नगर निगम चुनावों में बीजेपी की ‘हार’ के लिए कौन है जिम्मेदार?

(नगर निगम चुनावों में बीजेपी और कांग्रेस के प्रदर्शन की समीक्षा पर पहली कड़ी) आई.एस. ठाकुर।। सोलन, मंडी, पालमपुर और धर्मशाला नगर निगम के लिए हुए चुनावों के नतीजों की समीक्षा का दौर अभी थमा नहीं है। कांग्रेस इन चुनावों में जहां अच्छे प्रदर्शन से उत्साहित है, वहीं बीजेपी के अंदर समीक्षा चल रही है कि आखिर चूक कहां हुई जो मंडी के अलावा बाकी जगहों पर मतदाताओं ने उस पर विश्वास नहीं जताया। कुछ विश्लेषक इसे सरकार विरोधी लहर मान रहे हैं। हालांकि, मतदान प्रतिशत को देखते हुए यह नहीं लगता कि लोगों ने बीजेपी को किसी तरह का संदेश देने के लिए घरों से बाहर निकलने की कोशिश की। विधानसभा और लोकसभा चुनावों में औसतन 75 फीसदी मतदान करने वाले हिमाचल के इन चार नगर निगमों में औसतन 66 फीसदी मतदान ही हुआ। वहीं कुछ विश्लेषकों का यह भी कहना है कि स्थानीय निकाय चुनावों में क्षेत्रीय मुद्दे हावी रहते हैं और इसी वजह से नतीजों की व्याख्या किसी पार्टी की लहर या किसी से नाराजगी के तौर पर करना सही नहीं है। लेकिन जब चुनाव ही पार्टी सिंबल पर चुनाव हुए हों, तब चुनावों की समीक्षा पार्टियों, उनके संगठन और नेताओं को किनारे रखकर भला कैसे की जा सकती है?

बीजेपी का प्रदर्शन ऐसा क्यों रहा?
जब विधानसभा चुनाव को मात्र डेढ़ साल का समय बचा हो, उस दौर में चार नगर निगमों के चुनाव पार्टी सिंबल पर करवाना कोई आसान फैसला नहीं था। सीएम को कुछ लोगों ने सलाह भी दी होगी कि ऐसा करने से बचें क्योंकि चुनाव के नतीजे अगर पक्ष में नहीं आए तो लोग आपकी सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाएंगे। इस रिस्क को समझते हुए भी जयराम ने पार्टी सिंबल पर चुनाव करवाए। नतीजे पक्ष में नहीं रहे तो अब वही हो रहा है, जिसका डर उनके सलाहकार जताते रहे होंगे। पार्टी के खराब प्रदर्शन के लिए राज्य सरकार की नीतियों के प्रति जनता के असंतोष और जयराम ठाकुर के नेतृत्व को दोष दिया जाने लगा है। कहा जा रहा है कि सीएम ने मंडी, पालमपुर, सोलन और  धर्मशाला की गलियों में उतरकर प्रचार किया, फिर भी मंडी के अलावा बाकी जगह पार्टी का प्रदर्शन खराब रहा।

इन आलोचनाओं से वैसे एक बात तो साफ हो जाती है कि विपक्ष और बाकी नेता यह मानते हैं कि हिमाचल में इस वक्त बीजेपी का एक ही सर्वमान्य नेता है और वह है जयराम ठाकुर, इसलिए हार की जिम्मेदारी भी उन्हीं की होनी चाहिए। जिस तरह कांग्रेस अपने अच्छे प्रदर्शन का सेहरा अपने प्रदेशाध्यक्ष कुलदीप राठौर के सिर बांध रही है, उस तरह हिमाचल प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष सुरेश कश्यप को बीजेपी के प्रदर्शन के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जा रहा। क्योंकि प्रदेश में संगठन को संभालना और किसी भी तरह के चुनावों या उपचुनावों की कमान संभालना प्रदेशाध्यक्ष का काम है। लेकिन इन चुनावों में सुरेश कश्यप कहीं पर भी सक्रिय नहीं दिखाई दिए।

