आयुर्वेदिक डॉक्टरों और स्टाफ को भूल गई है हिमाचल सरकार?

प्रतीकात्मक तस्वीर

इन हिमाचल डेस्क।। राज्य में कोविड के बढ़ते हुए मामलों के बीच ऐसा लग रहा है कि स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा रही है और भारी दबाव में है। सरकार के दावे कुछ भी हों लेकिन ऐसी रिपोर्ट्स आ रही हैं कि मरीज़ों को ऑक्सीजन सिंलेंडर और वेंटिलेटर्स की समस्या से जूझ पड़ रहा है और इससे कइयों की जान भी जा रही है। इस तरह की घटनाएं सरकार के उन दावों को धता बता रही हैं कि प्रदेश की स्वास्थ्य प्रणाली एकदम दुरुस्त है।

महामारी की शुरुआत से ही हिमाचल में स्वास्थ्य व्यवस्था की खामियां उभरकर आने लगी थीं। कमजोर स्वास्थ्य प्रणाली और सुविधाओं के अभाव ने इस संकट से निपटने के लिए सरकार की तैयारियों पर सवाल खड़े कर दिए थे। व्यवस्थाएं तब और खराब होती नजर आईं जब सूबे के स्वास्थ्य मंत्री पूरे दृश्य से ही गायब नजर आए। कोविड से जुड़े मसलों को सुलझाने के लिए शायद उन्हें समय ही नहीं मिल पाया। वे तभी मीडिया में नज़र आए जब उनके मंत्री होने पर ही चारों ओर से सवाल उठने लगे। वैसे भी, उस शख्स के बारे में क्या ही कहा जाए जिसे यह तक मालूम न हो कि प्रदेश के अस्पतालों और कोविड सेंटरों में कितने वेंटिलेटर हैं। वह भी तब, जब कांगड़ा जिले में ही वेंटिलेटर की कमी से छह लोगों की जान जाने की खबरें हैं।

संकट के इस दौर में एक और महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करना जरूरी है। यह है आयुर्वेदिक डॉक्टरों और स्टाफ की ओर से बतौर फ्रंटलाइन वर्कर निभाई जा रही भूमिका। हिमाचल प्रदेश में अभी 1100 से अधिक आयुर्वेदिक डिस्पेंसरियां हैं जो राज्य में प्राइमरी और टर्शरी हेल्थ केयर सिस्टम की ज़रूरत को पूरा करती हैं। इस विभाग के डॉक्टर और स्टाफ़ पिछले साल से ही बिना थके फ्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स के तौर पर काम कर रहे हैं। वे सैंपल लेने से लेकर कोविड केयर सेंटरों में स्वास्थ्य सेवाएं भी मुहैया करवा रहे हैं।

हाई रिस्क में होने के बावजूद राज्य सरकार इस महत्वपूर्ण काम में उनके योगदान को पहचान और सम्मान देने में विफल रही है। पिछले दिनों सरकार ने मेडिकल ऑफिसर्स, नर्सों और छात्रों को इन्सेंटिव यानी प्रोत्साहन राशि देने का फैसला किया। मगर ऐसी कोई सूचना सार्वजनिक नहीं हुई है कि कितने आयुर्वेदिक मेडिकल ऑफिसर्स (एएमओ) या दूसरे आयुर्वेदिक स्टाफ़ को ऐसी प्रोत्साहन राशि दी गई है या दी जानी है।

आयुर्वेद की उपेक्षा
आयुर्वेदिक मेडिकल सिस्टम का अन्य आधुनिक प्रणालियों के साथ संयोजन तब तक संभव नहीं है, जब तक कि सरकार इस विभाग में काम कर रहे लोगों के हितों की रक्षा नहीं करती। पहले भी आयुर्वेदिक डॉक्टर राज्य में प्राइमरी हेल्थ केयर सिस्टम के प्रबंधन में अहम भूमिका निभाते रहे हैं मगर कभी उन्हें ढंग से सराहना नहीं मिली। इतना महत्वपूर्ण विभाग होने के बावजूद इसमें काम करने वाले लोगों के हितों को हाशिये पर डाला जाता रहा। हिमाचल प्रदेश में आयुर्वेदिक डॉक्टरों की भूमिका ‘डॉक्टर प्रति मरीज’ के अनुपात को बेहतर रखने में भी अहम रही है। इसी कारण इस अनुपात में हिमाचल देश के शीर्ष पांच राज्यों में आता है।

आयुर्वेदिक सिस्टम के वर्तमान हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर के पुनर्निर्माण पर ज़ोर दिए जाने की ज़रूरत है। अगर सरकार स्वास्थ्य प्रणाली में सुधार लाने को लेकर गंभीर होती तो इंडियन मेडिसन सेंट्रल काउंसिल रेग्युलेशन ऐक्ट 2016 से आगे बढ़ती और ज़रूरी संशोधन करके आयुर्वेदिक डॉक्टरों को इंटेंसिव केयर यूनिट्स संभालने के लिए ट्रेन्ड करती। ध्यान देने की बात यह भी है कि देश में कई निजी अस्पतालों और दूसरे केंद्रों में आयुर्वेदिक डॉक्टरों को तौर कंसल्टेंट रखा जाता है और उन्हें आईसीयू मैनेज करने में भी नियुक्त किया जाता है।

आयुर्वेदिक सिस्टम को लेकर सरकार की उदासीनता इस बात से भी स्पष्ट दिखती है कि राज्य का सबसे बड़ा आयुर्वेदिक अस्पताल- राजीव गांधी आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (पपरोला) में एक भी आईसीयू बेड नहीं है। अगर यहां आईसीयू की व्यवस्था होती तो वो महामारी के दौर में वरदान साबित होती।

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इस अस्पताल में मात्र 215 बिस्तर हैं जो कि अलॉपथी अस्पताल मेडिकल कॉलेज की तुलना में 50 फीसदी से भी कम है। क्योंकि बाकी मेडिकल कॉलेजों में कम से कम 500 बिस्तर होना जरूरी है जिनमें से 75 फीसदी भरे रहें ताकि वहां से मेडिकल की पढ़ाई कर रहे छात्र अच्छे से प्रैक्टिकल शिक्षा ग्रहण कर सकें।

जब तक कि आयुर्वेदिक प्रैक्टिस करने वाले लोग अपने अधिकारों को लेकर खुद मुखर नहीं होंगे और जब तक हमारे पास दूरदृष्टि रखने वाला नेतृत्व नहीं होगा, तब तक इस दिशा में सुधार होना दूर की कौड़ी नजर आती है।

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