इन हिमाचल डेस्क।। जातिवाद पूरे भारत की समस्या है। वैसे तो पूरी दुनिया विभिन्न आधारों पर अलग-अलग वर्गों, गुटों, संप्रदायों में बंटी है लेकिन भारत में जो जाति आधारित भेदभाव है, वैसा कहीं और देखने को नहीं मिलता। समय के साथ बहुत सारी चीजें बदली हैं मगर अब भी हालात ऐसे नहीं हैं कि हम गर्व से कह सकें कि हमारे देश में जाति के आधार पर भेदभाव या पक्षपात नहीं होता। हिमाचल प्रदेश भी इससे अछूता नहीं हैं। हाल की दो घटनाएं बताती हैं कि कैसे अभी भी जातिवाद को दूर करने के लिए बहुत प्रयास किए जाने की जरूरत है।
कुल्लू के फोजल इलाके के धारा गांव में तथाकथिक अगड़ी जाति के लोगों पर आरोप है कि पंचायत की ओर से सरकारी खर्चे पर बनाए गए श्मशान घाट पर उन्होंने दलित महिला के शव को जलाने से रोक दिया। इसके पीछे कथित तौर पर यह दलील दी गई कि अगर दलित महिला के शव को यहां पर जलाया गया तो देव प्रकोप से अगर कुछ भी होता है तो उसकी जिम्मेवारी शव जलाने वालों की होगी। ऐसा ही एक मामला नूरपूर के एक गांव का है जहां महिला की मौत हुई। गांव के एक परिवार ने सरेआम धमकी दी कि गांव के श्मशान घाट में अंतिम संस्कार न करे। बाद में पुलिस की मौजूदगी में महिला का अंतिम संस्कार करवाना पड़ा।

गहरी हैं जातिवाद की जड़ें
ग्रामीण और खासकर पहाड़ी इलाकों में लोगों और बच्चों के साथ जाति के आधार पर भेदभाव की खबरें और उनके साथ अनुचित व्यवहार के किस्से तो हिमाचल में सुर्खियों में रहते ही हैं। कहीं बच्चों को जाति के आधार पर अन्य बच्चों से दूर बिठा दिया जाता है तो कभी उनके साथ मिड डे मील खाने से इनकार कर दिया जाता है। प्रशासन हस्तक्षेप करता है तो तथाकथित अगड़ी जातियों के अभिभावक अपने बच्चों को अन्य स्कूलों में ले जाते हैं। कहीं पर तो लोगों के मंदिर में प्रवेश पर अघोषित रोक है।
सोचिए, आदमी के मर जाने के बाद भी उससे भेदभाव होता है। श्मशान घाट में जाति के आधार पर शव जलाने से रोक दिया जाता है। पहले तो ऐसा था कि लोग हिमाचल में खड्डों, नदियों या नालों के किनारे ही दाह संस्कार किया करते थे। ऐसे में वहीं पर थोड़ी-छोड़ी दूरी पर अलग-अलग गांव या जाति के लोगों ने अपनी श्मशान भूमि चुनी होती थी। यह विभाजन उस दौर का था जब छुआछूत चरम पर थी। आज के दौर में हिमाचल में जिंदा लोगों में छुआछूत भले आपको देखे को न मिले, लेकिन श्मशान घाटों का बंटवारा आपको बता देगा कि ऊपर से हालात बेशक बेहतर दिख रहे हों, अंदर से चीजें ज्यादा नहीं बदली हैं।
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अलग-अलग श्मशान घाट
हिमाचल के बहुत से गांव ऐसे हैं जहां पर हर वर्ग का अपना श्मशान घाट चिह्नित है। कुछ ऐसे श्मशान घाट हैं जहां तथाकथित अगड़ी जाति के लोग तो अंतिम संस्कार करते हैं मगर अन्य जाति के लोगों को उस स्थान को इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं देते। अन्य जाति के लोगों ने उसी स्थान के आसपास अपने लिए अलग जगह अंतिम संस्कार के लिए बनाई होती है। अब श्मशान घाटों में सीमेंट का ढांचा बनाया जाने लगा है। बहुत बार इस ढांचे का निर्माण सरकारी अनुदान से होता है। फिर वह पैसा चाहे पंचायत के माध्यम से आए, विधायक के या फिर सांसद के। लेकिन फिर भी कुछ गांवों में प्रभावशाली लोग अपने जाति या वर्ग वाले स्थान पर इसका निर्माण करवाते हैं और बाद में अन्य जाति के लोगों को रोकते हैं।
कई जगहों पर तो आपको आसपास ही तीन से चार श्मशान घाट के ढांचे खड़े नजर आ जाएंगे। गांवों में हर रोज तो किसी की मौत होती नहीं है, कोई बहुत व्यस्त जगह तो होता नहीं श्मशान घाट। कई बार महीनों में तो कई बार सालों में एक बार इसकी जरूरत पड़ती है। फिर क्यों एक ही जगह पर चार-चार बनाए होते हैं। इसलिए, क्योंकि हर श्मशान घाट अलग जाति या वर्ग से संबंधित होता है। यह बेवकूफी नहीं तो और क्या है?
