कौन थे खाकीशाह, बिलासपुर में जिनके नाम पर बनी ‘मज़ार’ पर हो रहा है हंगामा

0
खाकीशाह की मजार के नाम पर बनाए गए ढांचे में तोड़फोड़ हुई थी जिसकी प्रशासन ने मरम्मत कर दी है

बिलासपुर।। हाल के दिनों में बिलासपुर में एक मज़ार को नुक़सान पहुंचाने का मामला सामने आया। प्रशासन ने इसकी मरम्मत करवा दी है, लेकिन सवाल बरक़रार है कि आखिर ये मज़ार कहां से आई। बिलासपुर के कुलदीप चंदेल ने इस मामले में फेसबुक पर एक पोस्ट लिखकर यह बताने की कोशिश की है जहां ये मज़ार बनी है, उसके नीचे पहले एक दरगाह हुआ करती थी।

उनका यह भी कहना है कि मूल दरगाह भाखड़ा बांध बनने पर पानी और गाद के नीचे दब गई थी। इसके बाद एक परिवार अपने घर पर उनके नाम का दिया जलाया करता था। और जब इतने ऊंचे मंदिर ही गोबिंद सागर झील में जमा गाद में डूब गए हैं तो मूल मजार तो कुछ ही फुट ऊंची थी। उन्होंने सवाल उठाया है कि गाद की मिट्टी पर किसने मजार बना दी है।

बहरहाल, बिलासपुर में यहां किसकी दरगाह थी, जानने के लिए पढ़ें उनका आलेख-

गोबिंद सागर झील में डूबे पुराने बिलासपुर शहर की जिस खाकीशाह मजार को लेकर इन दिनों हंगामा खड़ा हुआ है। उस बारे कुछ पंक्तियां पाठकों के ध्यानार्थ ……

कौन था खाकीशाह?

क्यों बनी उसकी मजार?
कौन थे उसके पुजारी?
कैसा था वह स्थान?
वर्तमान में कहां होती खाकीशाह की पूजा ?

इतिहास के आइने में, सामाजिक परिपेक्ष्य में

गोबिंद सागर झील में डूबे ऐतिहासिक नगर बिलासपुर के गोहर बाजार में खाकीशाह की मजार थी। यह चारदीवारी से घिरा एक खूबसूरत स्थान था। मजार के पास बेरी का बहुत बड़ा पेड़ था। जब उसमें बेर लगते तो बच्चों समेत बड़े लोग भी उन मीठे बेरों का आनंद लेते थे। उस मुस्लिम फकीर की पूजा मुसलमानों से अधिक हिंदू किया करते थे। हर वीरवार को खाकीशाह की मजार पर जाकर चूरमा चढ़ाते और अपने परिवार की खुशहाली सुख शांति की फरियाद करते थे।

आखिर कौन था खाकीशाह ?वास्तव में खाकीशाह दक्षिण एशिया के एक छोटे से देश बलख बुखारा का बादशाह था। वह एक बहुत ही गुस्से बाज शासक था। उसके पलंग की मखमली चादर को उसकी एक दासी रोजाना झाड़ती थी। एक दिन उस दासी के मन में आया कि वह बादशाह की इस पलंग पर सो कर देखे, कितना मजा आएगा! बहुत अच्छी मखमली चादर है।

दासी जैसे ही बिस्तर पर लेटी वैसे ही बादशाह दरवाजे से भीतर प्रविष्ट हुआ। अपने पलंग पर दासी को सोए देख उसकी भृकुटी तन गई। उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसने तुरंत उस दासी को फांसी का हुक्म सुना दिया।

फांसी का हुक्म सुन कर दासी बहुत अधिक रोने लगी लेकिन फिर उसे हंसी आ गई, जैसे उस पर कोई उन्माद छा गया हो। राजा ने उसे चुप करवाया और उसके रोने और हंसने का कारण पूछा। दासी बोली …….बादशाह सलामत, मैं तो इस बिस्तर पर पल भर को सोई तभी मुझे फांसी का हुक्म सुनाया गया लेकिन जो व्यक्ति इस पर प्रतिदिन सोता है उसकी क्या हालत होगी, यह जानकर ही मुझे पहले रोना आया और फिर हंसी आई।

बादशाह का माथा ठनका। उसका विवेक जागृत हो गया था। उसने उसी समय राजपाट त्याग कर दिया और घूमता घूमता निकल पड़ा। वह फकीर बन गया था। इस बारे इतिहास में एक दोहा आता है-

