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Sunday, September 14, 2025
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मुख्यमंत्री वीरभद्र और प्रधानमंत्री मोदी बताएं, कब थमेंगे हिमाचल में हादसे

  • आदर्श राठौर।।

हिमाचल प्रदेश में लगातार हो रहे हादसों की खबरें बेचैन कर रह रही हैं। हम में से बहुत से लोगों के लिए ये खबरें सिर्फ खबरें हैं और मरने वालों की संख्या महज आंकड़ा। हम तो शोक जताते हैं कि 12 मर गए या 2 मर गए। मगर जिनका एक भी मरा, उस परिवार का हाल देखकर सोचिए। या उस बंदे के बारे में ही सोचकर देखिए, जो मौत के मुंह में समा गया। हम सभी के कई सपने हैं। हम सभी कल के बारे में या एक महीने बाद के बारे में सोचते हैं कि ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे। मगर बेमौत मारे जाएं तो सोचिए कितना बुरा होगा। हमारे सपने धरे के धरे रह जाएंगे। हमारे बाद हमारे प्रियजनों की जो बुरी हालत होगी, सो अलग।

सवाल उठता है कि हादसे हो क्यों रहे हैं? मैंने इस बारे में कई शोध और लेख पढ़े। मैंने हादसों वाली कुछ जगहों पर जाकर देखा, वहां की तस्वीरें देखीं और अखबारों में घायलों के बयान पढ़े, प्रत्यक्षदर्शियों के बयान टीवी पर देखे। मैंने पाया कि हादसों के लिए मानवीय गलतियां तो जिम्मेदार थी हीं, मगर सबसे ज्यादा दोषी हैं यहां की सड़कें। मैदानी इलाकों में अगर मानवीय भूल से हर गाड़ियों का संतुलन बिगड़े तो नुकसान इतना नहीं होता। आसपास के खाली या खेत वाले इलाकों में गाड़ियां चली जाती हैं औऱ कैज़ुअल्टी उतनी नहीं होती। मगर पहाड़ों में तो बचने का सीन ही नहीं होता।आप जानते हैं कि पहाड़ों की सड़कें वैसे ही खतरनाक होती हैं। एक तरफ पहाड़ी होती है तो दूसरी तरफ खाई होती है। ऐसे में जरा सी भी लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है। पहाड़ी से टकराए तो भी हादसा, खाई में गिरे तब भी काम तमाम।

मगर इन सड़कों की स्थिति भी ऐसा नहीं है, जैसी कि पहाड़ी राज्यों की सड़कों की होनी चाहिए। यहां जरूरी है कि वैली साइड में नाली खुदी हो, ताकि बारिश का पानी सड़क से होकर न बहे और भूस्खलन की वजह न बने। साथ ही घाटी की तरफ रिफ्लेक्टर, क्रैश बैरियर और पैरापिट लगे होने चाहिए। पहले सड़क किनारे सीमेंट के पैरापिट बनाए जाते थे या फिर तारकोल के खाली ड्रम लगा दिए जाते थे। ये ज्यादा रोक तो नहीं लगाते, मगर फिर भी पता चल जाता था कि सड़क कहां खत्म हो रही है। अब क्रैश बैरियर्स लगाए जा रहे हैं, ताकि गाड़ियां टकराएं तो उनकी वेलॉसिटी को सोख सकें और नीचे गिरने से रोक सकें। कम रफ्तार पर चल रहीं छोटी गाड़ियों को तो ये बैरियर रोक सकते हैं, मगर तेजी से चल रही बस को ये क्रैश बैरियर क्या, बड़ी दीवार भी नहीं बचा सकती।

मैंने पाया कि ज्यादातर हादसे ऐसी जगहों पर हुए, जहां पर सड़क अचानक तंग (संकरी) हो गई थी और वहां पर कोई भी रिफ्लेक्टर या चूने का पत्थर यह बताने के लिए नहीं लगा था कि आगे सड़क कहां खत्म हो रही है या उसकी चौड़ाई कितनी है। यहीं पर मानवीय भूलें खतरनाक साबित हुईं। यही नहीं, सड़कें बनी भी ढंग से नहीं हैं। नियम कहता है कि सड़कों की प्रॉपर बैंकिंग होनी चाहिए। यानी लेफ्ट साइड का तीखा मोड़ हो सड़क राइड साइड से ऊंची और लेफ्ट साइड से नीची होनी चाहिए। राइट साइड के मोड़ में ठीक इसका उल्टा होना चाहिए। मगर बैंकिंग का तो मानो कॉन्सेप्ट ही पता नहीं है हमारे इंजिनियर्स को। यही वजह होती है कि गलत बैंकिंग या बैंकिंग न होने की वजह से सेंट्रीफ्यूगल फोर्स काम करती है और गाड़ियां स्किड होकर हादसों का शिकार हो जाती हैं।

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इसके अलावा अगर सड़क टूटी-फूटी या कच्ची हो तो स्किड होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं, क्योंकि लूज़ रोड़ी फ्रिक्शन (घर्षण) को कम करती है। इसी वजह से आपने देखा होगा कि बाइक वगैरह रेत पर मोड़ वगैरह में फिसल जाया करती है। बसें नई हों या पुरानी, बड़ी हो या छोटी, महंगी हो या सस्ती, बाइक हो या कार… अगर सड़कों की हालत की ठीक नहीं होगी, तो हादसे होने की आशंका बढ़ जाती है। सड़कों को पक्का करने में इतना घटिया मटीरियल यूज होता है कि उस साल की बरसात के बाद हालत वैसी ही हो जाती है। ऊपर से ठेकेदारों से जवाबदेही भी नहीं ली जाती, जबकि उनकी जिम्मेदारी रख-रखाव की भी बनती है।

मैं पूरी ईमानदारी से साथ कहना चाहता हूं कि मैंने हिमाचल के जितने भी रोड देखे, उनमें से 80 फीसदी की हालत बेहद बुरी है। आप भी अपने दिल पर हाथ रखकर अपने इलाके की सड़कों को जरा याद कीजिए। मेरा दावा है कि ज्यादातर सड़कों की हालत खस्ता ही मिलेगी। इन सड़कों की बदहाली के लिए कौन जिम्मेदार है? वही लोग, जिनके कंधों पर इसकी जिम्मेदारी होती है। सड़कों का रख-रखाव किसके जिम्मे होता है? यह जिम्मेदारी होती है लोक निर्माण विभाग यानी PWD के पास, जो हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने अपने पास रखा है।

पिछले दिनों किसी नेता ने सड़कों की इस खस्ताहाली के लिए मुख्यमंत्री को दोष दिया तो उन्होंने कहा- ऐसी बातें करने वालों को पता नहीं है कि सड़कें कई तरह की होती हैं। कुछ राज्य के अधीन होती हैं तो कुछ केंद्र के। वह किन सड़कों की बात कर रहे हैं। मुख्यमंत्री भूल गए कि नैशनल हाइवे हों या स्टेट हाइवे, सबकी हालत खस्ता है। वह भूल गए कि सभी सड़कों की खस्ताहाली का जिम्मा केंद्र पर छोड़ने से बात नहीं बनेगी। सड़कों की मेनटेनेंस का जिम्मा भी उनके ही महकमे के पास होता है। और ऐसा नहीं है कि सिर्फ NH की खस्ताहाल हैं, अन्य सड़कों की दुर्दशा भी किसी से छिपी नहीं है। किन्नौर, चंबा और ठियोग में हुए हादसे किसी एनएच पर नहीं हुए।

अगर इन हादसों के लिए मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को न पूछा जाए तो और किसे पूछा जाए? वही तो मंत्री हैं। याद हो कि पिछली बीजेपी की सरकार के दौरान यह महकमा बीजेपी के प्रदेश के दूसरे नंबर के नेता गुलाब सिंह ठाकुर के पास था। यह इतना अहम विभाग है कि एक सीनियर नेता को दिया गया था। मगर न जाने क्यों मुख्यमंत्री ने यह अहम विभाग अपने पास रखा है। तरह-तरह के कामों में व्यस्त रहने वाले मुख्यमंत्री इन महकमों के लिए कितना वक्त निकाल पाते होंगे, आप अंदाजा लगा सकते हैं। तो इसके लिए उन्होंने मुख्य संसदीय सचिव की जिम्मेदार विनय कुमार को दी है। मगर मैंने इन हादसों पर विनय कुमार के बयान पढ़े तो वे भी टाल-मटोल के सिवा कुछ नहीं लगे।

प्रदेश की अधिकतर सड़कों की हालत की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और विनय कुमार दोनों की बनती है। उन्हें यह भी ख्याल रखना चाहिए कि राज्य सरकार की जिम्मेदारी के तहत आने वाली सड़कों की संख्या केंद्र की योजनाओं से बनीं सड़कों के मुकाबले ज्यादा है। इसलिए यह उनका फर्ज है कि कम से कम राज्य सरकार के अंडर आने वालीं सड़कें तो दुरुस्त हों। मगर नहीं, मुख्यमंत्री फंड न होने की दुहाई देते रहते हैं। अगर फंड नहीं है तो हर जगह फालतू में घोषणाएं करने के लिए कहां से फंड आ रहा है?


