मंडी में आश्रय शर्मा से ज्यादा वोट तो कोई हप्पू सिंह भी ले आएगा

आई.एस. ठाकुर।। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की हालत देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाकी देश में इसकी हालत क्या हो रही है। हिमाचल छोटा सा प्रदेश है जहां मात्र चार लोकसभा सीटें हैं। यहां की राजनीति में जाति, समुदाय आदि का प्रभाव उतना अधिक नहीं है जितना पड़ोसी राज्यों में है। मगर हिमाचल में कांग्रेस में जिस तरह से गृहयुद्ध छिड़ा है, वैसे ही हालात अन्य राज्यों में भी होंगे। हिमाचल में एक भी सीट ऐसी नहीं है जहां पर कांग्रेस जीतने के लिए उम्मीदवार उतार रही हो। बल्कि यहां तो टिकट दिए जा रहे हैं खानापूर्ति के लिए।

यह शर्मनाक ही है कि दिग्गज नेता चुनाव लड़ने से न सिर्फ कतरा रहे हैं, इस बात का भी ख्याल रख रहे कि पार्टी के अंदर जिस नेता से उनकी राइवलरी है, कहीं वह चुनाव न लड़ ले। और फिर वे दोनों इस बात का भी ख्याल रख रहे हैं कि कोई ऐसा चुनाव न लड़ ले जो कल को उनसे बड़ा नेता बनकर उभर जाए। सोचिए, इन हालात में पार्टी अगर किसी को उम्मीदवार बनाए तो ये दिग्गज नेता उसे हराने में जुट जाएंगे, इसमें कोई शक नहीं।

अपने चक्कर में डुबो रहे पार्टी की लुटिया
कांगड़ा को ही देख लीजिए। सुधीर शर्मा और जी.एस. बाली की प्रदिद्वंद्विता किसी से छिपी नहीं। वहां से पवन काजल का नाम आ रहा है तो उससे भी कुछ लोगों को आपत्ति है। हमीरपुर से अग्निहोत्री खुद चुनाव नहीं लड़ रहे मगर वीरभद्र यह भी नहीं चाहते कि सुक्खू को टिकट मिले। मंडी में भी हालात ऐसे हैं। वीरभद्र न खुद लड़े, न प्रतिभा लड़ीं न विक्रमादित्य।

मगर वीरभद्र शायद यह भी नहीं चाहते कि किसी ऐसे व्यक्ति को टिकट मिले जो कल को इस सीट से उनके परिवार की संभावनाओं को ही खत्म कर दे। इसलिए आश्रय शर्मा को उतारे जाने का उन्होंने विरोध नहीं किया कि क्योंकि जानकारों का कहना है कि सुखराम और वीरभद्र के गले मिलने का मतलब यह न निकाला जाए कि वीरभद्र खुलकर आश्रय का समर्थन करेंगे। वह कभी नहीं चाहेंगे कि आश्रय यहां से जीते।

उधर शिमला ही एक ऐसी सीट है जिसमें विनेबिलिटी के आधार पर फैसला लेने की कोशिश की गई। यह आरक्षित सीट है और कांग्रेस के सवर्ण नेताओं और उनके बच्चों का यहां से कोई चांस नहीं है। इसलिए वे यहां पर रायता नहीं फैला पाए। सारी मारधाड़ हमीरपुर, मंडी और कांगड़ा को लेकर सीमित हो गई। मंडी में तो फिर भी आश्रय को टिकट दे दिया गया, हमीरपुर और कांगड़ा में खोदल पड़ी हुई है।

आश्रय ही क्यों, हप्पू सिंह क्यों नहीं
आश्रय के नाम पर जब से कांग्रेस में चर्चा चल रही थी, पार्टी के आम कार्यकर्ता काफी निराश दिख रहे थे। अब सुखराम के पोते को टिकट दिए जाने के बाद कार्यकर्ता बुरी तरह से टूट चुके हैं। मानो या न मानो, मंडी सदर से बाहर सुखराम परिवार का जनाधार नगण्य है। और जो ये कहते हैं मंडी में बीजेपी की इतनी सीटें पहली बार सुखराम के कारण आईं वे भ्रम में हैं। सरकाघाट, धर्मपुर, जोगिंदर नगर और करसोग जैसी जगहों पर तो इन्हें अपने दम पर चार लोग न मिलें सभा करने के लिए। कुल्लू, लाहौल-स्पीति में तो उन्हें कोई पूछे भी न।

