मयंक जरयाल।। पिछले महीने हिमाचल प्रदेश में 1195 पदों के लिए पटवारी की भर्ती परीक्षा हुई जिसमें प्रदेश के हजारों डिप्लोमा और डिग्रीधारक इंजीनियरों ने भी भाग लिया। बेरोज़गार इंजीनियरों पर जहां सोशल मीडिया पर चुटकुले, मीम शेयर कर उनकी दुर्दशा का ख़ूब मखौल उड़ाया गया, वहीं समाज के एक वर्ग ने उनके माथे पर महत्वाकांक्षाहीन तक लिख दिया।
क्या सच में प्रदेश के डिप्लोमा- डिग्रीधारी इंजीनियर महत्वाकांक्षाहीन हैं? इंजीनियरों की इस दुर्दशा के क्या कारण हैं? क्या वजह है कि वे इंजीनियरिंग सर्विसेज, गेट और एसडीओ की परीक्षाएं न दे कर तृतीय व चतुर्थ श्रेणी के पदों पर अवेदन कर रहे हैं? इन सवालों का जवाब तलाशने की किसी ने कोशिश नहीं की।
क्यों है यह हालत
2003 में भारत सरकार ने पूर्व इसरो चेयरमैन यू.आर राव की अध्यक्षता में ‘देश में तकनीकी शिक्षा के हालात’ का जायज़ा लेने के किए एक कमेटी गठित की थी। उसी कमेटी की रिपोर्ट में राव साहब ने चेताया था कि अगर इसी गति से धड़ाधड़ इंजीनियरिंग शिक्षण संस्थान खुलते रहे तो निकट भविष्य में देश में इंजीनियरों की बाढ़ आ सकती है, जिसके अंजाम ठीक नहीं होंगे। राव साहब का कहना था कि जिस तेज़ी से इंजीनियर मैनुफैक्चर करने की फैक्ट्रियां खोली जा रही हैं, उस गति से देश में रोजगार के अवसर उत्पन्न नहीं हो रहे हैं।
राव कमेटी ने स्थिति काबू में लाने के लिए कुछ सुझाव सरकार को दिए थे जैसे-
● प्रति दस लाख की जनसंख्या पर इंजीनियरिंग की 350 सीटों से ज़्यादा किसी भी सूरत में हों (तब राष्ट्रीय औसत 150 सीटों का था)।
● फैकल्टी में केवल पीएचडी किये हुए शिक्षक ही नियुक्त किए जाएं ताकि शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट न आए।
● नए कॉलेज और सीटें आवंटित करने पर सरकार सख़्त रवैया अपनाए।
● जिन कॉलेजों में फैकल्टी व इंफ्रास्ट्रक्चर उपयुक्त नहीं है उन्हें तत्काल बन्द कर दिया जाए और अगले 5 साल कोई नए कॉलेज न खोले जाएं।
पर अफ़सोस भारत सरकार ने महान अंतरिक्ष वैज्ञानिक और आर्यभट्ट सैटेलाइट मिशन के वास्तुकार रहे प्रोफ़ेसर यू.आर राव के सुझावों को दरकिनार करते हुए अगले 10-12 साल में देश के हर नुक्कड़, हर गली मोहल्ले में इंजीनियरिंग कॉलेज खोल दिए।
हिमाचल प्रदेश इसका जीता जागता उदाहरण है। हिमाचल प्रदेश तकनीकी विश्विद्यालय से मान्यता प्राप्त 17 कॉलजों के अलावा अकेले इस छोटे से प्रदेश में 18 निजी विश्विद्यालय हैं। जिनमें से 10 अकेले सोलन जिले में हैं। उनमें भी 4 एक ही ग्राम पंचायत में! अधिकांश कॉलेजों में निम्न स्तर की शिक्षा प्रदान की जा रही है।
जहां 2004 में देश में 1500 इंजीनियरिंग कॉलेज थे वहीं 2016 तक आते आते कॉलेजों की संख्या 3415 पहुंच गई। 2005 में देश में इंजीनियरिंग की 5 लाख सीटें थी जो 2015 तक आते आते साढ़े 16 लाख हो गईं। इंजीनियरों की घटती मांग के बावजूद किसी मंदिर में लगे भण्डारे में बांटे जाने वाले हलवे के प्रसाद की भांति सीटें आवंटित की जाती रहीं।
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राव कमेटी के सुझाव न मानने का नतीजा क्या हुआ?
