalent in certain remote corners. Although most leaders have valued the dissimilarity in individual social media accounts and official accounts, the Chief Minister of Himachal Pradesh seems hell bent on collating the two. In the serene mountains of the western Himalayas where value attached to tranquility far exceeds the price of digital media, Virbhadra Singh and his entourage are determined to make a mockery of unwritten customs promoting transparency in social media accounts of political leaders. He is resolute in expropriating tax payer money and using it for a joyride into the narcissistic amusement park of self-branding and promotion.
The chief executive of the hill state currently operates a twitter as well as a Facebook page under the titles of “virbhadrasingh” and “Virbhadra Singh” respectively. The two digital media accounts have been in the news recently for all the wrong reasons. Under the circumstances that have emerged over the past couple of months, it appears that these so called “official” accounts of Virbhadra Singh are managed and maintained by a team of social media experts (or nincompoops given the stream of information circulated on the page) who are paid roughly around 2,50,000 rupees every month from the state treasury. Their infamy came to light when the managers released pictures of innocent individuals and brandished them as rapists during an ongoing criminal investigation. Despite such blatant violation of individual privacy, no action has been initiated against the CM or his page managers under section 66E of the Information and Technology Act which explicitly provides for a punishment of 3 years if pictures violating privacy of an individual are circulated without his consent. This raises considerable doubts on the competency of the page managers bankrolled by the tax payers and the independence of the police in the state.
Why is public money being spent to promote Mr. Virbhadra Singh?
The perplexing fact about the chief minister’s social media operation is that the accounts which Virbhadra Singh operates on the two primary platforms of twitter and Facebook are private accounts and not official government accounts. Had they been official government accounts their title would be “Chief Ministers Office Himachal Pradesh” and “CMOHP” as is the norm. A cursory search on the internet reveals that no such account exists. All communications from the chief minister and his office are sent out via Virbhadra Singh’s private accounts. There are deep reservations on the ethical efficacy of the account since exchequer money is being spent on personal promotional campaigns of the Chief Minister. There is absolutely no objective criteria in the present structure to distinguish between approved government message or personal political propaganda. If the goal of the current account is marketing the personality of Virbhadra Singh and his son through state subsidy, the Chief Minister and his team will not only be violating basic moral standards, they may also be in violation of section 409 IPC which specifically punishes criminal breach of trust by public servants.
Why is Virbhadra’s son being promoted on this government funded page?
In a state which is heavily in debt one would expect its veteran leaders to jam the brakes on profligacy. The Chief Minister and his staff however want to maraud through the finances of Himachalis like drunken heirs to a rich fortune. Spending 30 lacs a year on personal advertisement from an already depleted treasury signifies a level of moral depravity the innocent pahadis may have never seen. To restore the beleaguered confidence of people in the state government will be an uphill task, and the CM must start by acknowledging the private status of his account. Following which he is obligated to reimburse the state treasury of all the expenses that the people have incurred in financing his social media accounts and he must do so from his personal income.
(An associate with a law firm, V.P. Sharma writes regular articles for various news papers. His articles take a contrarian view of political, economic and social issues.)