इससे अफसोसनाक और कुछ नहीं हो सकता कि आप किसी की मौत पर भी अपनी अकड़ और झूठी शान दिखाने से बाज नहीं आते। यह दिखाता है कि आप अंदर से कितने खोखले हैं। आपके पास गर्व करने लायक ऐसा कुछ है नहीं जो जन्म के आधार पर संयोग से मिली पहचान के नाम पर खुद को उच्च और बाकी को नीचा दिखाना चाहते हैं। और ऊंचाई पर रहने के इसी मूर्खतापूर्ण जुनून के चक्कर में मुर्दों के बीच भी भेदभाव करने जैसी नीच हरकत करने को तैयार रहते हैं।
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उम्मीद किससे की जाए?
वैसे तो इस तरह के मामलों में गांव के शिक्षित युवाओं को ही आगे आना चाहिए। उन्हें युवा सभा बनाकर इस भेदभाव को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। उन्हें लोगों को समझाना चाहिए कि समय के साथ सोच बदलिए, फिजूल की बातों में कुछ नहीं रखा। मगर अफसोस, आज के अधिकतर युवा ऐसे चक्करों में पड़ना नहीं चाहते। और इससे भी दुख की बात ये कि बहुत से युवा तो खुद जिस माहौल में पैदा हुए हैं, उसके हिसाब से ही सोचते हैं। वे भी अपने बड़ों की तर्ज पर इस तरह के भेदभाव का समर्थन करने लगते हैं और फिर इस व्यवहार के बचाव में आरक्षण जैसे कुतर्क गढ़ने लगते हैं।

सबसे अहम जिम्मेदारी है नेताओं की। उन्हें जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए इस तरह की घटनाओं की निंदा करनी चाहिए। समय समय पर लोगों से अपील करनी चाहिए कि इस तरह की बातों को मन से निकालें, आदमी-आदमी में फर्क करना ठीक नहीं। मगर नेताओं से उम्मीद रखना भी आज के दौर में बेमानी है क्योंकि वे खुद जाति के आधार पर बने संगठनों सो शह देते हैं। हिमाचल में बनी राजपूत, गद्दी, ब्राहम्ण आदि समाजों की सभाओं में नेताओं का जाना और मान्यता देना दिखाता है कि इस जातिगत भेदभाव को नेता बनाए रखना चाहते हैं।
भले ही हिमाचली गर्व करते रहें, यहां भी जाति के आधार पर वैसी ही राजनीति होती है जैसी अन्य राज्यों में। इसका सीधा सबूत इस बार लोकसभा चुनाव में दिए गए टिकटों से मिलता है जहां दोनों प्रमुख पार्टियों ने मंडी और कांगड़ा सीटों पर जातिगत समीकरणों के आधार पर टिकट आवंटन किया है। यानी आम जनता से लेकर ऊपर सत्ता में बैठे लोगों तक सभी जाति व्यवस्था को पोषित कर रहे हैं।
यह सूरत बदलनी चाहिए। हिमाचल प्रदेश की गिनती शांत, सुसंस्कृत और शिक्षित लोगों वाले प्रदेश में होती है। शिक्षा का स्तर यहां अच्छा है मगर शिक्षित होने का फायदा तभी है जब लोगों की सोच का दायरा बढ़े, वे उदार बनें। वरना श्रेष्ठ होने के भ्रम को पालते हुए फिजूल में गर्व करते रहने से नुकसान ही होगा।
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