कार्यकर्ताओं को ठेंगा दिखाकर उपचुनाव में वंशवाद पर चलतीं बीजेपी-कांग्रेस

सुरेश चम्बयाल।। हिमाचल प्रदेश की राजनीति में 2020-21 वर्ष बहुत दुखद रहा। कद्दावर नेता वीरभद्र सिंह समेत दो विधायको फतेहपुर से सूजन सिंह पठानिया और जुब्बल कोटखाई से नरेंद्र बरागटा के निधन के साथ, मंडी से सांसद रामस्वरूप शर्मा के निधन से खाली हुई सीटों पर अब उप चुनाव होना है।

चूंकि, राज्य सरकार का यह चौथा वर्ष चल रहा है, ऐसे में चार सीटों का चुनाव एक तरह से आगामी विधानसभा का सेमी फाइनल माना जा रहा है। दोनों दल भाजपा-कांग्रेस अपनी पूरी ताकत इस सेमीफाइनल को अपने पक्ष में करने के लिए कर रहे हैं।

बेशक दोनों दल कैडर और कार्यकर्ताओं फौज की हुंकार भरते रहे है। परंतु उपचुनाव में खासकर विधानसभा में  दिवगंत नेताओं के परिवार से बाहर किसी आम कार्यकर्ता को आगे करने हिम्मत दिखाते हुए नहीं दिख रहे हैं।

फतेहपुर की बात की जाए तो स्वर्गीय पठानिया के बेटे भवानी पठानिया पर ही कांग्रेस दांव खेलती नजर आ रही है। हालांकि यही भवानी कभी परिवारवाद की राजनीति पर खुले आम कटाक्ष करते रहे हैं। मीडिया में ऐसी न्यूज कतरन भी शेयर की जा रही है, जिनमें भवानी पठानिया ने परिवारवाद की राजनीति का मुखर विरोध कभी किया था।

भवानी का हालांकि राजनीति से कभी कोई वास्ता नहीं रहा है। अच्छे पैकेज पर निजी बैंकिंग संस्थान में भवानी उच्च पद पर हैं। परंतु समय की करवट और पार्टी का दृष्टिकोण ऐसा है कि अपनी ही कही बात के विरुद्ध अब उन्हें चुनाव में उतरना पड़ सकता है।

दूसरी तरफ अक्सर कांग्रेस को परिवारवाद पर निशाने पर लेनी वाली भाजपा जुब्बल कोटखाई में स्वर्गीय नरेंद्र बरागटा के बेटे चेतन बरागटा पर दांव खेलेगी। संभवतः यही फिलहाल नजर आ रहा है। हालांकि भवानी की तरह चेतन राजनीति से दूर नहीं है बल्कि पार्टी कैडर में सोशल मीडिया सेल का चार्ज देख रहे हैं।

अकस्मात रूप से उत्पन परिस्थितियों में चेतन ने जुबल कोटखाई में अपनी सक्रियता बढ़ाई है। अन्यथा बीते वर्षों पर गौर किया जाए तो चेतन पिता की सीट जुब्बल कोटखाई की जगह शिमला शहरी में ज्यादा सक्रिय हो रहे थे। कोरोना काल में भी उनका समाज सेवा से जुड़ा अभियान जुब्बल कोटखाई की जगह शिमला शहर में ज्यादा फ़ोकस रहा था। इस कारण मंत्री सुरेश भारद्वाज और बरागटा परिवार के बीच कड़वाहट भी देखी गई थी।

सुरेश भारद्वाज ने भी जुब्बल कोटखाई में इसी कारण अपना हस्तक्षेप बढ़ा दिया था और बरागटा विरोधी नेत्री नीलम सरैक जो पार्टी में हाशिये पर थी उन्हें दोबारा पार्टी की मुख्यधारा में लाया था।

पूर्व मूख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के निधन से खाली हुई अर्की सीट अभी चर्चा से बाहर है। दोनों पार्टियों की ओर से अभी इस सीट पर कोई दावेदारी आगे पेश नहीं की गई है।

चूंकि मंडी लोकसभा सीट पर भी उपचुनाव है इसलिए बीच बीच में यह कयास निकलकर आ रहे हैं कि वीरभद्र परिवार से कोई चुनाव लड़ने के लिए आगे आता है तो उनके पास अर्की से विधानसभा या मंडी से लोकसभा दोनों ऑप्शन रहेंगी।

जाहिर सी बात है कि वीरभद्र सिंह परिवार की बात हो रही है तो पूर्व सांसद प्रतिभा सिंह के ऊपर ही कयास लगाए जा रहे है। हालांकि वीरभद्र की पुत्रबहु और विधायक विक्रमादित्य सिंह की धर्मपत्नी बेशक राजस्थान से है, पर अर्की से उनका ननिहाल का नाता है।

