Zee Zindagi के सीरियल TV Ke Uss Paar में नागिन बनेंगी हिमाचल की Nriti Vaid

हमीरपुर।। हमीरपुर के वॉर्ड 1 की नृति वैद्य जल्द ही जी-जिंदगी चैनल पर प्रसारित होने वाले सीरियल ‘टीवी के उस पार’ में नागिन का रोल अदा करती नजर आएंगी। इस सीरियल का जल्द ही एक प्रोमो भी लॉन्च होगा।

Nriti Vaid ने कंप्यूटर साइंस में बीटेक की है। वह ऐक्टिंग में भी गजब की करती हैं। उस पार में वह नागिन की भूमिका निभाएंगी, जो लीड रोल है। इस सीरियल की कहानी नागिन के बदले से जुड़ी हुई है, जिसमें नागिन अपने पति की मौक का बदला लेगी। यह सीरियल सोमवार से शनिवार तक सा साढ़े 8 बजे प्रसारित होगा।

नृति वैद्य
नृति वैद्य

नृति ने अनुपम खेर के ऐक्टिंग इंस्टिट्यूट से ऐक्टिंग सीखई है। वह वैसे बचन से ही ऐक्टिंग और डांस में रुचि रखती थीं और कई पुरस्कार भी जीत चुकी हैं। ऐक्टिंग का पहला ब्रेक नृति को बालाजी प्रॉडक्शंस से मिला था। इसका एक कार्यक्रम चैनल वी में गुमराह पर प्रसारित हुआ था।

सोनी पल चैनल के पिया बसंती रे, सोनी सब के हॉरर शो हान्टेड नाइटस, लाइफ ओके बावरे, सावधान इंडिया, यू टीवी बिंदास पर हल्ला बोल जैसे कई सीरियल्स में Nriti Vaid ने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। वह टीवी ऐड्स में भी काम कर चुकी हैं।

Nriti Vaid की मॉडलिंग की कुछ तस्वीरें, जो फेसबुक व मॉडलिंग संबंधित अन्य स्रोतों से ली गई है:
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11 सालों में एक भी छुट्टी नहीं ली इस HRTC कंडक्टर ने

नाहन।। हममें से ज्यादातर का मन करता होगा कि काश बिना कुछ किए ही सैलरी मिल जाए। यह भी ख्याल आता होगा कि वीकली ऑफ यानी साप्ताहिक अवकाश भी ज्यादा हों और छुट्टियां भी भरपूर मिलें। मगर हिमाचल प्रदेश पथ परिवहन निगम यानी HRTC का एक कंडक्टर ऐसा है, जिसने 11 सालों से एक भी छुट्टी नहीं ली। यही नहीं, जिस रूट पर उसकी ड्यूटी लगती है, निगम की कमाई बढ़ जाती है। इसका मतलब है कि वह अपना काम भी ईमानदारी से करता है।

42 साल के जोगिंद्र ठाकुर एचआरटीसी के नाहन डिपो में बतौर कंडक्टर काम करते हैं। उनका भरा-पूरा परिवार है, जिसमें पत्नी, बेटा-बेटी, माता-पिता और अन्य सगे संबंधी शामिल हैं। सिरमौर के संगड़ाह के रजाणा के रहने वाले जोगिंद्र ठाकुर चार जून 2005 को एचआरटीसी में बतौर कंडक्टर तैनात हुए थे। तभी से वह लगातार ड्यूटी दे रहे हैं। रोज वह 200 किलोमीटर का सफर तय करते हैं और इन दिनों नाहन-घाटों रूट पर सेवाएं दे रहे हैं।

Image courtesy: Amar Ujala

अमर उजाला ने जोगिंद्र पर पूरी रिपोर्ट छापी है और बताया है कि कैसे वह सबके लिए प्रेरणा स्रोत हैं। वह हमेशा वर्दी में सेवाएं देते हैं। उनकी ईमानदारी और मधुर स्वभाव की सवारियां ही नहीं, निगम प्रबंधन भी कायल है। वह जिस भी रूट पर सेवाएं देते हैं, निगम की कमाई बढ़ना शुरू हो जाती है। सरकारी नौकरी में आने से पहले वह प्राइवेट बस के साथ काम करते थे और वहां भी कई सालों तक उन्होंने छुट्टी नहीं ली थी।

क्यों छुट्टी नहीं लेते जोगिंद्र?
जोगिंद्र का कहना है कि उनकी पत्नी और बच्चों के सहयोग से ही यह संभव हो पाया है। ड्यूटी पूरी होने के बाद बचा समय मैं अपने परिवार के साथ गुजारता हूं। जोगिंद्र का दावा है कि साढ़े 11 साल में उसने मात्र तीन दिन पूरे घर पर गुजारे हैं। अक्तूबर 2011, अक्तूबर 2013 में दिवाली पर और 2015 में एक बार सड़क बंद होने की वजह से वह घर पर रहे।

अब तक कोई पुरस्कार नहीं मिला
सरकार और निगम की तरफ से अब तक उन्हें कोई अवॉर्ड नहीं मिला है। बेकार पड़े एक रूट की इनकम बढ़ाने के लिए उन्हें एक बार सिर्फ 500 रुपये का नकद इनाम मिला था और साथ में एक सर्टिफिकेट।

रीजनल मैनेजर भी करते हैं तारीफ
एचआरटीसी के क्षेत्रीय प्रबंधक संजीव बिष्ट ने बताया कि जोगिंद्र अपनी ड्यूटी के प्रति बहुत ईमानदार हैं। आज तक उनकी कोई शिकायत नहीं मिली। जिस रूट पर वह सेवाएं देते हैं, उसकी आय बढ़ जाती है। समय, कायदे-कानून के पाबंद हैं।उनके अनुसार जोगिंद्र ने कभी छुट्टी नहीं ली। वह साप्ताहिक अवकाश भी नहीं लेते हैं। बिष्ट ने बताया कि मैंने स्वयं जोगिंद्र को पत्र लिखकर छुट्टी लेने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने लिखित में दिया कि मैं छुट्टी नहीं लेना चाहता।

जोगिंद्र कहते हैं कि अगर मेरा नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल होता है तो मुझे खुशी होगी। मगर हिमाचल सरकार या एचआरटीसी को चाहिए कि जोगिंद्र को पुरस्कृत करे। इसलिए नहीं कि वह छुट्टी नहीं लेते, बल्कि इसलिए क्योंकि वह ईमानदारी के साथ काम करते हैं। छुट्टी लेना या न लेना उनका निजी फैसला हो सकता है, मगर घाटे में जा रहे रूटों पर ड्यूटी लगने से जो निगम की आमदनी बढ़ती है, उससे पता चलता है कि वह पूरी ईमानदारी से काम करते है। और यह भी पता चलता है कि उनसे पहले वाले कंडक्टर जरूर कुछ गड़बड़ करते रहें होंगे। बहरहाल, इन हिमाचल की तरफ से जोगिंद्र को शुभकामनाएं।

चंबा में है चंद्रशेखर महादेव का सदियों पुराना रहस्य से भरा मंदिर

आशीष बहल।। जिला चम्बा मुख्यालय से लगभग 15 km दूर साहू गांव में स्थापित है चन्द्रशेखर के नाम से प्रसिद्ध एक विशाल शिवलिंग। ये चन्द्रशेखर मंदिर अपने आप में कई पौराणिक कथाएं समेटे है। तथा भारत के समृद्ध संस्कृति व आस्था का प्रतीक है ये मंदिर। मंदिर प्राचीन शैली से निर्मित है और लगभग 1100 साल पुराना बताया जाता है।