संगठन के मुखिया को संभालता सरकार का मुखिया
सुरेश कश्यप की छवि एक शर्मीले स्वभाव के नेता की है जो कभी खुलकर किसी मामले में लीड लेते नहीं दिखते। प्रेस कॉन्फ्रेंस वगैरह में भी उनकी असहजता नजर आ जाती है। वह हर सवाल का डिफेंसिव जवाब देते हैं और कहीं भी उनकी बातों में किसी कार्ययोजना या एक्शन की ललक और झलक नहीं दिखती। 2019 लोकसभा चुनाव जब हो रहे थे, तब सतपाल सत्ती बीजेपी के प्रदेशाध्यक्ष थे। भले ही वो अपने बयानों के लिए विवादों में रहे हों, लेकिन हर जगह वह न सिर्फ ऐक्टिव रहे बल्कि तेजतर्रार तरीके से प्रचार करते नजर आए। उसके बाद कुछ समय के लिए प्रदेशाध्यक्ष बने बिंदल ने भी ऐक्टिव होकर बीजेपी काडर में उत्साह का संचार करने की कोशिश की थी। मगर सुरेश कश्यप पद संभालने के इतने महीनों बाद भी खुद को स्थापित नहीं कर पाए हैं। ऐसे में वह निगम चुनावों में पार्टी के लिए क्या ही कर पाते और वो कुछ कर भी नहीं पाए।

पार्टी आलाकमान को उनकी जवाबदेही लेना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि टिकट आवंटन, प्रचार, चुनाव प्रबंधन आदि की जिम्मेदारियां अध्यक्ष की होती हैं। सब काम सरकार का मुखिया नहीं कर सकता, इसलिए सत्ताधारी पार्टी का बहुत कुछ संगठन के नेताओं को संभालना पड़ता है। मगर हिमाचल में हुआ यह कि राजीव बिंदल के इस्तीफे के बाद आनन-फानन में अध्यक्ष बनाए गए सुरेश कश्यप के काम भी सरकार के मुखिया को संभालने पड़ रहे हैं। अगर संगठन काबिल होता यूं सीएम को प्रचार के लिए गलियों में नहीं उतरना पड़ता। प्रचार तो फिर भी बाद की बात है, पहला काम होता है चुनाव के लिए रणनीति बनाना। यह बात हैरान करती है कि जिन राजीव बिंदल को गंभीर आरोपों की वजह से पार्टी प्रदेशाध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा, आपने उन्हीं को सोलन चुनावों की कमान सौंप दी। बिना यह देखे कि राजीव बिंदल को लेकर अब लोगों की राय क्या है। सोलन में चुनाव को पूरी तरह राजीव बिंदल के हवाले करने के अलावा पालमपुर में सौम्य कांग्रेसी विधायक आशीष बुटेल के सामने ‘अलोकप्रिय’ त्रिलोक कपूर को कमान सौंपने और धर्मशाला में विशाल नहरिया-किशन कपूर की खींचतान पर लगाम न लगा पाने के लिए जिम्मेदारी किसकी बनती है?

नकारा मंत्री, पिछलग्गू पदाधिकारी
जयराम ठाकुर के सीएम बनने के बाद उनकी छवि को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने का काम किया है ऐसे मंत्रियों ने जो मंत्री बनते ही भूल गए कि उनका काम क्या है। सरकार की छवि को बेहतर बनाना, अच्छे काम करवाना तो दूर, वे अपने महकमे तक को नहीं संभाल पाए। बीच में मंत्रिमंडल में फेरबदल भी हुआ मगर इससे कुछ असर नहीं हुआ। कांगड़ा से तीन मंत्री हैं मगर तीनों की ही भूमिका अजीब रही है। नगर निगम चुनावों के दौरान जहां उन्हें आगे आकर मोर्चा संभालना चाहिए था, वहीं वे किन्ही और कामों में व्यस्त रहे।उदाहरण के लिए धर्मशाला में उतनी कोशिश नहीं की गई, जितनी की जानी चाहिए थी। सरवीण चौधरी पहले शहरी विकास मंत्री थीं। वह चाहतीं तो धर्मशाला के विकास को पंख लगा सकती थीं लेकिन उनका फोकस कहीं और ही रहा। और तो और, चुनाव प्रचार जब चरम पर थे तो धर्मशाला बीजेपी के नेता और कांगड़ा के ही एक मंत्री प्रचार छोड़ केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर की अगवानी में लगे रहे। क्या चुनाव ऐसे जीते जाते हैं? पालमपुर में तो किसी का फोकस रहा ही नहीं। ऐसे मंत्री किस काम के?