आई.एस. ठाकुर।। भारतीय जनता पार्टी के युवा नेता और हिमाचल के हमीरपुर से बीजेपी के सांसद अनुराग ठाकुर इन दिनों कुछ अजीब कारणों से चर्चा में हैं। कभी वह अपनी पार्टी के वरिष्ठ मंत्री को एम्स के मुद्दे पर घेरने की कोशिश करते हैं तो कभी गुड़िया मामले में वीडियो डालकर श्रेय लेने की कोशिश करते हैं। कभी वह मंत्री को ट्वीट करके खामियां गिनाने की कोशिश करते हैं तो कभी राहुल गांधी के वंशवाद के बयान को लेकर खुद ही अपने आप को लेकर सफाई देने लगते हैं। मगर अब जब हिमाचल में टोपी का मामला उछला है, तो अक्सर बिना टोपी के नजर आने वाले अनुराग ठाकुर लाल टोपी पहने मीडिया के सामने बयान देते नजर आए।
सुर्खियों के लिए बहुत कुछ करते रहे हैं अनुराग बहरहाल, ऊपर जो मामले बताए गए हैं, उन सभी को लेकर बीजेपी के समर्थकों तक में चर्चा छिड़ी हुई है कि आखिर अनुराग पिछले कुछ दिनों से ऐसा क्यों कर रहे हैं। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि यह नई बात नहीं है क्योंकि एक बार वह मूंछों में ताव रखकर लेफ्टिनेंट की वर्दी पहनकर सरकारी कार्यक्रमों में भी पहुंच गए थे, मगर अब फिर से अपने पुराने अंदाज में आ गए हैं। इसी तरह से विपक्ष में रहते हुए उन्होंने तिरंगा यात्रा छेड़ दी थी, जबकि पता था कि उन्हें श्रीनगर जाने नहीं दिया जाएगा। मगर सत्ता में आने के बाद उन्होंने कभी लाल चौक जाकर तिरंगा यात्रा करने की जहमत नहीं उठाई।
(वीडियो: News 18 Himachal)
वीरभद्र पर किस मुंह से आरोप?
लाल टोपी पहनकर मीडिया से अनुराग ने कहा, “मैं पहले ही कहता हूं। वीरभद्र जी निचले हिमाचल की अनदेखी करते हैं। ये केवल किसी टोपी को ठुकराना नहीं, मान-सम्मान को ठुकराने के बराबर है।” अनुराज जी से पूछना चाहता हूं कि वीरभद्र ने यह टोपी नहीं पहनी तो इससे सिर्फ तथाकथित ‘निचले हिमाचल’ का अपमान कैसे हुआ? अगर अपमान हुआ होगा तो पूरे हिमाचल का हुआ होगा न? यानी आप मानते हैं कि आप ये जो लाल टोपी पहनते हैं, उसे आप तथाकथित ‘निचले हिमाचल’ की निशानी मानते हैं और वीरभद्र की टोपी को तथाकथित ‘अपर हिमाचल’ की। और अगर ऐसा है तो आप किस मुंह से वीरभद्र पर पक्षपात का आरोप लगा रहे हैं? और टोपी आप किसी और रंग की भी पहन सकते थे, लाल ही क्यों?
टोपी से लगाव है तो पिता की तरह अपनाएं अनुराग ठाकुर बीजेपी के कार्यक्रमों, चाहे वे हिमाचल में हों या कहीं और टोपी पहने नजर नहीं आते। जहां उनके पिता प्रेम कुमार धूमल हमेशा टोपी पहने नजर आते हैं और यह उनकी पहचान है, अनुराग ने चुनिंदा कार्यक्रमों में टोपी पहनाए जाने के अलावा इक्का-दुक्का मौकों पर ही टोपी पहनी है। मगर अब जब वीरभद्र सिंह का टोपी न पहनने का मामला उछला है तो वह मीडिया के सामने लाल टोपी पहनकर आ गए और टोपी को लेकर और क्षेत्रवाद की राजनीति का आरोप लगाने लगे।
