मुख्यमंत्री के निजी सोशल मीडिया अकाउंट्स को सरकारी पैसे से क्यों चलाया जा रहा है?

वी.पी. शर्मा।। मई 2014 में जब मोदी के नेतृत्व में भगवा सैलाब आया तो दिल्ली के पूरे प्रशासनिक अमले की सूरत बदल गई। सरकारी दायरे के पुराने लोगों का यह पहला सत्ता परिवर्तन नहीं था, मगर बहुत से अधिकारी, कर्मचारी, सलाहकार और नीति निर्माताओं के लिए सरकार बदलाव लेकर आई।

 

इस बीच एक और ऐतिहासिक चीज़ हुई, जो पहले नहीं हुई थी। डिजिटल युग में भारत के प्रधानमंत्री सरकार की योजनाओं और उपलब्धियों वगैरह को ट्विटर और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से जनता के सामने रख रहे थे। भारत के इतिहास में पहली बार नई सरकार बनने पर सोशल मीडिया अकाउंट्स का भी हस्तांतरण होना था।

मगर बिना वजह के विवाद को टालते हुए आराम से ट्विटर अकाउंट और फेसबुक अकाउंट, क्रमश @PMOIndia और PMO India को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ट्रांसफर कर दिया गया।

सरकार के पैसे से चलने वाले आधिकारिक खातों को सरकार बदलने पर नए पदाधिकारी को ट्रांसफर किया जाता है, जैसे मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी के मामले में हुआ।

इससे अकाउंट तो ट्रांसफर हुए ही, नई और पुरानी सरकार के बीच फॉलोअर, ब्रैंड वैल्यू और नेटवर्क पावर भी ट्रांसफर हुई। इससे एक तरह से सरकारी पदाधिकारियों द्वारा चलाए जाने वाले अकाउंटों को लेकर एक अलिखित नियम बन गया। नियम यह कि सोशल मीडिया अकाउंट पद पर निर्भर करेंगे और उस पद पर नए आने वाले व्यक्ति के लिए ट्रांसफर होंगे।

 

इससे राजनेताओं या अधिकारियों के निजी सोशल मीडिया अकाउंट्स और उनके पद से जुड़े आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट्स का फर्क भी स्थापित हो गया। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी था ताकि टैक्स देने वालों के पैसे को अपने राजनीतिक अजेंडे के लिए इस्तेमाल न किया जा सके। यानी आधिकारिक अकाउँट्स को सिर्फ सरकार की नीति और जनता के बीच विभिन्न तरह की जागरूकता फैलाने को लेकर ही इस्तेमाल किया जा सकता है। जनता के टैक्स से आई रकम का सही इस्तेमाल करने के लिए ऐसा जरूरी भी है।

 

भारत समेत पूरी दुनिया में हम देखते हैं कि राजनेता सत्ता में आने पर भी अलग पर्सनल सोशल मीडिया अकाउंट रखते हैं (उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री मोदी का एक अकाउंट Narendra Modi नाम से है जबकि उनके कार्यालय का आधिकारिक अकाउंट PMO India के नाम से है)। सरकारी अकाउंट से अलग यह पर्सनल अकाउंट वह खुद अपने पैसे से चलाते हैं। भारत में कई सारे मुख्यमंत्री और मंत्री आज प्रधानमंत्री द्वारा  इसी लाइन पर चले हैं। वे अपने विभागों के ऑफिशल सोशल मीडिया अकाउंट के साथ-साथ अपना निजी सोशल मीडिया अकाउंट भी चला रहे हैं।

 

वैसे भी नैतिक, सैद्धांतिक और कानूनी बातों को ताक पर रखते हुए कुछ लोग चालाकी भी बरत रहे हैं। जब ज्यादातर नेताओं ने निजी और सरकारी सोशल मीडिया अकाउंट में भेद रखा है, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने ऐसा नहीं किया है। वीरभद्र और उनके दायरे के लोग पारदर्शिता के इन अलिखित सिद्धांतों की खिल्ली उड़ा रहे हैं। जनता के पैसे को वह अपने प्रमोशन और ब्रैंडिंग में इस्तेमाल कर रहे हैं।

सरकारी योजनाओं का प्रचार भी इसी पेज से हो रहा है और मुख्यमंत्री का विज्ञापन भी इसी पेज से हो रहा है।

