प्रदेश की सड़कों पर दौड़ रही हैं खटारा और जानलेवा TATA AC बसें

शिमला।।

हिमाचल प्रदेश पथ परिवहन निगम (HRTC) की बहुत सी बसों की हालत खराब हो चुकी है। प्रदेश की सड़कों की हालत ही ऐसी है कि सरकारी वाहन ही नहीं, निजी वाहनों की भी स्थिति कुछ सालों में खराब हो जाती है। मगर बात अगर पब्लिक  ट्रांसपोर्ट की हो, इसमें जरा भी लापरवाही नहीं बरती जा सकती, क्योंकि इनमें बहुत से लोग एकसाथ ट्रैवल करते हैं। एचआरटीसी की एसी बसों की हालत तो और भी खराब है। इनमें दो-दो सीटें एक्स्ट्रा जोड़ने के चक्कर में बाकी सीटों को करीब-करीब कर दिया गया है, जिससे लेग स्पेस खत्म हो गया है और रिक्लाइनर सीट्स को कोई पीछे कर दे झगड़ा होना आम है। ऊपर से इनकी हालत ऐसी है कि एसी वेंट्स से कभी पानी गिरता है तो कभी गरम हवा। मगर पिछले दिनों हिमाचल के एक नागरिक ने फेसबुक पर ऐसी तस्वीरें पोस्ट की हैं, जिनसे निगम को होश में आना चाहिए। हम उस पोस्ट को यथावत नीचे दे रहे हैं।

तरुण गोयल नाम के युवक, जो कि चर्चित ब्लॉगर और मकैनिकल इंजिनियर हैं, ने 31 मई को लिखा है, ‘साल 2004 में मेरी बस का एक्सीडेंट हुआ, 15 – 16 लोग मारे गए, लेकिन मैं बच गया। एक टांग में तीन फ्रैक्चर, पीठ में बैकबोन कम्प्रेशन, और सर में माइनर हेड इंजरी हुई, लेकिन मैं बच गया। लेकिन अब ये हिम् गौरव टाटा ऐसी में सफर करके लगता है की अब नहीं बचूंगा, ये टाटा ऐसी बसें इस फैसिलिटी के साथ चलाई हैं सरकार ने की आदमी बचने न पाए। अक्सर बस के बाहर एक्सीडेंट होने से आदमी की जान जाती है, लेकिन इन बसों में अंदर ही जान निकालने की फैसिलिटी है। अब मेरी सीट है 30 नम्बर, पिछवाड़ा अपनी सीट पे है और सर पीछे वाले की गोद में। ऎसी का ढक्कन पूरा खुला हुआ है और पीछे वाला आदमी छींक मार मार के ‘स्पेशल Gel’ से मेरे बाल भर चुका है। 25, 26, 27, 28 वाले भी बेसुध से आधे अपनी और आधे पीछे वाले की सीट में ध्वस्त पड़े हैं। एकदम से बस का शीशा टूट जाता है और मनाली से रोमांटिक हनीमून मना के आ रहे कपल को लाइव यमराज के दर्शन हो चुके हैं।



परिवहन मंत्री G.S. Bali जी ने कहा था अप्रैल से इन बसों को फेज आउट किया जाएगा। अब जून आ गया, नयी वॉल्वो पे वॉल्वो लांच हुई जा रही हैं। हो सकता है पैसे की कमी से फेस आउट प्रक्रिया स्लो हो गयी हो। लेकिन कम से कम नट बोल्ट शीशे तो नए लगवा ही देने चाहिए सरकार को, नही तो आधी सवारियां ही दिल्ली पहुंचेंगी और बाकी का आधा भाग हराबाग जडोल और घाघस के बीच ढूँढना पड़ेगा। एक मकैनिकल इंजीनयर नट बोल्ट की कीमत नहीं समझेगा तो कौन समझेगा।

31 मई की तस्वीर।

इसके साथ ही उन्होंने एक विडियो भी पोस्ट किया है।

 

लगभग पूरे प्रदेश में टाटा एसी बसों को लेकर ऐसी ही शिकायतें आती रहती हैं। कई बार ये बीच सफर में ही खराब हो जाती हैं तो कई बार एसी ही नहीं चलता। तेज-तर्रार मंत्री के तौर पर पहचान बनाने वाली परिवहन मंत्री जी.एस. बाली ने बसों को चरणबद्ध तरीके से हटाने की बात भी कही थी, मगर अभी तक इस दिशा में कोई काम होता नहीं दिख रहा है। बसों की हालत अगर ऐसी होगी और सड़कें भी खस्ताहाल होंगी तो हादसे होने की आशंकाएं कई गुना बढ़ जाएंगी। सवाल उठता है कि क्या सरकार किसी और हादसे का इंतजार कर रही है?

हिमाचल में केबल बिछाने के लिए अब नहीं होगी सड़कों की खुदाई

शिमला।।

हिमाचल प्रदेश में अब केबल डालने के लिए सड़कों की खुदाई नहीं की जाएगी। आए दिन हो रहे सड़क हादसों को देखते हुए PWD ने यह फैसला किया है। गौरतलब है कि इन हिमाचल ने जब पिछले दिनों जोगिंदर नगर में हुए बस हादसे की अपने स्तर पर छानबीन की थी, तब पाया था कि हादसे में सड़क किनारे ऑप्टिकल फाइबर केबल बिछाने के लिए हुई खुदाई भी बड़ी वजह थी।

प्रदेश लोक निर्माण विभाग ने फैसला किया है कि सड़क किनारे अब सर्विस डक्ट या यूटीलिटी डक्ट बनाए जाएंगे। यानी सड़क किनारे खास नालीनुमा रास्ता बना दिया जाएगा, जिसके ढक्कनों को हटाया जा सकता है। जब भी पुराना केबल रिप्लेस करना होग या किसी तरह का नया केबल डालना होगा, खुदाई की जरूरत नहीं होगी। डक्ट में ढक्कन हटाकर यह काम आसानी से किया जा सकेगा।
cables
इससे न सिर्फ बार-बार खुदाई से सड़कें खराब होने से बचेंगी, कंपनियों को काम करने में भी जल्दी होगी और उनकी लागत कम होगी। साथ ही PWD इन डक्ट्स को इस्तेमाल करने वाली कंपनियों से किराया भी वसूल कर सकेगा।


सर्विस डक्ट तकनीक को फिलहाल ट्रायल बेस पर शिमला और मंडी में शुरू किया जाएगा। अगर इसके रिजल्ट अच्छे आते हैं, तो पूरे प्रदेश में इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा। हिमाचल प्रदेश के लिए यह तकनीक बिल्कुल नई है, मगर विदेशों में इसका प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता रहा है।

यूरोप और अमेरिका के देशों में यह तकनीक काफी सफल रही है। हिमाचल में कुछ चुनौतियां भी हैं, क्योंकि यहां बरसात में अगर तेज बारिश से मिट्टी बही या भूस्खलन हुआ तो इन डक्ट्स को नुकसान पहुंच सकता है। इसलिए इस प्रॉजेक्ट को बहुत समझदाजी के साथ प्लान करने की आवश्यकता है।

Heavy duty troughs and covers for vehicle loading

प्रदेश की जर्जर हो चुकी सड़कों और ब्लैक स्पॉट के कारण आए दिन हादसे हो रहे हैं और आम लोगों की जानें जा रही हैं।इन हिमाचल ने बड़े स्तर पर मुहिम चलाते हुए आवाज उठाई थी कि इस तरह सड़कों पर होने वाली खुदई न सिर्फ हादसों की वजह बनती है, सड़कों को नुकसान भी पहुंचाती है।

