- भूप सिंह ठाकुर
(पिछले हिस्से में आपने ठाकुर कौल सिंह की राजनीति के बारे में पढ़ा, दूसरे हिस्से में बात ठाकुर गुलाब सिंह की। पाठकों को याद दिला दें कि आर्टिकल लंबा होने की वजह से हमने इसके दो हिस्से कर दिए थे। पहले वाला हिस्सा पढ़ने के लिए यहां पर क्लिक करें।)
ठाकुर गुलाब सिंह को अगर करिश्माई नेता कहा जाए तो गलत नहीं होगा। जोगिंदर नगर में उनके प्रशंसकों की तादाद बड़ी संख्या में है। कई बार जोगिंदर नगर सीट से चुने गए गुलाब सिंह कई बार प्रदेश कैबिनेट में मंत्री रह चुके हैं। इससे पहले की बीजेपी सरकार में वह पीडब्ल्यूडी मंत्री थे और अपने इलाके में सड़क क्रांति का पूरा श्रेय उन्हें दिया जाता है। शायद ही कोई पंचायत ऐसी है, जहां तक सड़क न पहुंची हो। गांव-गांव तक लिंक रोड पहुंचे हुए हैं। इस मामले में तो उन्हें पूरे नंबर मिलने चाहिए, मगर बाकी मामलों में उन्होंने कुछ भी आउटस्टैंडिंग नहीं किया है।
पहले तो गुलाब सिंह दल-बदल की राजनीति के लिए पहचाने जाते रहे। पहली बार 1977 में वह कांग्रेस के रतन लाल ठाकुर को हराकर जनता पार्टी के टिकट पर जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। 1982 में उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा और एक बार फिर कांग्रेस के उम्मीदवार को हराया। अब उन्होंने कांग्रेस जॉइन कर ली और 1985 में उन्हें निर्दलीय चुनाव लड़ रहे रतन लाल ठाकुर से हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद लगातार तीन चुनाव (1990, 1993, 1998) उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर जीते। मगर अब वह हुआ, जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी। 1998 में बीजेपी को भी 31 सीटें मिलीं और कांग्रेस को भी 31 सीटें। 5 सीटें पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस को मिली और 1 सीट पर निर्दलीय जीता। सरकार बनाने के लिए किसी को भी 35 विधायकों का समर्थन जरूरी था।
निर्दलीय जीते धवाला को लेकर बीजेपी और कांग्रेस खींचतान चल रही थी, साथ ही सुखराम को साधने की भी कोशिश चल रही थी। सुखराम का झुकाव बीजेपी की तरफ ज्यादा था, क्योंकि वह किसी भी शर्त पर वीरभद्र को सीएम बनाने के लिए समर्थन नहीं कर सकते थे। उन्हें अपने विधायकों के टूटने का भी डर था। इस बीच कमाल की पॉलिसी यह हुई कि कांग्रेस के विधायक गुलाब सिंह ठाकुर को विधानसभा अध्यक्ष बनाने का ऑफर मिला। उन्होंने यह ऑफर स्वीकार कर लिया। यह जानते हुए भी कि अगर वह स्पीकर चुने गए तो अपनी पार्टी के पक्ष में चुनाव नहीं कर पाएंगे। इससे कांग्रेस के पास अपने 30 वोट रह गए। निर्दलीय धवाला को पहले ही बीजेपी साध चुकी थी और अगर सुखराम के चारों विधायक भी अगर कांग्रेस के पक्ष में वोट कर देते, तब भी बहुमत साबित नहीं हो पाता। इस तरह से बीजेपी ने सुखराम के समर्थन से आराम से सरकार बनाई। तकनीकी रूप से देखा जाए तो गुलाब सिंह ठाकुर की वजह से ही उस वक्त धूमल मुख्यमंत्री बन सके थे।