जो महकमे मुख्यमंत्री ने अपने पास रखे हों, सीधे तौर पर उनके लिए वह खुद उत्तरदायी हैं। ध्यान दिला दें कि एजुकेशन विभाग भी सीएम ने अपने पास रखा है और इसकी जिम्मेदारी सीपीएस नीरज भारती को दी है। ऐसी-ऐसी जगहों पर कॉलेज खोले जा रहे हैं, जहां पर आसपास के सरकारी कॉलेज खाली पड़े हुए हैं। ऐसी-ऐसी जगहों पर स्कूल खोले जा रहे हैं, जहां के आसपास के स्कूलों में न बच्चे हैं न अध्यापक। ऐसा नहीं कि मौजूदा स्कूल-कॉलेजों को ही अपग्रेड कर दिया जाए, ताकि बच्चों को एक ही जगह पर क्वॉलिटी एजुकेशन मिले। मगर ऐसी विज़नहीन घोषणाओं के लिए फंड है, मगर प्रदेश की उन जीवन-रेखाओं को सुधारने के लिए पैसा नहीं है, जो काल का सबब बन गई हैं।

पढ़ें: जानें, कैसे हुआ सरकारी स्कूलों का बंटाधार, कैसे होगा हालत में सुधार

मुझे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह भाषण याद आ रहा है, जो उन्होंने मंडी और सुजानपुर में दिया था। चुनाव से पहले उन्होंने हिमाचल की दुखती हुई रग को पकड़ा था और कहा था कि हादसों से होने वाली मौतें मुझे झकझोर देती हैं। कोई ऐसा सिस्टम होना चाहिए कि ये हादसे कम हों। उम्मीद थी कि मोदी यहां के लिए वैकल्पिक परिवहन व्यवस्था का इंतजाम करेंगे, मगर ऐसा अब तक कुछ होता नहीं दिख रहा। (विडियो देखने के लिए नीचे विडियो में 24 मिनट 54 सेकंड में जाएं या यहां क्लिक करें।)

पहले से मौजूद ट्रेन रूट्स को आगे बढ़ाने के लिए सर्वे के लिए बजट तो जारी किए जा रहे हैं, मगर काम युद्ध स्तर पर नहीं हो रहा। यह भी गारंटी नहीं है कि सर्वे की रिपोर्ट अच्छी आए और रेलवे लाइन बिचाने का काम शुरू हो जाए। मगर प्रदेश के सांसदों को मोदी से मिलकर वह भाषण याद दिलाना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि बात बजट या फिजिबिलटी की नहीं, लोगों की सुरक्षा और सुविधा की है। उन्होंने कहा था कि टूरिज़म के लिए रेलवे का विकास करना है। उन्हें अपनी बात पर कायम रहना चाहिए। यह सही है कि पूरे प्रदेश को रेल से नहीं जोड़ा जा सकता। मगर अहम स्टेशनों को तो जोड़ा ही जा सकता है। इस दिशा में एक पहल तो की ही जा सकती है। बाकी सड़कों पर तो राज्य और केंद्र, दोनों को ही ध्यान देना होगा। इसके बिना कुछ नहीं हो पाएगा।

क्रैश बैरियर।

दुख की बात यह है कि हादसों पर हादसे होते रहते हैं, एफआईआर होती है और ‘चालक की लापरवाही’ का मामला बनाकर फाइल क्लोज़ कर दी जाती है। मगर वह लापरवाही किस तरह से जानलेवा बन गई, इस पर कभी बात नहीं होती। जब बात ही नहीं होगी, कोई गलती ही नहीं पकड़ी जाएगी तो उसका सुधार कैसे होगा? हादसों के बाद होश में आकर कोई ठोस नीति अपनाई जानी चाहिए थी, मगर सरकार ने एक ही नीति पर चलने की ठानी हुई है। वह नीती है- मुआवजा नीति। मृतकों के परिजनों और घायलों को मुआवजा और आगे बढ़ो। मानो रिश्वत दी जा रही हो कि भैया, हो गया जो होना है, अब शोर मत मचाना। मेरी गुजारिश है मुख्यमंत्री से कि किसी सीनियर मंत्री को PWD दें या फिर खुद पूरा ध्यान इस पर फोकस करें। सभी सड़कों का एक्सपर्ट्स द्वारा मुआयना करवाया जाए और जहां जरूरी हो, वहां पर सुधार किए जाएं। जहां पर मोड़ों को चौड़ा करना है, वहां चौड़े किए जाएं। जहां पर बैंकिंग नहीं है, वहां बैकिंग करवाई जाए। जहां रिफ्लेक्टर और डिवाइडर नहीं हैं, वहां इनका इंतजाम किया जाए। जहां क्रैश बैरियर्स की जरूरत है, वहां क्रैश बैरियर्स लगाए जाएं। यह काम युद्ध स्तर पर होना चाहिए।

साथ ही प्रदेश के परिवहन मंत्री से भी अपील है कि बसों की स्पीड लिमिट तय की जाए। इनमें उसी तरह से स्पीड गवर्नर लगाए जाएं, जैसे स्कूल बसों में होते हैं ताकि चालक चाहकर भी एक लिमिट से ज्यादा स्पीड में बस न चला पाएं। यह सरकारी बसों ही नहीं, निजी बसों और अन्य भारी वाहनों में भी जरूरी किया जाना चाहिए। इस बारे में नीति बना दी जानी चाहिए। साथ ही सरकारी वाहनों के चालकों की प्रॉपर ट्रेनिंग होनी चाहिए और ओवरस्पीडिंग करने वालों को तुरंत सस्पेंड कर दिया जाना चाहिए। प्राइवेट वाहन चालकों के लिए भी ट्रेनिंग का इंतजाम होना चाहिए और नियम तोड़ने पर उनके लाइसेंस को जब्त करने का प्रावधान करना होगा। पुलिस को इसके लिए सहयोग करना होगा और युद्ध स्तर पर तब तक जुटे रहना होगा, जब तक लोग रोड सेफ्टी को आदत में शुमार न कर दें। मेरे दिमाग में तो इस वक्त यही सुझाव आ रहे हैं और ज्यादा मैं सोच भी नहीं पा रहा। मन में गुस्से और दुख के मिले-जुले भाव हैं। इसी मनोस्थिति  में लिखकर इन हिमाचल को भेज रहा हूं ताकि पाठक शायद और भी अच्छे सुझाव दे दें।

your Profile Photo(लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं और कई टीवी चैनलों में काम करने के बाद इन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के वेब संस्करण सेवाएं दे रहे हैं। मूलत: हिमाचल प्रदेश के जोगिंदर नगर से ताल्लुक रखते हैं और प्रदेश से जुड़े विषयों पर लिखते रहते हैं। उनसे aadarshrathore@gmail.com के जरिए संपर्क किया जा सकता है।)

हॉरर एनकाउंटर: मम्मी-पापा को बोलना बेलीराम मिला था…

गांव को आखिरी बस शाम को करीब साढ़े 6 बजे जाती थी। घर तक का सफर करीब डेढ़ घंटे का था। दिसंबर का महीना, सर्दी की शाम, पहाड़ों में अंधेरा 5 बजे ही हो जाता है। मैं दिल्ली से शिमला लौटा था सोचा यहां क्या रुकना बातल (मेरा गांव) ही चला जाता हूं। पापा-मम्मी ज्यादातर गांव में ही रहते हैं, तो उनसे भी मिलना हो जाएगा। सो पकड़ ली आखिरी बस। ड्राइवर, कंडक्टर और कुल दस-पंद्रह लोग रहे होंगे बस में सभी हिंदी बोल रहे थे, पर उनके बोलने में पहाड़ीपन झलक रहा था। जुल्मी संग आंख लड़ी- ये गाना बज रहा था बस में। ऊंचे-नीचे रास्तों पर बलखाती इठलाती बस चली जा रही थी। पहाड़ों पर यहां-वहां सब तरफ घरों की रौशनी टिमटिमा रही थी।

कहां दिल्ली की चकाचौंध शोरशराबा और कहां पहाड़ों पर सन्नाटे को चीरती सिर्फ बस की आवाज और वो गाना। सबकुछ बहुत अच्छा लग रहा था। अचानक बस रुकी, कंडक्टर बोला अर्की आ गया, गड्डी यहां 20 मिनट रुकेगी। हम खाना खाएंगे। रात को खाना गांव में कहां मिलेगा, सो ड्राइवर और कंडक्टर खाना यहीं खा लेते हैं।

Kibber Village

दरअसल, अर्की….हमारे गांव की तहसील है। एक छोटा सा टाउन है। ये बस रात को मेरे गांव में रुक जाती है। सुबह लोगों को लेकर शिमला आ जाती है। जो लोग शिमला में नौकरी करते हैं, यहां पढ़ते हैं उन्हें लेकर आती है। अर्की से बस को आधा घंटा लगता है गांव पहुंचने में …पैदल बातल जाना हो तो भी उतना ही समय लगता है। मैंने सोचा यहां इंतजार क्या करना, पैदल ही चले चलता हूं।

अपना बैग उठाया और चल निकला। घरों की रौशनी जब तक बस्ती थी, उसने रास्ता दिखाया फिर काला स्‍याह अंधेरा मेरा रास्ता रोके खड़ा था। मैंने टॉर्च निकाल ली। सर्द पहाड़ों की रात हो और अगर कोई कहे कि मुझे डर नहीं नहीं लगता, तो यकीन जानिये वो झूठ कहता है। मैं भी डरा-डरा सा बढ़ता चला जा रहा था कि अचानक किसी के खांसने की आवाज आई। इससे पहले कि कुछ सोचता, देखा एक बूढ़ा आदमी मेरे साथ चलने लगा था। ताज्जुब तब हुआ जब उसने मुझे मेरे नाम से पुकारा। हैरानी हुई कि मुझे कैसे जानता है। फिर उसने मेरी बहन की मौत पर अफसोस भी जताया। मम्मी- पापा भाई सभी को तो जानता था। पत्नी के बारे में भी पूछ रहा था और बेटी को आशीर्वाद भी दे रहा था।

छोटा कद, उम्र रही होगी कोई सत्तर- पचहत्तर साल। बोल कम रहा था खांसता ज्यादा था। खैर, एक से दो भले उसके आने से मेरा डर जरूर कम हो गया था। घना जंगल का रास्ता और ढलान। जब ढलान खत्म हुई तो चड़ाई शुरू हो गई। फिर गांव की सीमा भी आ गई। वहां एक प्राइमरी स्कूल है, उसमें एक छोटा सा एक ग्राउंड भी है। बचपन की कई यादें जुड़ी हैं, इस स्कूल से सर्दी की छुट्टियों में गांव के बच्चों के साथ खूब क्रिकेट खेला करता था।

Kibber Village 4 sanjay dhiman ki fb wall se

हांफता हुआ वो बूढ़ा बोला, बेटा मेरे गांव का रास्ता तो इधर से है, मम्मी- पापा को बोलना बेलीराम मिला था। नमस्ते कह रहा था। ये कहकर वो चला गया। मैं मन ही मन उस बूढ़े का शुक्रिया अदा करता हुआ अपने गांव में दाखिल हो चुका था। भई आखिर उसकी वजह से कम से कम डर तो नहीं लगा रास्ते में। घर पहुंच कर अपना सामान रखा… मम्मी- पापा से मिला फिर सोचा फारिग हो लेता हूं।