मंडी में बीजेपी का इतनी सीटें जीतना हैरान करता है क्योंकि लोगों में वहां महेंद्र सिंह ठाकुर के प्रति भारी नाराजगी है। जिस तरह के पक्षपात के आरोप महेंद्र सिंह पर लगे हैं, वह न तो सीएम के लिए अच्छे हैं न पार्टी के लिए। कई मंचों से महेंद्र सिंह यह कहते हैं कि ‘मंडी से सीएम मिला है, मंडी से सीएम मिला है।’ सीएम बनने के एक आध महीने तक तो ये बातें ठीक हैं मगर चार साल बाद भी ऐसी रट लगाना सही संदेश नहीं देता। पूरे प्रदेश में आपकी छवि बनती है कि आप प्रदेश के नहीं, एक जिले के सीएम हैं। और फिर ये छवि और गहरी हो जाती है कि जब आपकी ही पार्टी के विधायक विधानसभा में आपके पूछें कि आप मंडी पर ही विकास कार्यों में इतना पैसा क्यों खर्च कर रहे हैं और वह भी दो विधानसभा क्षेत्रों में।

मंडी के लोगों में भी यह चिंता थी कि महेंद्र सिंह उनके यहां अपने क्षेत्र के लोगों को नौकरियां लगा देंगे। हिमाचल की राजनीति पर नजर रखने वालों का कहना है कि भले ही महेंद्र सिंह यह दावा कर रहे हों उनके प्रचार की वजह से मंडी में बीजेपी जीती, मगर हकीकत यह है कि उन्होंने नुकसान किया है। वरना बीजेपी और बेहतर प्रदर्शन करती। स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि महेंद्र सिंह से बेहतर काम तो राकेश जमवाल करते नजर आए, जिन्होंने महेंद्र सिंह ठाकुर के अक्खड़ और मुंहफट तरीके से उलट विनम्रता से डोर टु डोर कैंपेन किया और लोगों की नाराजगी दूर करने की कोशिश की।

इन चुनावों के नतीजे बीजेपी ही नहीं, सीएम जयराम ठाकुर के लिए भी ‘वेक अप कॉल’ हैं। अभी वक्त है कि जयराम ठाकुर जानें कि कौन उनका असल हितैषी है। ऐसा कैसे हो सकता है कि जनता को यह पता हो कि कौन सीएम की तारीफ करने की आड़ में असल में अपने हित साध रहा है, लेकिन यही बात सीएम को मालूम न हो।

लॉबी जो जयराम ठाकुर को ‘फेल’ देखना चाहती है

चुनाव के नतीजों की व्याख्या हर कोई अपने हिसाब से करता है। जैसे कि कहा जा रहा है कि ये नतीजे बताते हैं कि जनता जयराम और उनकी सरकार से खुश नहीं है। वैसे, सीएम जैसे ही नगर निगम चुनाव के प्रचार में जुटे थे, 2019 लोकसभा चुनावों और पच्छाद उपचुनाव के बाद चित्त पड़ी भाजपा की एक ख़ास लॉबी अचानक अंडरटेकर की तरह उठ खड़ी हो गई। ये वह लॉबी है जो चाहती है कि जयराम ठाकुर ‘फेल’ हो जाएं। 2017 विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा आलाकमान या यूं कहिए कि तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह समझ गए थे कि हिमाचल के लोग, जिनमें भारतीय जनता पार्टी के वफादार, ईमानदार और सिद्धांतवादी कार्यकर्ताओं का भी बड़ा वर्ग शामिल है, चाहते हैं कि इस बार नेतृत्व परिवर्तन हो। इसीलिए चुनावों से एन वक्त पहले तक बीजेपी ने सीएम कैंडिडेट की घोषणा नहीं की। लेकिन प्रेम कुमार धूमल का खेमा सक्रिय हो गया और ऐसा संदेश देने की कोशिश की गई कि अगर धूमल को कैंडिडेट नहीं बनाया गया तो इससे बीजेपी नुकसान हो सकता है।