अब कोई नेता जनता को टोपी नहीं पहना सकता शायद नेताओं को लगता है कि उनके ऐसे प्रपंचों को जनता समझ नहीं पाएगी। मगर उन्हें समझ जाना चाहिए कि वक्त बदल गया है। ऐसे दिखावे से काम नहीं चलने वाला। और अनुराग ही नहीं, हर नेता, जो टोपी या इस तरह के सतही मुद्दों की बात करता है, उसे समझ जाना चाहिए कि अब टोपी की राजनीति करके जनता को टोपी पहनाने का दौर नहीं रहा।
(लेखक हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले से संबंध रखते हैं और इन दिनों आयरलैंड में एक कंपनी में कार्यरत हैं। उनसे kalamkasipahi @ gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
(DISCLAIMER: ये लेखक के अपने विचार हैं, इनके लिए वह स्वयं उत्तरदायी हैं)
रविंद्र ठाकुर।। हिमाचल में राजनीति के रंग में रंग दी गई हिमाचली टोपी एक बार फिर चर्चा में है। एक वीडियो में प्रदेश के मुख्यमंत्री एक टोपी को पहनने से पहले इनकार कर रहे हैं और फिर उसे एक तरफ पटकते दिखते हैं। कयास लगाए जा रहे हैं कि उन्होंने इस लाल रंग की टोपी को पहनने से इसलिए इनकार किया क्योंकि इस रंग की टोपी बीजेपी पहना करती है। अब बीजेपी वाले वीरभद्र के इस आचरण को हिमाचल का अपमान बता रहे हैं और मीडिया में भी खबरें छाई हुई हैं। मगर मैं बीजेपी वालों, मीडिया और यहां तक कि इस मामले को उठाने वाले In Himachal से भी पूछना चाहता हूं कि अगर टोपी को पहनने से इनकार करके इक तरफ रखना अगर हिमाचल का अपमान है तो उस टोपी को जलाना क्या है? और जब बीजेपी वाले किन्नौरी टोपी को जला रहे थे, तब आप सब कहां सोए थे? मैं कुछ तस्वीरें और वीडियो भेज रहा हूं।
इसी साल 27 जुलाई को भारतीय जनता पार्टी ने पूरे हिमाचल में वीरभद्र के पुतले फूंके थे। ज्यादातर जगह जो पुतले बनाए गए थे, उन्हें वीरभद्र सिंह की तर्ज पर हरे रंग की टोपी पहनाई गई थी। कहा जा सकता है कि वीरभद्र यही टोपी पहनते हैं तो रियलिस्ट लुक देने के लिए ऐसा किया गया था। मगर दुख हुआ था जब हिमाचल की पहचान मानने वाली इस टोपी को वीरभद्र के पुतलों के साथ फूंक दिया गया था।
एक प्रदर्शन के दौरान पुतले के साथ जलाई जाती हिमाचली टोपी।
राजनीतिक विरोध अपनी जगह है, मगर प्रदेश का सम्मान अपनी जगह। क्या बीजेपी नेताओं की अक्ल उस वक्त काम नहीं कर रही थी कि जलाने से पहले ही कम से कम हिमाचली टोपी को निकाल लेते? मगर कई जगहों पर बड़े नेताओं की मौजूदगी में वीरभद्र के पुतलों के साथ-साथ हिमाचल की टोपी को भी राजनीति की भेंट चढ़ा दिया गया था।
मगर अफसोस, तब किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। और तो और, इन हिमाचल ने भी इसपर कोई खबर प्रकाशित नहीं की। वीरभद्र के मामले में तो उनके बेटे का बयान निकालकर वीडियो डालकर कॉमेंट्री कर दी गई कि हिमाचल का अपमान हो गया। मगर क्या हिमाचलियों के सिर के ताज टोपी को जब बीजेपी ने जलाया था, तब क्या हमारा मान बढ़ गया था?