अब तक भूख भी लग आई थी सो रसोई में आ गया। पहाड़ों में गांव की रसोई काफी बड़ी होती है और थोड़ा अलग होती है। एक तरफ खाना बनता है चूल्हे पर दूसरी तरफ बैठकर खाना खाया जाता है। दिनभर की बातें भी वहीं पर हो जाती हैं। मां ने खाने की थाली दी। पानी का गिलास पकड़ाने लगी तो मैंने कहा मां… बेलीराम मिला था। मां के हाथ से पानी का गिलास छूट गया। बोली उसे तो मरे हुए एक साल हो गया। पलभर को सांस रुक गई मेरी।

कौन था वो जिसके साथ मैं चलता रहा, वो असल में था भी या नहीं। भूत था, आत्मा थी या फिर और कोई। जब अकेला रास्ता पर डर रहा था मैं तो वो मेरा हमसफर बना और मुझे मेरी मंजिल तक पहुंचा कर चला गया। आज भी सोचता हूं ..तो उसका झुर्रियों वाला चेहरा दिखने लगता है। हालांकि गांव वाले ऐसा मानते हैं कि अच्छी आत्माएं होती हैं और आपको नुकसान नहीं पहंचाती। आत्मा होती है या नहीं होती… नहीं मालूम। पर वो था… जरूर था….।

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(आईबीएन 7 में काम करने वाले ऐंकर पंकज भार्गव ने अपने ब्लॉग में यह आपबीती शेयर की है। ऐसा वाकई हुआ था उनके साथ या नहीं, यह तो वही जानते हैं। भले ही यह फिक्शन हो, मगर हिमाचल प्रदेश में कई लोग भूत-प्रेत के किस्से बड़े चाव से सुनते-सुनाते हैं। तो पढ़िए इस अनुभव को और नीचे कॉमेंट करके बताएं कि यह कहानी आपको सच्ची लगी या फिर झूठी। आप भी inhimachal.in@gmail.com पर अपने साथ घटा कोई हॉरर वाकया भेज सकते हैं।)

नोट: यह कॉन्टेंट IBN खबर से आभार सहित लिया गया है। मूल आर्टिकल पर जाने के लिए यहां क्लिक करें।

क्यों हिमाचल अभी वहां नहीं पहुंच पाया, जहां उसे काफी पहले पहुंच जाना चाहिए था?

आई.एस. ठाकुर

वर्षोंपहले रोजगार के सिलसिले में पहले मुंबई जाना हुआ, फिर बेंगलुरु और बाद में लंदन होते हुए कई वर्षों से डबलिन में रह रहा हूं। आयरलैंड बेहद खूबसूरत देश है। कुछ इलाके यहां के ऐसे हैं जो सीधे हिमाचल की याद दिलाते हैं।

आयरलैंड के वॉटरफर्ड की यह तस्वीर कांगड़ा की याद दिलाती है।

मैं सोचता हूं कई बार क्यों नहीं हिमाचल ऐसा हो जाता। अपने प्रदेश में कोई बुराई नहीं है, मगर यहां से तुलना करने पर लगता है कि जिस चीज़ का हकदार हिमाचल है, वह उसे नहीं मिल पा रहा। हिमाचल प्राकृतिक सौंन्दर्य और संसाधनों से संपन्न है। यहां के लोग भी मेहनती हैं और जलवायु भी उत्तम है। फिर क्यों यह उतनी तरक्की नहीं कर पाया, जितनी तरक्की यह कर सकता था?

जड़ों से दूर यहां पराए मुल्क में बैठकर भी मैं प्रदेश की खबरों पर नजर रखता हूं। ऑनलाइन अखबार ही हैं, जिनसे पता चलता है कि जन्मभूमि में क्या हो रहा है। मैं महसूस करता हूं कि हमारा छोटा सा प्रदेश दो वजहों से अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पा रहा। पहला- यहां के लोग संतोषी स्वभाव के हैं, दूसरा- यहां हल्की राजनीति होती है।

पहले पॉइंट पर बात करता हूं। हिमाचल के लोग संतोषी स्वभाव के होते हैं यानी वे कम में भी संतुष्ट हो जाते हैं। जो ज्यादा चाहेगा नहीं, वह ज्यादा करेगा नहीं। जो कम में संतुष्ट हो जाएगा, वह अधिक की चाह रखेगा ही नहीं। यही संतोषवादी प्रवृति हिमाचल प्रदेश के लोगों को थोड़ा सुस्त बनाती है। वे अपने दायरे से बाहर निकलकर कुछ करना नहीं चाहते। मैं भी अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर नहीं निकलना चाहता था। चाहत थी कि प्रदेश में ही कोई नौकरी मिल जाए तो मौज हो जाए। कई वर्षों से बाहर हूं, मगर आज भी हिमाचल को नहीं भुला पाया और न ही इस पराई जगह को अपना पाया हूं। मेरे कई दोस्त और रिश्तेदार हैं, जिनमें मैं यही भावना देखता हूं।

हिमाचलियों को चाहिए कि वे कंफर्ट जोन से बाहर निकलें, बड़ा सोचें, बड़े की चाहत रखें और रिस्क लेने की हिम्मत उठाएं। वे काबिल हैं, सक्षम हैं और मेहनती भी हैं। जिस भी क्षेत्र में जाएंगे, छा जाएंगे। प्रदेश के बाहर भी दुनिया है और मौकों की असीम संभावनाएं हैं।

दूसरी बात है- छिछले मुद्दों की राजनीति। यह तथ्य सबके सामने है कि हिमाचल की राजनीति बेहत छिछली और ओछी हो चुकी है। न कोई नीतियों की बात करता है और न ही जनता से जुड़े मुद्दों की। दो ही मुद्दे प्रदेश की राजनीति पर हावी हैं- वीरभद्र के सेब और अनुराग का स्टेडियम। बीजेपी और कांग्रेस की राजनीति इन्हीं मुद्दों पर के इर्द-गिर्द घूम रही। एक नेता धमकी देता है तो दूसरा आरोप लगा देता है। एक ऐसा कहता है तो दूसरा वैसा कह देता है। ऐसा लगता है कि धूमल और वीरभद्र की आपसी लड़ाई ही प्रदेश का मुद्दा है। मुझे एक बात समझ नहीं आती कि इन दोनों बातों का जनता के हित से क्या लेना-देना?

जनता को दोनों की लड़ाई से क्या फायदा?

अगर लेना-देना है भी तो इतना कि अगर दोनों नेताओं ने कोई गलत काम किए हैं, जनता का हक मारा है, भ्रष्टाचार किया है तो दोषी के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। मगर इन दोनों की आपसी खुन्नस और हर जगह पर एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना दिल को कष्ट देता है। शायद इनकी रणनीति ही यही है कि फालतू में जनता को उलझाए रखो, असल मुद्दों की कोई बात ही नहीं करेगा।

ऑनलाइन खबरों से पता चलता है कि प्रदेश में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।  इन दिशाओं में काम होना चाहिए और इसी से प्रदेश का भला होगा। साथ ही हिमाचल प्रदेश की जनता को भी चाहिए कि इस तरह बेवकूफ बनाकर हवाई बातें करने वाले पुराने दौर के नेताओं को खारिज करें। कोई ऐसा नेता देखें, जिसके पास विज़न हो। दलगल राजनीति से ऊपर उठकर ऐसे नेताओं को समर्थन और वोट दिए जाएं, जो प्रदेश को सही दिशा दें।

(लेखक आयरलैंड में रहते हैं और ‘इन हिमाचल’ के नियमित स्तंभकार हैं। उनसे kalamkasipahi@gmail.com से संपर्क किया जा सकता है।)

जानें, कैसे हुआ सरकारी स्कूलों का बंटाधार, कैसे होगा हालत में सुधार

  • आशीष नड्डा

बोर्ड एग्जाम के रिजल्ट आ रहे थे। मेरिट लिस्ट में एक एक ट्रेंड मैंने नोटिस किया की बच्चे अब शायद ज्यादा प्रतिभाशाली होते जा रहे हैं। यह बात मैं मेरिट होल्डर्स द्वारा अर्जित पर्सेंटेज मार्क्स के बेस पर कह रहा हूं। एक दशक पहले जब मैं स्कूल से निकला था, उस दौरान मेरिट 85-90 पर्सेंटेज के बीच रहती थी। जो अब 95 से ऊपर या यूं कहें कि लगभग 100 परसेंट को छूने लगी है। इसके क्या कारण हैं, इन पर मैं नहीं जाता। इसका श्रेय मैं बच्चों को ही देना बेहतर समझता हूँ। परन्तु जिस चीज ने मेरा ध्यान ज्यादा अपनी और खींचा और मुझे व्यथित किया वो यह थी कि 10वीं और 12वीं दोनों बार्ड के रिजल्ट में सरकारी स्कूलों की भागीदारी नगण्य थी। वर्षों तक एक सरकारी स्कूल का छात्र होने के नाते मैं सरकारी स्कूलों की इस दुर्दशा को आमतौर पर अन्य लोगों की तरह मैं अध्यापकों के सर पर नहीं मढ़ सकता बल्कि इस चिंतन में हमेशा रहा हूं कि आखिर सरकारी स्कूल क्यों पिछड़े? यही अध्यापक तो आज भी हैं, जो इन्हे दशकों तक सिरमौर बनाए हुए थे। फिर किन कारणों से यह मेरिट लिस्ट की दौड़ से बाहर हुए। क्या सिर्फ शिक्षा व्यवस्था का एकमात्र स्तम्भ सिर्फ शिक्षक ही है?