ऊपर से लोगों में इस परिवार के खिलाफ भारी नाराजगी है। फिर किस आधार पर आश्रय शर्मा को कुलदीप राठौर मजबूत कैंडिडेट बता रहे हैं? क्या वह भूल गए कि अधिक से अधिक वोटों से जीतने की संभावना रखने वाले को मजबूत कहा जाता है, उसे नहीं जिसके अधिक से अधिक वोटों से हारने की आशंका हो।

भाजपाई भी नाराज हैं, कांग्रेसी भी। भाजपाई कभी इस परिवार को स्वीकार नहीं कर पाए और कांग्रेसी तभी से नाराज हैं जब अनिल शर्मा पाला बदलकर बीजेपी की गोद में जा बैठे थे। अब उनका फिर से कांग्रेस में आना कार्यकर्ताओं को चुभ रहा है। उन्हें दर्द इस बात का भी है कि उन्हें पार्टी के साथ वफादारी करने पर भी ऐसे मौके नहीं मिलते, जितने मौके दल बदलकर आने वाले तकाकथित अवसरवादियों को मिल जाते हैं।

हप्पू सिंह को टिकट क्यों नहीं
कांग्रेस को अगर टिकट ही देना था तो मौका था कार्यकर्ताओं को एकजुट करने का। उनमें उत्साह फूंकने, उनमें उम्मीद जगाने का न कि उन्हें हताश करने का। यह दावा है कि आश्रय के बजाय कांग्रेस के किसी हप्पू सिंह (कहने का अर्थ है कोई गुमनाम-सा कार्यकर्ता) को भी टिकट दे दिया जाता तो कार्यकर्ता भी उत्साह में वोट देते और रामस्वरूप शर्मा के खिलाफ इनकमबेंसी का फायदा भी उसे होता। असंतुष्ट भाजपा समर्थक भी वोट देते। मगर अब असंतुष्ट भाजपा समर्थक कहेंगे कि इससे अच्छा तो बीजेपी को ही वोट देंगे। हताश हुए कांग्रेसी कार्यकर्ता भी अब बीजेपी को वोट देने की ओर बढ़ सकते हैं।

उदाहरण के लिए मंडी से ही यदोपति ठाकुर कांग्रेस का एक युवा और चर्चित नाम है। वह आश्रय शर्मा से ज्यादा जाना-पहचाना नाम हैं। एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस की जिम्मेदारियों के कारण वह प्रदेश में जगह-जगह घूमे हैं और खासकर मंडी-कु्ल्लू में। उनके आने से यूथ उनके साथ नहीं जुड़ता? वीरभद्र को चाहिए था कि अपने खेमे से यदोपति का ही नाम आगे कर देते। मगर ऐसा करते और यदोपति को अच्छे खासे वोट मिल जाते, वह युवा नेता के तौर पर उभर जाते तो फिर विक्रमादित्य का क्या होता?

यानी कुल-मिलाकर इस चुनाव से जनता, जनता के मुद्दे, जनता की समस्याएं… सब गायब हैं। कोई नेता अपना हित देख रहा, कोई परिवार का। पार्टी के बारे में तो कोई सोच ही नहीं रहा। कांग्रेस के नेताओं खासकर नए प्रदेशाध्यक्ष को चाहिए कि नेताओं की बैठकों में जाकर बात करके फैसले न करे, आम जनता से जुड़कर उसकी बात समझकर फैसले करे। एक नजर सोशल मीडिया पर भी डाल दो कि जहां-जहां सुखराम, अनिल शर्मा, आश्रय का जिक्र हो रहा है, वहां पर कैसे कॉमेंट आ रहे हैं। वीरभद्र सिंह की तरह आउटडेटेड पॉलिटिक्स न करें, नए दौर में कदम से कदम मिलाकर चलें और भविष्य के हिसाब से प्लैनिंग करें।

वरना हिमाचल में तो कुंडा गोल है ही, जैसे हाल कांग्रेस के हिमाचल में हैं, वैसे अगर अन्य राज्यों में भी हैं तो इस बार कहीं देशभर में चार ही सीटें न आएं।

क्या कुलदीप राठौर की चूक ने हिमाचल कांग्रेस को घुटनों पर ला दिया है?

(लेखक लंबे समय से हिमाचल से जुड़े विषयों पर लिख रहे हैं। उनसे kalamkasipahi @ gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

ये लेखक के निजी विचार हैं

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