तांबे से जड़ित शिवलिंग स्थापना का रहस्य: बताते हैं कि बहुत समय पहले साल नदी के समीप एक ऋषि गुफा में रहते थे जो साथ वहती साल नदी में स्नान करने जाते थे परन्तु वो जब भी सुबह वँहा पँहुचते उनसे पहले कोई नदी में स्नान कर जाता था इस बात से ऋषि हैरान हुए और उन्होंने ये जानने के लिए कि आखिर कौन उनसे पहले स्नान करने वाला धर्मात्मा पैदा हो गया वो इसकी खोज में लग गए ।

भगवान महेश सब जानते थे और मुनि की चिंता को भी समझते थे। अन, जल त्याग कर मुनि इस रहस्य को जानने में लग गए। तभी एक सुबह ही 3 शिलाएं महेश, चन्द्रशेखर, और चन्द्रगुप्त नदी में स्नान करने उतरती हैं ऋषि का मन ये देख हर्षित हो उठता है सही समय जान ऋषि उनके समीप जाते हैं जैसे उनके पास पँहुचे तो एक शिला कैलाश पर्वत की तरफ चली जाती है जो आज प्रसिद्ध मणिमहेश के रूप में बिश्वविख्यात है। चन्द्रगुप्त शिला ने उसी नदी में डुबकी लगाई और बहते हुए चम्बा नगरी के पास दुम्भर ऋषि के समीप जंहा दो नदियां साल और रावी मिलती है वंही विश्राम किया।

SHivlingam

एक दिन चन्द्रगुप्त ने राजा को स्वप्न में दर्शन दिए और राजा ने चन्द्रगुप्त को लक्ष्मी नारायण मंदिर के पास चन्द्रगुप्त को स्थापित किया। तीसरी शिला चन्द्रशेखर के रूप में वहीँ पर रुक गयी और वंही ठोस बन गयी। जब ऋषि ने उस शिला को उठाने का प्रयास किया तो असफल रहे वह बहुत भारी हो गयी। ऋषि का मन बहुत व्याकुल हुआ की आखिर इतनी तपस्या के बाद भी क्या हासिल हुआ तब ऋषि को भविष्यवाणी हुई कि पास ही एक गांव पंडाह में एक विन्त्रु सती रहती है अगर वो मुझे स्पर्श करेगी तो मैं फल की भांति हल्का हो जाऊंगा और यंहा से हिल पाउँगा और जंहा मुझे स्थापित होना होगा वँहा मैं भारी हो जाऊंगा।

ऋषि ने उस सती भक्त को ढूंढा परन्तु सती ने साथ न आने का कारण बताते हुए कहा कि न तो उसके पति घर में हैं बालक अभी सोया है, मखन पिघलने के लिए रखा है और दूध अभी उबलने रखा है मैं इस समय नहीं आ सकती तो ऋषि ने वरदान दिया कि जब तक तू वापिस नहीं आयेगी बालक सोया रहेगा न मखन जलेगा न दूध उबलेगा। तू चिंता न कर और मेरे वरदान को सत्य जान। तब ऋषि अपने साथ उसे लेकर आये सती ने शिला को स्पर्श किया तथा समस्त नगर वासियों सहित शिला को पालकी में डाल कर और वँहा से चलना आरम्भ किया तभी साहू गांव में पँहुचते ही वो शिला शिवलिंग भारी हो गयी और वंही गांव में मंदिर की स्थापना की गयी। यात्रा के दौरान अपने सहयोगियों के साथ शिवलिंग को मेखली की पकड़ में रखा जाता और ये शिवलिंग दिन प्रतिदिन बड़ा होता जाता जितना भाग जमीन के ऊपर है उतना ही जमीन के नीचे बढ़ता जाता।

एक दिन भगवान चन्द्रशेखर ने ऋषि को स्वप्न में बताया कि मेरे आसपास और मेखली न लगायी जाये जो मेखली शेष है उसे बाहर मंदिर के आंगन में लगा दिया जाये जो यंहा आने वाले समस्त जन मानुषों के दुखों का संहार करेगी। इस तरह चन्द्रशेखर महाराज वँहा स्थापित हुए। आज भी मणिमहेश के समान ही वँहा मेला लगता है मणिमहेश की यात्रा को तब तक सम्पूर्ण नहीं माना जाता जब तक साहू के मंदिर में माथा न टेका जाये इसलिए बहुत से लोग इस मंदिर में दर्शन को आते हैं। एशिया के सबसे विशाल शिवलिंग में गिना जाता है।

नंदी महाराज की स्थापना: जो इस मंदिर के बारे में एक और रोचक तथ्य है वो है यंहा पर स्थापित नंदी की प्रतिमा ये मंदिर के बिलकुल सामने स्थित है। इन नंदी के निर्माण का पहलूँ भी काफी रहस्यमयी है ये नंदी अपने आप उस जगह पर स्थापित हुए हैं। कहते है कि वो असली नंदी है जो रोज लोगो की फसल तबाह कर देते थे तो एक दिन ग्वाले ने उन्हें देख लिया और उन्हें रोकने के लिए पूंछ से पकड़ लिया और बस उसी समय उसी जगह वो नंदी और ग्वाल शिला रूप में परिवर्तित हो गए। आज भी नंदी के पीछे ग्वाल लटका हुआ दिखता है।

nandiजो घण्टी नंदी के गले में पत्थर की है वो टन की आवाज देती है। विज्ञान में रूचि रखने वाले काफी लोगों ने इस पर खोज की परन्तु आस्था के आगे सब नतमस्तक है इसका रहस्य कोई जान नहीं पाया। इस प्रकार की नंदी की प्रतिमा अन्य किसी जगह में देखने को नहीं मिलेगी। देखने में सजे धजे नंदी के रूप में दीखते है जो अनायास ही किसी को भी अपनी और आकर्षित कर लें।

(लेखक चुवाड़ी, जिला चम्बा से संबंध रङते हैं। अध्यापक, लेखक और कवि हैं। विभिन्न अखबारों में स्तम्भ लेखन करते हैं।)

आवारा गायों को समस्या मत समझिए, इनसे करोड़ों कमाए जा सकते हैं

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आशीष नड्डा।। पिछले कुछ अरसे से गाय की दशा दिशा पर समाज में चर्चा छिड़ी है। हिमाचल प्रदेश में भी हर छोटे बड़े शहर गांव कस्बे में गाय को बेचारगी की स्थिति में अवारा घूमते हुए देखा जा सकता है। शहरों में यह गाय डस्टबीन के आसपास कचरा प्लास्टिक तक खाने को मजबूर हैं तो गांवों में भूख के कारण खेतों में घुसकर डंडा खाने के लिए। पूजनीय पशु की यह दुर्गति वास्तव में चिंता और शर्म का विषय है। ऐसा क्यों हो रहा है इन कारणों पर मैं नहीं जाना चाहता न गाय के आगे पीछे होने वाली राजनीति पर मेरे कोई विचार हैं। व्यक्तिगत रूप से कोई गाय को पूजनीय माने या मात्र एक पशु माने इससे मुझे कोई लेना देना नहीं है। परंतु समाज के रूप में फर्क इस चीज से जरूर पड़ता है की गाय एक घरेलू पशु है और इसका सड़क पर होना धार्मिक और सामाजिक रूप से सही नहीं है। सड़क पर आवारा घूमती गाय से लोगों की धार्मिक भावनायों आहत होती हैं साथ ही सड़कों पर दुर्घटना का भी खतरा बना रहता है साथ ही ग्रामीण इलाकों में फसलों पर भी मार पड़ रही है। हिमाचल प्रदेश में कई ऐसे इलाके हैं जहाँ लोगों ने आवारा गायों से लेकर बंदरों के प्रकोप के कारण खेती ही बन्द कर दी है।