यह राजनीतिक रिश्ता असल रिश्तेदारी में भी तब्दील हुआ और ठाकुर गुलाब सिंह की पुत्री का विवाह प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर से हुआ। इसके बाद गुलाब सिंह बीजेपी में शामिल हुए और 2003 का चुनाव बीजेपी के टिकट से लड़ा, मगर उनके भतीजे सुरेंदर पाल ने उन्हें हरा दिया। इस बार कांग्रेस की सरकार बनी। इसके बाद 2007 में हुए चुनावों में उन्होंने वापसी की। बड़े ही अच्छे तरीके से उन्होंने पुराने कार्यकर्ताओं को जोड़ा, यहां तक कि पुराने प्रतिद्वंद्वी रतन लाल ठाकुर को भी अपने पक्ष में कर लिया। मेहनत रंग लाई और सीएम धूमल के बाद सीनियर मोस्ट मिनिस्टर बने और PWD विभाग संभाला। धूमल ने भी नड्डा जैसे सीनियर मंत्रियों को दरकिनार करते हुए अपने समधी को तरजीह दी। 2012 के चुनावों में गुलाब सिंह ठाकुर ने आखिरी बार का नारा देते हुए इमोशनल तरीके से प्रचार किया और जीत हासिल की। मगर चूंकि अब सरकार उनकी नहीं है, इसलिए शांत बैठ गए हैं।
यह तो बात हुई उनके राजनीतिक इतिहास की। अब बात करते हैं कि क्यों वह एक लोकप्रिय और सक्षम नेता होने के बावजूद कई मोर्चों पर नाकामयाब रहे। उनका व्यक्तित्व अच्छा है, समझदार हैं और शानदार वक्ता हैं। मगर उनकी अपनी कमजोरियां हैं। उनपर तानाशाही रवैये के आरोप लगते रहे हैं। अधिकारियों से दुर्व्यवहार करने के किस्से चर्चित रहे। कार्यकर्ताओं से ठीक से बात न करने की भी बातें आईं। बताया जाता है कि इसीलिए 2003 में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। शराब की लत के चलते भी वह बदनाम रहे हैं। ऐसा ही एक वाकया है 27 अप्रैल 2009 का। बाकायदा मंडी में उनके शराब पीकर हंगामा करने की खबरें छपीं। वक्त-वक्त पर और बातों की भी चर्चा होती रही है। यह सब बेशक निजी बातें हैं, मगर एक राजनेता होने की वजह से इस पर भी चर्चा करना जरूरी है।
नेता के रूप में जब उनसे उपलब्धियां गिनाने को कहा जाए, तो वह रटी-रटाई सी बातें बताते हैं। पहली उपलब्धि उनकी होती है- राजस्व प्रशिषण संस्थान। मगर यह संस्थान साल में कुछ ही महीने खुला रहता है और पटवारियों की ट्रेनिंग कुछ के ही बैच में होती है। मगर इस संस्थान को बनाने में बहुत बड़ी जगह बर्बाद की गई। बर्बाद इसलिए, क्योंकि जिस जगह यह संस्थान बना है और इस संस्थान की जो उपयोगिता है, उस हिसाब से जगह को बर्बाद किया गया है। इस संस्थान के खुलने से स्थानीय जनता को कोई फायदा नहीं हुआ। न तो ऐसा संस्तान है जहां बच्चे पढ़ सकें न ही ऐसा संस्थान है कि आसपास दुकानें खुलें या हॉस्टल या किराए के मकान से लोगों को भी रोजगार मिले। उल्टा जोगिंदर नगर में अब कोई ऐसी जगह नहीं बची, जहां पर कोई और संस्तान खोला जा सके।
