कांगड़ा में जलधाराओं तक सड़कें बनाकर रेत-बजरी निकाल रहा माफिया

इन हिमाचल डेस्क।। प्रदेश भर में अवैध खनन को रोकने के लिए सख्त नियमों के बावजूद कई हिस्सों में नियमों को ताक में रखकर खनन किा जा रहा है। कांगड़ा जिले के बैजनाथ, पालमपुर, सुलह और जयसिंहपुर समेत आसपास के इलाक़ों में इस अवैज्ञानिक खनन के कारण पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंच रहा है। द ट्रिब्यून की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि न्यूगल, मोल, आवा और बिनवा नदियों में करीब 100 किलोमीटर की पट्टी पर होने वाले अवैध खनन के कारण हालात ज्यादा गंभीर हैं। ये सभी खड्डें ब्यास नदी की सहायक जलधाराएं हैं।

रिपोर्ट बताती है कि खनन गतिविधियों के कारण सरकारी भूमि पर ग्रीन कवर भी कम हुआ है क्योंकि यहीं से रास्ते बनाकर नदी तक पहुंचा जा रहा है। खनन माफिया ने पेड़ों को काटकर जंगल की जमीन से होते हुए नदियों और खड्डों तक रास्ते बना दिए हैं जिससे हालात गंभीर हो गए हैं।

ट्रिब्यून की रिपोर्ट कहती है कि सरकार की खनन नीति के बावजूद बेधड़क रेत और बजरी निकाली जा रही है। माफिया ने ट्रैक्टर, टिप्पर और भारी भरकम मशीनें (अर्थमूवर) इस काम में लगाई हुई हैं जो दिन-रात चल रही हैं। जब कभी खनन विभाग या पुलिस विभाग छापे मारता है तो कुछ समय के लिए ये काम रोक दिया जाता है मगर बाद में फिर चालू कर दिया जाता है।

हाल के एक वाकये का जिक्र करते हुए बताया गया है कि थुरल में सरकारी कॉलेज के पास खड्ड तक जाने वाली अस्थायी सड़कों को प्रशासन ने नष्ट कर दिया था, मगर इन्हें फिर से बना दिया गया है। भारी हलचल के कारण नदी के किनारे भी प्रभावित हुए हैं। प्रशासन को नाकाम होता देख आसपास के गांवों के लोगों ने कमेटी बनाई है ताकि अवैध गतिविधियों पर रोक लगाई जा सके।

ट्रिब्यून के अनुसार, पालमपुर के डीएफओ संजीव शर्मा ने कहा है कि अवैध माइनिंग पर नजर रखने के लिए टीमें तैनात की गई हैं। खासकर बैजनाथ, जयसिंहपुर और धीरा के लिए ऐसे इंतजाम किए गए हैं। उनका कहना है कि पिछले तीन महीनों में वन विभाग ने जलधारा तक जाने वाली ज्यादातर अवैध सड़कों को नष्ट कर दिया है। वहीं बैजनाथ के डीएसपी अनिल शर्मा ने कहा है कि पुलिस इस मसले पर गंभीर है और दर्जनों लोगों पर आईपीसी की धाराओं के तहत मामले दर्ज किए गए हैं और आगे भी नजर रखी जाएगी।

मुकेश अग्निहोत्री के हरोली में अवैध खनन से छलनी हो रही हैं पहाड़ियां

डेस्क।। हिमालय की शिवालिक हिल्स में है ऊना का हरोली विधानसभा क्षेत्र, जहां के विधायक मुकेश अग्निहोत्री हिमाचल प्रदेश के उपमुख्यमंत्री हैं। यहां पर अवैध खनन के वीडियो न सिर्फ सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल हो रहे हैं, बल्कि द ट्रिब्यून ने इस बाबत एक रिपोर्ट छापी है, जिसमें कहा गया है कि हरोली विधानसभा क्षेत्र में शिवालिक की पहाड़ियां अवैध खनन से तबाह की जा रही हैं।

सूत्रों के हवाले से अखबार लिखता है कि एक मामले में तो निजी जमीन पर पूरी पहाड़ी को ही समतल किया जा रहा है और भारी मशीनरी इस्तेमाल की जा रही है, जबकि सरकार ने जमीन के मालिक को ऐसा करने की इजाजत नहीं दी है। सरकार ने जेसीबी या पोकलेन मशीन के लिए दो साल तक ढाई लाख रुपये की फीस फिक्स की है लेकिन कई सारी पोकलेन मशीनें सरकार को फीस दिए बिना और भारी मशीनें इस्तेमाल की इजाजत लिए बिना ही इस्तेमाल की जा रही हैं।

सूत्रों के ही हवाले ये यह भी लिखा गया है कि सरकार ने हरोली में सिर्फ छह मीटर तक ही पहाड़ियों की कटिंग करने की इजाजत दी है लेकिन खनन से जुड़े लोगों ने इस सीमा से कहीं ज्यादा खनन कर दिया है। इसके अलावा, इन्वायरनमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट के तहत लगाई गई शर्तों का भी उल्लंघन किया जा रहा है। अखबार यह भी लिखता है कि शिवालिक हिल्स में अवैध माइनिंग में शामिल शख्स पर तो पहले से ही ईडी का मामला चला हुआ है।

इस बारे में उद्योग विभाग के निदेशक यूनुस, जो कि खनन विभाग के भी प्रभारी हैं, कहते हैं कि उन्हें इस मामले की जानकारी है और उन्होंने जांच का आदेश दिया है। ट्रिब्यून के मुताबिक, उन्होंने कहा कि जांच मे माइनिंग से जुड़ी गतिविधियों के सभी पहलुओं का आकलन किया जा रहा है और नियमों का उल्लंघन पाया गया तो कार्रवाई की जाएगी।