भला होया जे दास्सी मारी,  होया हुकम प्यारे दा।
खाकीशाह फकीर होया,  बादशाह बलख बुखारे दा।।

फकीर बनने के बाद खाकी शाह घूमता घामता सतलुज नदी के किनारे एक घने जंगल में पहुंच गया। यहां समीप रंगनाथ का मंदिर और नदी किनारे मुरली मनोहर का मंदिर था। घने जंगल में हिंसक जानवर विचरते थे लेकिन खाकीशाह को वह स्थान पसंद आया। उसने जंगल में धूना लगा दिया।

एक दिन धूने से धुआं निकल रहा था तो समीप के भरतपुर व्यासपुर गांव के लोगों को आश्चर्य हुआ। वे वहां पर पहुंचे जहां धुआं निकल रहा था। उन्होंने देखा कि यहां एक फकीर धूना लगाए बैठा है। लोगों ने कहा ….महाराज यहां बियाबान घना जंगल है। यहां तो दिन में ही हिंसक पशु विचरते दहाड़ते रहते हैं। आप चलकर समीप के गांव में अपना डेरा लगाएं।

फकीर ने इनकार कर दिया। उसने कहा कि आने वाले समय में यह स्थान चहल-पहल वाला होगा।

फकीर के बात उस समय सच्च साबित हुई जब वहां पर कहलूर रियासत के एक महा प्रतापी राजा दीपचंद (1653-1657 ई. ) ने सुन्हानी से अपनी राजधानी बदल कर इस स्थान को बदली। राजधानी का नाम बिलासपुर रखा और धौलरा नाम के स्थान पर अपने महल बनाए।नीचे की तरफ बाजार व शहर बसाया।

दीपचंद के साथ चार साधु संत हर समय रहते थे। वे उसके मार्गदर्शक भी थे। सलाहकार भी थे। इनमें से एक खाकीशाह भी था। यह वही फकीर था जिसने ग्रामीणों को कहा था कि आने वाले समय में यहां पर रौनक होगी।

जब खाकीशाह दुनिया को छोड़ गया तो उस स्थान पर एक मजार बनाई गई। यह बहुत रमणीक स्थान था। जहां पर कवि सम्मेलन और महफिलें होती थीं। लोग बैठ कर आराम से गपशप लगाया करते थे। शबीर कुरेशी का परिवार इसका पुजारी था। हर वीरवार को वहां पर मीठा चूरमा चढ़ता और मीठी खिल्लों इलायचीदाने का प्रसाद बांटा जाता। यह हिंदू मुस्लिम एकता का मुंह बोलता स्थान था।

जब पुराना शहर झील में डूब गया तो शबीर कुरेशी के पिताजी वजीर दीन अपने घर के आंगन में खाकीशाह की याद में चिराग जलाया करते थे। बाद में शबीर कुरेशी हर वीरवार को पूजा स्थल पर चिराग जलाते। वीरवार का व्रत रखते।

May be an image of temple and text that says "दरगाह बाबा ख्ाकिशाह"

कुरेशी वास्तव में हमारे मित्र और वरिष्ठ पत्रकार थे। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस,  टाइम्स ऑफ इंडिया, नवभारत टाइम्स आदि अखबारों में बतौर संवाददाता काम किया। आकाशवाणी व दूरदर्शन के लिए जीवन भर काम करते रहे। हिमदिशा नाम से अपनी अखबार निकालते रहे।

पिछले कुछ सालों से झील में डूबे शहर की गाद के ऊपर कुछ लोगों ने एक मजार बनाकर वहां पर अपनी गतिविधियां शुरू कर रखी हैं। मजार को हरे रंग में रंग दिया। चादर चढ़ा दी। झंडे लगा दिए। असली मजार तो लुप्त हो गई है। उसके ऊपर 30, 40 फूट गाद चढ़ गई है।

बड़े-बड़े मंदिर झील की गाद में लुप्त हो गए तो वह तो एक छोटी सी मजार थी। जिसकी ऊंचाई एक डेढ़ फुट थी। जमीन से लगभग अढ़ाई तीन फुट ऊंचा स्थान बनाया गया था। समझ नहीं आता कि जब खाकीशाह की पूजा पिछले लगभग साठ सालों से शबीर कुरेशी जी के घर के आंगन में हो रही है तो फिर यह नया विवाद खड़ा करने का क्या औचित्य है?

इस प्रश्न के साथ यहीं विराम।

(कुलदीप चंदेल के फेसबुक पोस्ट से साभार)