पढ़ें: इसलिए हुआ था जोगिंदर नगर में बस हादसा

ऐक्टिंग, मॉडलिंग में छा जाना चाहती हैं शिव्या पठानिया

शिमला।।

मिस शिमला रह चुकीं शिव्या पठानिया पिछले दिनों हमसफर्स सीरियल में नजर आईं। अब यह सीरियल खत्म हो चुका है और उम्मीद है कि जल्द ही वह किसी नई भूमिका में नजर आएंगी। जानिए, शिव्या के बारे में कुछ बातें:

पैरंट्स के साथ शिव्या

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शिव्या के पिता सुभाष पठानिया लेबर ऐंड एंप्लॉयमेंट विभाग में लॉ ऑफिसर हैं। इनकी माता बिजनस वुमन हैं। इनका छोटा भाई स्कूल में है और बहन सेंड बीड्स कॉलेज से पढ़ाई कर रही हैं।

मॉडलिंग के अलावा सिंगिंग और गिटार प्ले करने का शौक भी रखती हैं शिव्या। कॉलेज में कई क्लब के जरिए वह समाजसेवा के कामों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेती रही हैं।

कॉलेज स्तर पर उन्होंने कई मॉडलिंग प्रतियोगिताओं में भाग लेकर पुरस्कार भी जीते। वह हिमाचल के अखबार दिव्य हिमाचल की प्रतियोगिता ‘मिस हिमाचल’ की रनर अप भी रही हैं।

शिव्या ने चितकारा यूनिवर्सिटी से इंजिनियरिंग की है, लेकिन वह हमेशा से वह मॉडलिंग और ऐक्टिंग करना चाहती थीं। उन्होंने अपना सपना पूरा करने की तरफ एक कदम सफलता से बढ़ाया है। आगे भी वह कामयाब रहें, इसके लिए उन्हें शुभकामनाएं।

हॉरर एनकाउंटर: कभी नहीं भूल पाऊंगा बैजनाथ-पपरोला ब्रिज पर हुआ वह अनुभव

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  • अनंत त्रिवेदी

मैं उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से हूं और गुड़गांव में एक सॉफ्टवेयर डिवेलपर हूं। इन हिमाचल पेज को पिछले दिनों लाइक किया था। बीच में यहां भूत से जुड़ी कुछ कहानियां पढ़ीं तो पुरानी याद ताजा हो गई। बहुत दिनों से लिखने की सोच रहा था, आज वक्त निकालकर लिख रहा हूं। किस्सा हिमाचल प्रदेश से ही जुड़ा हुआ है। बात 7-8 साल पुरानी है। चंडीगढ़ में पढ़ाई कर रहा था। मेरे आजमगढ़ के ही कुछ दोस्त दिल्ली में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। उन्होंने प्लान बनाया कि बिलिंग चलो, वहां पर पैराग्लाइडिंग होती है। घूम आएंगे और मजा भी आएगा। अचानक योजना बनी और वे तीन लोग बिलिंग चले गए। मुझे जब पता चला कि वे लोग हिमाचल जा रहे हैं तो मैंने भी इच्छा जताई। वे लोग तय प्रोग्राम के तहत बस से निकलने वाले थे, इसलिए मैने कहा कि एक दिन बाद मै खुद चंडीगढ़ से आ जाऊंगा।

नवंबर का महीना था और दोस्त लोग हरियाणा रोडवेज की बस से दिल्ली से बैजनाथ गए। एक दिन वे बिलिंग और चौगान वगैरह घूमे और आसपास कोई होटेल न मिलने पर शाम को बैजनाथ आ गए। उसी शाम को मैं चंडीगढ़ से निकला। मैंने पहले धर्मशाला जा रही एक बस पकड़ी, मगर ऊना के पास उसका टायर पंक्चर हो गया। इसी ने मेरा सारा प्लान चौपटकर दिया। मैंने सोचा था कि वक्त पर कांगड़ा उतर जाऊंगा और वहां से कोई बस पकड़ लूंगा बैजनाथ के लिए। मगर धर्मशाला जा रही उस बस ने मुझे रात के करीब 1 बजे कांगड़ा उतारा। वहां से कोई भी बस बैजनाथ पालमपुर साइड को नहीं मिली। किसी ने बताया कि बसें सुबह चलेंगी, बेहतर होगा कि किसी ट्रक वगैरह को हाथ देकर लिफ्ट ले लो। मैं ऐसे ही खड़ा रहा और आधे घंटे के बाद मुझे एक जीप वाले लिफ्ट दे दी। यह ड्राइवर उत्तराला जा रहा, जिसके लिए बैजनाथ से पहले पपरोला से ही लिंक चला जाता है। उसने कहा कि मैं पपरोला मार्केट में छोड़ दूंगा आपको, बाकी आपको खुद जाना होगा आगे।

रात को सड़कें खाली थीं और ड्राइवर पूरी स्पीड से गाड़ी दौड़ा रहा था। करीब 45 मिनट में उसने एक कस्बे के बीच ब्रेक लगाई और बोला कि आ गया पपरोला, अब आप या तो किसी गाड़ी का इतजार कर लो या फिर पैदल निकल जाओ सीधे रेलवे ब्रिज से। मैंने कहा कि जी मेरेको पता नहीं है, आप पैसे ले लो और मुझे छोड़ दो। ड्राइवर ने कहा कि भाई पैसों की बात नहीं है, मुझे बहुत जरूरी काम है और मैं खुद पठानकोट से भागा-भागा आ रहा हूं। उसने मुझे बताया कि ज्यादा दूरी नहीं। उसने बताया कि सामने जाओ, सड़क से नीचे को रास्ता दिखेगा, चांदनी रात है एकदम, रेलवे पुल पार करो और खड़ी चढ़ाई है। सीधे मार्केट में पहुंचोगे और वहां पर होटेल में पहुंच जाना।

पाठकों की जानकारी के लिए- बैजनाथ और पपरोला दो कस्बे हैं, जो बिनवा नदी के दोनों आमने-सामने वाले किनारों पर बसे हैं। दोनों के आखिरी सिरों के बीच मुश्किल से सड़क मार्ग से 400 मीटर की दूरी है, मगर पैदल यह दूरी 200 मीटर होगी। बस आपको शॉर्टकट मारते हुए रेलवे ब्रिज से रास्ता तय करना होगा। ऊपर दी गई तस्वीर में वह पुल है और साथ में बैजनाथ मार्केट की ओर जा रहा पैदल रास्ता दिख रहा है।

यह कहकर मुझसे ड्राइवर ने विदा ली और वहां से ऊपर की तरफ जा रहे एक लिंक रोड पर निकल गया। चांदनी रात थी और शहर में सन्नाटा था। दूर-दूर तक कोई नहीं दिख रहा था। कोई गाड़ी भी नहीं गुजर रही थी कि लिफ्ट मांगी जाए। स्ट्रीट लाइट्स भी दूर-दूर थीं। खैर, मैंने उस दिशा में बढ़ना शुरू किया, जिस तरफ ड्राइवर ने इशारा किया था। कस्बे के खत्म होते ही खूबसूरत नजारा था। चांदनी रात थी और एक तरफ नदी बह रही थी। नदी में बहते पानी का मस्त संगीत सुनाई दे रहा था। खड्डे के पत्थचर चमकते हुए बहुत शानदार लग रहे थे। सामने दो पुल दिखाई दिए। एक सड़क वाला और उससे नीचे रेल का। पहले सोचा कि रेल के पुल से चलूं, मगर फिर सोचा कि वहां अंधेरा है और ऊपर से रास्ते में कोई जंगली जानवर मिल सकता है। इसलिए बेहतर है कि सड़क से चलूं क्योंकि गाड़ियां आती-जाती रहती होंगी तो जानवर वगैरह नहीं मिलेंगे। झाड़ियों वाले रास्ते मे सांप वगैरह भी हो सकते हैं। ऊपर से स्ट्रीट लाइट भी जल रही थी एक सड़क वाले पुल पर।