सरकार की इजाजत के बिना या नियमों को ताक पर रखकर की जाने वाली खनन गतिविधि अवैध खनन कहलाती है। (प्रतीकात्मक तस्वीर)

वहीं, जिला खनन अधिकारी नीरज कांत के हवाले से अखबार लिखता है कि प्रदेश सरकार ने इस मामले में खनन की इजाजत तो दी है मगर भारी मशीनों के इस्तेमाल की इजाजत नहीं है। वह कहते हैं, “मेरे दफ्तर ने भारी मशीनों के इस्तेमाल की इजाजत से जुड़ा मामला प्रदेश मुख्यालय को भेजा है मगर वहां से इजाजत नहीं आई है।”

हरोली विधानसभा क्षेत्र से लगातार पांचवीं बार चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे हैं मुकेश अग्निहोत्री। मुकेश अग्निहोत्री पिछली विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष थे और इस बार उपमुख्यमंत्री हैं। विपक्ष के नेता रहते हुए अक्सर वह विधानसभा के अंदर और बाहर कई मुद्दों पर आक्रामक रहते थे, जिनमें से एक है- खनन।

वह आए दिन कहते थे- प्रदेश मे माफिया दनदना रहा है। उनकी चिंता थी कि बीजेपी सरकार खनन माफिया और बाकी माफिया पर लगाम नहीं कस पा रही है। उनका ये भी कहना था कि भारी मशीनों और पोकलेन्स की मदद से नदियों के अंदर खनन किया जा रहा है। लेकिन अब वह सत्ता में हैं और उपमुख्यमंत्री जैसे बड़े पद पर हैं। मगर उनके ही विधानसभा क्षेत्र में खनन बेलगाम हो चुका है। हाल ही में उन्होंने खुले मंच से अधिकारियों से कहा था कि खनन, चिट्टा और पेड़ कटान पर लगाम लगाएं।

कृषि मंत्री के विरोध के बीच पारित हुआ लैंड सीलिंग ऐक्ट में संशोधन, 30 एकड़ ज़मीन ट्रांसफर कर पाएंगी संस्थाएं

धर्मशाला।। हिमाचल प्रदेश विधानसभा में लैंड सीलिंग ऐक्ट में संशोधन का विधेयक पारित हो गया है। यह संशोधन धार्मिक संस्था राधा स्वामी सत्संग ब्यास की वजह से किया गया है, जो भोटा में अपने अस्पताल को जीएसटी से राहत दिलाने के लिए अपनी ही एक दूसरी संस्था को ट्रांसफर करना चाह रही थी। संस्था का कहना था कि अगर ऐसा नहीं हो पाया तो उसे हमीरपुर के भोटा में अपना अस्पताल बंद करना पड़ेगा।

अब सरकार ने सेक्शन पांच में जो संशोधन किया है, उसके मुताबिक कोई भी कल्याणकारी, धार्मिक या आध्यात्मिक संस्था एक बार 30 एकड़ तक जमीन समान उद्देश्यों वाली संस्था को ट्रांसफर कर सकेगी। इसके लिए सरकार को इजाजत देनी होगी।  अगर बाद में इस जमीन का किसी भी और उद्देश्य के लिए इस्तेमाल हुआ तो जमीन या उस पर बना ढांचा सरकार अपने नियंत्रण में ले लेगी।

यह विधेयक ध्वनि मत से पारित हो गया। हालांकि, बीजेपी के विधायकों का कहना था कि इस मामले में जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह संवेदनशील धारा 118 के प्रावधानों को कमजोर कर सकता है और कई ऐसे रास्ते खुुल सकते हैं जिससे हिमाचल की जमीनों का दुरुपयोग हो सकता है।  बीजेपी विधायकों ने इसे विचार के लिए सिलेक्ट कमेटी को भेजने का प्रस्ताव रखा मगर सरकार ने इसे खारिज कर दिया।

कांग्रेस के विधायकों ने इसे पारित किया, जबकि बीजेपी विधायकों ने चुप्पी साधे रखी यानी मतदान में हिस्सा नहीं लिया। बाद में मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कहा कि बीजेपी को भी इसका समर्थन करना चाहिए था।

ऐसा नहीं है कि सत्ता पक्ष के सभी विधायक इस विधेयक के पक्ष में थे। कृषि मंत्री चंद्र कुमार ने चर्चा में हिस्सा लेते हुए डर जताया कि इस संशोधन से कोई ऐसा द्वार न खुल जाए, जिससे हिमाचल की जमीनों पर संकट आ जाए।  वहीं, इस बिल को पेश करने वाले राजस्व मंत्री जगत नेगी ने कहा कि राधा स्वामी ही नहीं, बल्कि और कल्याणकारी, धार्मिक और आध्यात्मिक संस्थाएं भी 30 एकड़ तक जमीन एक बार ट्रांसफर कर पाएगी।

हिमाचल में सरकार की इजाजत के बिना कर्मचारियों को गिरफ्तार नहीं कर पाएगी पुलिस

धर्मशाला।। हिमाचल प्रदेश विधानसभा में हिमाचल प्रदेश पुलिस (संशोधन) विधेयक 2024 पारित हो गया है। इसके साथ ही किसी भी सरकारी कर्मचारी को गिरफ्तार करने से पहले सरकार की इजाजत लेना जरूरी बना दिया गया है।

इस कानून की धारा 65 में बदलाव करते हुए कहा गया है कि कोई भी पुलिस अधिकारी किसी सरकारी कर्मचारी को बतौर जन सेवक की जा रही ड्यूटी के दौरान किए गए किसी कार्य के लिए सरकार से इजाजत लिए बगैर गिरफ्तार नहीं करेगा।

