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Sunday, September 14, 2025
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हिमाचल का बेटा दौड़कर नापेगा दिल्ली से मुंबई की दूरी

MBM न्यूज नेटवर्क, नाहन।।

हम और आप शायद इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि दिल्ली से मुंबई तक दौड़कर पहुंच जाएं। मगर ‘ग्रेट इंडिया रन’ के तहत कुछ लोगों को इस काम को करने का मौका मिलेगा। यह अल्ट्रा मैराथन है, जिसके लिए देश-दुनिया से कुछ ही लोगों को मौका मिला है। सिरमौर की माइना पंचायत का रहने वाला हिमाचल का लाल सुनील भी इन चुनिंदा लोगों में एक है।

इस अनोखी रेस के लिए एक महीने से भी कम वक्त बचा है, इसलिए तैयारी में सुनील कोई कसर नहीं छोड़ रहे। सुनील को विश्वास है कि वह इस काम को पूरा कर लेंगे, क्योंकि 18 दिन के अंदर इसे पूरा करना है। कुछ महीने पहले सुनील ने चंडीगढ़ से दिल्ली तक दौड़ लगाकर ध्यान बटोरा था। 8 घंटे तक लगातार मूसलाधार बारिश के बावजूद वह हटे नहीं थे।

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क्या तैयारी कर रहे हैं सुनील
– हर रोज 60 किलोमीटर दौड़ रहे हैं।
– अलग-अलग मौसम के हिसाब से ढलने के लिए हमीरपुर के नादौन में प्रैक्टिस कर रहे हैं।
– सुबह तीन घंटे दौड़ते हैं।
– शाम के वक्त दो से तीन घंटे व्यायाम करते हैं।
– नादौन पहुंचने से पहले सुनील ने चंडीगढ़ में साइकलिंग व तैराकी की।
– इस माह के दूसरे सप्ताह में नाहन पहुंचकर यहां के तापमान में कुछ दिन तैयारी करेंगे।
– अंतिम चरण में रोजाना श्रीरेणुका जी जमदग्रि टिब्बे की चढ़ाई को प्रतिदिन नापेंगे।
– 8 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई में भी तैयारी में कोई समझौता नहीं होगा।

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क्या ले रहे हैं डाइट
खास बात यह है कि सुनील पूरी तरह शाकाहारी हैं। वह रोजाना तीन लीटर दूध पी रहे हैं और करीब 100 ग्राम ड्राई फ्रूट्स का रहे हैं। दो-तीन लीटर जूस पीते हैं। किट तो स्पॉन्सर्ड है, मगर डाइट का खर्च खुद उठा रहे हैं।

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वो महिला बोली- अच्छा हुआ जो दरवाजा नहीं खोला, वरना आज बताती कि कौन हूं मैं

  • अजय सिंह

मेरा नाम अजय है। हिमाचल के ऊना जिले से हूं और इन दिनों MBBS कर रहा हूं। मैं अपनी कहानी शेयर करना चाहता हूं। बात उन दिनों की है, जब मैं +2 में था। AIPMT की तैयारी में पूरी-पूरी रात पढ़ा करता था। मैं हमेशा पूरी रात पढ़ता और सुबह 5 बजे मम्मी को उठाकर सो जाता था। एक बार मैं रात को पढ़ रहा था। रात के करीब 1 बजे होंगे। मुझे ऐसा लगा कि कोई मेरे कमरे के दरवाजे के बाहर खड़ा है। मेरा रूम घर के बाकी कमरों से अलग है। मुझे ऐसा अहसास हुआ कि मुझे कोई देख रहा है। मैंने सोचा कि ऐसे ही कुछ लगा होगा मुझे। फिर थोड़ी देर में मैंने सोचा कि कि बाहर घूम लूं, क्योंकि कमरे में गर्मी लग रही थी। मैंने दरवाजा खोला और 10 मिनट तक बाहर घूमा। फिर मैं कमरे में आ गया। दरवाजा थोड़ा खुला छोड़ दिया ताकि हवा आती रहे।

मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। मगर थोड़ी देर बाद फिर मुझे लगा कि कोई मेरे स्टडी टेबल के पीछे खड़ा है। मेरे पूरे शरीर में झुरझुरी दौड़ गई। तब मेरा शरीर पूरी तरह कांप गया जब मुझे लगा कि किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैं इतना डर गया था कि कुछ पता नहीं चल रहा था कि क्या करूं। फिर भी मैं चुपचाप उठा और उस कमरे से तुरंत निकलकर भाई के पास जाकर सो गया। मुझे लगा कि शायद कोई मेरा वहम हो।

अगले दिन फिर 1 या 2 बजे ऐसा ही हुआ। मैंने घर में किसी को ये बात नहीं बताई थी। मगर अगले दिन मैंने अपने टेबल पर भगवान की फोटो रखी थी, फिर भी सेम हुआ। मैं किसी तरह 4 बजे तक जगा और फिर सोचा कि सो जाता हूं। मैंने सोने की कोशिश की, मगर नींद नहीं आ रही थी। 5 बज गए। मैंने कमरे से बाहर जाकर मम्मी को उठाया और चाय बनाने को कहा। इसके बाद मैं फिर अपने कमरे में आकर बेड पर लेट गया। इतने में कमरे के बाहर किसी महिला की आवाज सुनाई दी। मुझे लगा कि पड़ोस वाली आंटी है।

मुझे लगा कि वो दरवाज खटखटाकर कह रही है कि दरवाजा खोलो। मैं थक चुका था रात भर पढ़कर। मैंने मम्मी को आवाज लगाई कि देखो आंटी आवाज लगा रही है। मैंने दो-तीन बार मम्मी को लेटे-लेटे ही आवाज लगाई। दरवाजा इतनी जोर से पीट रही थी मानो तोड़ ही देगी। मैं बहुत डर गया कि ये क्या हो रहा है। मैं उठकर बैठा और उधर से मम्मी की आवाज सुनाई दी कि कोई आंटी आवाज नहीं लगा रही है। देखा कि वाकई कोई नहीं था।

मैं फिर सोने लगा। तभी ऐसा अहसास हुआ कि किसी ने मुझे पकड़ लिया है। ऐसा लगा कि किसी औरत ने मेरे कान में हल्के से कहा कि आज तेरी किस्मत अच्छी थी जो तूने दरवाजा नहीं खोला नहीं तो आज तेरे को बताती मैं कौन हूं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

I don’t know what was that, मगर यह मेरा एक्सपीरियंस है। अभी भी कई बार सोचता हूं तो डर लगता है।

अजय ने इतना ही मेसेज भेजा था। मगर हमने उनसे सवाल पूछा- उसके बाद क्या हुआ था। जब आपको कान में किसी ने कुछ कहा, आधी नीदं में थे? और घरवालों को बताया तो क्या कहा उनने? फिर दोबारा ऐसी घटना हुई या नहीं? आप वहीं पढ़ाई करते थे उस रूम में या नहीं?

इस पर अजय ने बताया- मैं नींद में नहीं था, बस थोड़ी देर आंखें बंद की थीं। मम्मी जी को मैंने पूरा कुछ बताया। फिर मम्मी जी ने कहा कि मैं रात को न पढ़ा करूं। मैंने 4-5 दिन तक रात को नहीं पढ़ा। मैंने 4-5 दिन रात को पढ़ाई नहीं की। जब सब नॉर्मल हुआ तो मैंने फिर से डेली की तरह पढ़ना शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद मम्मी जी को भी ऐसा ही हुआ, जो मेरे साथ हुआ था। पर मम्मी जी ने मुझे नहीं बताया। मेरे पापा ड्यूटी पर होते हैं, इसलिए मम्मी ने सोचा कि किसी को ये बात न बताएं। पर कुछ दिन बात ये सब कुछ ज्यादा हो गया।

एक बार मम्मी जी बेड पर सो रहे थे और उन्हें ऐसा लगा कि किसी ने उन्हें धक्का देकर बेड से गिरा दिया। फिर कुछ दिन बाद लग कि कोई मेरा गला दबा रहा है। फिर उस रात मैं उठा और ऐसा लग कि कोई रूम से बाहर जा रह है। दिखा कुछ नहीं मगर। फिर ये सब मैंने दादा जी को बताया। उन्होंने किसी पर्सन को बुलाया घर, जिसने थोड़ी पूजा सी की। फिर उसके बाद नॉर्मल सा हो गया। फिर लास्ट टाइम मुझे ड्रीम में एक औरत दिखी जो रो रही थी। मुझे ऐसा लग कि मैं उससे वाकई पूछ रहा हूं कि क्या हुआ। वो बोली कि तुमने मुझे अपने घर से निकाल दिया। मैंने उससे पूछा कि हम आपको जानते भी नहीं फिर घर से कैसे निकाला। फिर उसने कहा कि तुम अभी छोटे हो, तुम्हें कुछ नहीं पता।

प्रतीकात्मक तस्वीर

बस इतना हुआ था।

इन हिमाचल: आपका नाम डाल दें स्टोरी में हम?