मैं तेज कदमों से बढ़ चला। जैसे ही पुल के पास पहुंचा, रेल के पुल की तरफ देखा। चांदनी रात में कितना प्यार लग रहा था वो नजारा। मगर मेरा ये सारा उत्साह उस वक्त गायब हो गया, जब मैंने किसी चीज़ को पुल के नीचे की तरफ लटके हुए देखा। पहले मन किया कि दोबारा उधर न देखूं, कयोंकि पता नहीं क्या था और समझ भी नहीं आया था। मगर डर और एक्साइटमेंट के मिले-जुले भाव से मैंने देख ही लिया। गौर करने पर पाया कि ऐसा लग रहा था कि कोई महिला पुल पर नीचे लटकी हुई है। मतलब साफ-साफ नहीं दिख रहा था, मगर धुंधला सा, स्लेटी से रंग का कुछ और जैसे बाल लहरा रहे हों और वह भी उल्टे। सच कहूं तो मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि वह महिला थी या कुछ और, लेकिन मेरे प्राण सूख गए। शरीर में झुरझुरी दौड़ गई और भागने को दिल चाहा लेकिन घबराहट में पता नही ंक्या हो रहा था। इतने में सामने से एक गाड़ी आती हुई दिकाई दी, जिसकी हेडलाइट नहीं जल रही थी। मारुति रही होगी सफेद रंग की। मैं आगे बढ़ा और उसे हाथ दे दिया।

गाड़ी मेरी बगल में रुकी और मैंने आव-देखा न ताव, झट से उसका दरवाजा खोलने लग गया और बोल रहा जल्दी चलो, यहां से। मैंने कार का दरवाजा खोला और उसमें बैठ गया और ड्राइवर को बोलने लगा कि जल्दी चलो यहां से। मैंने देखा कि आगे वाली साइट पर एक एक बुजुर्ग बैठा है और ड्राइवर की सीट पर अधेड़ सा एक मर्द। मेैं पीछे वाली सीट पर बैठा हुआ था, वहां पर एक महिला बैठी हुई थी। मैं बोला चल क्यों नहीं रहे, अचानक वे सब लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लग एकटक लगाकर। मैं पहले से डरा हुआ था और अब मेरी हालत और खराब थी। मैं समझ गया कि मामला गड़बड़ है। मैंने भागने के लिए कार का दरवाजा खोला ही था कि वे लोग बहुत अजीब सी आवाज में रोने लग गए। दरवाजा खुल चुका था और मैं बेतहाशा भाग रहा था। उनकी आवाजें और तेज हो रही थीं। मैं दौड़ा और पुल पार करते ही नीचे की तरफ मंदिर का दिखा, वहां भाग गया और जोर-जोर से दरवाजा पीटने लगा। अंदर दो साधु निकले और उन्होंने पहले तो गालियां दी कि मैं इतनी रात को क्या कर रहा हूं। मैंने घबराकर उन्हें पूरी बात बताई तो उन्होंने अंदर बिठाया। पानी पिलाया, भभूत खिलाई और मुझे बोला कि कुछ नहीं हुआ, घबराओ मत।

पाठकों की जानकारी के लिए इन हिमाचल ने वह तस्वीर ढूंढी, जिससे लेखक की बताई बात समझी जा सके। उन्हें ऊपर वाले पुल से नीचे रेलवे पुल में कुछ दिखा था। बाद में वह भागकर सड़क के नीचे (बाएं) दिख रहे लाल रंग के ट्रक वाली तरफ भागे थे, यहीं एक मंदिर है जहां आजकल गोशाला बनी हुई है।

मैं कांप रहा था और रो रहा था। उनमें एक बुजुर्ग से दिख रहे साधु ने कहा कि कुछ नहीं हुआ तुम्हें, वहम हो गया। यह कहते हुए उन्होंने मोरपंखे से कुछ मंत्र पढ़ते हुए सिर पर उसे कई बार लहराया। मैं उन साधुओं के बीच खुद को सहज पा रहा था। इतने में मैंने मोबाइल निकाला और अनपे दोस्तों को पूरी कहानी बताई। दोस्तों ने होटेल वाले को जगाया और रात को ही गाड़ी लेकर एक घंटे में उश मंदिर में पहुंच गए। मैंने पूरी कहानी बताई तो उन्हें यकीन नहीं हुआ। उन्हें लगा कि मुझे वहम हुआ है। वह रात मैंने और मेरे दोस्तों ने उसी मंदिर में बिताई और होटेल के उस भले मालिक ने भी। सुबह होते ही मैं मंदिर से बाहर निकला और दोस्तों को बताया कि कहां क्या हुआ था। इस बीच वहां मौजूद साधु ने मुझे जाने से पहले भभूत की पुड़िया देते हुए कहा, डर लगे तो इसे लगा लेना। बाकी कोई बात नहीं।

हम लोग वहां से बैजनाथ गए, होटेल में ब्रेकफस्ट किया और बाबा बैजनाथ मंदिर में माथा टेका। वहां जाकर मैंने भगवान से प्रार्थना की कि ऐसा कभी दोबारा न हो, जैसा बीती रात हुआ। उसके बाद हम सब बिलिंग गए, दोस्तों ने इस बार उड़ान भी भरी, लेकिन मैं किसी औऱ ही दुनिया में था। मन किया तुरंत यहां से भाग जाऊं। दोस्तों का प्लान और रुककर कहीं और घूमने का था, लेकिन मैंने कहा कि मुझे चंडीगढ़ ले चलो। मैंने इसके लिए मंडी जाने के लिए कहा और वहां से चंडीगढ़ के लिए बस पकड़ने के लिए प्लान बनाया, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि दोबारा उस पुल से होकर गुजरना पड़े।

उसी रात हम चंडीगढ़ आ गए। घबराहट कई दिनों तक बनी रही और कई दिनों तक बाबा जी की पुड़िया अपना पास रखी। कभी कोई सपना या ऐसी घटना दोबारा मेरे साथ नहीं हुई। और इसके लिए मैं भगवान का शुक्रगुजार हूं। बाबा जी की दी हुई पुड़िया आज भी पूजा के सामान के साथ रखता हूं। मगर 7-8 साल बाद आज मैं उस घटना के बारे में सोचता हूं तो उतना डर नहीं लगता। मेरा मतलब है कि आज इतने सालों बाद लगता है कि मुझे शायद कोई भ्रम हुआ होगा पुल की तरफ देखकर और वो गाड़ी में जो लोग थे, वे भी बेचारे मेरी ही तरह कुछ देखकर डर गए होंगे। मैंने कई सालों तक यह कहानी किसी को नहीं सुनाई। मेरे दोस्त जो मुझे डरपोक समझते थे, उन्होंने हमेशा मेरा मजाक उड़ाया। आज मैं शादी-शुदा हूं, बच्चे हैं। उनके साथ भी ये कहानी नहीं सुना पाया, क्योंकि लगता था कि शायद वे भी मेरा मजाक उड़ाएंगे। मगर मैं जानता हूं कि उस रात जो मेरे साथ हुआ, वह सामान्य नहीं था। जो कुछ भी था, डरावना था। इसलिए इन हिमाचल को भेज रहा हूं कि मेरे इस अनुभव को वह कहानी के तौर पर ही सही, दुनिया के सामने ला सके।

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(लेखक गुड़गांव में एक मल्टीनैशनल सॉफ्टवेयर फर्म में कार्यरत हैं। उन्होंने ईमेल आईडी प्रकाशित न करने की गुजारिश की है।)