इस विधेयक को बुधवार को सदन में पेश किया गया था। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कहा है कि हिमाचल सरकार का इरादा भारतीय न्याय संहिता के अधिकार क्षेत्र में दखल का नहीं है। उन्होंने कहा कि विजिलेंस ब्यूरो और पुलिस पहले की ही तरह घूसखोरी जैसे मामलों में कार्रवाई करती रहेगी।

इससे पहले बीजेपी विधायक रणधीर शर्मा और त्रिलोक जम्वाल ने इस संशोधन को लेकर चिंताएं जताते हुए कहा था कि सरकार इसका दुरुपयोग कर सकती है। उन्होंने कहा कि ये उन लोगों को बचाने की कोशिश है, जो घूस लेते हैं। जम्वाल ने कहा कि ये भारतीय न्याय संहिता की धारा 35 में दखल का मामला है और सरकार को इस विधेयक को तुरंत वापस लेना चाहिए।

इसपर मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कहा कि विपक्ष बिना वजह ही इस विधेयक को लेकर आशंकाएं जता रहा है। उनका कहना था कि यह विधेयक इसलिए लाया गया ताकि मौजूदा सिस्टम में जो खामियां हैं, उन्हें दूर किया जा सके।

सरदार पटेल यूनिवर्सिटी की नई बिल्डिंग प्राइवेट कॉलेज को देने पर उठे सवाल

मंडी।। सरदार पटेल यूनिवर्सिटी के लिए सुंदरनगर में बनी एक नई इमारत को एक निजी कॉलेज को देने के लिए सुक्खू सरकार आलोचनाओं के घेरे में आ गई है। राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (रूसा) के तहत बनी इस इमारत को सुंदरनगर के एमएलएसएम कॉलेज को दे दिया गया है। कई स्थानीय लोग सवाल उठा रहे हैं कि किस आधार पर यह फैसला लिया गया।

दो दिसंबर को हायर एजुकेशन के निदेशालय ने इस बाबत आदेश जारी किया था। हायर एजुकेशन के डायरेक्टर अमरजीत शर्मा ने कहा कि सरकार के स्तर पर यह फैसला हुआ है।  उनका कहना है कि इससे क्षेत्र के लोगों और छात्रों को ही फायदा होगा, क्योंकि कई साल से इमारत खाली पड़ी थी।

हालांकि, कई नागरिक संगठन इसका विरोध भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि सरदार पटेल यूनिवर्सिटी शुरुआती चरण में है, कांग्रेस सरकार ने आते ही उसका दायरा सीमित कर दिया और अब इमारत को प्राइवेट संस्थान को दे दिया। जबकि जरूरत है कि इस यूनिवर्सिटी को और मजबूत किया जाए।

सरदार पटेल यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर ललित कुमार अवस्थी ने भी इस फैसले का विरोध किया है। उन्होंने कहा कि वह राज्य सरकार को इस संबंध में रिक्वेस्ट करेंगे कि इस फैसले की समीक्षा करें।

पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का कहना है कि सरदार पटेल यूनिवर्सिटी को कमजोर करने की कोशिश हो रही है। इससे पहले यूनिवर्सिटी का दायरा पांच जिलों से घटाकर तीन जिलों तक कर दिया गया। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री को इस फैसले की समीक्षा करनी चाहिए और यूनिवर्सिटी को मजबूत करना चाहिए।

शिक्षा मंत्री रोहित ठाकुर का कहना है कि जनता की ओर से मांग की जा रही थी कि इस बिल्डिंग को एमएलएसएम कॉलेज को दे दिया जाए, जो कि इलाके का पुराना और प्रमुख संस्थान है, ऐसे में जनहित में सरकार ने यह फैसला लिया है।

सीरिया में विद्रोहियों ने राजधानी दमिश्क को घेरा, अब क्या करेंगे ईरान के दोस्त और इसराइल के ‘दुश्मन’ बशर अल असद

सीरिया।। कई सालों से गृहयुुद्ध की मार झेल रहे सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल असद की सत्ता संकट में है। विद्रोही गुट पिछले कुछ दिनों से अचानक असद की सेना पर हावी पड़े हैं। कई अहम शहरों पर कब्जा करने के बाद उन्होंने वे दमिश्क के पास पहुंच गए हैं।

एक ही हफ़्ते के अंदर हालात इतने बदल गए कि सीरिया के सहयोगी देश ईरान और रूस तक को अपने कदम पीछे खींचने पड़े हैं। अल जजीरा पर प्रकाशित ताजा अपडेट्स बताते हैं कि दरा शहर पर भी विद्रोहियों का कब्जा हो गया है।

विद्रोहियों की कमांडर हसन अब्दुल ग़नी ने कहा है कि होम्स शहर के पास सेना के कैंपों पर उनके लड़ाकों ने कब्जा कर लिया है। वहीं, इराक और सीरिया के सीमाई इलाक़े पर अल काइम शहर के मेयर ने कहा है कि यहां से 2000 सीरियाई सैनिकों ने इराक में भागकर शरण ली है।

सीरियाई सरकार ने ऐसी खबरों को गलत बताया है कि राष्ट्रपति बशर अल असद दमिश्क छोड़कर कहीं और चले गए हैं।

बीबीसी के अनुसार, सीरिया की मदद कर रहे ईरान के रेवल्यूशनरी गार्ड और रूस के नेवल दस्ते भी पीछे हट गए हैं। साथ ही यूएन ने अपने अतिरिक्त स्टाफ़ को कहीं और भेजना शुरू कर दिया है। जमीन पर जरूरी स्टाफ ही मौजूद रहेगा।