जोगिंदर नगर कभी बहुत पिछड़ा इलाका नहीं था। यहां आजादी से पहले से रेलवे ट्रैक है, जिसे अंग्रेजों ने शानन वापस हाउस बनाने के लिए तैयार किया था। यहां 2 पावर हाउस हैं और बहुस पहले से बिजली है। अंग्रेजों के वक्त से स्कूल और अस्पताल हैं। इसके अलावा एक डिग्री कॉलेज और आईटीआई के अलावा और कोई भी सरकारी संस्थान नहीं है। यहां एचआरटीसी का डिपो नहीं खुल पाया, जबकि आसपास सभी जगह डिपो और सब-डिपो हैं। आज भी बैजनाथ डिपो की खटारा बसें सड़कों पर दौड़ती हैं। पीडब्ल्यूडी मंत्री रहने के बाद उन्होंने जो सड़कें बनवाईं, वही उनकी एकमात्र उपलब्धि है। हालांकि ये सड़कें भी पहले बन जानी चाहिए थी। औऱ कुछ जगहों पर तुष्टीकऱण के लिए ऐसी सड़कें बनाई हैं, जो प्राणघातक सिद्ध हो सकती हैं।
इतना बड़ा कद होने के बावजूद कोई बड़ा संस्थान या प्रॉजेक्ट नहीं लगवा पाए गुलाब सिंह। वह इतने उदासीन हैं कि चुल्ला प्रॉजेक्ट (ऊहल तृतीय) का काम जो कई सालों से चल रहा है, उसे पूरा करवाने के लिए ऐक्टिव नहीं हो पाए। वह सेंट्रल स्कूल तक नहीं खुलवा सके, जो कि बगल के विधानसभा क्षेत्र में चला गया। दरअसल वह अपने लोगों को ठेके दिलवाने में ज्यादा व्यस्त रहे और कोई नया विजन पेश करने में कामयाब नहीं रहे। मंच से बहुत लच्छेदार भाषण देते हैं, मगर खाली वक्त मिलने पर यह नहीं सोचते कि क्या नया किया जा सकता है इलाके के लिए। अब जैसे वह विधायक हैं तो शीतनिद्रा में चले गए हैं। सरकार कांग्रेस की है तो क्या विधायक का कोई काम ही नहीं रह जाता?
यही समस्या कौल सिंह ठाकुर के साथ भी है। दोनों बड़े नेता विज़नहीन हैं। आज जोगिंदर नगर फिर भी द्रंग इलाके से विकसित है। इसके लिए भी ज्यादा श्रेय गुलाब सिंह को नहीं, बल्कि अंग्रेजों को जाता है जो यहां इतना काम करवा गए। उस विरासत को आगे बढ़ाने में गुलाब सिंह नाकामयाब रहे हैं। आज वह शानन प्रॉजेक्ट को पंजाब से लेने की बात करतें हैं, मगर खुद जब उनके समधी मुख्यमंत्री होते हैं और पंजाब में सहयोगी पार्टी अकाली दल की सरकार होती है, तब वह जरा भी कोशिश नहीं करते।
यही समस्या है हमारे नेताओं में। इस आर्टिकल को मैंने इसलिए नहीं लिखा कि मेरी इन नेताओं से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी है या रंजिश है। इनके विधानसभा क्षेत्रों में मेरा घर भी नहीं। मगर मैं यह लेख लिखने को इसलिए मजबूर हुआ, क्योंकि ये बड़े नेता जनता की वजह से बड़े नेता बने हैं। जनता इन्हें प्यार करती है, इनपर भरोसा करती है तो इन्हें उसका दोगुना लौटाना चाहिए। ऐसा नहीं कि जनता को इमोशनली ब्लैकमेल करके चुनाव जीतते रहें और भूल जाएं कि चुनाव जीतकर क्या करना होता है।
यह लेख का दूसरा भाग है। पिछले हिस्से में चर्चा कौल सिंह ठाकुर की राजनीति पर गई है।
(लेखक मंडी के रहने वाले हैं और आयकर विभाग से सेनानिवृति के बाद विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिख रहे हैं।)
Disclaimer: यह लेखक के अपने विचार हैं, इनसे ‘इन हिमाचल’ सहमति या असहमति नहीं जताता।