हम लोग मिलकर चर्चा आरम्भ करेंगे तो हो सकता है इस दिशा में कुछ बेहतर निकल कर आये। क्योंकि cause and effect रिलेशन पर अगर माथापच्ची की जाए तो समस्या का समाधान ( solution ) निकल सकता है। अगर हम सिर्फ किसी एक पैरामीटर यानि सिर्फ कॉज या सिर्फ इफ़ेक्ट को पकड़ कर गला फाड़ते रहें तो सिवाय नकारात्मकता के कुछ भी हाथ नहीं आएगा। इसलिए उपरोक्त फिलॉसफी को ध्यान में रखते हुए अपने लेख के माध्यम से मैं अपने अनुभव के आधार पर सरकारी स्कूलों के पिछडने के हर कारण की व्यवख्या करना चाहूंगा और इन कारणों से उत्पन्न इफेक्ट पर रौशनी डालूंगा। साथ ही इसमें क्या सुधार किया जा सकता है, उस पर भी अपने विचार रखूंगा।

सोशल मीडिया पर लोगों के तर्कों के आधार पर सरकारी स्कूलों के बिगड़ते स्तर से सबंधित विभिन्न कारण मैंने इक्कठे किए हैं। इनमे से बहुत से वही कारण है जो मैं भी अपने व्यक्तिगत अनुभव से फील करता हूँ। साक्षी ठाकुर ने इसका कारण इनकम लेवल को भी बताया है , वहीं तन्वी गुप्ता का कहना है की ग्रेडिंग सिस्टम से पढ़ाई पर असर पड़ा है। फेल न होने के डर से क्वॉलिटी डाउन हुई है। वहीं ऋषि संन्यासी का मानना है की अब यह देखादेखी का चलन भी बन गया है कि पडोसी का बच्चा अगर कॉन्वेंट स्कूल में जाता है तो मेरा भी जाना चाहिए। खैर ऐसे बहुत से कारण लोगों ने गिनाए।

1992 से लेकर 2001 तक मैं भी सरकारी स्कूल में पढ़ा। मेरे गांव के बगल में वो स्कूल था। उस दौर में शिक्षा का निजीकरण इतना नहीं हुआ था। राजकीय स्कूलों के साथ या सिर्फ DAV और ससरस्वती विद्या मंदिर जैसे स्कूल थे या सिर्फ शिमला डलहौजी कसौली के कान्वेंट स्कूल थे जहाँ मध्यमवर्ग अपने बच्चों को पढ़ाने के बारे में नहीं सोच सकता था। हालाँकि इक्का दुक्का और भी निजी स्कूल रहे हों, इस से इंकार नहीं किया जा सकता । यहीं एक अनुभव से मैं पूरे प्रदेश के लिए देखूंगा और सबसे पहले गिरते स्तर के कारणों पर बात करूँगा।

सरकारों की अल्पसोच
जिस दौर में मैंने पढ़ाई की, उस समय आसपास के लगभग 15 गांवों का इकलौता यह स्कूल सिर्फ 8th क्लास तक था। स्कूल के पास जमीन की कोई कमी नहीं थी, न बच्चों की कमी थी, न अध्यापकों की। 5th क्लास तक ही हेडमास्टर मिलाकर 7 टीचर 5 क्लासों के लिए थे। एक दो टीचर अगर अगर गैर-अध्यापन कार्यों में भी लग जाते थे तो भी 5 टीचर कक्षाएं सँभालने के लिए बचते थे। यानि मतदान ड्यूटी , जनगणना ड्यूटी आदि से भी शिक्षा पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता था। कमी थी तो सिर्फ मूलभूत सुविधायों को अपग्रेड करने की। बिल्डिंग सही नहीं थी, बजट नहीं था , टॉयलेट तक नहीं बने हुए थे , फटी पुरानी चटाई पर ही बैठना होता था।

किसी भी समाज को अगर तरक्की की राह पर ले जाना हो तो तीन चीजों पर सबसे पहले कार्य करना होता है वो है शिक्षा , स्वास्थ्य एवं ट्रांसपोर्ट। हिमाचल प्रदेश की सरकारें शिक्षा के मामले में हमेशा उदासीन रहीं। यह जो मैंने स्कूल के हालात बताए इन्हें सुधारने के लिए कोई ध्यान नहीं दिया गया। यह फेलियर ऑफ पॉलिसी है, जो इस देश की बहुत बड़ी समस्या रही है। यहां 28 राज्यों के लिए केंद्र से एक ही पॉलिसी बना दी जाती है। यह नहीं देखा जाता कि यहां हर स्टेट के समीकरण अलग हैं। समस्या अलग है तो समाधान भी तो अलग होगा। बिहार, झारखण्ड, हरियाणा और अन्य भी बहुत से राज्यों में लड़कियों जब गांव के स्कूल में शिक्षा ग्रहण कर लेती थीं तो उन्हें रूढ़िवादी सोच या समाजिक हालात के तहत उस से उच्च शिक्षा लेने के लिए दूसरे गाँव के स्कूल भी नहीं भेजा जाता था। कहीं कहीं देश में देखा गया था कि जिस गाँव में स्कूल हैं, वहां के बच्चे पढ़ रहे हैं परन्तु बाहर के गांवों से बच्चे नहीं आ रहे हैं। इसी समस्या को पूरे देश की समस्या मानते हुए केंद्र ने उस दौर में सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर हर राज्य को नए स्कूल खोलने के लिए बजट देना आरम्भ किया। हिमाचल में उपरोक्त कोई समस्या नहीं थी फिर भी यह मॉडल यहाँ के पालिसी मेकर्स ने भी ऐक्सेप्ट कर लिया।

पहले 15 गांवों का इकलौता स्कूल था, जहाँ ख़ुशी-ख़ुशी बच्चे दूर-दूर से पढ़ने आते थे। मगर अभ उस स्कूल के आसपास सबसे पहले दो प्राइमरी स्कूल खोले गए और वह भी डेढ़ से 3 किलोमीटर के दायरे में। यह दूरी भी बाइ-रोड मानी गई, जबकि पगडंडियों से ये स्कूल नजदीक पड़ते थे।यह किसके लिए हुआ? वोट बैंक के लिए और लोगों के तुष्टिकरण के लिए। एक-एक कमरे में 20-25 बच्चों के साथ यह स्कूल चलने शुरू हो गए। जो 7 टीचर एक स्कूल में थे, उन्हें इन स्कूलों में बांट दिया गया। अब हर स्कूल में औसतन 2 टीचर बचे। जो अध्यापक पहली से पांचवीं तक 40-50 बच्चों के एक बैच को ही पांच साल तक पढ़ाता था। वो अध्यापक एक वर्किंग डे में अब कभी फर्स्ट क्लास के 5 बच्चों को पढ़ा रहा था तो कभी उसी दिन तीसरी क्लास के 9 बच्चों को पढ़ा रहा था। मतगणना में जब उसकी ड्यूटी लगती थी तो स्कूल में उसकी क्लास की पढ़ाई बंद, क्योंकि एक ही टीचर बाकी बचता था। वो 5 क्लास कैसे पढ़ाए और क्या-क्या पढ़ाए?

विकास के नाम पर दिखाने के लिए नेताओं को भी अच्छा मसाला मिल गया। शिक्षा के नाम पर उस दौर में सिर्फ हिमाचल में स्कूल ही खुले। उनकी और पहले से खुले सरकारी स्कूलों की कोई अपग्रेडशन नहीं हुई। आज भी सिर्फ प्राइमरी लेवल की बात की जाए तो यह स्कूल 5 क्लास को 2 या तीन कमरों के भवन में चलाते हैं, बाकी 2 क्लासें कहीं बरामदे या पेड़ की छाया में बैठी होती हैं। शिलान्यास से लेकर उद्घाटन पट्टिकाएं लगती गईं और शिक्षा व्यवस्था सुबकती रही। जब गांवों के स्कूल स्टूडेंट्स से भरे पड़े थे, जनता मांग करती थी कि कमरे बढ़ाए जाएं। 10 हैं तो 12 कर दिए जाएं। तब बजट न होने की बात कही गई। मगर बाद में बजट आया और 2-2 कमरों के स्कूल बना दिए गए। अब बच्चे बंट गए। कमरे ही कमरे बन गए, मगर वहां पढ़ने वाले बच्चे नहीं रहे।

अध्यापकों के टैलेंट का फायदा नहीं उठाया गया
दुनिया बदल रही थी। अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आने वाले समय में सबके लिए जरूरी हो रहा था। इंजिनियरिंग, मेडिकल के राष्ट्रीय एवं राजकीय एंट्रेंस एग्जाम इसी भाषा में हो रहे थे। मगर हिमाचल प्रदेश में शिक्षा क्षेत्र के कर्णधार सरकारी स्कूलों में इंग्लिश माध्यम की शिक्षा को भी यूं चुन-चुन कर कुछेक स्कूलों में लागू कर रहे थे, जैसे इसे एकमुश्त हर स्कूल में लागू करने के लिए पता नहीं क्या हवन यज्ञ पहले करवाना पड़ता। जिन स्कूलों में इंग्लिश मीडियम शुरू हुआ, वह भी वहां के अध्यापकों की वजह हो पाया। नेता लोग स्कूल के ऐनुअल फंक्शन में आते और फ्लांना स्कूल इंग्लिश मीडियम होगा, इसकी घोषणा ऐसे करते जैसे जनता पर पता नहीं क्या एहसान कर दिया हो। वो भी उस दौर में जब, गली-गली में दो कमरों के निजी स्कूल भी गाँव-गाँव में खुल चुके थे और शुरू से इंग्लिश मीडियम के नाम पर सरकारी स्कूलों को आधी स्ट्रेंथ अपने नाम कर चुके थे। सरकारी स्कूल का टीचर राजकीय स्तर पर टेस्ट इंटरव्यू क्वॉलिफाई करके आता है। उसके पोटेंशयल का फायदा नहीं उठाया गया। क्या वो इंग्लिश मीडियम नहीं पढ़ा सकता था? शिक्षा के कर्णधार यहां भी सुस्त पाए गए जो कार्य वर्षों पहले हो जाना चाहिए था, वह सरकारी क्षेत्र में 10 साल बाद शुरू हुआ।