इस बीच ब्रिटेन ने चेताया है कि अगर सीरिया और रूस ने विद्रोही लड़ाकों के खिलाफ जंग में केमिकल वेपन इस्तेमाल किए तो ये सीमाओं का उल्लंघन होगा और फिर उनके खिलाफ उचित कदम उठाए जाएंगे।

इस बीच तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप अर्दोआन ने उम्मीद जताई है कि सीरिया में शांति हो। उनके साथ ईरान और रूस ने भी कहा है कि ये संघर्ष तुरंत रुकना चाहिए।

इस जंग में अगर बशर अल असद की सेना की हार होती है तो यह रूस और ईरान के लिए बड़ा झटका होगा। वहीं इसराइल के लिए यह एक तरह से राहत देने वाली बात हो सकती है, क्योंकि ईरान के साथ असद की करीबियों के कारण सीरिया भी उसके लिए तनाव का एक कारण था।

सुबह तक स्पष्ट होगा कि सीरिया की राजधानी दमिश्क पर विद्रोहियों का कब्जा होगा या नहीं।

राधा स्वामी सतसंग ब्यास को 118 में छूट देने के लिए अध्यादेश ला सकती है सुक्खू सरकार

शिमला।। हिमाचल में कोई भी आदमी 150 बीघा से अधिक जमीन नहीं रख सकता। मगर धार्मिक संस्थाओं को इस सीलिंग से इस शर्त के साथ बाहर रखा गया है कि ये इस जमीन को न तो बेचेंगी, न गिफ्ट करेंगी, न ही गिरवी रखेंगी। ऐसा करने पर जमीन सरकार को चली जाएगी।

राधा स्वामी सतसंग ब्यास नाम की धार्मिक संस्था के पास हिमाचल में बहुत जमीन है। इस संस्था ने सीएम वीरभद्र सिंह की सरकार के समय अक्टूबर 2017 को सरप्लस जमीन बेचने के लिए आवेदन किया था। कहना था- बहुत जमीन दान में मिली है, संभल नहीं रही।मगर मीडिया में हंगामे के बाद सरकार कोई फैसला नहीं ले पाई। फिर अगली सरकार बनी बीजेपी की। उससे भी मांग की गई कि जमीन बेचने की छूट दो।

जनवरी 2021 में जयराम सरकार की कैबिनेट मीटिंग में इस पर चर्चा हुई और प्रेजेंटेशन भी दी गई। लेकिन मीडिया में फिर बात उठी और सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया। राधास्वामी सतसंग ब्यास के हिमाचल में लाखों अनुयायी हैं। इसीलिए नेता चुनावों के दौरान वहां के चक्कर भी काटते हैं। बताया जाता है कि सरकारों पर ऐसी संस्थाओं को लेकर भारी दबाव रहता है कि कहीं उनके अनुयायी नाराज न हो जाएं और भविष्य में वोटों का नुक़सान न हो जाए।

बहरहाल, अब नया मामला उठा है। राधा स्वामी सतसंग ब्यास हमीरपुर के भोटा में अस्पताल की भूमि अपनी सिस्टर ऑर्गनाइजेशन के नाम करना चाह रहा है लेकिन धारा 118 में छूट के बिना लैंड ट्रांसफर नहीं की जा सकती है। सीएम सुक्खू कह रहे हैं कि पूर्व भाजपा सरकार ने इस मसले को गंभीरता से नहीं लिया मगर वह कानून बदल देंगे।

सीएम ने कहा- जब इस अस्पताल के लिए उपकरणों की खरीद होती है तो उस पर GST देना पड़ता है, इसीलिए उसे जमीन अपनी सिस्टर संस्था को ट्रांसफ़र करनी है। सीएम ने कहा कि जनसेवा में लगीं संस्थाओं के कल्याण के लिए सरकार कानून में परिर्वतन करने से भी पीछे नहीं हटेगी।

सीएम का कहना है कि वह ऑर्डिनेंस के माध्यम से ऐसा करेंगे जिसके लिए अधिकारियों को कहा गया है, बाद में विधानसभा में भी इस विषय को ले जाएंगे। लेकिन प्रश्न यह उठ रहा है कि कहीं सरकार के इस कदम से 118 से छेड़छाड़ का कोई बैकडोर न खुल जाए।

समस्या इस बात में है कि सीएम के अनुसार, सरकार अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए ऑर्डिनेंस यानी अध्यादेश के माध्यम से कानून में बदलाव कर सकती है।

हिमाचल प्रदेश लैंड सीलिंग ऐक्ट, जिसमें 118 जैसा संवेदनशील प्रावधान है, सरकार उसमें सीधे बदलाव करे तो चिंता पैदा होती है।

जब तक सरकार इस मामले को विधानसभा में लाएगी, तब तक अध्यादेश के आधार पर ज़मीन ट्रांसफ़र आदि की प्रक्रिया हो चुकी होगी। ऐसी स्थिति में, अगर सरकार के अध्यादेश में कोई लूप होल हुआ, जिससे राधा स्वामी सतसंग ब्यास या अन्य संस्थाओं ने जमीनें दूसरे इस्तेमाल के लिए ट्रांसफर कर दीं तो उससे कैसे निपटा जाएगा।

