हिमाचल के युवा नकारा हैं नहीं मगर बना दिए गए हैं

नवनीत शर्मा।। कई बार ख्याल आता है कि अगर बिहार, राजस्थान, कश्मीर और कुछ हद तक उत्तर प्रदेश न हों तो हिमाचल प्रदेश का क्या बने? नेपाल न हो तो सेब की आर्थिकी कौन संभाले? भवन निर्माण से लेकर सेब के बाग संभालने तक, रंग रोगन करने से लेकर दर्जी का काम… कृषि का काम और हज्जाम का काम कौन करेगा? शिमला की बर्फ में पांव धंसा कर पीठ पर गैस का सिलेंडर उठा कर कौन चलेगा? हिमाचल प्रदेश को इनका आभारी होना चाहिए। लेकिन हिमाचल प्रदेश के समाज का एक हिस्सा अपने ही होने के प्रति आभारी नहीं है, इनका आभार क्यों व्यक्त करेगा?

यह उस प्रदेश की बात है जहां बेरोजगारों की संख्या साढ़े आठ लाख के करीब दर्ज बताई जाती है। जहां सरकारी नौकरी को जीने की पहली शर्त माना जाता है। एक व्यक्ति पीएचडीधारक है…एक एमएससी है…एक एमफिल है…एक इंजीनियर है…. ये कोई काम नहीं करते सिवाय इसके कि पटवारी की परीक्षा के लिए आवेदन करें…। सचिवालय में अगर चतुर्थ श्रेणी का पद विज्ञापित हो तो उसके लिए आवेदन करना भी इनका अधिकार है। लेकिन स्वरोजगार ऐसा शब्द है जिसका नाम लेना गवारा नहीं है। यही त्रासदी है हिमाचल की। यहां इस बात पर समाज का हिस्सा अवश्य शोर उठाएगा कि प्रवक्ताओं की भर्ती में बाहर के लोगों को शामिल क्यों किया गया। आपत्ति इस पर भी हो सकती है कि तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पदों में झारखंड के लोग क्यों आए? लेकिन इस बात का जवाब ऐसी मानसिकता के पास नहीं है कि हिमाचल प्रदेश प्रशासनिक सेवा परीक्षा में 27 में से चार पद क्यों रिक्त रहे हैं। जाहिर है स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रित और सामान्‍य वर्ग से संबद्ध पूर्व सैनिक वाली श्रेणी के लिए ‘उपयुक्त अभ्यर्थी’ ही नहीं मिले।
मिलने में संकट उत्पन्न होना ही था, क्योंकि जब बिना प्रतियोगिता के प्रवक्ता का पद भाता हो, जब सपना तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पद हों…. एचएएस यानी हिमाचल प्रशासनिक सेवा तो बहुत दूर की बात हो गई न।

आदर्शविहीनता को दोष देना बहुत आसान है पर आदर्शविहीनता है नहीं। अपने आसपास आदर्श हैं लेकिन श्रम और समय के सम्मान का संकट है। वरना सराज घाटी की छतरी पंचायत का निशांत सरकारी स्कूल में पढ़कर भी इस पद पर पहुंच जाए तो जाहिर है… उसने अभाव का रोना नहीं रोया बल्कि पिछले वर्ष खंड विकास अधिकारी का पद पाकर भी मेहनत जारी रखी और इस बार एसडीएम या उपमंडल मजिस्टे्रट बनकर ही सुकून पाया। बेहद साधारण पृष्ठभूमि है… पिता स्टेट सीआइडी में इंस्पेक्टर हैं, माता गृहिणी हैं। जिसके पास दृष्टि है, उसके लिए बेरोजगारी का मतलब ही क्या है? और अगर बेरोजगारी है ही तो फिर हिमाचली युवाओं को बाहर का छोड़ें, घर का काम करने में भी परेशानी क्यों है? जब कौशल नहीं होगा तो बेरोजगारी स्वत: होगी।

हिमाचल प्रदेश में समाज के अलावा शासकों की भी बड़ी भूमिका रही है। 45 साल तक सरकारी नौकरी के लिए आवेदन किया जा सकता है। इस मृगतृष्णा में जीवन के हरे वर्ष अतीत हो चुके होते हैं। इन्वेस्टर्स मीट का आयोजन संभवत: इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ेगा और हल भी दे सकता है लेकिन श्रम के सम्मान को किस पाठ्य पुस्तक में पढ़ाया जाता है।

पर्यटन और बागवानी के अलावा पशुपालन में बेहद संभावना है लेकिन कोई यह भी तो बताए कि करना चाहता कौन है? यह गरीबी रेखा के लिए कैसा आकर्षण है कि सरकारी कागजों में उसकी छांव सबको भली लगती है। सब उसे ओढऩा चाहते हैं! अकर्मण्यता की बर्फ क्या इतनी सर्द होती है कि पुरुषार्थ का ताप उस तक पहुंच ही नहीं पाता? यह कौन सी पीएचडी है कि हिंदी में प्रार्थनापत्र ही गलतियों से लैस हो ? किस जज्बे की इंजीनियरिंंग है कि पटवारी बनना स्वीकार है? कौन सा आत्मसम्मान है कि दिल्ली के ढाबे में काम करना आसान है लेकिन गांव में दो गाय नहीं पाली जा सकती? यह कौन सी समझ है कि चोर रास्ते से दुबई या कहीं और जाने के चक्कर में जीवनभर की कमाई लुटाई जा सकती है लेकिन पर्यटकों के लिए होटल या रेस्तरां नहीं खोला जा सकता? व्‍यवस्‍था सहयोग न करे तो शोर मचाया जाए। तकलीफ जाहिर की जाए।

इस सबके आलोक में अब बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और नेपालियों के श्रम के बिना हिमाचल को देखें और कल्पना करें कि क्या हम कुशल हैं? श्रम का सम्मान करते हैं? किसी स्कूल में एनएसएस के स्वयंसेवी परिसर की सफाई करें या बावड़ी का पानी बचाने की कोशिश करें तो राई का पहाड़ और तिल का ताड़ बन जाता है..। हिमाचल के सब संसाधनों का माकूल दोहन हो जाएगा अगर अभिभावक और अध्यापकों के साथ जनप्रतिनिधि भी इन्सानसाजी सीख लें। यह क्या समझ है कि हर जनप्रतिनिधि हैंडपंप या महिला मंडल को चिमटे, ढोलकी और गिलास देने को तत्पर रहता है लेकिन पूरे स्काउट्स एंड गाइड जैसे संगठन के पास अपना प्रशिक्षण भवन अब तक नहीं है। यही प्राथमिकताएं पहचानी जाएं तो सपने सीधे होंगे। अकर्मण्यता और असमंजस में जीने वालों के सपने कहां से सुहाने होंगे?

यह समय आबिद अदीब के इस शे’र को पढ़ने का है:

जहां पहुंच के कदम डगमगाए हैं सबके
उसी मकाम से अब अपना रास्ता होगा

(लेखक ‘दैनिक जागरण’ हिमाचल प्रदेश के संपादक हैं। यह लेख उनके स्तम्भ ‘खबर के पार’ का विस्तृत संस्करण है।)

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