DISCLAIMER: इन हिमाचल का मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है। हम लोगों की आपबीती को प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि अन्य लोग उसे कम से कम मनोरंजन के तौर पर ही ले सकें।

कूटनीति के राजा, मगर विज़नहीन नेता हैं वीरभद्र सिंह

  • (यह लेख 1 जून, 2016 को प्रकाशित किया गया था जब वीरभद्र सिंह हिमाचल के मुख्यमंत्री थे)

सुरेश चंबयाल।। कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री द्वारा कैबिनेट में लिए उस फैसले को पढ़कर मुझे बड़ा अजीब लगा, जिसमें कहा गया था कि अवैध भवन नियमित किए जाएंगे। जिस चीज के साथ ही ‘अवैध’ जुड़ा है, भला उसे जायज करना सत्ता का फैसला कैसे हो सकता है? यह क्या सन्देश देगा ? क्या सत्ता का काम तुष्टीकरण करना है या इसके पीछे चहेतों को लाभ देने का काम किया जा रहा है? इन सवालों पर मैं घंटों सोचता रहा।

‘राजा वीरभद्र सिंह’, बचपन में जब होश सम्भाला था तो मुख्यमन्त्री के रूप में पहला नाम यही सुना था। हंसमुख चेहरा, हाजिर जवाबी। हम भी ‘राजा साब’ के फैन थे। कैसे उन्होंने सुखराम का तिलिस्म तोड़ा, कैसे-कैसे कब कहां कूटनीति से विरोधियों को चित किया, यह ताली बजा देने वाले मोमेंट थे। मगर वक़्त के साथ मैंने देखा कि सत्ता के शीर्ष पर रहकर भी राजा साब हिमाचल को आगे ले जाने के लिए कोई दिशा नहीं दे पाए। उनकी जिंदगी और नीति बस कूटनीति की शतरंज के उन 68 खानों ( जानता हूं 64 होते हैं परन्तु विधानसभा सीट के आधार अपर 68 लिखा) तक सीमित रही। वो उस से बाहर कभी हिमाचल का भविष्य नहीं देख पाए। उन्हें सत्ता में रहने में मजा आता है। वो इसके मंझे हुए खिलाड़ी भी हैं, जो कबीले तारीफ़ भी है। मगर 25 वर्षों में जो दशा, दिशा वो तय कर सकते थे, ऐसा उन्होंने कुछ नहीं किया।

बेरोजगारों की लम्बी फौजें, खस्ताहाल स्वास्थ्य सुविधाएं, खराब सड़कें, कॉन्ट्रैक्ट दिहाड़ीदार एम्प्लॉयी, बद से बदतर होती शिक्षा व्यव्यस्था… क्या ये चीजें वीरभद्र सिंह से 25 सालों का हिसाब नहीं मांगेगी।

वो अपनी सत्ता के लिए अपने पार्टी के अंदर बाहर के विरोधियों को तो चित कर गए, पर इस शह मात की गेम में वो यह ध्यान नहीं दे पाए कि इस प्रदेश का दायरा राष्ट्रीय भी हो सकता था। आज जीवन के 80 से ज्यादा वर्ष गुजारने के बाद राजा साब अवैध कब्जे नियमित करते हुए उसी मनोदशा में अगली जीत का स्वाद चखने को बेताब हैं, जिसे हिंदी में ‘तुष्टीकरण’ कहा जाता है।

नेतृत्व को समय से आगे रहना पड़ता है। समय से आगे सोचना पड़ता है। मगर वीरभद्र सिंह हमेशा समय के अनुसार नहीं, अपने नफे-नुकसान के हिसाब से चले। भविष्य की राह देखती PTA अध्यापकों की फ़ौज किसकी नीति का परिणाम है? राजा वीरभद्र सिंह की।

प्रदेश के लाखों स्नातक जम्मू-कश्मीर जाकर जिस दौर में B Ed करने जाते थे, उस दौर में हिमाचल सरकार कभी नहीं सोच पाई कि BEd करने के लिए ऐसा क्या इंफ्रास्ट्रक्टर चाहिए, ऐसी क्या सुविधाएं, कितना बजट चाहिए कि हमारे लोगों को बाहर जाना पड़ रहा है। वो लोग वहां से बीएड करके आए। फिर सरकारी टीचर लगने के लिए जहां एक अच्छा-खासा कमिसन का टेस्ट पास करना होता था, वहां राजा साब ने चंद तनख्वाह पर PTA के नाम से टीचर भी भर लिए। जिनका न टेस्ट होता था, न ढंग का इंटरव्यू सिर्फ स्कूल प्रिंसिपल और प्रधान तय करते थे कौन PTA में लगेगा।

फिर सत्ता के लिए राजा साब ने उन्हें रेगुलर करने का कार्ड खेल दिया। अब यह कहां का न्याय था कि एक तरफ तो कुछ लोगों को स्टेट लेवल का कमिसन देना पड़े बकायदा प्रतिस्पर्धा से आना पड़े और तब जाकर नौकरी लगे और दूसरी तरफ प्रदेश का मुख्यमंत्री उन लोगों के लिए नीति बनाने लगे, जिनका इंटरव्यू सिर्फ प्रधान और प्रिंसिपल ने लिया हो। नौकरियों की तैयारी करते हुए वर्ष खपाते लाखों लोग खपत हो गए पर वोट बैंक की यह राजनीति चलती रही। इसका फायदा उन PTA में लगे लोगों को भी नहीं मिल पाया। वो भी कशमकश की स्थिति में आज भी हैं। बेचारे इतने वर्ष राजा की चुग में पक्के होने के लिए गुजार दिए। उन्हें घोषणा का लॉलीपॉप मिलेगा सिर्फ चुनावी राजनीति के लिए। अगर वो पक्के हो भी जाते हैं इमोशनल बेस पर तो उनका क्या होगा जो लोग एक टेस्ट और वेकन्सी की राह देख रहे हैं।

अब कब्जे भी नियमित हो रहे हैं। नाजायज क्यों जायज हो रहा है, इसका न कोई सवाल करता है न कोई जबाब देता है। यह एक आधारशिला है आगे लोगों को यह बताने की जिसकी लाठी उसकी भैंस। सब कब्जे करो, सरकार वोट बैंक पर झुककर सब रेगुलर कर देगी। प्रदेश में लोग BA, MA नहीं कर रहे और माननीय मुख्यमंत्री, जो साथ में शिक्षा मंत्री भी हैं, नए-नए कॉलेज के निर्माण की घोषण कर रहे हैं। एक बार राजा साब को प्रदेश के चार युवा लोगों को बुलाकर पूछना चाहिए कि क्या इस प्रदेश के किसी कोने को सच में BA BSc करवाने वाले डिग्री कालेज की जरुरत है ? कम से कम अभी के कॉलेजों में कितने छात्र हैं, यही पता लगा लीजिए। जिन नए कॉलेजों का ऐलान किया जा रहा है, वर्षों तक ये कालेज किराए के भावों में चलते रहेंगे। न बच्चे पूरे होंगे न स्टाफ पूरा मिलेगा न शिक्षा मिलेगी। मिलेगा बस तुष्टिकरण और चरमराती हुयी यह शिक्षा व्यवस्था ताने मारती रहेगी और मज़बूरी का उपहास उड़ाती रहेगी, जब हमारे बच्चे क्लर्क का एग्जाम भी पास नहीं कर पाएंगे। कौन इसका जिम्मेदार, हुआ कोई नहीं जानेगा। पर वक़्त के साथ मैंने यह जाना कि राजनीति के यह राजा विज़न के हिसाब से प्रदेश को कुछ नहीं दे पाए और ही अब देने की सोच रहे है।