खैर अब चर्चा का विषय यह है की उपरोक्त जो भी समस्याएं गाय के सड़क पर होने के कारण पैदा हुयी हैं इनसे कम से कम अपने प्रदेश के रूप में हम सोचें की कैसे पार पाया जा सकता है। जैसा की सर्विदित है और किया भी जाता है गाय को सड़क से हटाने के लिए उसके पुनर्वास की जरुरत है जिसके लिए गौशाला निर्मण ही एक सार्थक ऑप्शन बचती है। ऐसा हो भी रहा है विभिन्न समाजसेवी और धार्मिक संस्थाएं गौ शाळा खोलकर इन गायों के सरंक्षण और उत्थान के लिए कार्य कर रही हैं। परन्तु यह स्वेछिक सेवा इतने वयापक स्तर पर नहीं है की सड़क से हर गाय को गौशाला के रूप में ठौर मिल जाए। व्यापक क्यों नहीं है इसके भी कारण है। सड़क पर वही गाय छोड़ी जाती है जो स्वार्थी इंसान के लिए किसी कार्य की घर में न रही हो साथ ही बैल सड़कों पर छोड़े जाते हैं क्योंकि अब उनसे हल नहीं जोता जाता ट्रेक्टर और अन्य उपकरण शामिल हो गए हैं। मुझे याद है हमारे घर में जब गाय थी और बछड़ा पैदा होता था तो वो एक चिंता का विषय था की इस बछड़े को कौन लेगा ?

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वर्तमान में जो गौशाला हैं वो स्वेछिक निधि लोगों के दान या मंदिर ट्रस्ट आदि के सहयोग से चल रही हैं उन्हें खुद ही ही जमीन का जुगाड़ करना होता है खुद ही संसाधन अरेंज करने होते हैं। उनके पास आय का कोई साधन भी नहीं है। हालाँकि हिमाचल सरकार ने हाई कोर्ट के आदेशों पर पंचायतों को जमीन देखने के लिए कहा है जहाँ गौशाला का निर्माण किया जाए। परन्तु पंचायतों का रवैया इसके लिए उदासीन ही रहा इसका यह भी कारण है की पंचायत प्रतिधि पांच साल के लिए चुनकर आते हैं। साथ ही सरकार ने भी कोई डिटेल मॉडल रोडमैप लॉन्ग टर्म आर्थिक सपोर्ट पेश नहीं की जिससे की पंचायतों की चिंताएं दूर होती और वो इस दिशा में आगे बढ़ती। क्योंकि एक बार जमीन और निर्माण के लिए बेशक गौशाला को पैसा मिल जाए पर वो आगे कैसे सस्टेन करे इस पर सोच जरुरी है। ऐसी हो सकती है गोशाला इकनॉमिक ऐंड फाइनैंशल मॉडल कोई भी संसथान (इस केस में गौशाला) तब तक लॉन्ग टर्म सस्टेनेबल नहीं हो सकते जब तक सर्वाइव करने के लिए उनके पास अपने आर्थिक संसाधन विकसित न हों। सरकार की सब्सिडी भी कब तक चलती रहेगी। पर हाँ सरकारें शुरुआत में अपने अधिकार क्षेत्र से कुछ योगदान दे सकती हैं। गाय के पुनर्वास के लिए गौशाला प्रथम स्तम्भ है और गौशाला का अपने संसाधनों से आत्मनिर्भर होना लॉन्ग टर्म के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

कुलमिलाकर मैं यहाँ इसी मॉडल पर चर्चा करूँगा की सरकार , हम नागरिक इसमें क्या योगदान दे सकते हैं और किस भूमिका में हो सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है सरकार का रोल। पंचायतों को यह जिम्मेदारी सौपने से बेहतर है सरकार गौ संवर्धन बोर्ड का गठन करे और तहसील स्तर पर खड्डों के आसपास लगती बंजर या बेकार जमीन को गौशाला निर्माण के लिए चिन्हित करे। कोई भी स्वयसेवी संस्था अगर उस इलाके की आगे आना चाहे तो सरकार वो जमीन उसे दे सकती है कोई नहीं मिलता है तो बोर्ड खुद गौशाला निर्माण में आगे आये। मंदिर ट्रस्ट के दान के पैसों को इन सब कार्यों में प्रयोग किया जा सकता है हम नागरिकों का भी कर्त्तव्य बनता है की सरकार इस दिशा में कदम बढ़ रही है तो अपनी धार्मिक आस्था के लिए ही सही वैतरणी गंगा पर करने के लिए ही सही अपने नगरों को रोड असक्सीडेन्ट से बचाने के नाम पर फसलों को बचाने के नाम पर किसी भी कारण सेस्वेच्छिक दान दे। हम में से कई लोग होंगे जो गाय के लिए चिंतित हैं पर उन्हें यह कहा जाए की सड़क से लाकर दो गाय घर में पाल लो तो उनके लिए यह संभव नही होगा पर हाँ कोई संस्था यह काम कर रही हो तो ऐसे भी बहुत लोग हैं जो स्वेच्छा से दान वहां देंगे। इसलिए यह जिम्मेदारी गौ संवर्धन बोर्ड को उठानी होगी।
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गौ शाला में गाय को गोद लेने के लिए भी अभियान शुरू हो वो पलेगी बढ़ेगी वहीँ पर वैतारनी गंगा पर करने का इछुक व्यक्ति गर घर में गाय नहीं पाल सकता। वहां उसका खर्च उठाये अ मौजूद परिस्थिति में वैतरणी गंगा पार करने के कांसेप्ट को अब गौदान से गौ पालन पुनर्वास से जोड़ना सार्थक है । ऐसी हो सकती हैं गोशाला हिमाचल प्रदेश में सरकारी जमीन और चारे की कोई कमी है नहीं है इसलिए पहले स्टेप में कोई दिक्कत नहीं है। गौशाला निर्माण के बाद बात आती है उसके सस्टेन करने की सब्सिडी के बोझ से प्रदेश को नहीं दबाया जा सकता। जहाँ गौ शाला और गाय होंगी जाहिर है वहां गोबर भी होगा गाय के गोबर में 86 प्रतिशत तक द्रव पाया जाता है। गोबर में खनिजों की भी मात्रा कम नहीं होती। इसमें फास्फोरस, नाइट्रोजन, चूना, पोटाश, मैंगनीज़, लोहा, सिलिकन, ऐल्यूमिनियम, गंधक आदि कुछ अधिक मात्रा में विद्यमान रहते हैं तथा आयोडीन, कोबल्ट, मोलिबडिनम आदि भी थोड़ी थोड़ी मात्रा में रहते हैं। इन्ही खनिजो से गोबर खाद के रूप में, मिट्टी को उपजाऊ बनाता है। पौधों की मुख्य आवश्यकता नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटासियम की होती है। वे वस्तुएँ गोबर में क्रमश: 0.3- 0.4, 0.1- 0.15 तथा 0.15- 0.2 प्रतिशत तक विद्यमान रहती हैं। मिट्टी के संपर्क में आने से गोबर के विभिन्न तत्व मिट्टी के कणों को आपस में बाँधते हैं, किंतु अगर ये कण एक दूसरे के अत्यधिक समीप या जुड़े होते हैं तो वे तत्व उन्हें दूर दूर कर देते हैं, जिससे मिट्टी में हवा का प्रवेश होता है और पौधों की जड़ें सरलता से उसमें साँस ले पाती हैं।