हिमाचल प्रदेश में मिड-डे मील योजना भी अभिवावकों द्वारा अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से निकालकर निजी स्कूलों की ओर ले जाने का कारण रही। क्योंकि हिमाचल प्रदेश इतने गरीब राज्यों में नहीं था जहाँ मील के नाम पर लोग अपने बच्चों की स्कूलों में भेजते। लोगों को मत था कि बच्चों को खाना हम खिला देंगे, स्कूल सिर्फ स्टडी पर फोकस करें। इस योजना के कारण एक टीचर जो अब जनगणना से लेकर मतदान तक अपनी ड्यूटी दे रहा था अब रोज-रोज के दाल भात के जुगाड़ में भी बिज़ी कर दिया गया। रोज-रोज चेंज होती खान पान सामग्री की दरों और इन्फ्लेशन के लोचे में उसका सिर चकरा गया है। उसकी चिंता बच्चों की स्टडी नहीं बल्कि कब राशन खत्म हो गया, उसका जुगाड़ करो। मिड डे मील वर्कर हड़ताल पर चले गए अब खाना कैसे बनवाया जाए। पीछे से कोटेशन कुछ और आई थी मार्किट में दाल सब्जी उस से महंगी हो गई अब क्या करे इन्ही मुद्दों पर सिमटकर रह गयी है। हम देख सकते हैं पढ़ाने के लिए जिस व्यक्ति का प्रोफेशन है उसे कहा उलझा दिया।

मिड डे मील सरकार स्कूलों में दे इसमें मुझे आपत्ति नहीं है पर अध्यापकों को उसमे न घसीटे कोई भी राज्य सरकार इसे हैंडल करने के लिए टेंडर निकाले और बाहरी फर्म को यह कार्य सौंपे जो अपने कुक आदि रखकर इस कार्य को देखे। स्कूल शिक्षक सिर्फ गुणवत्ता चेक करें दाल सब्जी स गैस चूल्हा मिटटी का तेल लाने की टेंशन उनके सर पर न मढ़ी जाए तब भी तो मिड डे मील योजना चल सकती है।  निजी स्कूल इन सब उपरोक्त समस्याओं से पर थे। बेशक गांव में कहीं कहीं वो 2 कमरों में चल रहे हैं। पर इंग्लिश माध्यम ड्रेसिंग सेन्स और गाडी भेज कर बच्चे को घर से ले जाने से लेकर छाड्ने पर उन्होंने अभिवावकों का दिल जीत लिया है। टीचर पेरेंट्स को बुलाकर रिपोर्ट कार्ड बता दे रहे हैं। नोट बुक में होम वर्क लिख कर दे देते हैं जिसे घर में माँ पीट-पीटकर बच्चों से करवा रही है।

खैर ये अलग विषय है कि जब माँ को ही घर में बच्चों को पढ़ाना है तो स्कूल किसलिए हैं? सरकारी स्कूल परीक्षाओं में ऐक्चुअल मार्किंग करते थे, मगर निजी स्कूल बढ़ा-चढ़ाकर के मार्क्स देने लगे हैं ताकि हर माँ-बाप को अपना बच्चा होशियार लगे। यह लगे की बेशक वो फीस भर रहे हैं पर बच्चा सही परफॉर्म कर रहा है। हालाँकि वो करता भी है, इसमें दो राय नहीं है। डेस्क पर बैठता है, दुनियादारी सीख रहा है। सरकारी स्कूल अभी भी धूल-मिटटी से सनी चटाई में चल रहे हैं। 2014 -15 में भी राज्य सरकारें जिन स्कूलों में टॉइलट तक नहीं बनवा पाई हैं, यह काम भी अब जाकर स्वच्छ भारत मिशन से होने लगा है। वहां आप देख सकते हैं इंफ्रा स्ट्रक्चर और शिक्षा के उत्थान के लिए क्या विजन लेकर हमारे कर्णधार चले होंगे या आज भी उसी मूड में चल रहे हैं।

और भी असंख्य कारण हैं, उनपर जाता रहूँगा तो लेख नहीं नॉवल बन जाएगा। सरकारी स्कूलों को मुख्यधारा कैसे लाया जाए इसके लिए जो मैं सोचता हूँ, उस पर चर्चा की जा सकती है। सरकारी स्कूलों के पास सम्भवता हर कहीं खुल गए निजी स्कूलों की अपेक्षा ज्यादा एरिया इंफ्रा स्ट्रक्टर बनाने के लिए आज भी जगह या स्पेस मौजूद है। इसलिए इसका बेस्ट यूटिलाइजेशन जरूरी है। स्टाफ भी क्वालिफाइड हैं वो टेस्ट पास करके नौकरी पर लगते हैं यहाँ तक निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापक भी यही सपना लेकर चलते है कि एग्जाम पास करके वो भी अध्यापकर लगकर सरकारी स्कूलों का हिस्सा बने। इसलिए पोटेंशल और टेलेंट की कहीं कमी नहीं हैं।

मॉडल स्कूल कॉन्सेप्ट
जैसा कि मैंने पहले भी कहा दो अध्यापकों के ऊपर चल रहे स्कूलों को बंद करना चाहिए और सर्वे के आधार पर निश्चित एरिया में जनसँख्या के आधार पर जिस स्कूल के पास अभी भी सबसे ज्यादा छात्र और इंफ्रा स्ट्रक्टर के लिए स्पेस है। वहां मॉडल स्कूल कॉन्सेप्ट पर कार्य होना चाहिए। मॉडल स्कूल मेरी नजर में ऐसा स्कूल, जहाँ नैशनल स्तर की लैब सुविधाएं हों। आधुनिक क्लास रूम्स हों। ब्रॉडबैंड से जुडी इंटरनेट सुविधाएं हों। ऑडिटोरियम से लेकर लाइब्रेरी हो। हर तरह की गेम के लिए जगह अवेलबल हो। इसके लिए धन के ज्यादा प्रावधान की भी जरूरत नहीं है, बल्कि जगह-जगह खोल दिए गए स्कूलों को एक दो कमरे डंगा टॉयलेट आदि बनांने के लिए जो बजट दिया जाता है, उसी को एक जगह पर लगाने की जरूरत है। अब जिस स्पेस और खर्चे के साथ चार स्कूलों में सरकार 15 बच्चों की क्लास के लिए चार रूम बन रहा है, उसकी जगह 60 के लिए मॉडल स्कूल के लिए एक बना दे।

मॉडल स्कूल निश्चित दूरी पर होंगे। कुछ छात्रों का निवास स्थान 15 किलोमीटर दूर भी हो सकता है। लेकिन इसमें भी क्या दिक्कत है, जब निजी स्कूल वाला बच्चों को बस सुविधा भेज कर घर-घर से उठा ले जा रहा है। तो क्या सरकारी स्कूल मॉडल स्कूल में परिवहन विभाग से गठजोड़ करके मुद्रिका टाइप बस चला सकते हैं, जो निश्चित क्षेत्र के छात्रों को सुबह शाम घर तक लेकर और छोड़ने जाए। वैसे भी प्रदेश में परिवहन निगम ने सरकारी स्कूल की वर्दी पहने छात्र को बस सेव मुफ्त कर रखी है। हालाँकि जब निजी स्कूल वाले को अभिवावक पैसा दे रहे हैं ट्रांसपोर्ट का तो इस बस में भी देंगे। बशर्ते उन्हें लगे कि नहीं, हमारा बच्चा सचमुच एक वर्ल्ड क्लास स्कूल में पढ़ने जा रहा है।

अध्यापकों की भी ग्रेडिंग होनी चाहिए।
जब एक ही मॉडल स्कूल होगा, बाकी बंद हो जाएंगे तो टीचर एक ही स्कूल में होंगे। इसलिए किसी टीचर की मतगणना या अन्य सरकारी कार्यों में ड्यूटी लगती है तो भी असली रिप्लेसमेंट के लिए स्कूल में टीचर मौजूद रहेगा। इस कारण पढ़ाई पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। साथ ही बच्चों और उनके अभिवावकों और रिजल्ट के फीडबैक के आधार पर अध्यापकों की ऑनलाइन ग्रेडिंग होनी चाहिए। जो अध्यापक हायर ग्रेडिंग पर हैं उन्हें मतगणना। जनगणना आदि जैसे गैर शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाया जाना चाहिए।

मिड डे मील
मॉडल स्कूल में मिड डे मील का कॉन्ट्रैक्ट किसी बाहरी फर्म को देना होगा। फैकल्टी का उसमें सिर्फ गुणवत्ता देखने के सिवा कोई रोल नहीं होना चाहिए। मील जमीन पर बिठाकर नहीं बल्कि एक मेस एरिया में लंच के समय सर्व होना चाहिए इस प्रयोजन से स्टडी इफेक्ट नहीं होनी चाहिए।

गेस्ट लेक्चरर
मॉडल स्कूल में पढ़ाई की गुणवत्ता के साथ-साथ राज्य सरकारों का विभागीय कोर्डिनेशन भी जरुरी होना चाहिए। समय- समय पर अपने अपने क्षेत्रों में अच्छा करने वाले प्रशासनिक एवं अन्य अधिकारी सफल विभूतियां गेस्ट लेक्चरर के रूप में बुलाए जाने चाहिए ताकि उनके अनुभवों से बच्चों को भविष्य के लिए फायदा मिले।

क्या यह नहीं हो सकता? क्या ऐसा मॉडल स्कूल बनाना सरकार के वश में नहीं है ? क्या 10 जगह बूँद-बूँद बजट बांटने की अंतहीन प्रक्रिया की जगह किसी एक स्थान पर ऐसे स्कूलों को डिवेलप करने का वक़्त नहीं आ गया है?  यही एक तरीका है जिस से सरकारी स्कूलों का उद्धार हो सकता है, वरना अभिवावक निजी स्कूलों में लुटते रहेंगे सरकार का शिक्षा बजट प्रदेश में गुणवत्ता बढ़ाने के काम नहीं आ पाएगा। कम से कम जिला स्तर पर एक एक स्कूल से तो शुरुआत बनती है। चलो अभी हर जिला में न सही, किसी क्षेत्र में एक स्कूल को इस मॉडल पर डिवेलप करते हुए तो देखा ही जा सकता है। पाठकों के विचार आपेक्षित हैं ताकि इस चर्चा को आगे बढ़ाया जा सके।

(लेखक हिमाचल प्रदेश से संबंध रखते हैं और आईआईटी दिल्ली में रिसर्च स्कॉलर हैं। क्लीन एनर्जी की फील्ड में काम करने वाली कंपनी ‘सनकृत एनर्जी प्राइवेट लिमिडेट’ के डायरेक्टर भी हैं। उनसे aashishnadda@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