मैं यह नहीं कह रहा कि वीरभद्र ने जो किया सही किया। मैं उनका बचाव भी नहीं कर रहा। मैं मानता हूं कि उन्होंने जो किया वह सही नहीं है। मगर मैं तो हमारे समाज के दोहरेपन पर सवाल उठा रहा हूं। बीजेपी वाले आज हो-हल्ला मचा रहे हैं कि टोपी फेंक दी, ऐसा हो गया, वैसा हो गया। मगर जब खुद उसके कार्यकर्ता उसे जलाते हैं तो कोई कुछ नहीं कहता। यही बात मीडिया पर भी लागू होती है। आज तो आपको यह घटना नज़र आ गई, मगर उस वक्त बीजेपी के मामले में आपने आंखें मूंद ली थीं।
आखिर में In Himachal, मुझे नहीं पता कि आप यह लेख प्रकाशित करेंगे या नहीं। मेरा मकसद आप तक अपनी बात पहुंचाना था। आपको हमेशा हमने निष्पक्ष जानकर मान दिया है। आपकी खबरों और लेखों में जनता के मुद्दे प्रतिध्वनित होते रहे हैं। आप आज अगर सबसे कामयाब हैं तो यह कामयाबी जनता ने दी है। आपका मंच जनता का मंच है और इसलिए इसे यही रहने दीजिए। मैं आरोप नहीं लगा रहा, मगर इतनी उम्मीद रखता हूं कि आप आगे इस बात का ध्यान रखेंगे कि हर मामले के दोनों पहलू ध्यान में लाएंगे। वरना जो जनता आपको बनाती है, वह बिगाड़ भी सकती है।
(लेखक दरअसल InHimachal के पाठक हैं और उन्होंने वीरभद्र सिंह द्वारा टोपी फेंकने की खबर को लेकर प्रतिक्रिया देते हुए हमें ईमेल भेजी थी। हम इस ईमेल को यथावत प्रकाशित कर रहे हैं।)
एमबीएम न्यूज नेटवर्क, सोलन।। बद्दी के वर्धमान चौक पर डस्टबिन से एक ट्रैवलिंग बैग में महिला का शव मिलने से सनसनी फैल गई है। फिलहाल महिला की शिनाख्त नहीं हो पाई है। महिला की उम्र 25 से 35 के बीच में होने की संभावना है। महिला ने माथे में सिंदूर भरा हुआ है इसी के आधार पर पुलिस यह मान रही है कि महिला शादीशुदा रही होगी।
पुलिस को डस्टबीन में फैंके गए ट्रेवलिंग बैग की जानकारी डेढ से दो घंटे पहले ही मिली थी। पुलिस के सामने सबसे बडी चुनौती महिला की शिनाख्त की होगी।
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तकरीबन 6 से 8 साल पहले नाहन के समीप मारकंडा नदी के किनारे एक महिला व बच्ची का शव भी सूटकेस में फैंका गया था। इसका सुराग आज तक नहीं लग पाया है। उस वक्त सूटकेस में शवों को ठिकाने लगाने का देश के कई हिस्सों में ट्रैंड चला हुआ था।
उधर बद्दी के एसपी राहुल नाथ ने ट्रेवलिंग बैग में महिला का शव मिलने की पुष्टि करते हुए कहा कि वह खुद मौके पर पहुंचकर जांच में जुटे हुए है। उन्होंने कहा कि फिलहाल शिनाख्त नहीं हुई है।
(यह एमबीएम न्यूज नेटवर्क की खबर है और सिंडिकेशन के तहत प्रकाशित की गई है)
शिमला।। शिमला रेप ऐंड मर्डर केस में जब पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठे थे तो जनता के दबाव में हिमाचल सरकार ने मामला सीबीआई को सौंपा था। जब सीबीआई ने जांच शुरू की तो पता चला कि पुलिसवालों ने खुद कई गड़बड़ियां की हैं और आईजी समेत एसआईटी के अधिकारी इन दिनों जेल में बंद हैं। मगर जब मंडी के करसोग में एक वनरक्षक लापता हो गया था और कुछ दिन बाद उसका शव संदिग्ध हालात में पेड़ पर उल्टा लटका मिला था, तब पुलिस ने कहा था कि उसने आत्महत्या की है। इस थ्योरी और पुलिस द्वारा जांच टीमें बार-बार बदलने को लेकर सवाल उठे थे मगर सरकार सीबीआई जांच को तैयार नहीं हुई थी। मगर हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने अब सीबीआई को इस मामले जांच के आदेश दिए हैं।
गौरतलब है कि जब यह मामला सामने आया था तो मुख्यमंत्री वीरभद्र ने इसे छोटी-मोटी घटना बताया था और वन मंत्री ठाकुर सिंह भरमौरी ने वनों का कटान होने या वन माफिया होने की बात से भी इनकार किया था। इस संबंध में इन हिमाचल ने जब आलोचना वाला आर्टिकल छापा था तो वन मंत्री की तरफ से लीगल नोटिस भी मिला था। मगर बुधवार को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश संजय करोल और न्यायाधीश संदीप शर्मा की खंडपीठ ने एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान होशियार सिंह की मौत और इससे जुड़े अवैध वन कटान से जुड़ी दोनों एफआईआर की जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपने के आदेश दिए।
होशियार सिंह का शव पेड़ पर उल्टा टंगा मिला था.