बेहतर होगा कि सरकार भोटा वाले मामले में ही बतौर अपवाद रियायत दे और शर्तें बनाए। ताकि बाकी ज़मीनों के साथ ट्रांसफर या अन्य बदलाव जैसे घटनाक्रम न हों। मगर कानून के जानकारों का कहना है कि इससे एक नई समस्या उभर सकती है। अगर सरकार एक ही संस्था को छूट देती है तो बाकी संस्थाएं कोर्ट का दरवाजा खटखटाकर अपने लिए भी वही सुविधा मांग सकती है और कोर्ट भी उनके हक में फैसला दे सकता है क्योंकि कोई भी कानून एक व्यक्ति या एक संस्था के लिए नही हो सकता।

और अगर सरकार सभी संस्थाओं के लिए यह प्रावधान करती है तो फिर से सवाल उठना लाजिमी है। वैसे भी, अध्यादेशों पर सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि वे ऐसे कानून होते हैं, जिनपर सत्ता और विपक्ष की बहस नहीं हुई होती है, उसके लूपहोल्स आदि पर काम नहीं हो पाता। जानकारों का कहना है कि जब विधानसभा के शीत सत्र के लिए चंद हफ्ते बचे हैं, तब अध्यादेश लाने के बजाय, सीधे सत्र में विधेयक लाना चाहिए, ताकि सदन के सदस्य चर्चा करके सही ढंग से नियम बना सकें।

सीएम सुक्खू ने कहा- गंदा पानी पी रहे हैं हिमाचली, इसलिए बढ़ रहे कैंसर के मामले

नाहन।। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने श्रीरेणुकाजी मेले में लोगों को संबोधित करते हुए बताया कि उन्होंने क्यों पानी में सब्सिडी को खत्म करने का फैसला लिया है। उन्होंने ग्रामीण इलाकों में लोगों के लिए निशुल्क किए गए पानी पर दोबारा से बिल लेने के बचाव में कहा कि बीजेपी सरकार ने होटलों और उद्योगों का पानी फ्री कर दिया था, जिस कारण पानी की क्वॉलिटी में सुधार नहीं हो पाया।

सीएम ने कहा, “जनसंख्या के आधार पर देश में कैंसर से सबसे ज्यादा मामले पूर्वोत्तर के बाद हिमाचल में देखने को मिल रहे हैं। हम साफ पानी नहीं पी रहे हैं। इसमें क्लोरीन और चूने के पानी की गंध आती है। इससे हमारा शरीर कमजोर हो जाता है और बीमारियां अपना रूप धारण कर लेती हैं।”

सीएम ने कहा कि रेवड़ियां बांटने के कारण प्रदेश में अच्छा पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं।

इस बीच यह सवाल उठने लगा है कि अगर मुख्यमंत्री को यह जानकारी है कि हिमाचल में जल शक्ति विभाग, जो कि उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री के पास है, वह पानी में जहरीले रसायन मिला रहे हैं जिनसे कैंसर जैसी गंभीर बीमारी हो रही है, तो उसे रोका क्यों नहीं जा रहा?

सरकार को अगले महीने सत्ता में आए दो साल होने वाले हैं। मुख्यमंत्री अब तक यह ब्योरा भी नहीं दे पाए हैं कि ग्रामीण इलाकों में पानी पर दी गई सब्सिडी और उद्योगों की दो गई सब्सिडी, दोनों अलग विषय थे या नहीं और जब सब्सिडी को खत्म कर दिया गया है तो उससे राजस्व में कितनी बढ़ोतरी हो रही है।

सीएम या उद्योग मंत्री मुकेश अग्निहोत्री ने यह प्लान भी सामने नहीं रखा है कि सब्सिडी खत्म करने से आने वाले पैसे से पानी की गुणवत्ता में कैसे सुधार हो जाएगा, जो कि पहले नहीं हो पा रहा था। साफ पानी, जो कैंसर न फैलाए, उसे मुहैया करवाने की डेडलाइन क्या है, यह भी साफ नहीं है।

बिना इजाजत मीडिया को जारी नहीं की जा सकेंगी सीएम की तस्वीरें

शिमला।। हिमाचल प्रदेश सरकार का कोई भी विभाग अब सूचना एवं जन संपर्क विभाग के निदेशक की मंजूरी के बिना मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू की तस्वीरें मीडिया को जारी नहीं कर पाएगा।

यह बैन मुख्यमंत्री की विभागीय बैठकों, आधिकारिक कार्यक्रमों और जनसभाओं पर लागू होगा।

सचिवों और विभागाध्यक्षों को भेजे पत्र में कहा गया है कि यह संज्ञान में आया है कि मुख्यमंत्री की तस्वीरें बिना इजाजत लिए मीडिया को जारी की जा रही हैं।

‘कुछ मामलों में इन तस्वीरों में अनुचित भंगिमाएं होती हैं और इससे मुख्यमंत्री की छवि को नुकसान पहुंच सकता है।’

‘अनियंत्रित ढंग से मुख्यमंत्री की तस्वीरें बांटे जाने से कई तरह के नतीजे देखने को मिल सकते हैं जिससे मुख्यमंत्री और सरकार तक की छवि पर असर पड़ सकता है।’

समोसे में था ‘बैंडवैगन इफ़ेक्ट’ और साथ थी ‘रीसेंसी बायस’ की चटनी

आई.एस. ठाकुर।। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू से जब बीते दिन आज तक की पत्रकार ने समोसे को लेकर हुए हंगामे के बारे में पूछा तो वह असहज होकर हंसते दिखे और बोले- मैं तो समोसे खाता ही नहीं। उनके मीडिया सलाहकार भी हैरान-परेशान दिखे। उन्होंने शिमला में मीडिया से कहा- दुख की बात है मुझे इस विषय पर सफाई देनी पड़ रही है। हैरानी और हताशा के ऐसे ही भाव डीजीपी सीआईडी के चेहरे पर भी दिखे, जब वह मीडिया से मुख़ातिब हो रहे थे।