गोबर का समुचित लाभ खाद के रूप में ही प्रयोग करके पाया जा सकता है। हालाँकि हमारे किसान ऐसा सदियों से कर रहे हैं । परंतु ज्यादातर किसान कच्चा गोबर खेतों में प्रयोग करते हैं जिसे कम्पोस्ट होने में समय लग जाता है और तब तक बारिश के कारण यह सब खेतों से बह जाता है। रासायनिक खाद के केस में तुरंत इफ़ेक्ट होता है इसलिए प्रयोग के साथ हमें लगने लगा की यह केमिकल खाद हमारे गोबर से ज्यादा असरदायक है। परन्तु इसके नुक्सान पंजाब और साउथ के राज्यों में देस्ख सकते हैं। अत्यधिक रासायनिक खाद के प्रयोग से ग्राउंड वाटर में कैंसर पैदा करने वाले तत्व मिल गए हैं जिस कारण पंजाब का मालवा इलाका तो कैंसर बैल्ट के रूप में जाना जाने लगा है।

गोबर आधारित ऑरगैनिक खाद पैक करके भी बेची जा सकती है छोटी सी खेती के लिए पहाड़ी किसान गोबर को एक लेवेल तक डिकंपोस करने का फिर प्रयोग करने का झंझट नहीं पालते। पर गौ संवर्धन बोर्ड प्रदेश की हर गौशाला में ओर्गानिक खाद जिसे कहते हैं उसे बड़े स्तर पर बना सकता है। उसी खाद को बढ़िया नाम पैकिंग देकर कृषि डिप्पों में किसानों को रासायनिक खाद की जगह बेचा जा सकता है वैसे भी रासायनिक खाद पर सब्सिडी हम दे ही रहे हैं। अभी मक्की की फसल के लिए 50 किलो पैकिंग की रासायनिक खाद हमने गावं में अपने खेतों के लिए ली है। उसी पैकिंग में उसी डिप्पों में अच्छी तरह से तैयार हुई गोबर की खाद वैसी ही पैकिंग में हमें मिले तो हमें या किसी भी किसान को क्या दिक्कत है। यह एक टेलर मेड रिप्लेसमेंट हो सकती है। अब मुझे यह कहा जाए की पहले गाय पालो फिर गोबर गड्ढे में डालो केंचुए डालो कम्पोस्ट खाद बनायो तब खेत में प्रयोग करो तो यह मुझसे नहीं हो पायेगा। पर हाँ मार्किट में डीपो में सरकार अपने ही प्रदेश में बनी उच्च स्तर की गोबर खाद उपलब्ध करवाये तो हम ले लेंगे। इस खाद की सेल गौशाला के लिए आय का स्त्रोत भी रहेगी और बाज़ार भी उपलब्ध है।

मैं इस विषय का एक्सपर्ट नहीं हूँ पर हाँ इस क्षेत्र के एक्सपर्ट्स से चर्चा करके यह रिसर्च किया जा सकता है की गोबर से जो खाद बनेगी क्या उसमे थोड़े अमाउंट में रसय्यानिक खाद मिलाई जा सकती है जिससे जो भी कमी पेशी गोबर खाद में खनिज तत्वों की रह गयी हो वो पूरी हो सके। ऐसा हो सकता है है नहीं भी रहती हो मुझे आईडिया नहीं है। एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के सइंटेस्ट की मदद ली जा सकती है। हिमाचल प्रदेश के जनसँख्या 70 लाख है और हर परिवार में पांच सदस्य रॉ कॉकलशन के लिए मैं लेकर चलूँ तो 14 लाख परिवार बनते हैं अगर यह मान लिया जाए की औसतन एक परिवार मक्की की फसल के लिए 50 किलो की यूरिया हर वर्ष लेता है और गेहूं की फसल के लिए 50 किलो रासायनिक खाद हर वर्ष लेता है तो लगभग 300 रूपए यूरिया की पैकिंग और लगभग 1000 रूपए गेहूं वाली खाद हर वर्ष लेने में हम हिमाचली लोग लगभग 15. 5 करोड़ रूपए व्यय कर रहे हैं। अगर उसके आधा भी गौ संवर्धन बोर्ड गौशाला में उत्पादित आर्गेनिक गोबर खाद को बेच पाए तो लगभग 8 करोड़ की सालाना आय यहाँ से आएगी। (डाटा उपलब्ध नहीं होने के आकड़ें असंप्शन पर आधारित हैं , डिटेल एस्टिमेशन के लिए रासायनिक खाद की बिक्री के आंकड़ों का प्रयोग किया जा सकता है ) बायोगैस (गोबर गैस) डाइजेस्टर यह बताना भी मैं जरुरी समझता हु की गोबर से गैस भी बन सकती है सब जानते हैं।
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90 के दशक में सब्सिडी बाँट के सरकार ने लोगों से प्लांट लगवाये थे पर टेक्नीकल और बिना रीसरसच के सब फ्लॉप हो गए। किसान के लिए एक दो पशु से गोबर गैस प्लांट चलाना वाएअबल नहीं है। परंतु गौ शाला में जहाँ सैंकड़ों की संख्या में गाय होंगी प्रचुर मात्रा में गोबर होगा वहां यह प्लांट बढ़िया तरीके से वर्क करेंगे। गोबर गैस बनाने के बाद जो अपशिष्ट बचता है वो कम्पोस्ट खाद की तरह जल्दी असरदायक और ज्यादा उर्वरक क्षमता वाला होता है , यानी डबल पर्पस सॉल्व खाद भी ऊर्जा भी। गौ शाला से इस गैस को सीलेंडर में पैक करके बेचा भी जा सकता है .हालाँकि यह बताना मैं जरुरी समझता हु की गोबर गैस की कैलोरिफिक वैल्यू (एनर्जी कंटेंट) एलपीजी से कम होता है। एलपीजी का एनर्जी कंटेंट जहाँ 44 MJ /k g है वहीँ गोबर गैस का 20 -22 MJ/kg है। यानी एक एक चाय का कप बनाने के लिए जितनी एलपीजी आपको खर्च करनी होती है उसके लिए आपको डबल मात्रा में बायो गैस खर्च करनी होगी।

आज हिमाचल में एक डोमेस्टिक एलपीजी सिलेंडर लगभग 500 रूपए में मिल रहा है गौ संवर्धन बोर्ड गोबर गैस पैदा करके एक सीलेंडर 250 रूपए में बेच सकता है। गोबर गैस डाइजेस्टर अगर मैं यह मानू की 14 लाख हाउसहोल्ड में से सिर्फ 10 लाख ही एलपीजी उपभोगता हिमाचल में हैं और वो हर महीने एक एलपीजी सीलेंडर प्रयोग करते हैं तो बायो गैस के उन्हें दो करने करेंगे। यानी 5 करोड़ एक महीने में आय गौ संवर्धन बोर्ड को हो सकती है। सालाना यह आय 60 करोड़ हो गयी आठ करोड़ खाद के अब क्या 68 करोड़ सालाना आया वाले बोर्ड को जिसकी रॉ मटेरियल कॉस्ट जीरो है सब्सिडी की जरुरत रहेगी ? (इन एस्टिमेशन में एक्चुअल में कितने उपभोगता है इस संख्या को नहीं लिया गया है साथ ही पूरी एल पी जी सप्लाई को गोबर गैस से रिप्लेस करना संभव नहीं है क्योंकि इतने मवेशी सड़कों पर नहीं है पर यह एक ऑप्टिमिस्टिक पोटेंशियल फिगर है) अगर हम इसका 25 % भी लें तो 17 करोड़ की आय गौ संवर्धन बोर्ड अपने संसाधनों (जिनमे सिर्फ आवारा गाये शामिल) हैं से अर्जित कर सकता है।
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जो मैं यहाँ बता रहा हूँ यह कोई नया मॉडल या खोज नहीं है IIT डेल्ही के रूरल सेंटर में इसपे बहुत काम हुआ है वो तो अपने दो व्हीकल गोबर गैस से चलाते हैं। राजस्थान में जयपुर वाला गौ सेवा संघ एक बार मैंने विजिट किया था वहां मैंने देखा की गोबर गैस का प्रयोग वो लोग डेरी के लिए जनरेटर चलाने के लिए कर रहे थे साथ ही कम्पोस्ट खाद को भी पैकिंग के साथ बेच रहे थे , हमारे हिमाचल में भी तो यह हो सकता है। इसके अलावा प्रदेश में दूध के सैम्पल फेल हो रहे हैं गौ शाला में जरुरी नहीं है की नकारा और बूढी गायें पाली जाएँ। दुधारू और नस्ल की गायें भी साथ में रखी जा सकती हैं जिनसे पाप्त दूध से डेरी प्रोडक्ट बनाये जाएँ और हिम फेड की तर्ज बार गौ संवर्धन बोर्ड अपने ब्रांड से मार्किट में बेचकर आय अर्जित करे।