हाई कोर्ट ने सीबीआई को इस मामले की जांच के लिए एसआईटी का गठन करने के निर्देश दिए हैं। इसमें एसपी और डीएसपी रैंक के तीन अधिकारी शामिल करने को कहा गया है। अदालत ने प्रदेश सरकार को निर्देश दिए हैं कि वो मामले की जांच में सीबीआई की हर संभव सहायता करे। सीआईडी ने मामले में जो भी सबूत एकत्र किए हैं उन्हें सीबीआई को सौंपा जाए।
पुलिस की जांच पर उठे थे कई सवाल हाई कोर्ट ने जब मामले का संज्ञान लिया था तो मामले में नियुक्त न्याय मित्र पीएल मेहता ने एसआईटी और पुलिस की जांच पर तथ्यों के आधार पर कई सवाल लगाए थे। न्याय मित्र (Amicus Curiae) ने पुलिस और एसआईटी की जांच पर कई सवाल खड़े किए थे। उन्होंने कहा था कि पुलिस ने जांच में यह नहीं जोड़ा कि होशियार सिंह ने कथित तौर पर जो जहर खाया, वह आया कहां से। यह जांच नहीं की गई कि इसे किसने बेचा और किसने खरीदा।
जनता ने सीबीआई जांच की मांग को लेकर किया था प्रदर्शन
मौत के सही समय पर उठे थे सवाल न्याय मित्र ने सवाल किया था कि अगर 5 जून को सुबह करीब 9 बजे होशियार सिंह ने एक अध्यापक के घर दाल चावल और आलू-मटर खाए थे, तब 10 तारीख हो पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में भी होशियार के पेट में यही चीजें पाई गईं। चूंकि मेडिकल साइंस कहती है कि खाना आमतौर पर 4 से 6 घंटों में पच जाता है, मगर जहर खाने पर यह प्रक्रिया देरी से पूरी होती है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि होशियार की मौत का सही वक्त क्या है, क्योंकिं इससे मौत की असल वजह जानने में सहायता मिलेगी।
उल्टियों को लेकर भी प्रश्न एमिकस क्यूरी ने यह सवाल भी उठाया था कि घटनास्थल पर बारिश हुई थी या नहीं, इस बारे में भी पुलिस ने कोई जांच नहीं की क्योंकि इसका कथित तौर पर होशियार सिंह द्वारा की गई उल्टियों के धुलने से इसका सीधा रिश्ता हो सकता है।
मौत से कुछ महीने पहले ही लगी थी होशियार की जॉब
‘वन माफिया पर कार्रवाई नहीं हुई’ न्याय मित्र ने सवाल उठाया था कि वन माफिया पर कड़ी कार्रवाई नहीं हुई और न ही कोई बड़ी गिरफ्तारी हुई, जिससे की मौत की वजह पता चल सके। गौरतलब है कि होशियार सिंह की मौत के मामले में पुलिस की प्रारंभिक जांच में हत्या का मामला दर्ज किया गया था, मगर बाद में इसे यह कहते हुए आत्महत्या के मामले में तब्दील कर दिया गया था कि होशियार सिंह के सुसाइड नोट मिले हैं। मगर पुलिस यह बताने में नाकाम रही थी कि आखिर होशियार सिंह ने अगर जहर ही खाया था, तो उसका शव पेड़ पर ऊंचाई पर उल्टा कैसे लटका हुआ था। सवाल यह भी उठे थे कि इलाके में बारिश होने के बाद भी बैग में सुसाइड नोट गीले या खराब क्यों नहीं हुए थे।