दूसरी ओर हिमाचल प्रदेश से लेकर देशभर में समोसा सोशल मीडिया से लेकर मीडिया पर छाया हुआ था। हिमाचल के लोगों ने इस मामले में तरह-तरह की चुटीली टिप्पणियां की। उन्होंने कार्टून, चुटकुले, पुराने वीडियो, मीम्स और खुद की समोसे खाते हुए फोटो और वीडियो शेयर किए। बीजेपी के कुछ नेताओं ने इस मामले को गंभीर बताते हुए सुक्खू सरकार की आलोचना की तो  नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर समेत कुछ नेता चटखारे लेते हुए समोसे खाते दिखे।

ये एक वायरल ट्रेंड बन  गया  और एक वक्त को एक्स (जो पहले ट्विटर था) पर इंडिया में दूसरे नंबर पर ट्रेंड कर रहा था। हिमाचल से बाहर भी बहुत से लोग इस ट्रेंड में शामिल तो थे, मगर उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इस मामले में हुआ क्या।

आइए, इसके कारण ढूंढने से पहले यह समझ लें कि वास्तव में मामला क्या था। सबसे पहले तो खबर आई कि हिमाचल पुलिस के सीआईडी विभाग ने जांच की है कि उनके जिस कार्यक्रम में सीएम आए थे, उस दिन एक होटल से समोसे और केक मंगवाए थे, मगर वे सीएम समेत अन्य वीआईपीज़ को परोसे नहीं जा सके। ऐसा क्यों हुआ, इसका पता लगाते हुए जब एक अधिकारी ने रिपोर्ट सौंपी तो उस पर वरिष्ठ अधिकारी ने लिखा था- कर्मचारियों की यह लापरवाही सीआईडी और सरकार विरोधी है।

दरअसल, कन्फ्यूजन के कारण वे समोसे सीएम और वीआईपीज़ के अलावा कर्मचारियों को ही खाने के लिए परोस दिए गए थे। जाहिर है, एन मौके पर  मेहमानों को चीज न परोसे जाने पर थोड़ी असहजता हुई होगी आयोजकों को। ऐसे में विभाग को अपने स्तर पर जांच करनी थी कि ऐसी लापरवाही कैसी हुई। जांच उसी की हुई मगर उसपर वरिष्ठ अधिकारी की लिखित टिप्पणी पर प्रश्न उठे कि आखिर समोसे ही तो गायब हुए थे, हो गई लापरवाही, तो इसमें सरकार विरोधी काम कैसा?

शुरुआती खबरें इसी पर थीं और इसी बीच सोशल मीडिया पर जांच वाला पेपर और उस पर अधिकारी की पेन से लिखी टिप्पणी की तस्वीरें वायरल होने लगीं। सोशल मीडिया पर यह संदेश चला गया कि ‘सीएम सुक्खू को समोसे नहीं मिले तो सीआईडी की जांच हो गई।’ जबकि ऐसी ही जांच अगर शिक्षा विभाग अपने कार्यक्रम में हुई चूक पर करता तो शायद इतना हंगामा न होता। लोगों की नजर में यहां मामला था- सीआईजी जैसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण महकमे का समोसों की जांच करना, क्योंकि अमूमन सीआईडी को संगीन मामलों की ही जांच सौंपी जाती है।

तो इस कारण लोगों में हैरानी पैदा हो गई कि क्या सीआईडी और सरकार के पास इतनी फुरसत है कि वह बाकी काम छोड़ यह जांच कर रही है सीएम को समोसे क्यों नहीं मिल पाए। यहीं से मामला उठा और फिर नैशनल मीडिया में छा गया।  सरकार हड़बड़ा गई। हर कोई सफाई देने लगा और यहां तक कि डीजीपी सीआईडी तक को मीडिया के सामने ला दिया गया, जो कि एक गैरजरूरी कदम था। इतने में ‘समोसे की सीआईडी जांच’, ‘सीएम के समोसे किसने खाए’, ‘सीएम सुक्खू के समोसों की सीआईडी जांच’.. ऐसी पंक्तियां सोशल मीडिया पर वायरल होने लगीं।

अनुप्रास अलंकार
आप ध्यान देंगे कि कुछ समाचार चैनलों ने भी ऊपर लिखी पंक्तियों को इस्तेमाल किया था। इनमें अनुप्रास अलंकार था। जब एक ही ध्वनि से शुरू होने वाले दो या दो से ज़्यादा शब्दों का बार-बार इस्तेमाल किया जाता है तो उसे अनुप्रास अलंकार कहा जाता है। इसमें वह ध्वनि है – स। तो इस तरह के अनुप्रास वाले वाक्य ज़हन और ज़बान, दोनों में आसानी से चढ़ जाते हैं।

Collective Resonance
लेकिन इतना ही नहीं, इसी के साथ कुछ और मनोवैज्ञानिक घटनाक्रम भी साथ जुड़ते गए। ये सभी घटनाक्रम करीब-करीब एक जैसे हैं और इनका संबंध इस बात से है कि कुछ घटनाओं पर बहुत सारे लोगों की प्रतिक्रिया क्या रहती है। जैसे कि Collective Resonance. कलेक्टिव रेज़ोनेंस उसे कहा जाता है, जब लोग किसी ऐसी घटना या नैरेटिव से जुड़ाव महसूस करते हैं, जैसी घटनाएं पहले भी हो चुकी हों।  उन्हें वो जानी-पहचानी लगती है और उससे जुुड़ने पर उन्हें संतोष महसूस होता है। फिर वो घटना के हिसाब से हंसने, ट्रोलिंग करने या फिर आलोचना करने लगते हैं।  इसमें बहुत मजा आता है।

