जानिए, क्यों मनाया जाता है सैर या सायर का पर्व और क्या है इसका महत्व

सैर (सायर) पर हार्दिक शुभकामनाएं। खुद जानिए, और शेयर करके दूसरों को भी बताइए कि क्यों मनाई जाती है सैर:

आदर्श राठौर।। आज हिमाचल प्रदेश के मंडी, कांगड़ा, बिलासपुर जिलों समेत हिमाचस प्रदेश के कई इलाकों में ‘सैर’ या ‘सायर’ मनाई जा रही है। यह पर्व हर साल सितंबर महीने में मनाया जाता है। इस दिन सुबह-सुबह ताजा फसल के आटे से रोट बनाए जाते हैं, साथ ही देवताओं को नई फसलों और फलों वगैरह का भोग लगाया जाता है।

 

पहले इस दिन अखरोट (walnut) से निशाना लगाने वाला खेल भी खेला करते थे। कुछ गांवों में यह परंपरा बची हुई है। इसमें खिलाड़ी जमीन पर बिखरे अखरोटों को दूर से निशाना लगाते हैं। अगर निशाना सही लगे तो अखरोट निशाना लगाने वाले के होते हैं। इस तरह यह खेल बच्चों, बूढ़े और नौजवानों में खासा लोकप्रिय है।

अखरोट सिर्फ बांटे ही नहीं जाते, इनका खेल भी खेला जाता है।

इसी दिन रक्षाबंधन के दिन पहनी गई राखी को भी उतारा जाता है। अखरोट सिर्फ बांटे ही नहीं जाते, इनका खेल भी खेला जाता है। अखरोट सिर्फ बांटे ही नहीं जाते, इनका खेल भी खेला जाता है। मान्यताओं के आधार पर देखें तो आज भादो (भाद्रपद) महीने का भी अंत होता है। भादो के दौरान देवी-देवता बुरी शक्तियों से युद्ध लड़ने देवालयों से चले जाते हैं और सायर वाले दिन लौटते हैं। इस दिन कई ग्रामीण क्षेत्रों के देवालयों में देवी-देवता के गुर खेल के माध्यम से लोगों को देवताओं और बुरी शक्तियों के बीच हुए युद्ध का हाल भी बताते हैं।

 

वैसे इस त्योहार को मनाए जाने की भी अपनी वजह है। देखा जाए तो यह बरसात का आखिरी दौर है। कई साल पहले भारी बारिश की वजह से लोगों को तरह-तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता था। बरसात में कई संक्रामक बीमारियां फैल जाया करती थीं, जिससे कई लोगों को इलाज न मिल पाने की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ती थी। कई बार भारी बारिश, बाढ़, बिजलनी गिरने से भी तबाही होती थी। न सिर्फ जान-मान का भारी नुकसान होता था, बल्कि फसलें भी तबाह हो जाया करती थीं। ऐसे में अगर सब कुछ सही से निपटे, तो बरसात के खत्म होने पर लोग ईश्वर का शुक्रिया अदा करते थे कि कोई अनहोनी नहीं हुई। देवताओं को नई फसल जैसे कि धान की बाली, भुट्टा (गुल्लु), खट्टा (सिट्रस), ककड़ी वगैरह का भोग लगाया जाता था। आज भी यह परंपरा जारी है।

तस्वीर साभार: संजीव ठाकुर

साथ ही लोग बारिश की वजह से पहले कहीं जा नहीं पाते थे, ऐसे में इस दिन वे अपने संगे-संबंधियों से मुलाकात करने घर से निकलते थे। इस तरह से सैर पर निकलने की वजह से ही इसे सैर कहा जाना लगा, जो कुछ इलाकों में अपभ्रंस होकर सायर हो गया। संबंधियों और बड़े-बुजुर्गों से मिलने जाने की परंपरा को द्रुब देना कहा जाता है। इस दौरान द्रुब (दूब) देकर बड़ों का आशीर्वाद लिया जाता है। द्रुब देने वाला व्यक्ति अपने हाथ में पांच या सात अखरोट और दूब लेता है। इन्हें बुजुर्गों के हाथ में देकर उनके पांव छूए जाते हैं और बुजुर्ग भी दूब अपने कान में लगाकर आशीर्वाद देते हैं। अगर कोई सायर के पर्व पर बड़े बुजुर्गों को द्रुब न दे तो इसका बुरा माना जाता है। यहां तक कि छोटे-मोटे मन मुटाव भी द्रुब देने से मिट जाते हैं। तो आपको भी सैर मुबारक हो। आने वाला साल आपके लिए संपन्नता और अच्छा स्वास्थ्य लाए।

(लेखक मूलत: मंडी जिले के जोगिंदर नगर से हैं और दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप में वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से आभार सहित लिया गया है।)

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