सरकार कह रही थी, निष्पक्ष जांच हो रही है एमिकस क्यूरी ने मांग की थी कि हाईकोर्ट होशियार सिंह मौत मामले की जांच की निगरानी खुद करे। इस पर सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि मामले की निष्पक्ष जांच की जा रही है। सरकार ने यह भी कहा था कि अगर मामले की जांच पर कोई सवाल खड़े होते हैं तो किसी अन्य एजेंसी से जांच करवाने में उसे कोई आपत्ति नहीं होगी।
शिमला।। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पिछले कुछ समय से अजीब बयानों और अजीब व्यवहार के चलते चर्चा में हैं। मगर अब उनके ऊपर आरोप लगा है कि हिमाचल में टोपी के रंग के आधार पर राजनीति करने का। दरअसल अक्सर हरे रंग की बुशहरी (वास्तव में किन्नौरी) टोपी पहनने वाले मुख्यमंत्री को जब उनकी ही कैबिनेट के मंत्री ने सम्मान के लिए लाल रंग की टोपी पहनाना चाही, पहले तो मुख्यमंत्री ने कुछ पूछा, टोपी को उल्टा-पलटा और फिर पहनने से इनकार कर दिया। असहज हुए कौल सिंह ने टोपी को कम से कम स्वीकार करने की गुजारिश की तो वीरभद्र ने इसे लेकर दूसरी तरफ पटक दिया।
गौरतलब है कि मार्च 2017 में वीरभद्र सिंह ने बीजेपी पर टोपी की राजनीति करने का आरोप लगाते हुए कहा था- मैंने तो शपथ भी तीन बार लाल रंग की टोपी में ली है। उन्होंने कहा था कि सबको सब रंग की टोपियां पहननी चाहिए। मगर बुधवार को हर कोई यह देखकर हैरान था कि क्षेत्रवाद की राजनीति न करने की बात करने वाले मुख्यमंत्री ने आखिर क्यों लाल रंग की टोपी पहनने से इनकार कर दिया और फिर उसे क्यों पटक दिया। पीछे खड़े लोग और मंच पर ही मौजूद केंद्रीय मंत्री नड्डा भी यह देखकर मुस्कुराते हुए हैरान रह गए। यही नहीं, मुख्यमंत्री इसके बाद उखड़े से रहे और कार्यक्रम बीच में ही छोड़कर रवाना हो गए। पहले तो वह वीडियो देखें, जिसमें मुख्यमंत्री ने टोपी पहनने से इनकार किया।
मुख्यमंत्री का यह व्यवहार चर्चा का विषय बना हुआ है और इसकी आलोचना भी हो रही है। न्यूज 18 हिमाचल द्वारा डाले गए वीडियो को अब तक हज़ार से ज्यादा लोग शेयर कर चुके हैं। टिप्पणी करेक मुख्यमंत्री के इस व्यवहार को गलत भी बताया जा रहा है। हालांकि कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री ने टोपी के साइज या उसकी गुणवत्ता के कारण पहनने से इनकार किया है, मगर उसके जवाब में लोग कह रहे हैं कि सांकेतिक रूप से कुछ देर के लिए टोपी पहनकर उतारने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए थी।
बहरहाल, इस प्रोग्राम से जल्द निकल जाने पर मुख्यमंत्री ने कहा कि उन्हें सुबह ही इस कार्यक्रम का पता चला था। उन्होंने बताया कि पहले से ही कसुम्पटी और सिरमौर में कई कार्यक्रम पहले से प्रस्तावित हैं, इसलिए जल्दी निकलना पड़ रहा है।