वीरभद्र का मैं एक व्यक्ति के रूप में आज भी सम्मान करता हूं। वो उन राजनेतओं में हैं, जिन्हे मैं बड़े करीब से देखता हूँ। पर बस यही उम्मीद करता हूं कि वो प्रदेश के लिए इस कार्यकाल में कुछ ऐसा करें कि यह प्रदेश तरक्की के लिए सही रास्ता पकड़े और आने वाली पीढ़िया इसका श्रेय उन्हें दे। अब यह उन पर है कि वह कहां तक क्या करते हैं। कूटनीति से बाहर आकर वो हिमनीति पर चलें, यही उम्मीद हम उनसे करते हैं।

(लेखक हिमाचल प्रदेश से जुड़े विभिन्न मसलों पर लिखते रहते हैं। इन दिनों इन हिमाचल के लिए नियमित लेखन कर रहे हैं।)

नोट: ये लेखक के अपने विचार हैं, इन हिमाचल इनके लिए उत्तरदायी नहीं है।

लेख: मैं एक दलित हूं, हमारे लिए जरूरी है आरक्षण

अभिनव  भारती।।

सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अब भारतीय कानून के जरिये सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। हालांकि आरक्षण योजनाएं शिक्षा की गुणवत्ता को कमजोर करती हैं, लेकिन फिर भी हाशिये में पड़े और वंचितों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के हमारे कर्तव्य और उनके मानवीय अधिकार के लिए उनकी आवश्यकता है। आरक्षण वास्तव में हाशिये पर पड़े लोगों को सफल जीवन जीने में मदद करेगा, इस तरह भारत में, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी व्यापक स्तर पर जाति-आधारित भेदभाव को ख़त्म करेगा।

आरक्षण के विरोध में सबसे सशक्त तर्क यही दिया जाता है कि आरक्षण व्यवस्था समानता एवं योग्यता हनन के लिए एक षडयंत्र है। पर यह तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि समता बराबर के लोगों में ही आती है। जब तक तराजू के दोनों पलड़े बराबर न हों, उनमें बराबरी की बात करना ही व्यर्थ है। क्या इस नि’कर्ष को खारिज करना संभव है कि उच्च व तकनीकी संस्थानों में कुछ जातियों का वर्चस्व है। नेशनल सर्वे आर्गेनाइजेशन के आंकड़ों पर गौर करें तो ग्रामीण भारत में 20 साल से ऊपर के स्नातकों में अनुसूचित जातियाँ, जनजातियों व मुस्लिमों का प्रतिशत मुश्किल से एक फीसदी है, जबकि सवर्ण स्नातक पाँच फीसदी से अधिक हैं। आरक्षण विरोधी सवर्ण अपने पक्ष में तर्क दे सकते हैं कि ऐसा सिर्फ उनकी योग्यता के कारण है। पर वास्तव में ‘योग्यता’ का राग अलापना निम्न तबके को वंचित रखने की साजिश मात्र है क्योंकि यदि योग्यता एक सहज एवं अन्तर्जात गुण है तो अन्य वर्गों के लोगों में भी है, पर फिर भी वे इस स्तर तक नहीं पहुँच पाए तो दाल में कुछ काला अवश्य है। अर्थात-वे इतने साधन सम्पन्न नहीं हैं कि प्रगति कर सकें, विभिन्न प्रशासकीय व राजनैतिक पदों पर बैठे उच्च वर्णों के भाई-भतीजावाद का वे शिकार हुए हैं, प्रारम्भिक स्तर पर ही उन्हें सामाजिक हीनता का अहसास कराकर आगे बढ़ने नहीं दिया गया। ऐसे में यदि सवर्णों के विचार से ‘योग्यता’ की निर्विवाद धारणा महत्वपूर्ण है, जो उस सामाजिक संरचना की ही अनदेखी करता है, जिसकी बदौलत स्वयं उनका अस्तित्व है, तो निम्न वर्ग या आरक्षण के पक्षधरों के अनुसार योग्यता को ही पूर्णरूपेण से नजर अंदाज कर देना चाहिए क्योंकि यह योग्यता की आड़ में एक विशिष्ट वर्ग को बढ़ावा देने की नीति मात्र है।

आखिर क्या कारण है कि संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षाओं में आरक्षित वर्गों को अलग क्रम के रोल नंबर आवंटित किए जाते हैं? क्या किसी न किसी रूप में यह भेदभाव का कारण न बनता होगा? निश्चिततः आज की योग्यता थोपी गई योग्यता है। योग्यता के मायने तब होंगे जब सभी को समान परिस्थितियाँ मुहैया कराकर एक निश्चित मुकाम तक पहुँचाया जाये एवं फिर योग्यता की बात की जाए। योग्यता की आड़ में सामाजिक न्याय को भोथरा नहीं बनाया जा सकता।

आरक्षण-विरोधियों ने प्रतिभा पलायन और आरक्षण के बीच भारी घाल-मेल कर दिया है। प्रतिभा पलायन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार बड़ी तेजी से अधिक अमीर बनने की “इच्छा” है। अगर हम मान भी लें कि आरक्षण उस कारण का एक अंश हो सकता है, तो लोगों को यह समझना चाहिए कि पलायन एक ऐसी अवधारणा है, जो राष्ट्रवाद के बिना अर्थहीन है और जो अपने आपमें मानव जाति से अलगाववाद है। अगर लोग आरक्षण के बारे में शिकायत करते हुए देश छोड़ देते हैं, तो उनमें पर्याप्त राष्ट्रवाद नहीं है और उन पर प्रतिभा पलायन लागू नहीं होता है।

