विवेक अविनाशी।। गर्मियों के मौसम में हिमाचल की नैसर्गिक आभा को निहारने देश-विदेश से पर्यटक आते हैं। पहाड़ की सर्पीली सडकों से गुजरते हुए किनारों पर लगी खरपतवार को देख कर आकर्षित होना तो स्वभाविक है लेकिन किसी कांटेदार पती को छूने के बाद हाथों में जलन हो तो चौंकियेगा नही..यह वही ऐण है जिस के साग़ का पहाड़ों के व्यंजनों में अहम स्थान है।
हिंदी में इस ऐण को बिच्छूबूटी कहते हैं और इसका वैज्ञानिक नाम Urtica dioica है। इसके तीखे नुकीले काँटों में फार्मिक एसिड होता है जो त्वचा में जलन पैदा करता है।
बिच्छू बूटी |
वैसे तो यह हिमालय के सभी क्षेत्रों में पाई जाती है और बहुपयोगी मानी जाती है लेकिन हिमाचल में इस की नर्म और ताज़ी पतियों को चिमटे से इकट्ठा कर थोड़ी देर धूप में सुखाने के बाद मिटटी की हांडी में सरसों के साग़ की तरह घोट कर मक्की के आटे की रोटी साथ इस का सेवन अत्यंत ही लज़ीज़ और पोष्टिक माना जाता है।चिमटे से बिच्छूबूटी के नर्म सिरे को तोड़ कर उसे धूप में सूखा लिया जाता है और फिर पानी में उबालने के बाद पीस कर साग़ तैयार कर लिया जाता है।
ऐण के कोमल पत्तों का साग उबले हुए देसी अडों और आलू के साथ। |
चंबा जनपद के घुमन्तु गद्दी परिवारों में ऐण का साग़ इस मौसम में खूब बनाया जाता है क्योंकि सर्दियों में बिच्छूबूटी मुरझा जाती है। यह खरपतवार तीन से सात फीट लम्बी होती है। इस पर प्रजाति के अनुरूप सफेद अथवा पीले फूल लगते हैं। इसकी सुखी पतियाँ मवेशी भी खा लेते हैं। तितलियों और पतंगों के लार्वों को भी बिच्छूबूटी खूब पसंद है। कहते हैं शरीर के जो अंग सुन्न पड जाते हैं उन पर बिच्छूबूटी लगाने से रक्त-संचार फिर शुरू हो जाता है।
ऐण के महीन कांटों से होने वाले फफोले |
विश्व के जिस भाग में भी बिच्छूबूटी उपलब्ध है वहां इसकी पतियों के रस और तने का इस्तेमाल विभिन्न तरीकों से किया जाता है। यह भी सूचना है कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान कपास की कमी के कारण जर्मन सेनाओं की वर्दियां बिच्छूबूटी के तनों के रेशे से तैयार की गयीं थीं। कहते हैं तिब्बत के महान संत मिलरेपा ने 12 वर्ष तपस्या के दौरान केवल बिच्छूबूटी का ही सेवन किया था।उनके बाल और चमड़ी भी हरे रंग की हो गई थी। उत्तराखंड में बिच्छूबूटी को कंदाली व सिसुन्णा कहते है। कश्मीर में इसे सोय के नाम से जाना जाता है।
(लेखक हिमाचल प्रदेश के हितों के पैरोकार हैं और राज्य को लेकर लंबे समय से लिख रहे हैं। इन दिनों इन हिमाचल के नियमित स्तंभकार हैं। उनसे vivekavinashi15@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)