पहाड़ी राज्य के मुखिया ट्विटर और फेसबुक पर “virbhadrasingh” और “Virbhadra Singh” नाम से हैं। दोनों मीडिया अकाउंट पिछले दिनों गलत वजह से चर्चा में रहे हैं। पिछले कुछ महीनों से ये तथाकथित ‘ऑफिशल’ अकाउंट, जो कि लगता है कि सोशल मीडिया एक्सपर्ट्स (पेज पर दी जाने वाले जानकारियों को देखकर अनाड़ी करना ज्यादा सही होगा) की एक टीम इसे मैनेज करती है और हर महीने सरकारी खजाने से सोशल मीडिया वालों को करीब ढाई लाख रुपये दिए जाते हैं।

 

जब इन लोगों जांच के अधीन चल रहे मामले के दौरान कुछ बेकसूर लोगों की तस्वीरें रेपिस्ट बताकर अपलोड कर दी थी, तब ये लोग चर्चा में आए थे। मगर लोगों की निजता के अधिकार का उल्लंघन करने के बावजूद मुख्यमंत्री या उनके पेज को संभावने वाोलं के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई, जबकि आईटी ऐक्ट के सेक्शन 66E के तहत ऐसा करने पर 3 साल की सजा हो सकती है। इससे पता चलता है कि जनता के टैक्स के पैसे से पेमेंट लेने वाले ये पेज मैनेजर कितने काबिल हैं और प्रदेश की पुलिस कितनी स्वतंत्र है।

 

वीरभद्र सिंह के प्रचार के लिए जनता का पैसा क्यों खर्च हो रहा है?
हैरत की बात यह है कि ट्विटर और फेसबुक पर वीरभद्र सिंह जिन दो अकाउँट्स को चलाते हैं, वे प्राइवेट अकाउंट हैं न कि सरकारी अकाउँट। अगर वे सरकारी अकाउंट होते तो उनका नाम ‘Chief Ministers Office Himachal Pradesh” और “CMOHP” होना चाहिए था। मगर सर्च करने पर ऐसे कोई अकाउंट नहीं मिलते। मुख्यमंत्री और उनके कार्यालय द्वारा जारी जानकारियां मुख्यमंत्री के मौजूदा प्राइवेट अकाउंट्स पर ही दी जाती है।

ऐसे में इस पेज को लेकर सैद्धांतिक रूप से सवाल इसलिए भी खड़े होते हैं क्योंकि सरकारी खजाने के पैसे को मुख्यमंत्री के निजी प्रचार अभियान में खर्च किया जा रहा है। इस ढांचे में कोई ऐसा पैमाना नहीं है जिसके आधार पर सरकार के आधिकारिक संदेशों और निजी राजनीति प्रचार के बीच फर्क किया जा सके।

 

अगर मौजूदा खातों का उद्देश्य सरकार के पैसे से वीरभद्र सिंह के व्यक्तित्व और उनके बेटे की मार्केटिंग करना है तो मुख्यमंत्री और उनकी टीम न सिर्फ नैतिकता को ताक पर रख रही है, बल्कि आईपीसी के सेक्शन 409 का उळ्लंघन भी कर रही है, जिसके तहत उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।

अगर सरकार के पैसे से इस पेज को चलाया जा रहा है तो मुख्यमंत्री के बेटे का प्रमोशन क्यों?

जो प्रदेश पहले से ही भारी-भरकम कर्ज में डूबा हुआ हो, वहां अनुभवी नेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे फिजूलखर्ची पर रोक लगाएं। मगर मुख्यमंत्री और उनके स्टाफ के सदस्य न जाने किस नशे में चूर होकर हिमाचलियों के पैसे पर डाका डालना चाह रहे हैं। पहले से ही खाली होने की कगार पर पहुंचे वित्तकोष से हर साल 30 लाख रुपये निजी विज्ञापन में खर्च करना नैतिकता में इतनी ज्यादा गिरावट है जो भोले-भाले पहाड़ियों ने शायद कभी न देखी हो।

राज्य सरकार के प्रति लोगों के खोए हुए भरोसे को फिर से हासिल करना बहुत मुश्किल काम होगा। शुरुआत ऐसे करनी होगी कि सीएम को यह स्वीकार करना चाहिए कि ये अकाउंट उनके निजी अकाउंट हैं। इसके बाद मुख्यमंत्री को वह सारी रकम सरकारी खजाने में जमा करवानी चाहिए, जो इन सोशल मीडिया अकाउंट्स पर खर्च हुई है। और यह रकम उन्हें अपनी कमाई से भरनी चाहिए।

(एक लॉ फर्म से जुड़े वी.पी. शर्मा विभिन्न समाचार पत्रों के लिए लेख लिखते हैं। उनके लेख राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक मुद्दों पर होते हैं।)

मूल लेख इंग्लिश में है, पढ़ने के क्लिक करें: Dear CM, Himachal Finances Are Not Your Personal Treasury

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