हारकर ध से धामी तो बन गए सीएम, पर ध से धूमल क्यों नहीं बने थे?

पुष्कर सिंह धामी (बाएं) और प्रेम कुमार धूमल

सुऱेश चंबियाल।। पुष्कर सिंह धामी चुनाव हारने के बावजूद उत्तराखंड के सीएम बने रहेंगे। इसी तरह चर्चा है कि केशव प्रसाद मौर्य को भी हारने के बावजूद यूपी का डेप्युटी सीएम बनाया जा सकता है। अब हिमाचल प्रदेश में एक बड़ा वर्ग यह सवाल करने लगा है कि भारतीय जनता पार्टी जब उत्तराखंड और यूपी में किसी हारे हुए नेता को फिर अवसर दे सकती है तो 2017 में ऐसा हिमाचल प्रदेश में क्यों नहीं किया गया।

हिमाचल प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी तो सत्ता में आ गई थी मगर उसके सीएम कैंडिडेट प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए थे। उस समय धूमल समर्थकों ने मांग की थी उन्हें फिर से सीएम बनाया जाए। कुछ विधायकों ने उनके लिए अपनी सीट छोड़ने की भी पेशकश की थी ताकि वहां से होने वाले उपचुनाव में धूमल जीत सकें। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने ऐसा नहीं किया और नए चेहरे के तौर पर जयराम ठाकुर को सीएम बनाया।

अब जबकि उत्तराखंड में चुनाव हारे हुए पुष्कर सिंह धामी को बनाया जा रहा है तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि जब उत्तराखंड में ऐसा किया जा सकता है तो हिमाचल में ऐसा क्यों नहीं किया गया? बहुत से लोग सोशल मीडिया पर इस संबंध में सवाल उठा रहे हैं। कुछ इसे पार्टी के दोहरे मापदंड भी बता रहे हैं। लेकिन बारीकी से अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट होता है हिमाचल में 2017 के चुनावों और उत्तराखंड के 2022 के चुनावों की आपस में तुलना नहीं की जा सकती।

पहली बात तो यह है कि पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में पार्टी ने सत्ता विरोधी लहर यानी ऐंटी-इनकमबेंसी को मात देकर फिर सरकार बनाई है। वह भी तब, जब धामी को चुनाव से कुछ समय पहले ही सीएम बनाया गया था। जबकि हिमाचल में प्रेम कुमार धूमल दो बार मुख्यमंत्री रहे और दोनों बार पार्टी सत्ता विरोधी लहर के कारण बुरी तरह हारी थी। ऐसे में पार्टी का मानना था कि अगर फिर किसी तरह उन्हें सीएम बना दिया जाता है तो क्या गारंटी कि आगमी चुनावों में वह पार्टी को सत्ता में ले आते। जबकि केशव प्रसाद मौर्य और धामी के मामले में पार्टी सत्ता विरोधी लहर को मात देकर जीती है।

अगर हिमाचल की बात करें तो राजनीतिक पंडितों का मानना है कि यह धूमल के समर्थकों की दी थ्योरी है कि 2017 का चुनाव भाजपा ने धूमल के कारण जीता था। अधिकतर राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 2017 का चुनाव सीट वाइज़ समीकरणों पर हुआ था। उस चुनाव में जहां कांग्रेस की सरकार के खिलाफ जनता में रोष था, वहीं मोदी लहर का भी अहम फैक्टर था।

विशेषज्ञों के अनुसार अगर प्रदेश में बीजेपी को धूमल के नाम पर अगर वोट पड़ रहे थे तो क्यों खुद धूमल, उनके समधी गुलाब सिंह ठाकुर, करीबी रविंद्र रवि, बदलेव शर्मा, सतपाल सत्ती और रणधीर शर्मा को नहीं पड़े? ये बातें दिखाती हैं कि हर सीट पर उस सीट के ही समीकरणों के आधार पर वोट पड़े, न कि किसी व्यक्ति के नाम पर। जैसे कि कांगड़ा से दिवगंत जीएस बाली और सुधीर शर्मा व मंडी से कौल सिंह जैसे बड़े नेता भी सीट वाइज समीकरणों से हारे थे।

कमोबेश यही स्थिति हर सीट की थी। ऐसा नहीं था कि वहां की जनता ने प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री बनाने के लिए भाजपा का साथ दिया। उल्टा बीजेपी तो धूमल के खास प्रभाव वाले हमीरपुर और ऊना जिलों में भी कांग्रेस से पिछड़ गई थी। विश्लेषकों का कहन है कि अगर प्रदेश भर में किसी एक चेहरे के नाम पर पड़ रहे होते तो बीजेपी पहले के चुनावों में ही सरकार रीपीट करवा चुकी होती।

वहीं धामी के मामले में एक और फैक्टर अहम माना जा रहा है। वह है उम्र। 2014 में प्रेम कुमार धूमल 74 वर्ष के थे। चूंकि पार्टी दीर्घकालिक योजना पर काम करती है, संभवत: इसीलिए उसने अपेक्षाकृत कम उम्र के नए चेहरे को सीएम बनाया ताकि अगले चुनावों में फिर कोई नया चेहरा न तलाशना पड़े। यही बात उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी के पक्ष में जाती है जो अभी 44 वर्ष के हैं और सीएम रहते हुए पार्टी को सत्ता में भी लाए हैं। संभवत: इसीलिए उन्हें मौका दिया गया है।

(लेखक हिमाचल प्रदेश के राजनीतिक विषयों पर लंबे समय से लिख रहे हैं।)

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