अजय: As you wish sir. मगर मैं नहीं चाहता कि यह हाइलाइट हो। मेरा प्रफेशन भी इसकी इजाजत नहीं देता।

इन हिमाचल: अब आप मेडिकल स्टूडेंट हो, क्या आपने कभी मनोवैज्ञानिक ऐंगल से सोचने की कोशिश की कि क्या वजह हो सकती है इसकी? सी सीनियर से डिस्कशन किया साइंटिफिकली?

अजय: हां, मैं थर्ड इयर में हूं। मैंने सीनियर्स से बात की थी । उनके पास कोई जवाब नहीं है। अगर यह किसी तरह की मेंटल प्रॉब्लम होती तो मुझे ही होती। और मेरा इलाज भी हो रहा होता अस्पताल में। मगर मैं आत्माओं में यकीन करता हूं।

अजय: यह मेरा नाम मत डालना आप।

इन हिमाचल: ओके। (इसीलिए हमने नाम बदल दिया है)

यह भी पढ़ें: कभी नहीं भूल पाऊंगा बैजनाथ-पपरोला ब्रिज पर हुआ वह अनुभव

(हमें यह कहानी फेसबुक पर पेज पर भेजी गई। हमने लेखक से कुछ बातें भी कीं, जिन्हें देवनागरी में बदलकर लिखा है। लेखक का नाम बदल दिया गया है)

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DISCLAIMER: इन हिमाचल का मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है। हम लोगों की आपबीती को प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि अन्य लोग उसे कम से कम मनोरंजन के तौर पर ही ले सकें। हम इन कहानियों की सत्यता की पुष्टि नहीं करते। हम सिर्फ मनोरंजन के लिए इन्हें प्रकाशित कर रहे हैं। आप भी हमें अपने किस्से inhimachal.in@gmail.com पर भेज सकते हैं।

सड़क हादसों से व्यथित गडकरी ने हिमाचल से किया एक वादा

MBM न्यूज नेटवर्क, सोलन।।

खराब मौसम के बावजूद हिमाचल पहुंचे केंद्रीय भूतल एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने आश्वासन दिया है कि केंद्र सरकार हिमाचल की सड़कों की तस्वीर बदलकर रख देगी। उन्होंने कहा कि प्रदेश की सड़कों को सुरक्षित बनाया जाएगा।

जनसभा को संबोधित करते हुए गडकरी ने कहा, ‘मीडिया से जब मुझे दुर्घटनाओं की जानकारी मिलती है तो मैं द्रवित हो जाता हूं। इसी व्यथा के कारण मैं चाहता हूं कि देवभूमि की सडक़ें बेहद सुरक्षित हो जाएं। लिहाजा केंद्र सरकार प्रदेश में 50 हजार करोड़ रुपये की परियोजनाएं शुरू करने जा रही है।’

गडकरी ने कहा, ‘इससे यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि सभी काम मौजूदा एनडीए सरकार के कार्यकाल में ही पूरे हो जाएं। देवभूमि में प्रस्तावित हाईवे अब सीमेंट से बनाए जाएंगे और दो पीढ़ियों तक उन्हें इस्तेमाल किया जा सकेगा।’ केंद्रीय मंत्री ने कहा कि इसे लेकर महाराष्ट्र में प्रयोग किया गया था, जो कामयाब रहा।

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गडकरी ने संसदीय क्षेत्र में 9 राज्य मार्गों का दर्जा नैशनल हाईवे करने का भी ऐलान किया है। इसमें सनौरा-राजगढ़-रोहनाट-जामली, कफोटा-जाखना-हीरपुर, सतौन-जमटा-दोसडक़ा, साधुपुल-चायल-कुफरी, सोलन-सुबाथू, रोहडू-डोडराक्वार, सैंज-देहा-चौपाल व रोहनाट-जामली शामिल हैं।

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इस मौके पर बोलते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने कहा कि केंद्र सरकार प्रदेश को विकास में आगे बढ़ाने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है। उन्होंने कहा कि पहाड़ी क्षेत्रों में सडक़ों का निर्माण कठिन कार्य है, फिर भी प्रदेश की तस्वीर बदलने की कोशिश की जा रही है।

Forlaneइस कार्यक्रम के बाद गडकरी ने परवाणु से शिमला फोरलेन निर्माण का शिलान्यास किया। इस मौके पर मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह भी मौजूद थे। 89.51 किलोमीटर लंबे इस फोरलेन को बनाने में 2.545 करोड़ रुपये का खर्च आएगा।

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हॉरर एनकाउंटर: सफेद दाढ़ी वाले उस बुजुर्ग ने कहा, मुझे बचा लो….

  • देवेंदर शर्मा

बात उन दिनों की है, जब मंडी के दूर-दराज के जंजैहली के एक गांव में मेरी पोस्टिंग हुई थी। 1981-82 तक मैं वहां अध्यापक के तौर पर रहा। नई-नई नौकरी लगी थी। गांव में उन दिनों किराए के मकान नहीं मिला करते थे, क्योंकि लोगों ने गुजारे लायक ही कमरे बनाए होते थे। बड़ी मुश्किल से मुझे गांव के आखिरी सिरे में एक घर मिला, जहां रहने वाले मंडी शहर में शिफ्ट हो गए थे। घर पुराना था और मिट्टी का बना था, मगर रहने लायक था। आसपास कोई घर नहीं और कुछ सालों से कोई रहता नहीं था तो आसपास के खेतों में पेड़ पौधे उग आए थे। आंगन खुला था और नीचे एक नाली बहती थी। बरसात के दिनों में नजारा खूबसूरत लगता था। समस्या एक ही थी कि नाला जहां से मुड़ता था, वहां पर श्मशान घाट था। पूरे इलाके के लोग वहां आते थे, जब कभी किसी का देहांत होता। घर ऊंचाई पर था तो दहलीज से ही नीचे का सब कुछ दिख जाता था। मगर यह कोई बड़ी बात नहीं थी, घर मिलना मुश्किल था। और कोई चारा भी तो नहीं था।

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तस्वीर प्रतीकात्मक है।

मैं रोज स्कूल से शाम को आता और सुबह चला जाता। मुझे यहां रहते साल भर हो गया था। एक बार मेरे दोस्त, जो कि मंडी कॉलेज में पढ़ाता था, मेरे यहां आने की इच्छा जताई। वह शनिवार को आया और साथ में थोड़ी शराब भी लाया था। रात को हमने खाया-पिया और सो गए। अगले दिन स्कूल की छुट्टी थी, इसलिए बेफिक्री से सोए रहे। सुबह का वक्त रहा होगा 6-7 बजे का। किसी ने दरवाजा खटखटाया। चूंकि मेरे क्वार्टर से बाकी लोगों के घर कम से कम आधा एक-किलोमीटर थे, इसलिए मैं चौंका कि कौन आ गया इतनी सुबह। खिड़की से थोड़ी-थोड़ी रोशनी दिखी बाहर। मैंने दोस्त को आलस में कहा कि भाई दरवाजा खोल। वह उठा और दरवाजा खोलने गया, मैंने चादर सिर पर ओढ़ ली ताकि दरवाजा खुलने पर लाइट आंखों में न चुभे।