आरक्षण-विरोधियों के बीच प्रतिभावादिता और योग्यता की चिंता है। लेकिन प्रतिभावादिता समानता के बिना अर्थहीन है। पहले सभी लोगों को समान स्तर पर लाया जाना चाहिए, योग्यता की परवाह किए बिना, चाहे एक हिस्से को ऊपर उठाया जाय या अन्य हिस्से को पदावनत किया जाय. उसके बाद, हम योग्यता के बारे में बात कर सकते हैं। आरक्षण या “प्रतिभावादिता” की कमी से अगड़ों को कभी भी पीछे जाते नहीं पाया गया। आरक्षण ने केवल “अगड़ों के और अधिक अमीर बनने और पिछड़ों के और अधिक गरीब होते जाने” की प्रक्रिया को धीमा किया है। चीन में, लोग जन्म से ही बराबर होते हैं। जापान में, हर कोई बहुत अधित योग्य है, तो एक योग्य व्यक्ति अपने काम को तेजी से निपटाता है और श्रमिक काम के लिए आता है जिसके लिए उन्हें अधिक भुगतान किया जाता है। इसलिए अगड़ों को कम से कम इस बात के लिए खुश होना चाहिए कि वे जीवन भर सफेदपोश नागरिक हुआ करते हैं।
आजादी के 6 दशकों बाद भी आरक्षण का दायरा अगर घटाने की बजाय बढ़ाने की जरूरत पड़ रही है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि संविधान के सामाजिक न्याय सम्बन्धी निर्देशों का पालन करने में हमारी संसद विफल रही है। राजनैतिक सत्ता के शीर्ष पर अधिकतर सवर्णों का ही कब्जा है। ऐसे में अगर वे स्वयं आरक्षण का दायरा बढ़ाना चाहते हैं तो देर से ही सही पर उन्हें पिछड़ों व दलितों की शक्ति का अहसास हो रहा है न कि स्वार्थ के वशीभूत वे पिछड़ों और दलितों पर कोई एहसान कर रहे हैं, क्योंकि आरक्षण संविधानसम्मत प्रक्रिया है। चूंकि पिछड़ी और दलित जातियाँ व्यवस्था में समुचित भागीदारी के अभाव में अपनी आवाज उठाने में सक्षम नहीं हैं अतः कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत सरकार का कर्तव्य है कि इन उपेक्षित वर्गों को व्यवस्था में निर्णय की भागीदारी में उचित स्थान दिलाये। इसे किसी का अधिकार छीनना नहीं वरन् समाज के हर वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व देना कहा जायेगा।
आज आरक्षण समाज को पीछे धकेलने की नहीं वरन् पुरानी कमजोरियों और बुराईयों को सुधार कर भारत को एक विकसित देश बनाने की ओर अग्रसर कदम है। यह लोकतंत्र की भावना के अनुकूल है कि समाज में सभी को उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए एवम् यदि किन्हीं कारणोंवश किसी वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है तो उसके लिए समुचित आरक्षण जैसे रक्षोपाय करने चाहिए। सामाजिक समरसता को कायम करने एवं योग्यता को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि ‘अवसर की समानता’ के साथ-साथ ‘परिणाम की समानता’ को भी देखा जाय। देश में दबे, कुचले और पिछड़े वर्ग को अपनी प्रतिभा का प्रदर्शान करने का मौका नहीं मिला, मात्र इसलिए ये वर्ग अक्षम नजर आते हैं। इन्हें सरसरी तौर पर अयोग्य ठहराना सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। शम्बूक व एकलव्य जैसे लोगों की प्रतिभा को कुटिलता से समाप्त कर उनकी कीमत पर अन्य की प्रगति को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
हिमाचल की बात की जाए तो हम दलित आज भी छुआछूत का शिकार हैं।  हम एक साथ बैठ कर भोजन नहीं कर सकते हम रसोई में नहीं जा सकते हम मंदिरों के अंदर पूजा नहीं कर सकते।  हमारे बच्चे बचपन में पूछते हैं हम उनके साथ भोजन क्यों नहीं कर सकते हम दूर क्यों रखे जाते हैं यह कुंठा हमारे बच्चों को आजीवन दोयम दर्जे का बना देती है उनके अंदर एक डर शर्म पैदा कर देती है जिस से उनका बालमन उतना बौद्धिक विकास नहीं कर पाता  एक संभ्रांत वर्ग जाती का आदमी इस कुंठा को कभी नहीं समझ सकता।
(लेखक समाज के पिछड़े तबके की समस्याओं से सरोकार रखते हैं और छुआछूत के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं)

हिमाचल में कमजोर हो रही हैं दोनों राष्ट्रीय दलों की दीवारें

  • विवेक अविनाशी।।
हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2017 में विधानसभा के चुनाव हैं। प्रदेश में दोनों राष्ट्रीय दल यानी भारतीय जनता पार्टी और  कांग्रेस  पार्टी की राजनीतिक दीवारें निरंतर कमजोर होती जा रही हैंl दोनों ही राष्ट्रीय दल तीव्र आंतरिक गुटबाजी की वजह से त्रस्त हैं और मतदाताओं में पार्टी संगठन की पकड़ कमजोर होती जा रही हैl पार्टियों के कार्यकर्ता गुटों में बंटे हुए हैं और सामान्तर राजनीतिक गतिविधियों को अंदरखाते अंजाम देकर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को अपने अस्तित्व का आभास देते रहते हैं।
कांग्रेस पार्टी का हाल भी वैसा ही है जैसा बीजेपी का हैl कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं का एक वर्ग उम्रदराज नेताओं से किनारा कर अपनी अलग पहचान बनाने के लिए छटपटा रहा है। ये युवा नेता राजनीति में अपनी पहचान बनाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। इनकी ज्यादा पहुंच युवाओं तक सोशल मीडिया के माध्यम से ही है। या तो वॉट्सऐप पर ग्रुप बनाकर ये आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं या फिर फेसबुक पर अपने समर्थन के पेजेस पर ख़ास पोस्ट डालकर अपनी बात एक-दूसरे तक पहुंचाते हैं। इसका सकारात्मक परिणाम भी हुआ है लेकिन अधिकांश ऐसे पेजेस के पोस्ट देख यही लगता है कि कही न कहीं दोनों ही पार्टियों  के अनुभवी नेता प्रदेश के इन युवाओं तक अपनी बात पहुंचाने में नाकाम हो रहे हैं।
यह किसी से भी छिपा नही है कि हिमाचल में बेरोज़गारी ज़ोरों पर हैl प्रदेश का युवा वर्ग जो  पढ़-लिखकर अपने प्रांत के लिए कुछ कर गुजरने की चाह रखता है, अपने गाँव की हालत देख कर मन मसोस कर रह जाता है। दिल्ली जैसे महानगर में सैंकड़ों ऐसे हिमाचल के युवक हैं जो रोज़ी-रोटी भी कमा रहे है और प्रदेश के लिए कोई सार्थक काम भी करना चाहते हैंl ऐसे युवाओं की आशा राजनेताओं पर ही टिकी रहती है। अब यह राजनेता अपने पक्ष में इन्हें कैसे कर पाते हैं ये तो वक्त ही बतायेगा लेकिन इन युवाओं में  प्रदेश की राजनीति को लेकर जो रोष है, उसका सीधा असर दोनों ही राष्ट्रीय दलों के कार्यकर्ताओं में देखा जा सकता हैl

हिमाचल की राजनीति पिछले एक दशक से कुछ ही नेताओं के इर्द –गिर्द घूम रही है और ऐसा दोनों ही दलों में है। पुत्र-मोह से ग्रसित  वीरभद्रसिंह और धूमल  अपनी राजनैतिक नाकामियों के इलावा अपने पुत्रों को राजनीति में स्थापित करने बारे आरोपों को भी एक दूसरे पर उछालते रहते हैं। हद तो तब हो गई जब धूमल के दूसरे बेटे ने भी वीरभद्र के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।


ठीक भी है, चर्चा में रहने के लिए इस तरह के अनापेक्षित कदम उठाना जरूरी भी है। पर क्या यह वर्तमान राजनीति का बदलता स्वरूप है या हिमाचल की राजनीति का विशेष अंदाज़? और हद तो यह भी है कि वीरभद्र जैसे  राजनीति में लम्बी पारी खेलने वाले अनुभवी नेता इन नेता पुत्रों के प्रति स्तरहीन भाषा का प्रयोग करते हैं। कांग्रेस का एक और मजेदार पहलू यह है जो नेता वीरभद्र के बाद हिमाचल को नेतृत्व देने का दावा कर रहे हैं वे अपने जिले से बाहर ही नही निकल पा रहे और जो नेता किनारे बैठकर हवा का रुख देख रहे हैं, उन्हें इस बात का एहसास ही नही कि अगर वे कुछ कर दिखाएं तो हिमाचल के मतदाता उनके मुरीद हो सकते हैं।

कांग्रेस पार्टी का प्रदेश नेतृत्व हिमाचल में बीजेपी से पार्टी मुद्दों और विचारधारा के आधार पर चर्चा-परिचर्चा नही करता बल्कि धूमल के आरोपों का उन्ही की भाषा में जवाब देने में वक्त गुजारता । वैसे भारतीय जनतापार्टी के कुछ नेताओं का ख्याल है अगर कांग्रेस हिमाचल में आगामी चुनाओं में दोबारा कमान संभालती है तो प्रदेश के परिवहन मंत्री जी.एस. बाली अधिकांश कांग्रेसियों की पहली पसंद होंगे। बाली के पास ऐसे बहुत से विभाग हैं जिन्हें वे अगर अच्छी तरह से गतिमान बना दें तो बहुत से युवाओं के स्वप्न साकार हो सकते हैं। व्यवसायिक शिक्षा एक ऐसा विषय है जो कारगर सिद्ध हो सकता है। बाली की सोच जनोपयोगी तो है पर जनता के उपयोग के लिए बनाए गए ढांचे में उसे ठीक से बिठाने वाली अफसरशाही उसे लागू करते हुए इतने नुक्ते लगाती है कि सोच का कबाड़ा हो जाता है। परिवहन विभाग के कुछ निर्णय अभी भी धरातल पर नही उतरे हैं। वैसे मुददों को वैज्ञानिक ढंग से सोच कर परोसने वालों में मुकेश अग्निहोत्री का भी कोई सानी नही। उनका हरोली मॉडल आफ़ डिवेलपमेंट इस का जीता-जागता उदाहरण है।