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यह सब हो सकता है बस एक इच्छाशक्ति ईमानदार टास्क फोर्स और मार्किट बेस्ड मॉडलिंग की जरुरत है। मैं तो यहाँ तक कहता हु सरकार अगर यह सुनिश्चित कर दे की निर्द्धारित दाम पर वो आर्गेनिक गोबर खाद खरीदने के लिए तैयार है और इसके लिए बाकायदा 10 साल का अग्र्रमेन्ट करने की नीति लाये तो बोर्ड की जरुरत भी नहीं रहेगी। निजी संस्थाएं खुद ही सड़कों से गाय को उठाकर अपने फायदे के लिए गौशाला खोलकर ओरगनिक गोबर खाद की फैक्ट्री लगा देंगी। अंत में मैं यह कहना चाहूंगा आंकड़े आगे पीछे हो सकते हैं पर मिल बैठकर सबंधित क्षेत्र के वैज्ञानिकों से सलाह लेकर किसान से लेकर बिज़नेसमैन को हिस्सा बनाकर इकोनॉमिकल और फाइनेंसियल मॉडलिंग की जा सकती है। शुरू में व्यापक स्तर पर न सही परंतु कम से कम एक दो ज़िलों में पायलट आधार पर ऐसे प्रोजेक्ट तो शुरू किया ही जा सकता है। पायलट प्रोजेक्ट से भविष्य के लिए क्या हो सकता है इस पर सीख मिलेगी साथ ही कहीं कमी रह गयी होगी वहां भी सुधार के लिए गुन्जाईस रहेगी। बाकी हिन्दू लोग वैतरणी गंगा पर करने के लिए गोद लेने वाले गौ पालन कांसेप्ट पर जरूर सोचें।

(लेखक मूल रूप से ज़िला बिलासपुर के रहने वाले हैं और IIT दिल्ली में रिन्यूएबल एनर्जी, पॉलिसी ऐंड प्लैनिंग में रिसर्च कर रहे हैं। लेखक प्रदेश के मुद्दों पर लिखते रहते हैं। उनसे aashishnadda@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

वीडियो: तेंदुए के हमले में वन विभाग का अफसर जख्मी, तेंदुआ भी मारा गया

ऊना।। हिमाचल प्रदेश के ऊना क्षेत्र के डठवाड़ा में जख्मी तेंदुए ने वनविभाग के रेंज ऑफिसर पर हमला कर दिया। राजेश कुमार कुछ अन्य लोगों के साथ इलाके में तेंदुए की खबर मिलने पर बिना तैयारी के ही सर्च ऑपरेशन में जुटे थे। इसी बीच झाड़ियों से निकलकर तेंदुए ने राजेश पर हमला कर दिया, जिसमें वह बुरी तरह जख्मी हो गए। साथ मौजूद लोगों ने अफसर को बचाने की कोशिश में दराट से तेंदुए को भी मार डाला। राजेश का पीजीआई चंडीगढ़ में उपचार चल रहा है।

अमर उजाला की रिपोर्ट के मुताबिक तेंदुए की मौत मामले में पशु चिकित्सकों और वन विभाग के विशेषज्ञों द्वारा किए गए पोस्टमार्टम में उसे छर्रे लगने का खुलासा हुआ है। इसके आधार पर पुलिस ने अज्ञात शिकारियों के खिलाफ केस दर्ज कर जांच शुरू कर दी है। मगर सोशल मीडिया पर आए एक विडियो से पता चलता है कि भले ही तेंदुआ छर्रों से पहले से जख्मी हो, उसे रेंज ऑफिसर राजेश को बचाने की कोशिश के दौरान दराट से काटकर मारा गया। तेंदुए ने राजेश का सिर दबोचा हुआ था।

पुलिस अधीक्षक अनुपम शर्मा ने बताया कि पुलिस ने मामले के संदर्भ में अज्ञात शिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है। मगर इस बीच वन विभाग के ऊपर भी सवाल उठ रहे हैं, जो बिना तैयारी के ही सर्च ऑपरेशन करने पहुंच गए। इन कर्मचारियों के पास न तो ट्रैंक्वलाइजर (बेहोश करने वाली) गन थी और न ही तेंदुए को पकड़ने के इंतजाम। ऐसे में घायल तेंदुए के हमले से न सिर्फ एक अधिकारी की जान पर बन आई, बल्कि इस जीव को भी अपनी जान गंवानी पड़ी।

सोशल मीडिया पर रेंज ऑफिसर की बहादुरी के चर्चे हैं कि कैसे संसाधन न होते हुए भी वह लोगों की सुरक्षा के लिए तेंदुए को तलाश करने के लिए निकल पड़े। साथ ही वन विभाग के खिलाफ लोगों में गुस्सा है कि अधिकारियों और कर्मचारियों को हालात से निपटने के लिए न तो जरूरी साजो-सामान दिया जाता है और न ही स्पेशल ट्रेनिंग दी जाती है। तेंदुए के मारे जाने के पशु-प्रेमी और वन्यजीव वैज्ञानिक भी नाराज हैं। गौरतलब है कि हाल के दिनों में हिमाचल में यह तीसरी घटना है, जिसमें तेंदुए की जान गई है। इससे पहले सिरमौर और बिलासपुर में आदमखोर तेंदुओं को मारा गया है।

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लेख: अपने फायदे के लिए हिमाचल बांटने से बाज आएं राजनेता

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(यह लेख 30 अगस्त, 2015 को पहली बार छपा था। जैसे-जैसे हिमाचल में चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, हिमाचल को अपर और लोअर में बांटने की कोशिश शुरू हो गई है। ऐसे में एक बार फिर इस आर्टिकल को फेसबुक पर शेयर कर रहे हैं। लेख में मौजूद कुछ बातों का संदर्भ अब बेशक बदल चुका होगा, मगर भाव वही हैं।)

आई.एस. ठाकुर।। क्या हिमाचल प्रदेश एक नहीं हो पाएगा? यह सवाल उन लोगों के लिए चौंकाने वाला हो सकता है, जिन्हें लगता होगा कि हिमाचल तो एक ही है। वे मासूम नहीं जानते कि हिमाचल प्रदेश ठीक उसी तरह से बंटा हुआ है, जिस तरह से भारत एक होने के बावजूद बंटा हुआ है। जी हां, बंटे होने का अर्थ सांस्कृतिक या भौगोलिक विविधता नहीं है। इसका अर्थ है- क्षेत्रवाद।