मैंने सुना कि वह कुछ बात कर रहा है किसी में। इतने में जोर से आवाज सुनाई दी दोस्त की- देवेंदर उठ। मैंने उठकर देखा और बोला कि क्या हुआ। रजाई हटाकर देखा कि दरवाजे के अंदर खड़ा दोस्त बाहर की तरफ देखकर हक्का-बक्का सा खड़ा है। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, दोस्त बोला- देवेंदर उठ। मैंने बोला क्या हुआ और तुरंत दौड़ता हुआ सा दरवाजे पर पहुंचा। देखा कि बाहर एक बूढ़ा व्यक्ति खड़ा है, जिसके सिर पर कोई बार नहीं मगर बहुत लंबी सफेद दाढ़ी थी और उसमें गेंदे के फूल की पंखुड़ियां फंसी हुई थी और हाथ में लाल रंग का चमकीला कपड़ा था।

मैंने कहा- हां जी बोलो।
बूढ़ा बोला- बेटा मेरेको बचा लो।
मैंने कहा कि क्या हुआ, किससे बचा लो।
बूढ़ा नीचे की तरफ इशारा करते हुए बोला- वो लोग जला रहे हैं मेरे को, बचा लो मेरेको।

उसका यह कहना था कि मेरी नजर नीचे नाले की तरफ गई। देखा कि वहां बहुत से लोग जुटे हुए हैं। साफ था कि किसी की मौत हुई थी और वे उसका अंतिम संस्कार करने वहां आए थे। जैसे ही मैंने उसकी बात सुनी और नीचे का मंजर देखा, मेरा दिल धक्क से बोल गया। मेरे हाथ पांव फूल गए। क्या यह नीचे जलाए जा रहे किसी बूढ़े की आत्मा है? वहां के बुजुर्गों से सुना था कि जंगल में भूत रहते हैं। कुछ किस्से भी सुने थे, इसलिए डर लग गया। कुछ समझ में हीं नहीं आ रहा था कि क्या करें, क्या नहीं। इतने में मेरा दोस्त बोला तो हमारे पास क्यों आए हो, किसी और के पास जाओ, हम क्या करें।

इतने में उस बूढ़े ने जेब से कुछ निकाला और बोला- बाकियों के पास भी जाऊंगा, ये गोली उनके आर-पार कर दूंगा।

पता नहीं उसके हाथ में क्या था और कैसी गोली आर-पार करने की बात कर रहा था वो। मैं तो सन्न था। जैसे ही उसने ये कहा, मेरे दोस्त ने जोर से गाली देते हुए कहा-  हरामजादे कौन है तू और दरवाजे के पास टिकाकर रखा छाता (पुराना वाला, जिसमें हत्था होता था) उठाकर उसे मारने दौड़ा। बूढ़े ने यह देखा और वह पलटा और नीचे की तरफ भागने लगा। बूढ़ा आगे-आगे और मेरा दोस्त पीछे-पीछे। मैं डर रहा था लेकिन दोस्त के पीछे मैं भी दौड़ लिया। बूढ़ा बड़ी तेजी से नीचे की ओर भागा और खेत खत्म होने पर सुरू होने वाले जंगलों में घुस गया। मैंने जोर से आवाज लगाई और अपने दोस्त को आगे जाने से रोक दिया।

हम दोनों का दम फूल चुका था। हम यह देखते हुए वापस घर की तरफ लौटे कि कहीं वह बूढ़ा वापस न आ रहा हो। इस बीच तक नीचे चिता को आग लगा दी गई थी। हम दोनों की बुरी हालत थी। एक-दूसरे से कुछ भी कहने की हालत में नहीं थे। मैंने कमरे में ताला लगाया और रास्ते से पास के गांव की तरफ चल दिया। मन में तरह-तरह के ख्याल आए कि वह क्या था। भगवान का भी शुक्रिया अदा किया कि आज तो बचा लिया। रास्ते में ही दो-तीन लोग मिले, जो शायद श्मशान घाट की तरफ जा रहे थे। उनमें एक दुकानदार भी था, जिससे मैं राशन लिया करता था। मुझे हांफता और दौड़ता देख वे लोग रुक गए।

इससे पहले कि वे लोग कुछ बोलते, मैंने एक सांस में पूरी कहानी उन्हें सुना दी। मैंने उन्हें बताया  कि ऐसे-ऐसे एक बंदा आया और उसने ऐसा कहा। हमारी बात को वे तीनों लोग बड़ी ध्यान से सुन रहे थे। दुकानदार ने पूछा कि सफेद रंग की दाढ़ी थी क्या उसकी बड़ी सी।

जैसे ही उसने ये सवाल पूछा, मन में शंका पैदा हुई कि जिस शख्स की चिता को ये लकड़ी डालने जा रहे हैं, उसी की लंबी दाढ़ी रही होगी। मैंने कहा हां- यह सुनकर उन तीनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा और जोर-जोर से हंसने लगे। अब मैं और डर गया। मुझे लगा कि शायद ये भी भूत प्रेत हैं और अब ठहाका लगा रहे हैं। मैंने दो कदम पीछे हट गया और भागने की तैयारी में ही था कि दुकानदार बोला- मास्टर साहब, आप भी कमाल करते हो, मास्टर होकर भूतों पर भरोसा करते हो।

मैंने कुछ नहीं कहा। दुकानदार के साथ वाला बंदा बोला- अरे वो बगल वाले गांव का एक पागल बूढ़ा है। उसके दिमाग में फर्क है। दिन-भर इधर-उधर घूमता रहता है, कभी जंगल में कभी श्मशान घाट में तो कभी कहां। रोज नए ड्रामे करता है। रात को अपने घर पहुंचता है बेटे के पास, वहां खाना खाता है, रात को सोता है, सुबह खाना खाता है और दिन भर फिर इधर-उधर घूमकर अजीब हरकतें करता है।

हमारी हालत पर वे तीनों लोग ठहाके लगाने लगे। यह सुनकर मुझे और मेरे दोस्त को राहत की सांस भी आई और शर्मिंदगी भी हुई। हम दोनों बहुत झेंपे और शर्मिंदगी से बचने के लिए उनके साथ हंसने लगे। इतने में पता चला कि गांव की किसी बुजुर्ग महिला की मौत हुई है, जिसका अंतिम संस्कार किया जा रहा है। इसके बाद वे श्मशान घाट की तरफ चल दिए और हम अपने उस घर की तरफ।

जानता हूं कि ये हॉरर कहानी नहीं है, मगर मेरे लिए यह पूरा घटनाक्रम तब तक हॉरर रहा, जब तक बूढ़े की सच्चाई पता नहीं चल गई। वैसे बाद में वह बूढ़ा कई बार मिला। एक दो बार शाम को मेरे यहां आकर बैठा और मैंने उसे कुछ खाने को भी दिया। फिर कभी उसने मेरे साथ ऐसी हरकत नहीं की, मगर वह हवा में बातें करता रहता था और सड़क से पत्थर उठाकर जेब में रखता रहता था। आज भी इस कहानी को मैं और मेरा वह दोस्त खूब चाव से सुनाते हैं। आज भी अंदर तक गुदगुदा जाती है इस घटना की याद।

यह भी पढ़ें: कभी नहीं भूल पाऊंगा बैजनाथ-पपरोला ब्रिज पर हुआ वह अनुभव

(लेखक चंबा के हने वाले हैं और शिक्षा विभाग से रिटायर होने के बाद इन दिनों अपने पैतृक गांव में रहते हैं। फेसबुक के जरिए उन्होंने यह वाकया हमें भेजा)

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प्रदेश की सड़कों पर दौड़ रही हैं खटारा और जानलेवा TATA AC बसें