यह तो वक्त ही बतायेगा आने वाले समय में कांग्रेस प्रदेशवासियों का क्या भला कर पाएगी लेकिन इतना तय है प्रदेश में हार की तलवार कांग्रेस पर लटकी हुई है।

बीजेपी को यदि यह खुशफहमी है कि प्रदेश की राजनीतिक रिवायात के मुताबिक अगली बार मतदाता हमें सरकार सोंपेंगे तो भूल जाए कि ऐसे करिश्मे आगे नही होंगे। एक पहाड़ी कहावत भी तो यही कहती है “पले-पले बब्बरुआं दे त्यौहार ने लगदे।” बीजेपी की सक्रिय राजनीति प्रदेश में शान्ता और धूमल के इर्द-गिर्द घूमती है। इन दोनों कद्दावर नेताओं ने हिमाचल को बहुत कुछ दिया है लेकिन हैरानी है इस सब के बावजूद भी एक-दूसरे को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने में इन्हें गुरेज़ होता है। एक मंच पर जब यह दोनों राजनेता होते हैं तो इनकी बॉडी लैंग्वेज देखने वाली होती है।

शान्ता के पत्र–प्रकरण के बाद धूमल ने अपने आरोपों पर सफाई देते हुए जो पत्र मोदी जी को लिखा है, उसमे सभी मुख्यमंत्रियों की संपत्ति की जांच करने का अनुरोध किया है। ध्यान रहे परोक्ष रूप से धूमल ने शान्ता की संपत्ति की जांच की मांग भी रखी है। अब इसे किस तरह की राजनीति कहें, प्रदेश के हित वाली या प्रतिशोध की?
इन सब कारनामों  का असर कार्यकर्ताओं पर भी पड़ता है, जो ऐसे नेताओं और ऐसे पार्टी की राजनीति से विमुख हो जाते हैl इन दोनों राष्ट्रीय दलों को प्रदेश में अपना चाल, चरित्र और चेहरा सुधारना होगा वरना कमजोर दीवारें कभी भी ढह सकती है।
(लेखक हिमाचल प्रदेश के हितों के पैरोकार हैं और राज्य को लेकर लंबे समय से लिख रहे हैं। इन दिनों इन हिमाचल के नियमित स्तंभकार हैं। उनसे vivekavinashi15@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

वीरभद्र और प्रतिभा सिंह को झटका, ED की कार्रवाई पर रोक लगाने से हाई कोर्ट का इनकार

नई दिल्ली

प्रवर्तन निदेशालय द्वारा संपत्तियां अटैच करने की कार्रवाई के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट गए मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह को निराशा हाथ लगी है। कोर्ट ने वीरभद्र और प्रतिभा की मांग को खारिज करते हुए कह कि ईडी द्वारा अब तक की गई कार्रवाई बरकरार रहेगी। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि जब तक मामलों की सुनवाई पूरी नहीं हो जाती, ईडी और संपत्ति अटैच नहीं कर पाएगा।


चीफ जस्टिस जी. रोहिणी और जस्टिस जयंत नाथ ने वीरभद्र और उनकी पतनी की ऐप्लिकेशन को निपटाते हुए कहा कि ईडी द्वारा की गई कार्रवाई बरकरार रहेगी, मगर जब तक मामले में सुनवाई पूरी नहीं हो जाती, अटैचमेंट प्रोसीडिंग में ईडी का कोई नया आदेश मान्य नहीं होगा। ईडी ने प्रतिभा सिंह से जुड़ी 5.80 करोड़ और वीरभद्र सिंह से जुड़ी 1.34 करोड़ की प्रॉपर्टी संपत्ति अटैच की है।

कोर्ट ने वीरभद्र और प्रतिभा की याचिकाओं को उनके बेटे और बेटी की याचिकाओं के साथ लिस्ट किया। उनके बेटे और बेटी ने भी प्रोविज़नल अटैचमेंट को चुनौती दी थी। उस मामले में भी कोर्ट ने ऐसा ही आदेश दिया था। हाई कोर्ट ने वीरभद्र के बेटे और बेटी की और प्रॉपर्टी अटैच करने की कार्रवाई पर रोक लग दी थी, मगर अटैच हो चुकी प्रॉपर्टी को लेकर राहत देने से इनकार कर दिया था।

गौरतलब है कि वीरभद्र और उनकी पत्नी ने 23 मार्च को ईडी द्वारा की गई अटैचमेंट की कार्रवाई को चुनौती दी थी और कहा था कि ED को यह कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है। 26 अप्रैल को उन्होंने प्रिवेंशन और मनी लॉन्डरिंग ऐक्ट के तहत भेजे समन को रद्द करवाने की भी मांग की थी।

रोज तीन किलोमीटर चलकर गांव के बच्चों के साथ स्कूल आता है यह कुत्ता

इन हिमाचल डेस्क।।

कुत्ते और इंसान की दोस्ती की असंख्य मिसाले आपने सुनी होंगी।  यहाँ भी ऐसी ही एक  अजबो गरीब दास्तान हम आपको बता रहे है जो हिमाचल प्रदेश के जिला हमीरपुर के एक ग्रामीण इलाके से सबन्धित है।  जंगल के बीच एक सरकारी स्कूल है जहाँ दूर दराज से पढ़ने के लिए बच्चे आते हैं।  एक गावं से इस स्कूल में लगभग 3 -4 किलोमीटर दूर से बच्चे आते हैं।  इन्ही बच्चों के साथ एक कुत्ता भी  स्कूल आता है।  काले रंग का यह कुत्ता फिर सारा दिन स्कूल में गुजारकर  शाम को बच्चों के साथ वापिस चला जाता है।  हैरानी की बात यह है की यह कुत्ता किसी भी हालत में एक भी दिन छुट्टी नहीं करता।  और स्कूल में भी अपने गावं के बच्चों की कक्षा के बाहर  ही बैठता है।

शुरू में अध्यापकों ने बच्चों को कुत्ते को घर में बाँधने को कहा पर यह तरीका भी कारगर सिद्ध नहीं हुआ , जैसे ही दिन में भी उसे मौका लगता वो भागकर स्कूल पहुँच जाता। परन्तु अब स्कूल में बनने वाले मिड डे मील में कुत्ते को भी हिस्सा मिलता है।  क्योंकि इस कुत्ते ने इस स्कूल की वो समस्या सुलझा दी है जिस से अध्यापक से लेकर अभिवावक और बच्चे अक्सर परेशान रहते थे।

स्कूल के प्रांगण में मजे से धुप सेंकता हुआ कुत्ता

चीड़ के जंगलों के साथ लगते इस स्कूल में बंदरों का बहुत आतंक रहता है।  यह बन्दर अक्सर बच्चों का बैग खाने का सामान या मिड डे मील किचन पर धावा बोल देते थे।  परन्तु अब इस कुत्ते ने बंदरों से निबटने का बीड़ा उठा लिया है।  यह कुत्ता स्कूल कैंपस के अंदर एक भी बंदर को फटकने नहीं देता है।  वहीँ प्रांगण में बैठकर पूरी रखवाली करता है।  देखिये है न हैरतअंगेज श्याद इस कुत्ते का पूर्वजन्म में शिक्षा से कोई नाता रहा होगा तभी सर्दी गर्मी या बरसात कुछ भी हो यह कुत्ता भी  बच्चों के साथ सुबह स्कूल के लिए चल देता है और शाम को उन्ही के साथ वापिस हो लेता है।

कौन थी वह बड़ी-बड़ी आंखों वाली बला की खूबसूरत लड़की?