हिमाचल का लोक संगीत: हमने भुला दिया, मगर ये लोग इसे जी रहे हैं

इन हिमाचल डेस्क।।

किसी भी जगह का लोक संगीत उसकी आत्मा होता है। अच्छी बात है यह कि संगीत कभी राजनीतिक सीमाओं में नहीं बंधता। यानी लोक संगीत एक संस्कृति पर आधारित होता है, किसी देश, राज्य या जिले वगैरह के नक्शे पर आधारित नहीं। इसी तरह से हिमाचल प्रदेश में अलग-अलग लोक संस्कृतियां पाई जाती हैं और इनका अपना लोक संगीत है। यह संगीत मिलकर हिमाचल प्रदेश को परिभाषित करता है।

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लीला ठाकुर से बात करती ऐंकर। विडियो देखने के लिए नीचे जाएं।

वक्त के साथ हम लोक संगीत से विमुख होकर अन्य तरह के संगीत की तरफ आकर्षित होने लगे हैं। मगर फिर भी कुछ लोग हैं, जिनकी सांसों में यह संगीत बसा हुआ है। भले ही आप इन्हें पहचानते न हों, मगर कोई फर्क नहीं पड़ता। इन्हें पहचान की जरूरत भी नहीं है। इनके लिए संगीत किसी तरह का व्यवसाय नहीं है। संगीत इनके लिए उपासना, आराधना है, जीवन जीने का ढंग है।

नजर डालिए इस विडियो पर और देखिए हिमाचल का छिपा हुआ टैलंट 🙂

https://www.youtube.com/watch?v=8dTbi3Yttxk

 

अब नीरज भारती ने प्रधानमंत्री मोदी को दी गाली

कांगड़ा।।

फेसबुक पर अक्सर उल्टा-सीधा लिखने के लिए बदनाम हो चुके ज्वाली से कांग्रेस के विधायक और हिमाचल सरकार में शिक्षा विभाग देख रहे CPS नीरज भारती एक बार फिर चर्चा में हैं। उन्होंने अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अपशब्द इस्तेमाल किए हैं। उन्होंने अपनी टाइमलाइन पर एक विडियो शेयर किया है, जिसके साथ उन्होंने लिखा है- सा** गिरगिट की औलाद।

शेयर किए गए विडियो का स्क्रीनशॉट
शेयर किए गए विडियो का स्क्रीनशॉट

गौरतलब है कि कई मौकों पर नीरज भारती इस तरह का व्यवहार कर चुके हैं। लगातार वह प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के खिलाफ अपशब्द कह चुके हैं। बीजेपी की वरिष्ठ नेताओं ने यह मामला विधानसभा में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के सामने भी उठाया था, मगर मुख्यमंत्री ने कुछ नहीं किया। यहां तक कि बीजेपी के नेता भी मामले को कोर्ट ले जाने की बात कहते हुए, मगर वे भी कुछ नहीं कर पाए। नीरज भारती ने यह सिलसिला जारी रखा है।

पढ़ें: नीरज भारती को लेकर विधानसभा में बवाल

पिछले दिनों अपनी टाइमलाइन पर उन्होंने एक आरटीआई ऐक्टिविस्ट के खिलाफ भी अपमानजनक भाषा इस्तेमाल की थी। ऐक्टिविस्ट ने इसकी शिकायत मुख्यमंत्री और राज्यपाल तक से की थी। इस पर नीरज भारती ने खुली चुनौती देते हुए कहा था कि जो करना है कर लो।


शिक्षा जैसा अहम महकमा इस तरह के व्यवहार वाले शख्स को देने के लिए कांग्रेस सरकार तो शर्म आनी ही चाहिए, हैरानी की बात यह है कि हिमाचल प्रदेश बीजेपी इस मामले में शर्मनाक ढंग से नाकाम हुई है। छोटी-छोटी बातों पर विधानसभा से वॉकआउट करने वाले विधायक इस मामले पर अब तक कुछ नहीं कर पाए हैं। बीजेपी के अन्य नेता, जो अनुराग ठाकुर और प्रेम कुमार धूमल के गुण गाते नजर आते हैं, वे अपने सर्वोच्च नेता के प्रति इस तरह की भाषा के इस्तेमाल से आंदोलित नहीं हो रहे।

लेख: जनता को महंगी पड़ रही है कौल सिंह और गुलाब सिंह की ऐसी राजनीति-2

  • भूप सिंह ठाकुर

(पिछले हिस्से में आपने ठाकुर कौल सिंह की राजनीति के बारे में पढ़ा, दूसरे हिस्से में बात ठाकुर गुलाब सिंह की। पाठकों को याद दिला दें कि आर्टिकल लंबा होने की वजह से हमने इसके दो हिस्से कर दिए थे। पहले वाला हिस्सा पढ़ने के लिए यहां पर क्लिक करें।)

ठाकुर गुलाब सिंह को अगर करिश्माई नेता कहा जाए तो गलत नहीं होगा। जोगिंदर नगर में उनके प्रशंसकों की तादाद बड़ी संख्या में है। कई बार जोगिंदर नगर सीट से चुने गए गुलाब सिंह कई बार प्रदेश कैबिनेट में मंत्री रह चुके हैं। इससे पहले की बीजेपी सरकार में वह पीडब्ल्यूडी मंत्री थे और अपने इलाके में सड़क क्रांति का पूरा श्रेय उन्हें दिया जाता है। शायद ही कोई पंचायत ऐसी है, जहां तक सड़क न पहुंची हो। गांव-गांव तक लिंक रोड पहुंचे हुए हैं। इस मामले में तो उन्हें पूरे नंबर मिलने चाहिए, मगर बाकी मामलों में उन्होंने कुछ भी आउटस्टैंडिंग नहीं किया है।

गुलाब सिंह ठाकुर (बीच में)
गुलाब सिंह ठाकुर (बीच में)

पहले तो गुलाब सिंह दल-बदल की राजनीति के लिए पहचाने जाते रहे। पहली बार 1977 में वह कांग्रेस के रतन लाल ठाकुर को हराकर जनता पार्टी के टिकट पर जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। 1982 में उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा और एक बार फिर कांग्रेस के उम्मीदवार को हराया। अब उन्होंने कांग्रेस जॉइन कर ली और 1985 में उन्हें निर्दलीय चुनाव लड़ रहे रतन लाल ठाकुर से हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद लगातार तीन चुनाव (1990, 1993, 1998) उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर जीते। मगर अब वह हुआ, जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी। 1998 में बीजेपी को भी 31 सीटें मिलीं और कांग्रेस को भी 31 सीटें। 5 सीटें पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस को मिली और 1 सीट पर निर्दलीय जीता। सरकार बनाने के लिए किसी को भी 35 विधायकों का समर्थन जरूरी था।

निर्दलीय जीते धवाला को लेकर बीजेपी और कांग्रेस खींचतान चल रही थी, साथ ही सुखराम को साधने की भी कोशिश चल रही थी। सुखराम का झुकाव बीजेपी की तरफ ज्यादा था, क्योंकि वह किसी भी शर्त पर वीरभद्र को सीएम बनाने के लिए समर्थन नहीं कर सकते थे। उन्हें अपने विधायकों के टूटने का भी डर था। इस बीच कमाल की पॉलिसी यह हुई कि कांग्रेस के विधायक गुलाब सिंह ठाकुर को विधानसभा अध्यक्ष बनाने का ऑफर मिला। उन्होंने यह ऑफर स्वीकार कर लिया। यह जानते हुए भी कि अगर वह स्पीकर चुने गए तो अपनी पार्टी के पक्ष में चुनाव नहीं कर पाएंगे। इससे कांग्रेस के पास अपने 30 वोट रह गए। निर्दलीय धवाला को पहले ही बीजेपी साध चुकी थी और अगर सुखराम के चारों विधायक भी अगर कांग्रेस के पक्ष में वोट कर देते, तब भी बहुमत साबित नहीं हो पाता। इस तरह से बीजेपी ने सुखराम के समर्थन से आराम से सरकार बनाई। तकनीकी रूप से देखा जाए तो गुलाब सिंह ठाकुर की वजह से ही उस वक्त धूमल मुख्यमंत्री बन सके थे।

यह राजनीतिक रिश्ता असल रिश्तेदारी में भी तब्दील हुआ और ठाकुर गुलाब सिंह की पुत्री का विवाह प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर से हुआ। इसके बाद गुलाब सिंह बीजेपी में शामिल हुए और 2003 का चुनाव बीजेपी के टिकट से लड़ा, मगर उनके भतीजे सुरेंदर पाल ने उन्हें हरा दिया। इस बार कांग्रेस की सरकार बनी। इसके बाद 2007 में हुए चुनावों में उन्होंने वापसी की। बड़े ही अच्छे तरीके से उन्होंने पुराने कार्यकर्ताओं को जोड़ा, यहां तक कि पुराने प्रतिद्वंद्वी रतन लाल ठाकुर को भी अपने पक्ष में कर लिया। मेहनत रंग लाई और सीएम धूमल के बाद सीनियर मोस्ट मिनिस्टर बने और PWD विभाग संभाला। धूमल ने भी नड्डा जैसे सीनियर मंत्रियों को दरकिनार करते हुए अपने समधी को तरजीह दी। 2012 के चुनावों में गुलाब सिंह ठाकुर ने आखिरी बार का नारा देते हुए इमोशनल तरीके से प्रचार किया और जीत हासिल की। मगर चूंकि अब सरकार उनकी नहीं है, इसलिए शांत बैठ गए हैं।

यह तो बात हुई उनके राजनीतिक इतिहास की। अब बात करते हैं कि क्यों वह एक लोकप्रिय और सक्षम नेता होने के बावजूद कई मोर्चों पर नाकामयाब रहे। उनका व्यक्तित्व अच्छा है, समझदार हैं और शानदार वक्ता हैं। मगर उनकी अपनी कमजोरियां हैं। उनपर तानाशाही रवैये के आरोप लगते रहे हैं। अधिकारियों से दुर्व्यवहार करने के किस्से चर्चित रहे। कार्यकर्ताओं से ठीक से बात न करने की भी बातें आईं। बताया जाता है कि इसीलिए 2003 में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। शराब की लत के चलते भी वह बदनाम रहे हैं। ऐसा ही एक वाकया है 27 अप्रैल 2009 का। बाकायदा मंडी में उनके शराब पीकर हंगामा करने की खबरें छपीं। वक्त-वक्त पर और बातों की भी चर्चा होती रही है। यह सब बेशक निजी बातें हैं, मगर एक राजनेता होने की वजह से इस पर भी चर्चा करना जरूरी है।