शिमला।।

हिमाचल प्रदेश पथ परिवहन निगम (HRTC) की बहुत सी बसों की हालत खराब हो चुकी है। प्रदेश की सड़कों की हालत ही ऐसी है कि सरकारी वाहन ही नहीं, निजी वाहनों की भी स्थिति कुछ सालों में खराब हो जाती है। मगर बात अगर पब्लिक  ट्रांसपोर्ट की हो, इसमें जरा भी लापरवाही नहीं बरती जा सकती, क्योंकि इनमें बहुत से लोग एकसाथ ट्रैवल करते हैं। एचआरटीसी की एसी बसों की हालत तो और भी खराब है। इनमें दो-दो सीटें एक्स्ट्रा जोड़ने के चक्कर में बाकी सीटों को करीब-करीब कर दिया गया है, जिससे लेग स्पेस खत्म हो गया है और रिक्लाइनर सीट्स को कोई पीछे कर दे झगड़ा होना आम है। ऊपर से इनकी हालत ऐसी है कि एसी वेंट्स से कभी पानी गिरता है तो कभी गरम हवा। मगर पिछले दिनों हिमाचल के एक नागरिक ने फेसबुक पर ऐसी तस्वीरें पोस्ट की हैं, जिनसे निगम को होश में आना चाहिए। हम उस पोस्ट को यथावत नीचे दे रहे हैं।

तरुण गोयल नाम के युवक, जो कि चर्चित ब्लॉगर और मकैनिकल इंजिनियर हैं, ने 31 मई को लिखा है, ‘साल 2004 में मेरी बस का एक्सीडेंट हुआ, 15 – 16 लोग मारे गए, लेकिन मैं बच गया। एक टांग में तीन फ्रैक्चर, पीठ में बैकबोन कम्प्रेशन, और सर में माइनर हेड इंजरी हुई, लेकिन मैं बच गया। लेकिन अब ये हिम् गौरव टाटा ऐसी में सफर करके लगता है की अब नहीं बचूंगा, ये टाटा ऐसी बसें इस फैसिलिटी के साथ चलाई हैं सरकार ने की आदमी बचने न पाए। अक्सर बस के बाहर एक्सीडेंट होने से आदमी की जान जाती है, लेकिन इन बसों में अंदर ही जान निकालने की फैसिलिटी है। अब मेरी सीट है 30 नम्बर, पिछवाड़ा अपनी सीट पे है और सर पीछे वाले की गोद में। ऎसी का ढक्कन पूरा खुला हुआ है और पीछे वाला आदमी छींक मार मार के ‘स्पेशल Gel’ से मेरे बाल भर चुका है। 25, 26, 27, 28 वाले भी बेसुध से आधे अपनी और आधे पीछे वाले की सीट में ध्वस्त पड़े हैं। एकदम से बस का शीशा टूट जाता है और मनाली से रोमांटिक हनीमून मना के आ रहे कपल को लाइव यमराज के दर्शन हो चुके हैं।



परिवहन मंत्री G.S. Bali जी ने कहा था अप्रैल से इन बसों को फेज आउट किया जाएगा। अब जून आ गया, नयी वॉल्वो पे वॉल्वो लांच हुई जा रही हैं। हो सकता है पैसे की कमी से फेस आउट प्रक्रिया स्लो हो गयी हो। लेकिन कम से कम नट बोल्ट शीशे तो नए लगवा ही देने चाहिए सरकार को, नही तो आधी सवारियां ही दिल्ली पहुंचेंगी और बाकी का आधा भाग हराबाग जडोल और घाघस के बीच ढूँढना पड़ेगा। एक मकैनिकल इंजीनयर नट बोल्ट की कीमत नहीं समझेगा तो कौन समझेगा।

31 मई की तस्वीर।

इसके साथ ही उन्होंने एक विडियो भी पोस्ट किया है।

 

लगभग पूरे प्रदेश में टाटा एसी बसों को लेकर ऐसी ही शिकायतें आती रहती हैं। कई बार ये बीच सफर में ही खराब हो जाती हैं तो कई बार एसी ही नहीं चलता। तेज-तर्रार मंत्री के तौर पर पहचान बनाने वाली परिवहन मंत्री जी.एस. बाली ने बसों को चरणबद्ध तरीके से हटाने की बात भी कही थी, मगर अभी तक इस दिशा में कोई काम होता नहीं दिख रहा है। बसों की हालत अगर ऐसी होगी और सड़कें भी खस्ताहाल होंगी तो हादसे होने की आशंकाएं कई गुना बढ़ जाएंगी। सवाल उठता है कि क्या सरकार किसी और हादसे का इंतजार कर रही है?

हिमाचल में केबल बिछाने के लिए अब नहीं होगी सड़कों की खुदाई

शिमला।।

हिमाचल प्रदेश में अब केबल डालने के लिए सड़कों की खुदाई नहीं की जाएगी। आए दिन हो रहे सड़क हादसों को देखते हुए PWD ने यह फैसला किया है। गौरतलब है कि इन हिमाचल ने जब पिछले दिनों जोगिंदर नगर में हुए बस हादसे की अपने स्तर पर छानबीन की थी, तब पाया था कि हादसे में सड़क किनारे ऑप्टिकल फाइबर केबल बिछाने के लिए हुई खुदाई भी बड़ी वजह थी।

प्रदेश लोक निर्माण विभाग ने फैसला किया है कि सड़क किनारे अब सर्विस डक्ट या यूटीलिटी डक्ट बनाए जाएंगे। यानी सड़क किनारे खास नालीनुमा रास्ता बना दिया जाएगा, जिसके ढक्कनों को हटाया जा सकता है। जब भी पुराना केबल रिप्लेस करना होग या किसी तरह का नया केबल डालना होगा, खुदाई की जरूरत नहीं होगी। डक्ट में ढक्कन हटाकर यह काम आसानी से किया जा सकेगा।
cables
इससे न सिर्फ बार-बार खुदाई से सड़कें खराब होने से बचेंगी, कंपनियों को काम करने में भी जल्दी होगी और उनकी लागत कम होगी। साथ ही PWD इन डक्ट्स को इस्तेमाल करने वाली कंपनियों से किराया भी वसूल कर सकेगा।


सर्विस डक्ट तकनीक को फिलहाल ट्रायल बेस पर शिमला और मंडी में शुरू किया जाएगा। अगर इसके रिजल्ट अच्छे आते हैं, तो पूरे प्रदेश में इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा। हिमाचल प्रदेश के लिए यह तकनीक बिल्कुल नई है, मगर विदेशों में इसका प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता रहा है।

यूरोप और अमेरिका के देशों में यह तकनीक काफी सफल रही है। हिमाचल में कुछ चुनौतियां भी हैं, क्योंकि यहां बरसात में अगर तेज बारिश से मिट्टी बही या भूस्खलन हुआ तो इन डक्ट्स को नुकसान पहुंच सकता है। इसलिए इस प्रॉजेक्ट को बहुत समझदाजी के साथ प्लान करने की आवश्यकता है।

Heavy duty troughs and covers for vehicle loading

प्रदेश की जर्जर हो चुकी सड़कों और ब्लैक स्पॉट के कारण आए दिन हादसे हो रहे हैं और आम लोगों की जानें जा रही हैं।इन हिमाचल ने बड़े स्तर पर मुहिम चलाते हुए आवाज उठाई थी कि इस तरह सड़कों पर होने वाली खुदई न सिर्फ हादसों की वजह बनती है, सड़कों को नुकसान भी पहुंचाती है।

पढ़ें: इसलिए हुआ था जोगिंदर नगर में बस हादसा

ऐक्टिंग, मॉडलिंग में छा जाना चाहती हैं शिव्या पठानिया

शिमला।।

मिस शिमला रह चुकीं शिव्या पठानिया पिछले दिनों हमसफर्स सीरियल में नजर आईं। अब यह सीरियल खत्म हो चुका है और उम्मीद है कि जल्द ही वह किसी नई भूमिका में नजर आएंगी। जानिए, शिव्या के बारे में कुछ बातें:

पैरंट्स के साथ शिव्या

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शिव्या के पिता सुभाष पठानिया लेबर ऐंड एंप्लॉयमेंट विभाग में लॉ ऑफिसर हैं। इनकी माता बिजनस वुमन हैं। इनका छोटा भाई स्कूल में है और बहन सेंड बीड्स कॉलेज से पढ़ाई कर रही हैं।