बीजेपी जानती थी कि नुकसान होगा भी तो इसलिए कि धूमल समर्थक पार्टी के खिलाफ काम करेंगे। इसलिए नहीं कि कोई मतदाता ये सोचेगा कि धूमल सीएम नहीं बनेगा, इसलिए वीरभद्र को ही जिताना चाहिए। अप्रत्यक्ष ब्लैकमेल के आगे पार्टी को घुटने टेकने पड़े और आखिरी समय में धूमल को सीएम कैंडिडेट घोषित कर दिया गया। मगर कमाल यह हुआ कि धूमल खुद चुनाव हार गए। जब सीएम पद के लिए नया चेहरा चुना जाना था, तब फिर धूमल समर्थकों की लॉबी ने हंगामा शुरू कर दिया। कुछ तो अपनी सीट छोड़ने को तैयार हो गए कि धूमल जी को सीएम बना दीजिए, मैं इस्तीफा दे देता हूं और मेरी सीट पर होने वाले उपचुनाव में धूमल जी जीत जाएंगे। न तो ऐसा होना था, न ऐसा हुआ। नया मुख्यमंत्री बनाया गया- सराज के विधायक जयराम ठाकुर को।

लेकिन अब तक यह साफ हो चुका था कि प्रदेश भाजपा के किन नेताओं और विधायकों की वफादारी प्रदेश या पार्टी की बजाय एक नेता विशेष- प्रेम कुमार धूमल के प्रति थी। वे आलाकमान के फैसले के आगे खामोश तो हो गए, लेकिन उनका दिल धूमल के लिए धड़कता रहा और आज भी धड़क रहा है। संगठन से लेकर विधानसभा के अंदर तक, कई ऐसे नेता हैं जिनकी आज तक यह तमन्ना है कि कब नेतृत्व परिवर्तन हो और कब जयराम की जगह धूमल और धूमल न सही तो अनुराग ठाकुर को सीएम बना दिया जाए। यह लॉबी शुरू से इन कोशिशों में जुटी रही कि कैसे जयराम ठाकुर को फेल किया जाए। इनमें से कुछ ऐसे थे जो मंत्री पद न मिलने पर बौर्राए रहे। इनमें से कुछ को जैसे-तैसे कुछ जिम्मेदारियां दी गईं मगर मंत्री पद तो मंत्री पद होता है। इसलिए नाराजगी गई नहीं। इन चुनावों में यह भी देखने को मिला कि जयराम ठाकुर विरोधी यह लॉबी पूरी तरह ऐक्टिव थी। अब चुनाव के नतीजे पक्ष में नहीं रहे हैं तो सोशल मीडिया पर यह दिखाने की कोशिश की जा रही है कि अब तो सीएम बदल देना चाहिए। इन लोगों पर लगाम लगाने का एक ही तरीका है- काम से जवाब देना।

जल्द ही हिमाचल में दो उपचुनाव होने वाले हैं। फतेहपुर विधानसभा और मंडी लोकसभा सीट पर। वही 2022 के विधानसभा चुनावों से पहले जयराम सरकार की असल परीक्षा होंगे। यही चुनाव उनका और भाजपा का भविष्य तय करेंगे। 2019 में जयराम ठाकुर सीएम बने थे तो लोगों को लगा था कि अब तो कुछ बेहतर होगा। उन्हें उम्मीद थी बेहतर नेतृत्व की। बिना भेदभाव या पक्षपात वाले शासन की। अभी भी एक साल का समय बचा है, जयराम ठाकुर को पूरा ध्यान इस पर लगाना चाहिए कि कैसे वह इन उम्मीदों को पूरा कर सकते हैं। अपने मंत्रियों को कसें। जरूरी हो तो नकारा मंत्रियों को हटाकर नए लोगों को मौका देना चाहिए। सुस्त प्रशासनिक अधिकारियों को कसना चाहिए जो हर चीज़ को लालफीताशाही में उलझाने में माहिर हैं।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

लेखक लंबे समय से हिमाचल प्रदेश और देश-दुनिया के विषयों पर लिख रहे हैं, उनसे kalamkasipahi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

दूसरी कड़ी-

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