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नेता के रूप में जब उनसे उपलब्धियां गिनाने को कहा जाए, तो वह रटी-रटाई सी बातें बताते हैं। पहली उपलब्धि उनकी होती है- राजस्व प्रशिषण संस्थान। मगर यह संस्थान साल में कुछ ही महीने खुला रहता है और पटवारियों की ट्रेनिंग कुछ के ही बैच में होती है। मगर इस संस्थान को बनाने में बहुत बड़ी जगह बर्बाद की गई। बर्बाद इसलिए, क्योंकि जिस जगह यह संस्थान बना है और इस संस्थान की जो उपयोगिता है, उस हिसाब से जगह को बर्बाद किया गया है। इस संस्थान के खुलने से स्थानीय जनता को कोई फायदा नहीं हुआ। न तो ऐसा संस्तान है जहां बच्चे पढ़ सकें न ही ऐसा संस्थान है कि आसपास दुकानें खुलें या हॉस्टल या किराए के मकान से लोगों को भी रोजगार मिले। उल्टा जोगिंदर नगर में अब कोई ऐसी जगह नहीं बची, जहां पर कोई और संस्तान खोला जा सके।

जोगिंदर नगर कभी बहुत पिछड़ा इलाका नहीं था। यहां आजादी से पहले से रेलवे ट्रैक है, जिसे अंग्रेजों ने शानन वापस हाउस बनाने के लिए तैयार किया था। यहां 2 पावर हाउस हैं और बहुस पहले से बिजली है। अंग्रेजों के वक्त से स्कूल और अस्पताल हैं। इसके अलावा एक डिग्री कॉलेज और आईटीआई के अलावा और कोई भी सरकारी संस्थान नहीं है। यहां एचआरटीसी का डिपो नहीं खुल पाया, जबकि आसपास सभी जगह डिपो और सब-डिपो हैं। आज भी बैजनाथ डिपो की खटारा बसें सड़कों पर दौड़ती हैं। पीडब्ल्यूडी मंत्री रहने के बाद उन्होंने जो सड़कें बनवाईं, वही उनकी एकमात्र उपलब्धि है। हालांकि ये सड़कें भी पहले बन जानी चाहिए थी। औऱ कुछ जगहों पर तुष्टीकऱण के लिए ऐसी सड़कें बनाई हैं, जो प्राणघातक सिद्ध हो सकती हैं।

इतना बड़ा कद होने के बावजूद कोई बड़ा संस्थान या प्रॉजेक्ट नहीं लगवा पाए गुलाब सिंह। वह इतने उदासीन हैं कि चुल्ला प्रॉजेक्ट (ऊहल तृतीय) का काम जो कई सालों से चल रहा है, उसे पूरा करवाने के लिए ऐक्टिव नहीं हो पाए। वह सेंट्रल स्कूल तक नहीं खुलवा सके, जो कि बगल के विधानसभा क्षेत्र में चला गया। दरअसल वह अपने लोगों को ठेके दिलवाने में ज्यादा व्यस्त रहे और कोई नया विजन पेश करने में कामयाब नहीं रहे। मंच से बहुत लच्छेदार भाषण देते हैं, मगर खाली वक्त मिलने पर यह नहीं सोचते कि क्या नया किया जा सकता है इलाके के लिए। अब जैसे वह विधायक हैं तो शीतनिद्रा में चले गए हैं। सरकार कांग्रेस की है तो क्या विधायक का कोई काम ही नहीं रह जाता?

यही समस्या कौल सिंह ठाकुर के साथ भी है। दोनों बड़े नेता विज़नहीन हैं। आज जोगिंदर नगर फिर भी द्रंग इलाके से विकसित है। इसके लिए भी ज्यादा श्रेय गुलाब सिंह को नहीं, बल्कि अंग्रेजों को जाता है जो यहां इतना काम करवा गए। उस विरासत को आगे बढ़ाने में गुलाब सिंह नाकामयाब रहे हैं। आज वह शानन प्रॉजेक्ट को पंजाब से लेने की बात करतें हैं, मगर खुद जब उनके समधी मुख्यमंत्री होते हैं और पंजाब में सहयोगी पार्टी अकाली दल की सरकार होती है, तब वह जरा भी कोशिश नहीं करते।

यही समस्या है हमारे नेताओं में। इस आर्टिकल को मैंने इसलिए नहीं लिखा कि मेरी इन नेताओं से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी है या रंजिश है। इनके विधानसभा क्षेत्रों में मेरा घर भी नहीं। मगर मैं यह लेख लिखने को इसलिए मजबूर हुआ, क्योंकि ये बड़े नेता जनता की वजह से बड़े नेता बने हैं। जनता इन्हें प्यार करती है, इनपर भरोसा करती है तो इन्हें उसका दोगुना लौटाना चाहिए। ऐसा नहीं कि जनता को इमोशनली ब्लैकमेल करके  चुनाव जीतते रहें और भूल जाएं कि चुनाव जीतकर क्या करना होता है।

यह लेख का दूसरा भाग है। पिछले हिस्से में चर्चा कौल सिंह ठाकुर की राजनीति पर गई है।

(लेखक मंडी के रहने वाले हैं और आयकर विभाग से सेनानिवृति के बाद विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिख रहे हैं।)

Disclaimer: यह लेखक के अपने विचार हैं, इनसे ‘इन हिमाचल’ सहमति या असहमति नहीं जताता। 

लेख: जनता को महंगी पड़ रही है कौल सिंह और गुलाब सिंह की ऐसी राजनीति-1

(लेख लंबा है, इसलिए दो हिस्सों में बांट दिया गया है। आगे वाले हिस्से का लिंक नीचे दिया गया है।)

  • भूप सिंह ठाकुर

ठाकुर कौल सिंह और ठाकुर गुलाब सिंह, ये दोनों हिमाचल प्रदेश की राजनीति के बड़े नाम हैं। एक कांग्रेस के बड़े नेता हैं तो दूसरे बीजेपी के। यह दिलचस्प है कि दोनों के विधानसभा क्षेत्र अगल-बगल हैं और दोनों ने राजनीति की शुरुआत एकसाथ की है। दोनों वकालत से राजनीति में आए। दोनों ने कई पार्टियों का दामन बदलते हुए कांग्रेस जॉइन की थी। फिर गुलाब सिंह ने आखिरकार बीजेपी का दामन थाम लिया। आज ये दोनों नेता बेशक अलग-अलग पार्टियों में हैं, मगर दोनों की जुगलबंदी यानी आपसी तार-तम्य बहुत जबरदस्त है। भले ही लोग उन्हें एक-दूसरे का कट्टर समझें, मगर दोनों के बीच गजब की मूक सहमती है। एक दौर था, जब दोनो एक-दूसरे की जड़ें काटने पर उतारू थे, मगर आज दोनों एक-दूसरे को सहारा दे रहे हैं।

कौल सिंह ठाकुर

सबसे पहले बात करते हैं कौल सिंह की। कौल सिंह द्रंग से विधायक हैं और 8 बार विधायक चुने जा चुकेहैं। वह सिर्फ एक बार चुनाव हारे हैं, जब 1990 में दीनानाथ यहां से चुने गए थे। इसके बाद 1993 के चुनावों में उन्होंने फिर से वापसी की थी। उनका विधानसभा क्षेत्र बड़ी विविधताओं से भरा है। पुनरसीमांकन के पहले भी स्थितियां पेचीदा थीं और अब भी। ऊपर की तरफ जाएं तो पूरा ट्राइबल इलाका इनकी तरफ है, तो नीचे मंडी से लेकर जोगिंदर नगर तक फैलाव है। ऊपर के जंगल संरक्षित हैं और वहां पर कोई ज्यादा कंस्ट्रक्शन नहीं करवाया जा सकता। इसीलिए आप जब झटिंगरी से ऊपर बरोट की तरफ चलना शुरू करेंगे तो वहां का अंदाजा लगा सकते हैं। न कोई विकास हुआ है न कुछ। वहां के भोले-भाले लोग ज्यादा कुछ चाहते भी नहीं, मगर वे बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं।

नीचे द्रंग के सभी अहम ऑफिस पद्धर में हैं। पद्धर का हाल में विकास हुआ है, मगर उस स्तर पर नहीं, जितना होना चाहिए। प्रदेश का इतना कद्दावर नेता, जो मुख्यमंत्री बनने का सपना संजो रहा हो, प्रदेश कांग्रेस का प्रदेशाध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा चुका हो, कई बार मंत्री रह चुका हो, उसके इलाके का इतना पिछड़ा होना हैरान करता है। हर बार चिकनी-चुपड़ी बातों के अलावा लोगों को कुछ नहीं मिलता और बावजूद इसके लोग वोट देते हैं। शायद यही उनकी रणनीति हो कि लोगों को मोहताज रखो, ताकि वे हर चीज़ के लिए आपके पास आएं, आप उन्हें कृतार्थ (Oblige) करें और फिर वे बदले में आपको वोट दें। न तो कोई अच्छा संस्थान द्रंग में बन पाया है न ही कुछ और ऐसा, जिसपर गर्व किया जा सके।

द्रंग में बिना प्लैनिंग के नाले में बनाया गया OBC हॉस्टल। संस्थान आसपास कोई नहीं और कई सालों से यूं ही सड़ रहा है।
द्रंग में बिना प्लैनिंग के नाले में बनाया गया OBC हॉस्टल। संस्थान आसपास कोई नहीं और कई सालों से यूं ही सड़ रहा है।
जवाहर ठाकुर।

अब सवाल उठता है कि जब इतने खराब हालात हैं तो जनता किसी और नेता को क्यों नहीं चुन लेती? हिमाचल प्रदेश में दो ही पार्टियां प्रमुख हैं- कांग्रेस और बीजेपी। तो इस सीट पर कांग्रेस के कौल सिंह ठाकुर को कई सालों टक्कर दे रहे हैं- जवाहर ठाकुर। जवाहर ठाकुर बहुत डाउन टु अर्थ आदमी माने जाते हैं और चुनाव-दर-चुनाव उनका वोटर बेस बढ़ता जा रहा है। कई बार गिनती में पीछे चलने के बावजूद आखिर में कौल सिंह जीतते रहे। जवाहर शायद जीत जाते, अगर उन्हें अपनी पार्टी का साथ मिलता। जोगिंदर नगर के गुलाब सिंह के साथ शायद कोई गुप्त समझौता है कौल सिंह का। ऐसा ही बीजेपी के पहले के उम्मीदवारों रमेश चंद और दीना नाथ के साथ होता रहा।