मॉडलिंग के अलावा सिंगिंग और गिटार प्ले करने का शौक भी रखती हैं शिव्या। कॉलेज में कई क्लब के जरिए वह समाजसेवा के कामों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेती रही हैं।

कॉलेज स्तर पर उन्होंने कई मॉडलिंग प्रतियोगिताओं में भाग लेकर पुरस्कार भी जीते। वह हिमाचल के अखबार दिव्य हिमाचल की प्रतियोगिता ‘मिस हिमाचल’ की रनर अप भी रही हैं।

शिव्या ने चितकारा यूनिवर्सिटी से इंजिनियरिंग की है, लेकिन वह हमेशा से वह मॉडलिंग और ऐक्टिंग करना चाहती थीं। उन्होंने अपना सपना पूरा करने की तरफ एक कदम सफलता से बढ़ाया है। आगे भी वह कामयाब रहें, इसके लिए उन्हें शुभकामनाएं।

हॉरर एनकाउंटर: कभी नहीं भूल पाऊंगा बैजनाथ-पपरोला ब्रिज पर हुआ वह अनुभव

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  • अनंत त्रिवेदी

मैं उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से हूं और गुड़गांव में एक सॉफ्टवेयर डिवेलपर हूं। इन हिमाचल पेज को पिछले दिनों लाइक किया था। बीच में यहां भूत से जुड़ी कुछ कहानियां पढ़ीं तो पुरानी याद ताजा हो गई। बहुत दिनों से लिखने की सोच रहा था, आज वक्त निकालकर लिख रहा हूं। किस्सा हिमाचल प्रदेश से ही जुड़ा हुआ है। बात 7-8 साल पुरानी है। चंडीगढ़ में पढ़ाई कर रहा था। मेरे आजमगढ़ के ही कुछ दोस्त दिल्ली में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। उन्होंने प्लान बनाया कि बिलिंग चलो, वहां पर पैराग्लाइडिंग होती है। घूम आएंगे और मजा भी आएगा। अचानक योजना बनी और वे तीन लोग बिलिंग चले गए। मुझे जब पता चला कि वे लोग हिमाचल जा रहे हैं तो मैंने भी इच्छा जताई। वे लोग तय प्रोग्राम के तहत बस से निकलने वाले थे, इसलिए मैने कहा कि एक दिन बाद मै खुद चंडीगढ़ से आ जाऊंगा।

नवंबर का महीना था और दोस्त लोग हरियाणा रोडवेज की बस से दिल्ली से बैजनाथ गए। एक दिन वे बिलिंग और चौगान वगैरह घूमे और आसपास कोई होटेल न मिलने पर शाम को बैजनाथ आ गए। उसी शाम को मैं चंडीगढ़ से निकला। मैंने पहले धर्मशाला जा रही एक बस पकड़ी, मगर ऊना के पास उसका टायर पंक्चर हो गया। इसी ने मेरा सारा प्लान चौपटकर दिया। मैंने सोचा था कि वक्त पर कांगड़ा उतर जाऊंगा और वहां से कोई बस पकड़ लूंगा बैजनाथ के लिए। मगर धर्मशाला जा रही उस बस ने मुझे रात के करीब 1 बजे कांगड़ा उतारा। वहां से कोई भी बस बैजनाथ पालमपुर साइड को नहीं मिली। किसी ने बताया कि बसें सुबह चलेंगी, बेहतर होगा कि किसी ट्रक वगैरह को हाथ देकर लिफ्ट ले लो। मैं ऐसे ही खड़ा रहा और आधे घंटे के बाद मुझे एक जीप वाले लिफ्ट दे दी। यह ड्राइवर उत्तराला जा रहा, जिसके लिए बैजनाथ से पहले पपरोला से ही लिंक चला जाता है। उसने कहा कि मैं पपरोला मार्केट में छोड़ दूंगा आपको, बाकी आपको खुद जाना होगा आगे।

रात को सड़कें खाली थीं और ड्राइवर पूरी स्पीड से गाड़ी दौड़ा रहा था। करीब 45 मिनट में उसने एक कस्बे के बीच ब्रेक लगाई और बोला कि आ गया पपरोला, अब आप या तो किसी गाड़ी का इतजार कर लो या फिर पैदल निकल जाओ सीधे रेलवे ब्रिज से। मैंने कहा कि जी मेरेको पता नहीं है, आप पैसे ले लो और मुझे छोड़ दो। ड्राइवर ने कहा कि भाई पैसों की बात नहीं है, मुझे बहुत जरूरी काम है और मैं खुद पठानकोट से भागा-भागा आ रहा हूं। उसने मुझे बताया कि ज्यादा दूरी नहीं। उसने बताया कि सामने जाओ, सड़क से नीचे को रास्ता दिखेगा, चांदनी रात है एकदम, रेलवे पुल पार करो और खड़ी चढ़ाई है। सीधे मार्केट में पहुंचोगे और वहां पर होटेल में पहुंच जाना।

पाठकों की जानकारी के लिए- बैजनाथ और पपरोला दो कस्बे हैं, जो बिनवा नदी के दोनों आमने-सामने वाले किनारों पर बसे हैं। दोनों के आखिरी सिरों के बीच मुश्किल से सड़क मार्ग से 400 मीटर की दूरी है, मगर पैदल यह दूरी 200 मीटर होगी। बस आपको शॉर्टकट मारते हुए रेलवे ब्रिज से रास्ता तय करना होगा। ऊपर दी गई तस्वीर में वह पुल है और साथ में बैजनाथ मार्केट की ओर जा रहा पैदल रास्ता दिख रहा है।

यह कहकर मुझसे ड्राइवर ने विदा ली और वहां से ऊपर की तरफ जा रहे एक लिंक रोड पर निकल गया। चांदनी रात थी और शहर में सन्नाटा था। दूर-दूर तक कोई नहीं दिख रहा था। कोई गाड़ी भी नहीं गुजर रही थी कि लिफ्ट मांगी जाए। स्ट्रीट लाइट्स भी दूर-दूर थीं। खैर, मैंने उस दिशा में बढ़ना शुरू किया, जिस तरफ ड्राइवर ने इशारा किया था। कस्बे के खत्म होते ही खूबसूरत नजारा था। चांदनी रात थी और एक तरफ नदी बह रही थी। नदी में बहते पानी का मस्त संगीत सुनाई दे रहा था। खड्डे के पत्थचर चमकते हुए बहुत शानदार लग रहे थे। सामने दो पुल दिखाई दिए। एक सड़क वाला और उससे नीचे रेल का। पहले सोचा कि रेल के पुल से चलूं, मगर फिर सोचा कि वहां अंधेरा है और ऊपर से रास्ते में कोई जंगली जानवर मिल सकता है। इसलिए बेहतर है कि सड़क से चलूं क्योंकि गाड़ियां आती-जाती रहती होंगी तो जानवर वगैरह नहीं मिलेंगे। झाड़ियों वाले रास्ते मे सांप वगैरह भी हो सकते हैं। ऊपर से स्ट्रीट लाइट भी जल रही थी एक सड़क वाले पुल पर।

मैं तेज कदमों से बढ़ चला। जैसे ही पुल के पास पहुंचा, रेल के पुल की तरफ देखा। चांदनी रात में कितना प्यार लग रहा था वो नजारा। मगर मेरा ये सारा उत्साह उस वक्त गायब हो गया, जब मैंने किसी चीज़ को पुल के नीचे की तरफ लटके हुए देखा। पहले मन किया कि दोबारा उधर न देखूं, कयोंकि पता नहीं क्या था और समझ भी नहीं आया था। मगर डर और एक्साइटमेंट के मिले-जुले भाव से मैंने देख ही लिया। गौर करने पर पाया कि ऐसा लग रहा था कि कोई महिला पुल पर नीचे लटकी हुई है। मतलब साफ-साफ नहीं दिख रहा था, मगर धुंधला सा, स्लेटी से रंग का कुछ और जैसे बाल लहरा रहे हों और वह भी उल्टे। सच कहूं तो मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि वह महिला थी या कुछ और, लेकिन मेरे प्राण सूख गए। शरीर में झुरझुरी दौड़ गई और भागने को दिल चाहा लेकिन घबराहट में पता नही ंक्या हो रहा था। इतने में सामने से एक गाड़ी आती हुई दिकाई दी, जिसकी हेडलाइट नहीं जल रही थी। मारुति रही होगी सफेद रंग की। मैं आगे बढ़ा और उसे हाथ दे दिया।

