तो क्या बेटे को कांग्रेस का टिकट मिलते ही इस्तीफा देंगे अनिल शर्मा?

आई. एस. ठाकुर।। देश में लोकतंत्र है। जिसका जो मन करे, जब मन करे पार्टी बदल सकता है। हमारे की खूबूसरती यह है कि एक ही परिवार के अलग-अलग सदस्य अलग-अलग धर्मों का अनुसरण कर सकते हैं। फिर एक ही परिवार के सदस्यों का अलग-अलग पार्टी में होने को लेकर सवाल उठाने का तो कोई मतलब नहीं। देश भर में छोड़िए, आपको अपने गांव-पड़ोस में ही कई उदाहरण मिल जाएंगे जहां पर पिता की राजनीति पसंद बेटे से अलग होती है तो कहीं एक भाई एक पार्टी में है तो दूसरा किसी और पार्टी में।

जब आश्रय शर्मा और पंडित सुखराम ने कांग्रेस में शामिल होने का फैसला किया तब सवाल यह उठा कि सुखराम के बेटे और आश्रय के पिता अनिल शर्मा तो बीजेपी में हैं। फिर ये दादा-पोता क्यों कांग्रेस में शामिल हो गए। जो लोग ये सवाल उठा रहे थे, मुझे उनके सवाल सही नहीं लगे। इसलिए क्योंकि राजनीतिक पसंद सबकी हो सकती है। हो सकता है कोई बीजेपी को पसंद करता हो तो कोई कांग्रेस को। या किसी को बीजेपी के बजाय कांग्रेस में अपनी संभावनाएं ज्यादा नजर आती हों। यह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर करता है।

पिता का बीजेपी सरकार में मंत्री होना और बेटे का कांग्रेस का नेता होना गलत नहीं है। बेटे का अपना जीवन है, वह अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र है। पिता को भी बेटे के जीवन में टोका-टोकी करने या जबरन किसी पार्टी में बनाए रखने या उसे चुनाव लड़ने से रोकने का कोई अधिकार नहीं। पंडित सुखराम, अनिल शर्मा और आश्रय शर्मा के मामले में भी यही बात लागू होती है। मगर जैसा कि मैंने कहा, हर व्यक्ति की पसंद अलग हो सकती है और परिवार के सदस्य अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों में हो सकते हैं, तो आदर्श स्थिति यह होनी चाहिए कि परिवार का हर व्यक्ति अपनी पसंद पर गर्व करे और दूसरे परिजन की पसंद का सम्मान करे।

अनिल शर्मा की गोलमोल बातें
कहने का अर्थ यह है कि अगर अनिल शर्मा बीजेपी में हैं तो उन्हें दिल से बीजेपी में होना चाहिए। अगर कोई उनसे कहे कि आपका बेटा कांग्रेस में है और अगर उसे टिकट मिला तो आप क्या करेंगे। उस पर उनका जवाब होना चाहिए- मेरे बेटे की अपनी पसंद है। उसका अपना फैसला है। उसे शुभकामनाएं। मगर मैं भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता हूं। इसकी विचारधारा में मुझे यकीन है और मैं चाहूंगा कि मैं अपनी पार्टी के प्रत्याशी के लिए मेहनत कहूं और उसे जिताऊं। बेटे के लिए शुभकामनाएं, वह अपनी पार्टी से कोशिश करे।

मगर ऐसा हुआ नहीं। अनिल शर्मा कह रहे कि मेरी कोई भूमिका नहीं, हाईकमान इस्तीफा मांगे तो दे देंगे। मैं बेटे को टिकट मिलने को लेकर आश्वस्त हूं, मैं किसी के लिए चुनाव प्रचार नहीं करूंगा। ये सारे बयान विभिन्न अखबारों और पोर्टलों में छपे हैं, (नीचे देखें)। यानी कि वह डांवाडोल हैं। उन्हें कहना चाहिए था कि मैं क्यों इस्तीफा दूं, मेरी निष्ठा पार्टी के प्रति है। कांग्रेस में जाने का फैसला बेटे का मेरा नहीं। मगर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा।

आश्रय को टिकट मिला तो इस्तीफा देंगे अनिल?
उधर बेटे को भी ऐसा ही कहना चाहिए कि मेरे पिता बीजेपी में हैं तो उनका अपना फैसला है और कांग्रेस में जाने का फैसला उनका निजी है। मगर वह यह कहते फिर रहे हैं कि जल्द ही उनके पिता फैसला लेंगे। वह अपने पिता की तरफ से बयान देते घूम रहे हैं। जो बातें अनिल नहीं कह रहे, वह आश्रय कह रहे हैं। न्यूज 18 को दिए इंटरव्यू में आश्रय ने साफ कहा कि एकजुटता से ही हम पिछले चुनाव से सफलता हासिल कर पाए और उचित समय पर वह निर्णय लेंगे। रिपोर्टर ने जब पूछा कि क्या अनिल शर्मा इस्तीफा देंगे, तो आश्रय ने कहा- वह सही समय पर हम फैसला लेंगे। यहां हम शब्द पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।

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बहरहाल, इस इंटरव्यू के दौरान आश्रय ने कहा कि हम सत्ता के भूखे नहीं हैं होते तो सरकार के चार साल बचे हैं और उसी में रहते। उन्होंने कगा कि जहां मान-सम्मान न हो, उस सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा। बहरहाल, सत्ता का भूखा कौन है, कौन नहीं यह तो जनता अपने विवेक से तय करेगी। मगर जिस तरह मंडी में सुखराम परिवार के इर्द-गिर्द ड्रामा चल रहा है, उसपर पर हर किसी की निगाहें टिकी हुई हैं।

आश्रय के लिए ‘इंश्योरेंस’ हैं अनिल शर्मा?
ऐसी चर्चा है कि अनिल खुद इसलिए इस्तीफा नहीं देना चाहते ताकि पार्टी उन्हें हटाए और फिर वह विक्टिम कार्ड खेलकर अपने पिता और बेटे के साथ मिलकर कहें कि अन्याय हो गया मेरे साथ भी। लेकिन इतना तय है कि आश्रय ने संकेत दे दिए हैं कि अगर उन्हें टिकट मिल जाता है तो पिता बीजेपी छोड़कर उनके साथ प्रचार में जुट जाएंगे। और अगर नहीं मिलता है तो अनिल शर्मा आराम से भाजपा सरकार में मंत्री बने रहेंगे, बेटा कांग्रेस में रहेगा। ऐसे में हालात यही बनेंगे कि भाजपा के मंत्री पिता कांग्रेसी बेटे के लिए काम करवाकर उसकी राजनीतिक जमीन को मजबूत करेंगे। और बीजेपी मूकदर्शक बनी रहेगी और मंडी के अपने वफादार कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज करती रहेगी। ऐसा हुआ तो इसका नतीजा यह होगा कि फिर मंडी पर सुखराम फैमिली का राज बना रहेगा जो जरूरत के हिसाब से पाले बदलने के लिए जाना जाता है।

(लेखक लंबे समय से हिमाचल से जुड़े विषयों पर लिखते रहते हैं. उनसे kalamkasipahi @ gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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