सुरेंदर पाल ठाकुर।

अगर बीजेपी की सरकार आने पर सीनियर मंत्री गुलाब सिंह ठाकुर चाहें तो वह पड़ोसी कॉन्सिचुअंसी के जवाहर ठाकुर को आग ेबढ़ने में मदद कर सकते थे। वह चाहते तो घोषणाएं कर सकते थे, जवाहर के कहने पर कुछ काम करवा सकते थे और जमीनी स्तर पर काम कर सकते थे। यही होता भी है। इससे जनता में विश्वास बनता है कि यह नेता अभी ही इतने काम करवा रहा है तो चुने जाने पर कितने ज्यादा काम करवाएगा। अगर गुलाब सिंह ऐसा करते तो सीधा नुकसान कौल सिंह ठाकुर हो जाता। इसलिए आज तक उन्होंने जवाहर को हमेशा नजरअंदाज किया। इस तरह का फेवर मिलने पर अहसान तो चुकाना ही है। इसलिए कौल सिंह ठाकुर भी यही करते हैं। अभी कांग्रेस की सरकार है, मगर जोगिंदर नगर में कोई काम नहीं करवा रहे। वह चाहते तो यहां से कांग्रेस के हारे हुए प्रत्याशियों का समर्थन करके उनके काम करवाके जीतने में मदद कर सकते थे। मगर ऐसा नहीं करते।

गुलाब सिंह ठाकुर।

भले ही जोगिंदर नगर से हारे हुए कांग्रेस प्रत्याशी सुरेंदर पाल आज वीरभद्र सिंह के करीबी हैं, मगर कौल सिंह से शुरू में उनके रिश्ते खराब नहीं थे। मगर कौल सिंह दरअसल असुरक्षा से भरे हुए हैं। वह कभी नहीं चाहते कि कोई और नेता मंडी से उनके बराबर उठे। उन्होंने कभी भी जोगिंदर नगर से कांग्रेस के उम्मीदवारों की की मदद नहीं। उल्टा उन्होंने कांग्रेस कैंडिडेट को हराने की ही कोशिशें कीं। सुरेंदर पाल से पहले जोगिंदनर नगर में वह गुलाब सिंह ठाकुर को टक्कर देते रहे ठाकुर रतन लाल के साथ भी ऐसा करते रहे। फिर जिस वक्त गुलाब सिंह ठाकुर कांग्रेस में थे, उन्हें हरवाने के लिए भी पूरे जतन किया करते थे। ये तो आज जाकर दोनों नेताओं ने आपसी हित में सीज़ फायर किया है।

दरअसल असुरक्षा की भावना मंडी के हर नेता में रही है। इसीलिए यहां से कई बड़े नेता हुए और उनकी असुरक्षा की भावना और बड़ा पद पाने के लालच ने उन्हें कभी उठने नहीं दिया। पहले कर्म सिंह ठाकुर इस तरह की राजनीति के शिकार हुए थे। बाद में जब सुखराम बड़े नेता बनकर उभरे और शायद मुख्यमंत्री भी बनते, मगर कौल सिंह ठाकुर ने पाला बदलकर वीरभद्र सिंह का दामन थाम लिया। बाद में वीरभद्र सिंह के खिलाफ बगवात की और खुद को सीएम कैंडिडेट बनाने का दावा पेश कर दिया। मगर वह भूल गए कि उनके पास कोई भी एक विधायक ऐसा नहीं, जो उनके साथ चल सके। कोई विधायक तो तब साथ होता, जब किसी की मदद की होती। मगर असुरक्षा की भावना से जनाब ने यह सोचकर किसी को उठने ही नहीं दिया कि कल को कहीं मेरे लिए मुश्किल खड़ी न कर दे।

व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं में ये नेता भूल गए कि जनता की जरूरतें क्या हैं, उनके लिए भी कुछ करना है। यही हाल रहा तो मुख्यमंत्री बनने का सपना किसी भी जन्म में पूरा होने से रहा। नीयत साफ रखकर अगर चलते तो शायद कामयाबी मिलती।

यह लेख का पहला भाग है। अगले हिस्से में चर्चा गुलाब सिंह ठाकुर की राजनीति पर की गई है। क्लिक करके पढ़ें।

(लेखक मंडी के रहने वाले हैं और आयकर विभाग से सेनानिवृति के बाद विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिख रहे हैं।)

Disclaimer: यह लेखक के अपने विचार हैं, इनसे ‘इन हिमाचल’ सहमति या असहमति नहीं जताता। 

गडकरी से मिले ‘तोहफे’ का क्रेडिट लेने की कोशिश में अनुराग ठाकुर?

शिमला।।

पिछले दिनों केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी निजी दौरे पर हिमाचल आए थे। धर्मशाला में उन्होंने प्रदेश में अपने समकक्ष जी.एस. बाली के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस की और हिमाचल प्रदेश के लिए नए नैशनल-हाइवेज़ समेत कई ऐलान किए। जाहिर है, केंद्र सरकार इस तरह के फैसले किसी तरह का सपना आने पर नहीं लेती। प्रदेश की सरकारों और वहां के सांसदों से सिफारिश मिलने के बाद उसकी प्रांसगिकता वगैरह का सर्वे करने के बाद इस तरह के फैसले लिए जाते हैं। मगर हिमाचल प्रदेश के बीजेपी सांसदों में गडकरी के ऐलानों का क्रेडिट लेने की होड़ मच गई है। सबसे ज्यादा हास्यास्पद स्थिति में नजर आ रहे हैं- बीसीसीआई सेक्रेटरी और हमीरपुर के सांसद अनुराग ठाकुर।

अनुराग ठाकुर ने अपने फेसबुक पेज पर गडकरी से आया लेटर शेयर करते हुए जो लिखा है, वह गौर करने लायक है। वह लिखते हैं (हिंदी में अनुवाद)- अपने राज्य हिमाचल प्रदेश में नए नैशनल हाइवेज़ बनाने को लेकर चर्चा करने के लिए मैं माननीय सड़क परिवहन, हाईवेज़ और शिपिंग मिनिस्टर श्री नितिन गडकरी से मिला। केंद्र सरकार ने नीचे शेयर किए गए लेटर में लिखे गए प्रॉजेक्ट्स और फंड्स को अप्रूव कर दिया है।

अनुराग बताना चाहते हैं कि उन्होंने गडकरी से मुलाकात की, हाइवे को लेकर चर्चा की और उन्होंने इसे अप्रूव कर दिया। वह जताना चाहते हैं कि ये हाइवेज़ और प्रॉजेक्ट्स उनके चर्चा करने की वजह से ही अप्रूव हुए हैं। लेटर को ध्यान से देखें तो इसमें 11 मई  लिखा हुआ है। मगर इसी तरह का एक लेटर 10 मई को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा ने भी शेयर किया है। वह भी उन्हें संबोधित करके लिखा गया है। नीचे देखें

जाहिर है, यह विभागीय पत्र है जो संबंधित सांसदों को भेजा गया है। यह सामान्य विभागीय प्रक्रिया है। इस तरह के मेसेज सभी सांसदों को भी भेजे जाते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इस बारे में सांसदों ने बात की होगी, जिनमें अनुराग ठाकुर भी शामिल होंगे, मगर लेटर को अलग अंदाज में श्रेय लेने की भाषा में पोस्ट करना अखरता है। एक अन्य सांसद ने भी ऐसा लेटर अपने फेसबुक पेज शेयर किया था, बाद में उसे डिलीट कर दिया गया।

यह बात सोशल मीडिया पर भी चर्चा का विषय बनी रही और लोगों ने सांसदों का मजाक बनाया। कुछ यूजर्स ने कहा कि जब गिनाने के लिए वास्तविक उपलब्धियां न हों, तभी डेस्परेशन में इस तरह के कदम उठाए जाते हैं। तो कुछ लोगों का यह भी कहना था कि अनुराग ठाकुर को राजनीति के बजाय क्रिकेट पर ही ध्यान फोकस कर लेना चाहिए। कुछ लोग बचाव करते हुए भी नजर आए, जिनका कहना था कि अनुराग दोनों भूमिकाओं को बखूबी निभा रहे हैं।

जनता चाहे तो विक्रमादित्य मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं: प्रतिभा सिंह

शिमला।।

हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह पत्नी और मंडी की पूर्व सांसद प्रतिभा सिंह ने कहा है कि जनता चाहे तो विक्रमादित्य सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री बन सकते हैं। गौरतलब है कि विक्रमादित्य सिंह उनके बेटे हैं और हिमाचल युवा कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं।

हिमाचल में कांग्रेस और मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह पर वंशवाद के आरोप लगते रहे हैं, मगर ऐसा पहली बार हुआ है जब विक्रमादित्य को मुख्यमंत्री बनाने की बात कही गई है। पिछले दिनों सिरमौर दौरे के दौरान प्रतिभा सिंह ने कहा, ‘विक्रमादित्य हर तरह से काबिल हैं और जनता चाहे तो आने वाले समय में वह राज्य के मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं।’

Vikramaditya
विक्रमादित्य सिंह पच्चीस साल के हो चुके हैं और संभव है कि इस बार वह चुनाव भी लड़ें। मगर खुद मुख्यमंत्री वीरभद्र ने कभी इस तरह का संकेत नहीं दिया कि अपने बेटे को वह प्रदेश की राजनीति के शीर्ष पर देखना चाहते हैं। मगर प्रतिभा सिंह की जुबान पर दिल की बात आ ही गई।

गौरतलब है कि अभी तक विक्रमादित्य सिंह खुद को साबित नहीं कर पाए हैं। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि उनका युवा कांग्रेस प्रदेशाअध्यक्ष होना है, मगर यह उपलब्धि भी मेहनत की नहीं, बल्कि उनके पिता वीरभद्र सिंह के राजनीतिक कद की देन है।