गाड़ी मेरी बगल में रुकी और मैंने आव-देखा न ताव, झट से उसका दरवाजा खोलने लग गया और बोल रहा जल्दी चलो, यहां से। मैंने कार का दरवाजा खोला और उसमें बैठ गया और ड्राइवर को बोलने लगा कि जल्दी चलो यहां से। मैंने देखा कि आगे वाली साइट पर एक एक बुजुर्ग बैठा है और ड्राइवर की सीट पर अधेड़ सा एक मर्द। मेैं पीछे वाली सीट पर बैठा हुआ था, वहां पर एक महिला बैठी हुई थी। मैं बोला चल क्यों नहीं रहे, अचानक वे सब लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लग एकटक लगाकर। मैं पहले से डरा हुआ था और अब मेरी हालत और खराब थी। मैं समझ गया कि मामला गड़बड़ है। मैंने भागने के लिए कार का दरवाजा खोला ही था कि वे लोग बहुत अजीब सी आवाज में रोने लग गए। दरवाजा खुल चुका था और मैं बेतहाशा भाग रहा था। उनकी आवाजें और तेज हो रही थीं। मैं दौड़ा और पुल पार करते ही नीचे की तरफ मंदिर का दिखा, वहां भाग गया और जोर-जोर से दरवाजा पीटने लगा। अंदर दो साधु निकले और उन्होंने पहले तो गालियां दी कि मैं इतनी रात को क्या कर रहा हूं। मैंने घबराकर उन्हें पूरी बात बताई तो उन्होंने अंदर बिठाया। पानी पिलाया, भभूत खिलाई और मुझे बोला कि कुछ नहीं हुआ, घबराओ मत।

पाठकों की जानकारी के लिए इन हिमाचल ने वह तस्वीर ढूंढी, जिससे लेखक की बताई बात समझी जा सके। उन्हें ऊपर वाले पुल से नीचे रेलवे पुल में कुछ दिखा था। बाद में वह भागकर सड़क के नीचे (बाएं) दिख रहे लाल रंग के ट्रक वाली तरफ भागे थे, यहीं एक मंदिर है जहां आजकल गोशाला बनी हुई है।

मैं कांप रहा था और रो रहा था। उनमें एक बुजुर्ग से दिख रहे साधु ने कहा कि कुछ नहीं हुआ तुम्हें, वहम हो गया। यह कहते हुए उन्होंने मोरपंखे से कुछ मंत्र पढ़ते हुए सिर पर उसे कई बार लहराया। मैं उन साधुओं के बीच खुद को सहज पा रहा था। इतने में मैंने मोबाइल निकाला और अनपे दोस्तों को पूरी कहानी बताई। दोस्तों ने होटेल वाले को जगाया और रात को ही गाड़ी लेकर एक घंटे में उश मंदिर में पहुंच गए। मैंने पूरी कहानी बताई तो उन्हें यकीन नहीं हुआ। उन्हें लगा कि मुझे वहम हुआ है। वह रात मैंने और मेरे दोस्तों ने उसी मंदिर में बिताई और होटेल के उस भले मालिक ने भी। सुबह होते ही मैं मंदिर से बाहर निकला और दोस्तों को बताया कि कहां क्या हुआ था। इस बीच वहां मौजूद साधु ने मुझे जाने से पहले भभूत की पुड़िया देते हुए कहा, डर लगे तो इसे लगा लेना। बाकी कोई बात नहीं।

हम लोग वहां से बैजनाथ गए, होटेल में ब्रेकफस्ट किया और बाबा बैजनाथ मंदिर में माथा टेका। वहां जाकर मैंने भगवान से प्रार्थना की कि ऐसा कभी दोबारा न हो, जैसा बीती रात हुआ। उसके बाद हम सब बिलिंग गए, दोस्तों ने इस बार उड़ान भी भरी, लेकिन मैं किसी औऱ ही दुनिया में था। मन किया तुरंत यहां से भाग जाऊं। दोस्तों का प्लान और रुककर कहीं और घूमने का था, लेकिन मैंने कहा कि मुझे चंडीगढ़ ले चलो। मैंने इसके लिए मंडी जाने के लिए कहा और वहां से चंडीगढ़ के लिए बस पकड़ने के लिए प्लान बनाया, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि दोबारा उस पुल से होकर गुजरना पड़े।

उसी रात हम चंडीगढ़ आ गए। घबराहट कई दिनों तक बनी रही और कई दिनों तक बाबा जी की पुड़िया अपना पास रखी। कभी कोई सपना या ऐसी घटना दोबारा मेरे साथ नहीं हुई। और इसके लिए मैं भगवान का शुक्रगुजार हूं। बाबा जी की दी हुई पुड़िया आज भी पूजा के सामान के साथ रखता हूं। मगर 7-8 साल बाद आज मैं उस घटना के बारे में सोचता हूं तो उतना डर नहीं लगता। मेरा मतलब है कि आज इतने सालों बाद लगता है कि मुझे शायद कोई भ्रम हुआ होगा पुल की तरफ देखकर और वो गाड़ी में जो लोग थे, वे भी बेचारे मेरी ही तरह कुछ देखकर डर गए होंगे। मैंने कई सालों तक यह कहानी किसी को नहीं सुनाई। मेरे दोस्त जो मुझे डरपोक समझते थे, उन्होंने हमेशा मेरा मजाक उड़ाया। आज मैं शादी-शुदा हूं, बच्चे हैं। उनके साथ भी ये कहानी नहीं सुना पाया, क्योंकि लगता था कि शायद वे भी मेरा मजाक उड़ाएंगे। मगर मैं जानता हूं कि उस रात जो मेरे साथ हुआ, वह सामान्य नहीं था। जो कुछ भी था, डरावना था। इसलिए इन हिमाचल को भेज रहा हूं कि मेरे इस अनुभव को वह कहानी के तौर पर ही सही, दुनिया के सामने ला सके।

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(लेखक गुड़गांव में एक मल्टीनैशनल सॉफ्टवेयर फर्म में कार्यरत हैं। उन्होंने ईमेल आईडी प्रकाशित न करने की गुजारिश की है।)

DISCLAIMER: इन हिमाचल का मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है। हम लोगों की आपबीती को प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि अन्य लोग उसे कम से कम मनोरंजन के तौर पर ही ले सकें।

कूटनीति के राजा, मगर विज़नहीन नेता हैं वीरभद्र सिंह

  • (यह लेख 1 जून, 2016 को प्रकाशित किया गया था जब वीरभद्र सिंह हिमाचल के मुख्यमंत्री थे)

सुरेश चंबयाल।। कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री द्वारा कैबिनेट में लिए उस फैसले को पढ़कर मुझे बड़ा अजीब लगा, जिसमें कहा गया था कि अवैध भवन नियमित किए जाएंगे। जिस चीज के साथ ही ‘अवैध’ जुड़ा है, भला उसे जायज करना सत्ता का फैसला कैसे हो सकता है? यह क्या सन्देश देगा ? क्या सत्ता का काम तुष्टीकरण करना है या इसके पीछे चहेतों को लाभ देने का काम किया जा रहा है? इन सवालों पर मैं घंटों सोचता रहा।