भाजपा यहाँ से रत्न पाल सिंह को आगे लाती है जो पिछला चुनाव हार चुके है या दो बार के विजेता रहे गोविंद राम को फिर मौका देती है यह भविष्य के गर्भ में है। कांग्रेस से संजय अवस्थी भी अपने टिकट की राह अर्की से लंबे अरसे से देख रहे है। यह संभव हो पाता है तो कम से कम यह सीट परिवारवाद से दूर रहेगी।

मंडी सीट पर अभी दोनों तरफ से सन्नाटा है। भाजपा में जहां कुछ नाम ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर, अजय जम्वाल, बिहारी लाल शर्मा आदि के रूप में सामने आते रहते है। वहीं कांग्रेस से कोई खास खबर निकलकर नहीं आती है। ऐसा लगता हैं कांग्रेस इस सीट को अपने लिए बहुत टफ मानकर चली हैं। वहीं कांग्रेस के कद्दावर नेता कौल सिंह आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए इस सीट से लोकसभा लड़ने को लेकर सहज नहीं है।

फिर भी कांग्रेस के बीच का ही एक धड़ा कौल सिंह को इस सीट से सबसे सशक्त बताकर चुनाव लड़वाना चाहता है।
इससे इतर वीरभद्र परिवार की लोकसभा हेतु पारंपरिक सीट रही मंडी पर लोगों का यह भी मानना है कि अगर प्रतिभा सिंह इस सीट से लड़ती है तो भाजपा को यह बहुत बड़ी चुनौती होगी।

उपरोक्त नामों के अलावा भाजपा में यह भी चर्चा निकलकर आई है कि जे पी नडडा के हिमाचल दौरे में उन्होंने स्पष्ट किया है कि मंडी सीट से उम्मीदवार को लेकर जब भी पैनल बने चर्चा हो तो उसमें महिला का नाम भी रखा जाए।

गौरतलब है कि मोदीरीत भाजपा पार्टी में महिलाओं को  आगे बढ़ाने की दिशा में काम कर चुकी है। इस आधार पर भाजपा नेत्री पायल वैद्य और रिवालसर से जिला पार्षद जीतकर आई प्रियन्ता शर्मा पर भाजपा संगठन विचार कर सकता है।

परिवारवाद की बात की जाए तो मंडी सीट से दिवगंत सांसद के बेटे शांति स्वरूप ने भी अपनी दावेदारी ठोकी है। मंडी अर्की को फिलहाल छोड़ दिया जाए तो फतेहपुर और जुब्बल कोटखाई सीट से दोनों पार्टियां अपने कैडर पर नहीं बल्कि सहानुभूति की लहर पर जीत की आस लेकर चली हैं।

अंदरखाते इस कारण उनके अपने ही कैडर में यह चर्चा भी छिड़ी है कि परिवार में ही विरासतें आगे सौंपी जाती रही तो आम कार्यकर्ता का नम्बर कब आएगा जो विधानसभा जाने की चाहत के साथ इस पेशे में जुड़े हैं।

हलांकि यह कोई नई परिपाटी नहीं है, इतिहास में भी यही होता रहा है। उपचुनावों में अक्सर आम कार्यकर्ता को नजरअंदाज करके परिवार में ही विरासतें सौंपने का दांव खेला जाता रहा है। ऐसा नहीं है की सहानुभूति की लहर की आस में खेला गया यह दांव हमेशा सटीक बैठा हो। असफलता के भी उदाहरण है।

बीते दशकों की बात की जाए तो 1993 में स्वर्गीय जगदेव ठाकुर के निधन के बाद उनके बेटे नरेंद्र ठाकुर को भाजपा ने उम्मीदवार बनाया था। 1998 में पंडित संत राम के निधन के बाद सुधीर शर्मा को कांग्रेस ने, 2006 में हरिनारायण सैनी के निधन के बाद उनकी धर्मपत्नी, 2011 में रेणुका सीट से विनय शर्मा पिता के निधन के बाद चुनाव हार गए थे।

आगामी उपचुनावों में यही देखना है कि कौन सा दल सहानुभूति से उपजे परिवारवाद को कितना भुना पाता है।
हालांकि यह सवाल तो बना रहेगा कि बृहद कैडर का दम भरने वाले दोनों दल, आम कार्यकर्ता को नजरअंदाज कर क्यों परिवारवाद में ही जीत की राह तलाशते हैं ?

(नोट: यह लेखक के निज़ी विचार है)

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