पिछले दिनों हमने आपको टीवी पत्रकार पंकज भार्गव की आपबीती बताई थी, जिसमें उन्हें ‘बेलीराम नाम के शख्स का भूत’ मिला था। उन्होंने आईबीएन 7 में रहते हुए आईबीएन खबर वेबसाइट पर एक और आपबीती साझा की थी। हम उस वेबसाइट से यह लेख आभार प्रकट करते हुए यहां प्रकाशित कर रहे हैं।

मेरा घर हाइडवेल सेट नं – 3 नीयर चौड़ा मैदान शिमला – 171004…… ये पूरा पता है। सौ साल पहले किसी अंग्रेज़ का ठिकाना था। आयशा बेगम नाम की महिला ने उसे ख़रीदा और फिर लगभग 40 साल पहले मेरे पिताजी ने उसी भद्र महिला से उसे ले लिया। लकड़ी का पुराना सा घर…टीन की लाल छत, धुएंवाली चिमनी।

पता है जब टीन की छत पर बारिश पड़ती है तो आवाज़ ऐसी होती है कि छप्पड़ फट जाए। घना देवदार का जंगल और उसके बीच में ये घर, मेरे बचपन की तमाम यादें जुड़ी हैं इससे। मैं, मेरा छोटा भाई, एक बहन जो अब इस दुनिया में नहीं है। हमारी शरारतें, पिठ्ठू और छिपन छिपाई का खेल और फिर अचानक सब छूमंतर।….हम कब बड़े हो गए कुछ पता ही नहीं चला।

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पिताजी का तबादला हुआ मां, भाई और बहन सब दिल्ली आ गए, मैं अकेला शिमला में रह गया। उस बड़े से घर में जहां सुबह खूबसूरत है, पर रात बड़ी अकेली सी और डरावनी भी। चलिए अब पड़ोस के एक शख़्स से आपका परिचय करवा दूं नाम है फणीभूषण भट्टाचार्य…प्यार से हम उन्हें फोनी दादा बुलाते हैं, एक कैंटीन है इनकी कालीबाड़ी में। यहां बंगाली लोगों ने एक बड़ा सा मंदिर बनवाया है, यहीं इनकी एक प्यारी सी कैंटीन भी है। अकेला रहता था मैं बीए कर रहा था तो अक्‍सर खाना खाने चला जाता था।

उस दिन क्या हुआ था— 8 दिसंबर की रात थी, शाम सात बजे मैं चल दिया। अपने आप से बातें करता हुआ, राम अल्लाह रब जीज़स सभी को याद करता हुआ। ठंड और डर भइया डेडली कॉम्बिनेशन होता है। 20 मिनट का रास्ता डरते-डरते कट गया कब कालीबाड़ी आ गया कुछ पता ही नहीं चला। जम कर खाना खाया माछ भात बंगाली भोजन फोनी दादा की कैंटीन की खासियत है, सो वो ही खाया। फिर सोचा लगे हाथ चाय भी पी ली जाए। कांच के गिलास में चाय पी जाए, तो दो फायदे हैं स्वाद भी मिल जाता है और ठंड के इस मौसम में हाथ भी गर्म हो जाते हैं।

फोनी दादा रोज़ मेरे साथ घर जाते थे, पर आज होनी को कुछ और ही मंजूर था। बोले पोंकोज- मेरा प्यारा सा बंगाली नाम दादा ने ही रखा था। मुझे आज देर होगी तुम निकलो। मरता क्या न करता सो निकल पड़ा मंदिर के गेट पर पहुंचा तो सुनिये…ये आवाज़ आई… मुड़कर देखा एक लड़की थी, गोरी सी बला की खूबसूरत….बड़ी-बड़ी आंखे पीले लिबास में क्या कहूं और उसके बारे में।

सिसिल होटल कहां है। आपको मालूम है उसने पूछा।

हां, मैंने जवाब दिया। मेरे घर के पास है आप चाहें तो मेरे साथ चल सकतीं हैं। और हम चल पड़े।

कलकत्ते के बड़े इंडस्ट्रिअलिस्ट की बेटी है, हर साल घूमने निकलती है, इस बार शिमला चुना घूमने के लिए ये कहा उसने मुझसे। शरतचंद्र, टैगोर सत्यजीत रे , शर्मिला, उत्तम कुमार, आर डी बर्मन सब पर चर्चा हुई। अचानक वो गाने लगी ..तुझ से नाराज़ नहीं ज़िन्दगी…लता का गाना उसकी आवाज़ में बहुत सुरीला लग रहा था।

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खांसती थी बीच-बीच में गाते हुए। थोड़ी बीमार लग रही थी। भगवान को कोसा मैंने..ऊपरवाले हसीनों को बीमार न किया कर। ढलान पर एक बार पांव लड़खड़ाया तो उसने मेरा हाथ भी पकड़ा। सच बोलूं मुझे अच्छा लगा।

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एक और चाय की प्याली का मन था सोचा की कुछ और वक्त बिताने को मिलेगा उसके साथ। उससे कहा तो वो राज़ी भी हो गई ये कहते हुए की आज उसका आखिरी दिन है शिमला में। हम निकल पड़े वापस माल रोड। बालजीज़ में चाय भी पी ली। 9 बज गए।

उसकी बातों से ऐसा ज़रूर लग रहा था, कि वो पहले कई बार शिमला आई है और मुझसे झूठ बोल रही है। कभी हंसती थी तो कभी सीरियस हो जाती थी। चूड़ेलें खूबसूरत होतीं हैं मैंने सुना था। पर हां उसके हाथ पांव टेड़े नहीं थे सो यकीन हो गया लड़की ही है चुड़ैल नहीं। वो गाती जा रही थी।

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शिमला की खासियत ये है की अगर आप अपनी प्रेमिका के साथ हैं तो बैठने के लिए जगह और जेब में पैसे नहीं चाहिए, चलते जाइये उसके साथ एक खूबसूरत एहसास होता जाएगा।

बातें और बातें, कुछ गानों पर डिस्कश्न और अचानक सिसिल होटल आ गया।

कम्बखत ये रास्ता आज इतना छोटा कैसे हो गया…ये सोचा मैंने…

बाय….कलकत्ता आना….कागज़ मेरी तरफ बढ़ा दिया उसने।

माया…यही लिखा था…

और हां साल्ट लेक कलकत्ते का पता था।

मैं उसे छोड़कर घर आ गया अकेला।

सुबह हुई घर की घंटी बजी दरवाज़ा खोला तो फोनी दादा थे

मैंने माया की बात कही…

दादा के हाथ से चाय की प्याली छूट गई।

एक अंग्रेज़ अफसर था …बंगाली लड़की के प्यार में पड़ गया …माया नाम था उसका। एक रोड ऐक्सिडेंट में दोनो की मौत हो गई तभी से भटक रही है दोनों की आत्मा.. कभी अंग्रेज़ मिल जाता है तो कभी ये माया।

मैं फौरन भाग कर होटल गया। रिसेप्शन पर रजिस्टर चैक किया…पूछा भी लोगों से…..

जवाब वही था।

कोई माया नहीं ठहरी थी वहां।

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