ज्यादातर लोग जानते हैं कि हिमाचल प्रदेश की राजनीति ने इसे ‘अपर हिमाचल’ और ‘लोअर हिमाचल’ नाम के दो हिस्सों में बांट दिया है। माना जाता है कि यह सिलसिला उसी वक्त शुरू हो गया था, जब डॉक्टर यशवंत परमार के बाद सत्ता अगली पीढ़ी के हाथों में गई। आरोप लगे वीरभद्र पर। कहा जाता है कि उन्होंने अपर हिमाचल यानी शिमला वह आसपास के जिलों को प्राथमिकता दी। वहां के लोगों को नौकरियां दीं, प्रॉजेक्ट्स वहां दिए और योजनाओं को वहां सही से लागू करवाया। आरोप यह भी कि उन्होंने लोअर हिमाचल यानी कांगड़ा, मंडी, कुल्लू, हमीरपुर, बिलासपुर, ऊना और चंबा आदि के साथ भेदभाव किया।

इसके बाद शांता कुमार को ऐसे मुख्यमंत्री के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने संतुलन बनाया। अपर और लोअर हिमाचल का टंटा खत्म करके प्रदेश को एक नजर से देखा। मगर उनके जाने के बाद वही सिलसिला चालू रहा। वीरभद्र अपर हिमाचल को तरजीह देते रहे और उसके बाद आए बीजेपी के प्रेम कुमार धूमल पर मैदानी इलाकों को प्राथमिकता देने का आरोप लगा। हालांकि इस कथित लोअर हिमाचल के लोग मानते हैं कि धूमल के आने के बाद से उनकी भी सुध ली जाने लगी है। उनका कहना है कि वीरभद्र भी अब पूछने लगे हैं, वरना पहले वो ऊपरी हिमाचल वालों को ही सिर पर बिठाते थे।

गली-चौराहों, नुक्कड़ों और अब सोशल मीडिया पर भी यह चर्चा होती है कि हिमाचल दो हिस्सों में बंटा है। एक अपर हिमाचल, जो वीरभद्र का दुलारा है और लोअर हिमाचल, जिसकी चिंता धूमल को रहती है। कहा तो यहां तक जाता है कि धूमल ने इस लोअर हिमाचल के बूते ही प्रदेश पर राज किया है। वरना धूमल न तो विज़नरी दिखते हैं और न ही इतने प्रभावी वक्ता हैं कि जनता का अपनी बातों या रवैये से दिल जीत सकें।

यह तो रही पुरानी पीढ़ी की बात। उस पीढ़ी की, जो एक अवसर के चलते राजनीति में आई। जी हां, उनका लक्ष्य प्रदेश की राजनीति में आकर प्रदेश की सेवा करना नहीं था। वे अचानक से राजनेता बन गए। भले ही वे नाकाबिल रहे हों, मगर वे कई सालों तक राजनीति में छाए रहे क्योंकि लायक लोगों ने या तो उन्हें चुनौती देने की हिम्मत नहीं दिखाई या फिर वे उस लेवल तक पहुंच ही नहीं पाए। मगर अब प्रदेश अगली पीढ़ी के राजनेताओं की तरफ देख रहा है। मगर लक्षण ठीक नहीं हैं।

अगली और युवा पीढ़ी के नेताओं की बात करें तो कौन दिखाई देता है? अनुराग ठाकुर (धूमल के बेटे), विक्रमादित्य (वीरभद्र के बेटे), चेतन बरागटा (नरेंद्र बरागटा के बेटे), गोकुल बुटेल (बुटेल खानदान से), नरेंद्र अत्री (अनुराग के साथी), यदोपति ठाकुर (विक्रमादित्य के साथी)… इनके अलावा सुरेश चंदेल से लेकर गुलाब सिंह ठाकुर और अन्य कई नेताओं के बेटे ही नजर आते हैं। इनमें से ज्यादातर की योग्यता यह है कि वे नेता पुत्र हैं और बाकियों की यह है कि वे नेतापुत्र के करीबी होकर यहां पहुंचे हैं। इनमें से ज्यादातर को अपनी योग्यता अभी साबित करनी है।

क्या आपको हिमाचल प्रदेश की राजनीति में कोई ऐसा युवा चेहरा नजर आता है जो अपनी बातों, अपने विज़न या अन्य किसी योग्यता की वजह से जमीन से उठकर छाया हुआ है? जवाब ‘न’ में मिलेगा। नेता पुत्र होना अपराध नहीं है। अगर आप नेता के बेटे हैं तो आपको संवैधानिक अधिकार है कि कोई भी पेशा चुनें और राजनीति भी उसमें से एक है। मगर चिंता का विषय अलग है। अगर हिमाचल प्रदेश के पास यही विकल्प बचे हैं तो प्रदेश का भविष्य बहुत अच्छा होगा, ऐसा भ्रम नहीं पालना चाहिए।इनमें से कोई भी नेता ऐसा नहीं है, जो क्षेत्रवाद से उठकर प्रदेश हित की बात करता हो। किसी को फ्लां जगह पर एम्स चाहिए, किसी को फ्लां जगह पर आईआईटी चाहिए, किसी को फ्लां शहर स्मार्ट सिटी चाहिए, किसी को वहां पर स्टेडियम चाहिए तो किसी को वहां पर सेंट्रल यूनिवर्सिटी चाहिए। वहां का मतलब है- अपने चुनाव क्षेत्र में।

हम वृहद होकर नहीं सोच सकते क्या? हिमाचल प्रदेश का सौभाग्य है कि यहां के लोग शांत हैं और आबादी भी कम है। यहां के लोग सक्षम हैं और आत्मसम्मान के साथ जीने वाले हैं। वे अपने लिए ही नहीं, प्रदेश और देश के लिए भी जान छिड़कते हैं। उनके अंदर कभी ऐसी भावना नहीं आती कि फ्लां जगह पर ऐसा है, फ्लां जगह पर वैसा है। मगर बार-बार राजनेता उन्हें अहसास दिलाते हैं कि आप अपर हिमाचल के हैं और आप लोअर के। अगर मंडी में आईआईटी बनता है तो अच्छी बात है। एम्स अगर बिलासपुर में खुलता है तो अच्छी बात है। भला तो प्रदेश का ही हो रहा है न? फायदा तो सभी लोगों को होगा न? ऐसा तो नहीं होगा कि बिलासपुर में एम्स बनेगा तो बिलासपुर के मरीजों को सोने के बिस्तर पर रखा जाएगा और बाकी जिले के मरीज़ों को लकड़ी के तख्ते पर। फिर हल्ला क्यों?

पहले इन राजनेताओं ने आईआईटी को लेकर हल्ला किया, फिर सेंट्रल यूनिवर्सिटी को लेकर, फिर एम्स को लेकर और अब स्मार्ट सिटी को लेकर कोहराम मचा दिया है। भैया, जब साफ है कि प्रदेश से फिलहाल एक ही स्मार्ट सिटी का नॉमिनेशन होना है तो हल्ला क्यों? शिमला के एक युवा बीजेपी नेता पूछते हैं कि शिमला को किस आधार पर नहीं लिया गया। ठीक है, उनकी आरटीआई का जवाब जरूर मिलना चाहिए। जानकारी छिपाई नहीं जानी चाहिए। वैसे भी प्रियंका वाड्रा को लेकर डाली गई आरटीआई की जानकारी देने में भी आनाकानी की गई थी। मगर इससे इतर सवाल उठाने वाले नेता को समझना चाहिए कि शिमला सिलेक्ट नहीं हुआ तो पहाड़ टूट गया क्या? वह पढ़े-लिखे हैं और यह भी जानते होंगे कि शिमला को AMRUT स्कीम के तहत केंद्र की एड मिलना शुरू हो गई है। उन्हें यह भी होना चाहिए कि यह स्कीम स्मार्ट सिटी योजना से कमतर नहीं है। तो क्या पहले से ही मदद पा रहे शिमला को दोबारा स्मार्ट सिटी में डाल दिया जाए?