Bandwagon Effect
इसी तरह जब बहुत से लोग ऐसे मामलों में देखादेखी में कूद पड़ते हैं, जिसका पिछली घटना से संबंध हो या नहीं, तो उसे Bandwagon Effect यानी बैंडवैगन इफ़ेक्ट  कहा जाता है। जैसा दूसरे कर रहे होते हैं, बाकी भी वैसा करने लगते हैं। ये ऐसा सामूहिक व्यवहार होता है जिसमें लोग अपने कमेंट्स या मीम्स आदि की बाढ़ ले आते हैं। ऐसा ही तो समोसे के मामले में हुआ।

Recency Bias
और कई बार इसी से जुड़ी होती है-  रीसेंसी बायस (Recency Bias) जिसे Collective Memory  (कलेक्टिव मेमरी) भी कहा जाता है। इसमें लोगों के जहन में सरकार आदि को लेकर जो नाराजगी होती है, वो उनके जहन में बनी रहती है। फिर कोई ताजा घटना हो जाए, भले ही उसका संबंध सरकार से न हो, लोगों को पुरानी फ्रस्ट्रेशन याद आती है और फिर  वो एकसाथ गुबार के रूप में बाहर निकलती है।

इन सभी कारणों को मिला दें, तो समझ आता है कि क्यों लोग इस तरह से आलोचना करने लगते हैं या फिर ट्रोल या मज़े लेने लगते हैं। तो इस बार हिमाचल में कांग्रेस सरकार के साथ यही हुआ। भले ही सरकार का और सीएम का सीआईडी के वायरल जांच पत्र मामले में सीधा कोई संबंध नहीं था, मगर सरकार को ही लोगों का गुस्सा और निशाना झेलना पड़ा। मगर इसका कारण यह नहीं है कि यह पूरा हंगामा अकारण था। सरकार को समझना होगा कि समोसे में बैंडवैगन इफ़ेक्ट और रीसेंसी बायस आए कहां से।

लोगों की नाराजगी को समझे सरकार
ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि सरकार को भले ही अहसास न हो, वह लोगों की नाराजगी के केंद्र में रही है और उसके फैसले जनता के बड़े वर्ग को रास नहीं आ रहे हैं। विभिन्न मीडिया चैनल्स के सोशल मीडिया हैंडल्स पर सरकार से जुड़ी खबरों या नेताओं के बयानों पर आ रहे कमेंट्स से इसका पता चलता है कि लोगों में कई बातों को लेकर फ्रस्ट्रेशन है। जैसे कि सरकार ने खुद ही दी गई गारंटियों को अब तक पूरा नहीं किया है। और लोग इस बात से और चिढ़े होते हैं कि मुख्यमंत्री जगह-जगह जाकर दावा कर रहे हैं कि उन्होंने गारंटियां पूरी कर दी हैं।  जबकि हकीकत में वो पूरी तरह से पूरी नहीं हुई हैं। ओपीएस को छोड़ दें तो बाकियों का या तो स्वरूप बदल दिया गया है या फिर उन्हें लागू करने की शुरुआत भर हुई है।

ऊपर से लोगों के मन में गुस्सा इस बात से और बढ़ता है कि वादों को पूरा करने के बजाय मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और कांग्रेस के नेता ये दावे करते हैं कि गारंटियों को पूरा किया जा रहा है। जैसे कि आज ही में सीएम ने महाराष्ट्र में 1500 रुपये देने को लेकर कहा। चुनाव से पहले नेता कहते थे हर महिला को मिलेंगे, लेकिन अब इसमें शर्तें डाल दी गई हैं और उसमें भी कहां किसे मिले, इसे लेकर पारदर्शिता नहीं है।

जल्दबाजी में दिए गए बयान भी अविश्वास पैदा करते हैं। जैसे कि मुख्यमंत्री ने एक बार एलान कर दिया था कि एक महीने में सभी पेंडिंग परिणाम निकाल देंगे। ऐसा हुआ नहीं तो युवाओं में और हताशा बढ़ी। खुद उम्मीद जगाकर तोड़ने से ऐसा होना स्वाभाविक है। इसी तरह बीते साल मंत्री हर्षवर्धन ने कहा था कि अस्थायी टीचर रखे जाएंगे। हंगामा हुआ तो सीएम ने कहा कि नहीं, ऐसा नहीं होगा, ये अफवाह है। लेकिन वीडियो तो उपलब्ध थे। और अब फिर अस्थायी टीचर रखे जा रहे हैं। तो जनता सब देखती है और नाराज होती है।

युवाओं में नौकरियों को लेकर गुस्सा है। कहां तो चुनाव से पहले दावा और गारंटी थी एक लाख सरकारी नौकरियां देंगे। वादा था कि आउटसोर्स पर नौकरियां और अस्थायी नौकरियां बंद होंगी, मगर वही दी जा रही हैं। पक्की नौकरियां कम निकल रही हैं। फिर एक मंत्री के परिवार के सदस्य की नौकरी लगी तो नाराज़गी बढ़ गई। भले ही वह नौकरी काबिलियत से लगी हो, लेकिन रीसेंसी बायस ने लोगों के जहन में गुस्सा भरा हुआ है।

इसी तरह लोगों में इस बात को लेकर भी गुस्सा है कि एक ओर तो मुख्यमंत्री समेत कांग्रेस नेता हमेशा कर्मचारियों के स्वाभिमान और उनके बुढ़ापे की बात करते हुए ओपीएस देने का बखान करते हैं, जबकि बाकी वर्गों को भूल जाते हैं।  हिमकेयर का दायरा सीमित होने, सहारा योजना की पेमेंट न मिलने आदि को समाज कल्याण की योजनाओं पर कैंची चलने के तौर पर देखा जा रहा है। इनकी क्षतिपूर्ति सुखाश्रय योजना जैसी अच्छी पहलों से भी नहीं की जा सकती।