ये बेरोज़गार इंजीनियरों की विशाल फ़ौज राव कमेटी के सुझावों को न मानने का ही नतीजा है। एस्पायरिंग माइंड्स कम्पनी के 2018 के राष्ट्रीयव्यापी स्तर पर हुए सर्वे के बाद देश में बहुत हो-हल्ला हुआ था। उस सर्वे के अनुसार देश के-
● 95% इंजीनियर कोडिंग के लिए अनुपयुक्त हैं। मतलब हर साल तैयार हो रहे 15 लाख में से लगभग सवा 14 लाख।
● केवल 1.4% इंजीनियर कंपाइल होने वाला कोड लिख सकते हैं।
● Tier 1 कॉलेजों की तुलना में Tier 3 कॉलेजों के विद्यार्थियों की कोडिंग स्किल्स 5 गुना बद्तर है।
अगर बेरोज़गार इंजीनियरों को एक अगर धर्म घोषित कर दिया जाए तो जनसंख्या के आधार पर ये हिन्दू धर्म और इस्लाम के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा धर्म होगा। हास्यास्पद लगने वाली ये बात बेहद निराशाजनक है।
जाहिर कारणों की वजह से निजी कंपनियों में अच्छी नौकरी प्राप्त करने में असफ़ल रहने के बाद बेरोज़गार इंजीनियरों का यह वर्ग जब तकनीकी रूप से अक्षम रह जाता है तो निराश हो कर सरकारी नौकरियों की तरफ़ रुख करता है जहां वह रोज़गार और बेहतर भविष्य की तलाश में चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों से भी गुरेज नहीं करता।
हां ये बात सच है कि मेहनत करने पर हालात और स्थिति को बदला जा सकता है। समाज में हमारे आसपास ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ तमाम मुश्किलों के बावजूद होनहार छात्रों ने सफ़लता हासिल की है। लेकिन इतने निम्न स्तर की तकनीकी शिक्षा ग्रहण करने के बाद अधिकांश डिग्रीधारक खुद को इंजीनियरिंग सर्विसेज और गेट जैसी परीक्षाओं के लिए अनुपयुक्त पाते हैं। अंततः निराश हो कर तृतीय व चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरियों का रुख करते हैं।
पिछले साल भारत सरकार ने आईआईटी हैदराबाद चेयरमैन बी. वी. आर. मोहन रेड्डी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की थी देश में ‘इंजीनियरिंग शिक्षा हेतु लघु और मध्यम अवधि की योजना’ पर AICTE को सिफारिशें प्रदान करने के लिये। इस कमेटी की रिपोर्ट चिल्ला चिल्ला कर कहती है कि,
● 2020 से नए इंजीनियरिंग कॉलेज न खोले जाएं।
● सिविल, मेकैनिकल, इलेक्ट्रिकल जैसे परम्परागत पाठ्यक्रमों में तो ख़ास कर सीटें बढ़ाने की अनुमति बिल्कुल न दी जाए।
● इसकी जगह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, ब्लॉकचैन, रोबोटिक्स, क्वांटम कंप्यूटिंग, डेटा साइंसेज, साइबर स्पेस, 3डी प्रिंटिंग और डिज़ाइन जैसी उभरती तकनीकों पर अंडरग्रेजुएट स्तर पर पाठ्यक्रम शुरू किए जाएं।
अभी भी देर नहीं हुई
खराब बुनियादी ढाँचे, संबंधित उद्योगों से जुड़ाव और प्रयोगशाला की कमी जैसी समस्याओं से जूझ रहे देश के अधिकांश निजी शिक्षण संस्थानों में फीस तो भारी भरकम वसूलते हैं, लेकिन यहां इंटर्नशिप और रोज़गार का कोई प्रबन्ध नहीं होता है।
अधिकांश शैक्षिक संस्थानों में नवाचार, इन्क्यूबेशन और स्टार्ट-अप के लिये उचित माहौल का अभाव है। जिस कारण से स्वरोजगार के क्षेत्र में भी अभी उतनी सफलता हाथ नहीं लग पाई है।
लिहाज़ा अंडर-ग्रेजुएट्स के लिये उद्यमिता ऐच्छिक पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिये। संस्थानों को इन्क्यूबेटर सेंटर, मेंटर क्लब और एक्सेलरेटर प्रोग्राम शुरू करने की भी आवश्यकता है।
जैसे डॉक्टरी में इंटर्नशिप व चार्टर्ड अकाउंटेंट में आर्टिकलशिप अनिवार्य है, उसी तरह इंजीनियरिंग में भी उच्च स्तरीय इंटर्नशिप की आवश्यकता है जिससे प्रायोगिक शिक्षा प्रदान कर कौशल विकास में मदद मिले।
आए दिन अखबारों में कभी इंजीनियरों के कोयम्बटूर नगर निगम में सफ़ाई कर्मचारी तो कभी उत्तर प्रदेश में चतुर्थ श्रेणी के पदों के लिए आवेदन करने की खबरें निराश करती हैं।
दिवंगत प्रोफेसर यू. आर राव आज जीवित होते तो तकनीकी शिक्षा की ऐसी दुर्दशा देख बेहद निराश होते।
AICTE द्वारा रेड्डी कमेटी की सिफारिशें मान ली गई हैं। उम्मीद है कि आने वाले समय में तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में जिस व्यापक सुधार की आवश्यकता है उसमें हम कुछ हद तक सफ़ल हो पाएंगे।
(लेखक चंबा जिले के रहने वाले हैं। इलेक्ट्रिकल इंजिनियरिंग में बीटेक करने के बाद प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी कर रहे हैं। ट्रेकिंग और ट्रैवल राइटिंग में रुचि रखने वाले मयंक के यात्रा वृतांत उनके ब्लॉग ‘हिमालयन फ़ेरीटेल‘ पर पढ़े जा सकते हैं।)
ये लेखक के निजी विचार हैं