‘राजा वीरभद्र सिंह’, बचपन में जब होश सम्भाला था तो मुख्यमन्त्री के रूप में पहला नाम यही सुना था। हंसमुख चेहरा, हाजिर जवाबी। हम भी ‘राजा साब’ के फैन थे। कैसे उन्होंने सुखराम का तिलिस्म तोड़ा, कैसे-कैसे कब कहां कूटनीति से विरोधियों को चित किया, यह ताली बजा देने वाले मोमेंट थे। मगर वक़्त के साथ मैंने देखा कि सत्ता के शीर्ष पर रहकर भी राजा साब हिमाचल को आगे ले जाने के लिए कोई दिशा नहीं दे पाए। उनकी जिंदगी और नीति बस कूटनीति की शतरंज के उन 68 खानों ( जानता हूं 64 होते हैं परन्तु विधानसभा सीट के आधार अपर 68 लिखा) तक सीमित रही। वो उस से बाहर कभी हिमाचल का भविष्य नहीं देख पाए। उन्हें सत्ता में रहने में मजा आता है। वो इसके मंझे हुए खिलाड़ी भी हैं, जो कबीले तारीफ़ भी है। मगर 25 वर्षों में जो दशा, दिशा वो तय कर सकते थे, ऐसा उन्होंने कुछ नहीं किया।

बेरोजगारों की लम्बी फौजें, खस्ताहाल स्वास्थ्य सुविधाएं, खराब सड़कें, कॉन्ट्रैक्ट दिहाड़ीदार एम्प्लॉयी, बद से बदतर होती शिक्षा व्यव्यस्था… क्या ये चीजें वीरभद्र सिंह से 25 सालों का हिसाब नहीं मांगेगी।

वो अपनी सत्ता के लिए अपने पार्टी के अंदर बाहर के विरोधियों को तो चित कर गए, पर इस शह मात की गेम में वो यह ध्यान नहीं दे पाए कि इस प्रदेश का दायरा राष्ट्रीय भी हो सकता था। आज जीवन के 80 से ज्यादा वर्ष गुजारने के बाद राजा साब अवैध कब्जे नियमित करते हुए उसी मनोदशा में अगली जीत का स्वाद चखने को बेताब हैं, जिसे हिंदी में ‘तुष्टीकरण’ कहा जाता है।

नेतृत्व को समय से आगे रहना पड़ता है। समय से आगे सोचना पड़ता है। मगर वीरभद्र सिंह हमेशा समय के अनुसार नहीं, अपने नफे-नुकसान के हिसाब से चले। भविष्य की राह देखती PTA अध्यापकों की फ़ौज किसकी नीति का परिणाम है? राजा वीरभद्र सिंह की।

प्रदेश के लाखों स्नातक जम्मू-कश्मीर जाकर जिस दौर में B Ed करने जाते थे, उस दौर में हिमाचल सरकार कभी नहीं सोच पाई कि BEd करने के लिए ऐसा क्या इंफ्रास्ट्रक्टर चाहिए, ऐसी क्या सुविधाएं, कितना बजट चाहिए कि हमारे लोगों को बाहर जाना पड़ रहा है। वो लोग वहां से बीएड करके आए। फिर सरकारी टीचर लगने के लिए जहां एक अच्छा-खासा कमिसन का टेस्ट पास करना होता था, वहां राजा साब ने चंद तनख्वाह पर PTA के नाम से टीचर भी भर लिए। जिनका न टेस्ट होता था, न ढंग का इंटरव्यू सिर्फ स्कूल प्रिंसिपल और प्रधान तय करते थे कौन PTA में लगेगा।

फिर सत्ता के लिए राजा साब ने उन्हें रेगुलर करने का कार्ड खेल दिया। अब यह कहां का न्याय था कि एक तरफ तो कुछ लोगों को स्टेट लेवल का कमिसन देना पड़े बकायदा प्रतिस्पर्धा से आना पड़े और तब जाकर नौकरी लगे और दूसरी तरफ प्रदेश का मुख्यमंत्री उन लोगों के लिए नीति बनाने लगे, जिनका इंटरव्यू सिर्फ प्रधान और प्रिंसिपल ने लिया हो। नौकरियों की तैयारी करते हुए वर्ष खपाते लाखों लोग खपत हो गए पर वोट बैंक की यह राजनीति चलती रही। इसका फायदा उन PTA में लगे लोगों को भी नहीं मिल पाया। वो भी कशमकश की स्थिति में आज भी हैं। बेचारे इतने वर्ष राजा की चुग में पक्के होने के लिए गुजार दिए। उन्हें घोषणा का लॉलीपॉप मिलेगा सिर्फ चुनावी राजनीति के लिए। अगर वो पक्के हो भी जाते हैं इमोशनल बेस पर तो उनका क्या होगा जो लोग एक टेस्ट और वेकन्सी की राह देख रहे हैं।

अब कब्जे भी नियमित हो रहे हैं। नाजायज क्यों जायज हो रहा है, इसका न कोई सवाल करता है न कोई जबाब देता है। यह एक आधारशिला है आगे लोगों को यह बताने की जिसकी लाठी उसकी भैंस। सब कब्जे करो, सरकार वोट बैंक पर झुककर सब रेगुलर कर देगी। प्रदेश में लोग BA, MA नहीं कर रहे और माननीय मुख्यमंत्री, जो साथ में शिक्षा मंत्री भी हैं, नए-नए कॉलेज के निर्माण की घोषण कर रहे हैं। एक बार राजा साब को प्रदेश के चार युवा लोगों को बुलाकर पूछना चाहिए कि क्या इस प्रदेश के किसी कोने को सच में BA BSc करवाने वाले डिग्री कालेज की जरुरत है ? कम से कम अभी के कॉलेजों में कितने छात्र हैं, यही पता लगा लीजिए। जिन नए कॉलेजों का ऐलान किया जा रहा है, वर्षों तक ये कालेज किराए के भावों में चलते रहेंगे। न बच्चे पूरे होंगे न स्टाफ पूरा मिलेगा न शिक्षा मिलेगी। मिलेगा बस तुष्टिकरण और चरमराती हुयी यह शिक्षा व्यवस्था ताने मारती रहेगी और मज़बूरी का उपहास उड़ाती रहेगी, जब हमारे बच्चे क्लर्क का एग्जाम भी पास नहीं कर पाएंगे। कौन इसका जिम्मेदार, हुआ कोई नहीं जानेगा। पर वक़्त के साथ मैंने यह जाना कि राजनीति के यह राजा विज़न के हिसाब से प्रदेश को कुछ नहीं दे पाए और ही अब देने की सोच रहे है।

वीरभद्र का मैं एक व्यक्ति के रूप में आज भी सम्मान करता हूं। वो उन राजनेतओं में हैं, जिन्हे मैं बड़े करीब से देखता हूँ। पर बस यही उम्मीद करता हूं कि वो प्रदेश के लिए इस कार्यकाल में कुछ ऐसा करें कि यह प्रदेश तरक्की के लिए सही रास्ता पकड़े और आने वाली पीढ़िया इसका श्रेय उन्हें दे। अब यह उन पर है कि वह कहां तक क्या करते हैं। कूटनीति से बाहर आकर वो हिमनीति पर चलें, यही उम्मीद हम उनसे करते हैं।

(लेखक हिमाचल प्रदेश से जुड़े विभिन्न मसलों पर लिखते रहते हैं। इन दिनों इन हिमाचल के लिए नियमित लेखन कर रहे हैं।)

नोट: ये लेखक के अपने विचार हैं, इन हिमाचल इनके लिए उत्तरदायी नहीं है।

लेख: मैं एक दलित हूं, हमारे लिए जरूरी है आरक्षण

अभिनव  भारती।।

सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अब भारतीय कानून के जरिये सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। हालांकि आरक्षण योजनाएं शिक्षा की गुणवत्ता को कमजोर करती हैं, लेकिन फिर भी हाशिये में पड़े और वंचितों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के हमारे कर्तव्य और उनके मानवीय अधिकार के लिए उनकी आवश्यकता है। आरक्षण वास्तव में हाशिये पर पड़े लोगों को सफल जीवन जीने में मदद करेगा, इस तरह भारत में, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी व्यापक स्तर पर जाति-आधारित भेदभाव को ख़त्म करेगा।