रही कसर तब पूरी हो जाती है, जब बीच-बीच में अधिकारी ऐसी नोटिफिकेशन्स निकालते हैं, जिनसे भ्रम पैदा होता है। भले ही वे विभागीय तौर पर एकदम सही हों, लेकिन जब उनका सीमित हिस्सा मीडिया में आता है तो हंगामा होता है। जैसा हाल ही में एचआरटीसी में मालभाड़े को लेकर हुआ था। टॉयलेट टैक्स वाला घटनाक्रम इसी की देन था। इसके अलावा भी असंख्य घटनाक्रम हैं, जो धीरे-धीरे गुबार जमा करते रहते हैं। समोसे वाले घटनाक्रम में भी यही हुआ है।

मीडिया मैनेजमेंट मतलब मीडियाकर्मियों को मैनेज करना नहीं
मीडिया में सरकार को लेकर प्रश्न उठें तो उसके लिए मीडिया को ही कोसने से या उनपर कार्रवाई करने से समस्या हल नहीं होती।  हिमाचल प्रदेश सरकार के सबसे बड़े वकील, एडवोकेट जनरल अनूप रत्तन अपने फेसबुक अकाउंट पर मीडिया को ‘समोसा मीडिया’ के नाम से संबोधित करते हुए लिखते हैं- मीडिया मैनेजमेंट का भ्रष्टाचार नहीं करेंगे।  मगर आपसे कौन कह रहे है कि मीडिया मैनेजमेंट का भ्रष्टाचार करिए?

मीडिया मैनेजमेंट का अर्थ मीडियाकर्मियों को मैनेज करना नहीं होता। बल्कि अपने आप को मैनेज करना होता है कि मीडिया तक क्या छवि, क्या बात, क्या संदेश पहुंचना है। यानी सरकार को अपना आचरण, अपने बयान, अपनी शैली सुधारनी है। वह मैनेज हो जाएगी तो मीडिया तक वही पहुंचेगा। मीडिया का काम कुछ का कुछ करना नहीं, बल्कि जो आप पेश कर रहे हैं, उसे आगे ले जाना है। इसीलिए वह मीडिया कहलाता है। साथ ही, सरकार को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने सोशल मीडिया हैंडल्स पर जो कुछ पोस्ट करती है, उसमें सावधानी बरते। अक्सर नेताओं के सोशल मीडिया पर उनके बयानों और फैसलों के वही  हिस्से पोस्ट होते हैं, जिनसे जनता चिढ़ चुकी है  या जो हकीकत से मेल नहीं खाते।

दोहराव नहीं, पारदर्शिता जरूरी
मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने सरकार बनने से लेकर अब तक, जितनी भी बातें कही हैं, उनमें से अस्सी फीसदी बातों में दोहराव है। इन हिमाचल पर ही सरकार बनने के चंद समय बाद एक लेख प्रकाशित था, जिसमें कहा गया था कि व्यवस्था परिवर्तन नारे का दोहराव लोगों को उबाऊ लग सकता है। हुआ भी यही। हर रोज, तकरीबन हर मंच में या मीडिया के सामने आते ही मुख्यमंत्री डिफ़ेंसिव मोड में नजर आते हैं। मंत्रियों के बजाय मीडिया को ज्यादातर सामना उन्हीं को करना पड़ता है। और फिर आखिर में वह कहते हैं- ये सब हम व्यवस्था परिवर्तन के लिए कर रहे हैं। आम जनता की मजबूरी नहीं है कि वे रोज ही एक ही तरह की बात सुने।

इससे हुआ यह है कि जब कभी मुख्यमंत्री का वीडियो टाइमलाइन पर आता है तो उससे यह जिज्ञासा नहीं पैदा होती कि वह कुछ नया कह रहे होंगे। लगता है कि या तो वह किसी बात का गोल-मोल जवाब दे रहे होंगे या फिर किसी मामले की सफाई दे रहे होंगे। इस छवि को बदलना है तो बदलाव खुद में लाना होगा।  सलाहकार रखने भर से कुछ नहीं होता, बल्कि जिम्मेदार सलाहकारों की बात माननी भी होती है।

आख़िर में, सुख की सरकार (अनुप्रास अलंकार) को यही सुझाव है कि वह वाकई सुख की सरकार (उपमा अलंकार के लिहाज से) बनना चाहती है, अगर उसे समोसे जैसे प्रकरणों से बचना है तो उसे अभी से गंभीर होना होगा। सरकार और नेताओं की कथनी-करनी में फर्क नहीं होना चाहिए। जो गलत है, कमी है, उसे स्वीकार कीजिए। कड़े फैसले लेने हैं तो लीजिए, मगर उन्हें किसी और तर्क का आवरण लेकर मत ढकिए।  जनता के साथ पारदर्शिता का रिश्ता रखिए। सीधे संवाद का अर्थ गांव में रुककर चले आना नहीं है। बल्कि दूर से भी कही गई बात सीधी और सादगी भरी हो, यह जरूरी है।  कार्यकाल को तीन साल बचे हैं। प्रदेश के व्यवस्था परिवर्तन से पहले यह जरूरी है कि सरकार अपनी दो साल से बनी व्यवस्था में परिवर्तन लाए।

ये लेखक के निजी विचार हैं

(लेखक लंबे समय से हिमाचल प्रदेश से जुड़े विषयों पर लिख रहे हैं। )