स्मार्ट सिटी के लिए 100 शहर चुने जाने थे, मगर ऐलान 98 का हुआ। 2 शहरों को इसलिए रिजेक्ट कर दिया गया क्योंकि वे कैटिगरी में आते ही नहीं थे? क्या हिमाचल सरकार को AIIMS जैसी ही गलती दोहरानी चाहिए थी? गौरतलब है कि केंद्र ने हिमाचल सरकार से पूछा था कि एम्स के लिए जगह बताओ। तब वीरभद्र सरकार ने आलस में आकर राजनीतिक पचड़े से बचने के लिए कहा था कि टांडा मेडिकल कॉलेज को ही एम्स में बदल दो। यह तो भला हो कि बीजेपी के जे.पी. नड्डा स्वास्थ्य मंत्री थे जिन्होंने दोबारा लेटर भिजवाया कि नए संस्थान के लिए जगह ढूंढो, किसी पुराने संस्थान को अपग्रेड नहीं करना है। तब जाकर हिमाचल को एम्स मिला, वरना हिमाचल रह जाता बिना एम्स के। स्मार्ट सिटी के लिए किस आधार पर चयन हुआ, किस पर नहीं, यह तकनीकी मामला है। मगर एम्स जैसा ही मामला शिमला को दोबारा भेजे जाने पर होता।

जो शहर पहले ही AMRUT से ऐड ले रहा है, उसे स्मार्ट सिटी के लिए भी क्यों भेजा जाए? वह भी सिर्फ इसलिए, क्योंकि ऐसी मांग करने वाले शिमला से हैं? अगर वह नेता पक्षपाती नहीं होते तो उनका सवाल वृहद होता। वह पूछते कि धर्मशाला क्यों चुना गया, मंडी या शिमला क्यों नहीं। मगर उनकी चिंता सिर्फ शिमला को लेकर थी। उनकी आरटीआई में सिर्फ शिमला का जिक्र था। साफ पता चलता है कि उनका झुकाव शिमला के प्रति है।अपने इलाके के प्रति झुकाव होना भी चाहिए, मगर प्रदेश हित उससे ऊपर होना चाहिए और देश का हित सबसे ऊपर।

सवाल पूछना सभी का हक है और इससे कोई नहीं रोक सकता। मगर इसे लेकर माहौल बनाने के पीछे अक्सर लोगों की इच्छा खबरों में छाने की और लोगों से सहानुभूति बटोरने की होती है। इस मामले में भी ऐसा ही लग रहा है। ठीक इसी तरह से कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री के साथ अहम पद पर तैनात कांगड़ा के युवा नेता ने सवाल उठाया था कि हिमाचल प्रदेश की सरकारें निकम्मी रही हैं कि मेडिकल सुविधाएं नहीं जुटा पाईं। उनका इशारा स्वास्थ्य मंत्री कौल सिंह के प्रदेश के बाहर एक अस्पताल में सर्जरी करवाने को लेकर था। सवाल अच्छा था, मगर वह भी जनता के बीच छाने का का मामला लग रहा था। क्योंकि वह भूल गए कि ज्यादातर समय उनकी अपनी ही सरकार हिमाचल में सत्ता में रही है।

प्रदेश के युवा नेताओं को समझना होगा कि अब वे लोग उसमें कामयाब नहीं हो पाएंगे। पावरफुल नेता पुत्रों के कुछ समर्थक ‘भाई जी जिंदाबाद’ के नारे लगा देंगे, मगर पढ़ी-लिखी जनता उल्लू नहीं बनेगी। वह सवाल करेगी लॉजिक के आधार पर। वैसे भी अगर किसी को चयन का क्राइटीरिया जानना है तो केंद्र में डालिए न RTI, योजना केंद्र की है। केंद्र यानी बीजेपी सरकार से पूछिए कि हिमाचल को एक ही राज्य का कोटा क्यों दिया गया। मगर नहीं, बीजेपी के युवा नेता अपनी ही सरकार से कैसे सवाल पूछें, पोजिशन खराब हो जाएगी। चलो हिमाचल सरकार को घेरा जाए।

किसी से कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं है। दरअसल समस्या हर उस शख्स से होनी चाहिए जो प्रदेश को एक इकाई के तौर पर नहीं देखता। जो अपर हिमाचल, लोअर हिमाचल, कांगड़ी, मंडयाली, हमीरपुरिया आदि के आधार पर बांटने की कोशिश करे, उसे तुरंत खारिज कर दिया जाना चाहिए। हमें डॉक्टर परमार की उस कल्पना को पूरा करना होगा, जो उन्होंने हिमाचल के लिए की थी। वही एकजुट हिमाचल एक मजबूत भारत के निर्माण में अपनी भूमिका सुनिश्चित कर सकता है।

(लेखक मूलत: हिमाचल प्रदेश के हैं और पिछले कुछ वर्षों से आयरलैंड में रह रहे हैं। उनसे kalamkasipahi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

नोट: आप भी अपने लेख inhimachal.in@gmail.com पर भेज सकते हैं। हमारे यहां छपने वाले लेखों के लिए लेखक खुद जिम्मेदार है। ‘इन हिमाचल’ किसी भी वैचारिक लेख की बातों और उसमें दिए तथ्यों के प्रति उत्तरदायी नहीं है। अगर आपको कॉन्टेंट में कोई त्रुटि या आपत्तिजनक बात नजर आती है तो तुरंत हमें इसी ईमेल आईडी पर मेल करें।

मुख्यमंत्री वीरभद्र ने फिर तोड़ी मर्यादा, बीजेपी विधायक पर की निजी टिप्पणी

कांगड़ा।। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का नाम हिमाचल प्रदेश की राजनीति में सुलझे हुए राजनेता के तौर पर लिया जाता है, मगर उन्होंने एक जनसभा में निजी टिप्पणी कर डाली। बनखंडी में जनसभा में उन्होंने देहरा के विधायक रविंद्र रवि को लेकर कहा- मैं रविंद्र रवि को उस समय से जानता हूं, जह वह राजनीति में नहीं थे और पालमपुर में एक खोखे में अंडर गारमेंट्स बेचा करते थे और आज दौलतमंद हो गए हैं।

‘अमर उजाला’ की रिपोर्ट के मुताबिक आगे उन्होंने कहा कि एक-एक की हिस्ट्री जानता हूं कि कौन कितने पानी में हैं। षड्यंत्रकारी जो खेल खेल रहे हैं मैं उसका चैंपियन हूं और यह आखिरी चेतावनी है। षड्यंत्र से राजनीति नहीं चलती है और न ही ऐसे लोग कामयाब हो पाते हैं।

गौरतलब है कि मुख्यमंत्री की इस टिप्पणी को गैरजरूरी और अमर्यादित माना जा रहा है। प्रबुद्ध तबके में चर्चा है कि पहली बात तो मुख्यमंत्री को यह समझनी चाहिए कि कोई कैसा भी काम करता हो, उसकी इज्जत करनी चाहिए। यह बताने का क्या तुक बनता है कि पहले वह फ्लां काम करता था और आज यह काम करता है।

जिस दौरान मुख्यमंत्री ने यह टिप्पणी की, लोग हंसते नजर आए। इससे साफ पता चलता है कि जनता के बीच किसी का मखौल उड़ाने के इरादे से यह टिप्पणी की गई थी, जो कि और भी गलत है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब मुख्यमंत्री ने किसी काम के आधार पर बांटा है। उन्होंने एक बार पहले भी सफाई कर्मचारियों को हेय बताते हुए भाजपा पर टिप्पणी की थी। उस पर आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

लेख: मुख्यमंत्री जी, सफाई कर्मचारी होने में क्या बुराई है?

धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने पर मुख्यमंत्री वीरभद्र ने लिया यू-टर्न

शिमला।। यह तो आप सभी ने अखबारों में पढ़ा या टीवी न्यूज पर सुना होगा कि मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने धर्मशाला को प्रदेश की दूसरी राजधानी बनाने का ऐलान किया है। मगर अब, उस ऐलान के कई दिन बाद मुख्यमंत्री ने इस बात को लेकर स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा है कि यह घोषणा पुरानी है और इसे सिर्फ दोहराया गया है। यानी मुख्यमंत्री अब इस मामले में गोलमोल बातें करते नजर आ रहे हैं। अब बयान से पलटने पर लगता है कि मुख्यमंत्री ने किसी खास मकसद से यह चुनावी ऐलान किया था, मगर जब फायदा होता नजर नहीं आया तो स्पष्टीकरण दे दिया।

हिंदी अखबार ‘अमर उजाला’ की रिपोर्ट के मुताबिक वीरभद्र ने कहा है कि धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाए जाने की घोषणा पुरानी है। इसे महज दोहराया गया है। उन्होंने कहा, ‘शिमला से धर्मशाला के लिए कोई सरकारी दफ्तर शिफ्ट नहीं किए जाएंगे। उन्होंने कहा कि धर्मशाला पहले से ही दूसरी राजधानी है। वहां कई महत्त्वपूर्ण दफ्तर हैं। हर साल विधानसभा का शीतकालीन सत्र वहां होता है। हिमाचल की एकता और अखंडता के लिए यह कदम उठाया गया है। सूबे के सभी क्षेत्र के लोगों को यह एहसास दिलाना जरूरी है कि वे हिमाचल का अहम अंग हैं।’

वीरभद्र सिंह
वीरभद्र सिंह

मुख्यमंत्री अब भले ही लाख स्पष्टीकरण दें, मगर उनके मंत्री तक उनके ऐलान पर खुशी जाहिर कर चुके हैं। आप विडियो में देख सकते हैं कि कैबिनेट मंत्री सुधीर शर्मा ने भी कहा था कि मुख्यमंत्री राजधानी का दर्जा देने की बात कही है।

मगर अमर उजाला की रिपोर्ट के मुताबिक मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का कहना है, ‘दूसरी राजधानी बनेगी ये नहीं कहा था, बल्कि यह कहा था कि धर्मशाला दूसरी राजधानी है। वहां विधानसभा का भवन बन गया है। एक सत्र वहां पर होता है। कुछ अर्से तक सरकार वहां से चलती है। ये सोचा-समझा कदम है। इसका मतलब यह नहीं है कि यहां से सारे दफ्तर यहां से वहां शिफ्ट हो जाएंगे। कुछ समय के लिए जब सरकार जाएगी तो आवश्यक अफसर वहां जाएंगे। यह होता रहा है। यह कोई नई घोषणा नहीं है। धर्मशाला के महत्व को बढ़ाने के लिए यह जरूरी है।’

चर्चा है कि अपने करीबी और शहरी विकास मत्री सुधीर शर्मा, जो धर्मशाला के विधायक हैं, का माहौल बनाने के लिए मुख्यमंत्री ने ऐसा ऐलान किया था, मगर जब सोशल मीडिया पर इस सतही घोषणा की आलोचना हुई और जमीन पर कोई माहौल नहीं बना, तो सीएम अपने स्टैंड को बदल रहे है।

पढ़ें: हिमाचल दूसरी राजधानी चाहता है या इन सवालों के जवाब?

हिमाचल की शिव्या पठानिया को मिला ‘बेस्ट राइजिंग ऐक्ट्रेस’ अवॉर्ड

इन हिमाचल डेस्क।। टीवी सीरियल एक रिश्ता साझेदारी का में लीड रोल निभाने वालीं हिमाचल की बेटी शिव्या पठानिया को ‘बेस्ट राइजिंग ऐक्ट्रेस’ का अवॉर्ड मिला है। कलाकार परिवार फाउंडेशन संस्था की ओर से यह अवॉर्ड मिला है। शिव्या  शिमला के खलीणी की रहने वाली हैं। सोनी में प्रसारित होने वाली इस सीरियल में शिव्या पठानिया ने एक मॉडर्न लड़की का किरदार निभाया है।

शिव्या पठानिया
शिव्या पठानिया

शिव्या साल 2013 में मिस शिमला रह चुकी हैं। उन्होंने 10वीं और 12वीं की पढ़ाई हेनोल्ट पब्लिक स्कूल शिमला से की है। उसके बाद उन्होंने चितकारा यूनिवर्सिटी से बीटेक किया और यहीं से ऑडिशन के बाद साल 2014 में मुंबई पहुंचीं। बिलासपुर में भी शिव्या के घर हैं और ननिहाल रोहड़ू में है। दिव्या को यह पुरस्कार 25वें साल के कलाकार अवॉर्ड्स समारोह में 22 जनवरी 2017 को साइंस सिटी ऑडिटोरियम कोलकाता में दिया गया है।

अवॉर्ड
अवॉर्ड

शिव्या की मॉडलिंग की कुछ तस्वीरें:

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वन मंत्री ठाकुर सिंह भरमौरी पर लगा गंभीर आरोप

कांगड़ा।। कार्यक्रमों के दौरान मंच पर नाचने और गाने के लिए चर्चा में रहने वाले वन मंत्री ठाकुर सिंह भरमौरी अब नए विवाद में फंस गए हैं। उनके ऊपर अपने बॉडीगार्ड्स से मिलकर एक बस ड्राइवर से मारपीट का आरोप लगा है। लोगों का कहना है कि दोपहर तीन बजे के करीब इंदौरा के गांव चलोह में स्कूल बस लेकर जा रहे ड्राइवर से गाड़ी को पास न देने को लेकर बहस हो गई, जिसके बाद मारपीट हुई।

आरोप है कि वन मंत्री ने इस दौरान अपने अंगरक्षकों के साथ कथित तौर पर बस ड्राइवर से न केवल मारपीट की बल्कि गंगथ पुलिस को बुलवाकर राजीनामा लिखवा लिया और बस का चालान भी कटवा दिया। अमर उजाला की वेबसाइट में छपी खबर के मुताबिक आरोप है कि घटना के तीन दिन बाद भी पुलिस ने शिकायत तक दर्ज नहीं की, जिससे गुस्साए ग्रामीणों ने जमकर नारेबाजी की।

वन मंत्री ठाकुर सिंह भरमौरी का कहना है कि बस ड्राइवर तेज रफ्तार में था। उनकी गाड़ी के ड्राइवर ने किसी तरह स्कूल बस के साथ टक्कर होने से बचाई। लिहाजा, उन्होंने गंगथ पुलिस को मौके पर बुलाकर बस ड्राइवर पर नियमानुसार कार्रवाई करने को कहा। उन्होंने कहा है कि मारपीट के आरोप सरासर झूठे हैं और मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है।

जवाली के कार्यवाहक डीएसपी धर्म चंद वर्मा ने कहा कि उन्हें इस घटना की जानकारी मीडिया से ही मिली है। अब इस घटना की जांच के आदेश संबंधित पुलिस चौकी को दिए हैं। इस मामले में जांच के बाद ही उचित कार्रवाई होगी।

देखें, आखिर क्यों नाचने लग जाते हैं वन मंत्री ठाकुर सिंह भरमौरी