आरक्षण के विरोध में सबसे सशक्त तर्क यही दिया जाता है कि आरक्षण व्यवस्था समानता एवं योग्यता हनन के लिए एक षडयंत्र है। पर यह तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि समता बराबर के लोगों में ही आती है। जब तक तराजू के दोनों पलड़े बराबर न हों, उनमें बराबरी की बात करना ही व्यर्थ है। क्या इस नि’कर्ष को खारिज करना संभव है कि उच्च व तकनीकी संस्थानों में कुछ जातियों का वर्चस्व है। नेशनल सर्वे आर्गेनाइजेशन के आंकड़ों पर गौर करें तो ग्रामीण भारत में 20 साल से ऊपर के स्नातकों में अनुसूचित जातियाँ, जनजातियों व मुस्लिमों का प्रतिशत मुश्किल से एक फीसदी है, जबकि सवर्ण स्नातक पाँच फीसदी से अधिक हैं। आरक्षण विरोधी सवर्ण अपने पक्ष में तर्क दे सकते हैं कि ऐसा सिर्फ उनकी योग्यता के कारण है। पर वास्तव में ‘योग्यता’ का राग अलापना निम्न तबके को वंचित रखने की साजिश मात्र है क्योंकि यदि योग्यता एक सहज एवं अन्तर्जात गुण है तो अन्य वर्गों के लोगों में भी है, पर फिर भी वे इस स्तर तक नहीं पहुँच पाए तो दाल में कुछ काला अवश्य है। अर्थात-वे इतने साधन सम्पन्न नहीं हैं कि प्रगति कर सकें, विभिन्न प्रशासकीय व राजनैतिक पदों पर बैठे उच्च वर्णों के भाई-भतीजावाद का वे शिकार हुए हैं, प्रारम्भिक स्तर पर ही उन्हें सामाजिक हीनता का अहसास कराकर आगे बढ़ने नहीं दिया गया। ऐसे में यदि सवर्णों के विचार से ‘योग्यता’ की निर्विवाद धारणा महत्वपूर्ण है, जो उस सामाजिक संरचना की ही अनदेखी करता है, जिसकी बदौलत स्वयं उनका अस्तित्व है, तो निम्न वर्ग या आरक्षण के पक्षधरों के अनुसार योग्यता को ही पूर्णरूपेण से नजर अंदाज कर देना चाहिए क्योंकि यह योग्यता की आड़ में एक विशिष्ट वर्ग को बढ़ावा देने की नीति मात्र है।

आखिर क्या कारण है कि संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षाओं में आरक्षित वर्गों को अलग क्रम के रोल नंबर आवंटित किए जाते हैं? क्या किसी न किसी रूप में यह भेदभाव का कारण न बनता होगा? निश्चिततः आज की योग्यता थोपी गई योग्यता है। योग्यता के मायने तब होंगे जब सभी को समान परिस्थितियाँ मुहैया कराकर एक निश्चित मुकाम तक पहुँचाया जाये एवं फिर योग्यता की बात की जाए। योग्यता की आड़ में सामाजिक न्याय को भोथरा नहीं बनाया जा सकता।

आरक्षण-विरोधियों ने प्रतिभा पलायन और आरक्षण के बीच भारी घाल-मेल कर दिया है। प्रतिभा पलायन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार बड़ी तेजी से अधिक अमीर बनने की “इच्छा” है। अगर हम मान भी लें कि आरक्षण उस कारण का एक अंश हो सकता है, तो लोगों को यह समझना चाहिए कि पलायन एक ऐसी अवधारणा है, जो राष्ट्रवाद के बिना अर्थहीन है और जो अपने आपमें मानव जाति से अलगाववाद है। अगर लोग आरक्षण के बारे में शिकायत करते हुए देश छोड़ देते हैं, तो उनमें पर्याप्त राष्ट्रवाद नहीं है और उन पर प्रतिभा पलायन लागू नहीं होता है।

आरक्षण-विरोधियों के बीच प्रतिभावादिता और योग्यता की चिंता है। लेकिन प्रतिभावादिता समानता के बिना अर्थहीन है। पहले सभी लोगों को समान स्तर पर लाया जाना चाहिए, योग्यता की परवाह किए बिना, चाहे एक हिस्से को ऊपर उठाया जाय या अन्य हिस्से को पदावनत किया जाय. उसके बाद, हम योग्यता के बारे में बात कर सकते हैं। आरक्षण या “प्रतिभावादिता” की कमी से अगड़ों को कभी भी पीछे जाते नहीं पाया गया। आरक्षण ने केवल “अगड़ों के और अधिक अमीर बनने और पिछड़ों के और अधिक गरीब होते जाने” की प्रक्रिया को धीमा किया है। चीन में, लोग जन्म से ही बराबर होते हैं। जापान में, हर कोई बहुत अधित योग्य है, तो एक योग्य व्यक्ति अपने काम को तेजी से निपटाता है और श्रमिक काम के लिए आता है जिसके लिए उन्हें अधिक भुगतान किया जाता है। इसलिए अगड़ों को कम से कम इस बात के लिए खुश होना चाहिए कि वे जीवन भर सफेदपोश नागरिक हुआ करते हैं।
आजादी के 6 दशकों बाद भी आरक्षण का दायरा अगर घटाने की बजाय बढ़ाने की जरूरत पड़ रही है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि संविधान के सामाजिक न्याय सम्बन्धी निर्देशों का पालन करने में हमारी संसद विफल रही है। राजनैतिक सत्ता के शीर्ष पर अधिकतर सवर्णों का ही कब्जा है। ऐसे में अगर वे स्वयं आरक्षण का दायरा बढ़ाना चाहते हैं तो देर से ही सही पर उन्हें पिछड़ों व दलितों की शक्ति का अहसास हो रहा है न कि स्वार्थ के वशीभूत वे पिछड़ों और दलितों पर कोई एहसान कर रहे हैं, क्योंकि आरक्षण संविधानसम्मत प्रक्रिया है। चूंकि पिछड़ी और दलित जातियाँ व्यवस्था में समुचित भागीदारी के अभाव में अपनी आवाज उठाने में सक्षम नहीं हैं अतः कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत सरकार का कर्तव्य है कि इन उपेक्षित वर्गों को व्यवस्था में निर्णय की भागीदारी में उचित स्थान दिलाये। इसे किसी का अधिकार छीनना नहीं वरन् समाज के हर वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व देना कहा जायेगा।
आज आरक्षण समाज को पीछे धकेलने की नहीं वरन् पुरानी कमजोरियों और बुराईयों को सुधार कर भारत को एक विकसित देश बनाने की ओर अग्रसर कदम है। यह लोकतंत्र की भावना के अनुकूल है कि समाज में सभी को उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए एवम् यदि किन्हीं कारणोंवश किसी वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है तो उसके लिए समुचित आरक्षण जैसे रक्षोपाय करने चाहिए। सामाजिक समरसता को कायम करने एवं योग्यता को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि ‘अवसर की समानता’ के साथ-साथ ‘परिणाम की समानता’ को भी देखा जाय। देश में दबे, कुचले और पिछड़े वर्ग को अपनी प्रतिभा का प्रदर्शान करने का मौका नहीं मिला, मात्र इसलिए ये वर्ग अक्षम नजर आते हैं। इन्हें सरसरी तौर पर अयोग्य ठहराना सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। शम्बूक व एकलव्य जैसे लोगों की प्रतिभा को कुटिलता से समाप्त कर उनकी कीमत पर अन्य की प्रगति को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
हिमाचल की बात की जाए तो हम दलित आज भी छुआछूत का शिकार हैं।  हम एक साथ बैठ कर भोजन नहीं कर सकते हम रसोई में नहीं जा सकते हम मंदिरों के अंदर पूजा नहीं कर सकते।  हमारे बच्चे बचपन में पूछते हैं हम उनके साथ भोजन क्यों नहीं कर सकते हम दूर क्यों रखे जाते हैं यह कुंठा हमारे बच्चों को आजीवन दोयम दर्जे का बना देती है उनके अंदर एक डर शर्म पैदा कर देती है जिस से उनका बालमन उतना बौद्धिक विकास नहीं कर पाता  एक संभ्रांत वर्ग जाती का आदमी इस कुंठा को कभी नहीं समझ सकता।
(लेखक समाज के पिछड़े तबके की समस्याओं से सरोकार रखते हैं और छुआछूत के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं)