आई.एस. ठाकुर।। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का वह करीबी नेता जिसे कुछ विश्लेषक हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का भविष्य मानते थे, आज राजनीति में हाशिये पर खड़ा नजर आ रहा है। नाम है सुधीर शर्मा। अपने समय के दिग्गज कांग्रेसी नेता पंडित संतराम के बेटे सुधीर शर्मा को राजनीति बेशक विरासत में मिली मगर उनकी राह कभी आसान नहीं रही। मगर इस राह में उन्हें उंगली पकड़कर चलना सिखाया खुद वीरभद्र सिंह ने जो राजनीति के खेल के माहिर खिलाड़ी हैं। मगर जो लोग सुधीर शर्मा को वीरभद्र की राजनीतिक विरासत का उत्तराधिकारी समझ रहे थे, आज वे निराशा में डूबे हैं। कारण- सुधीर शर्मा का धर्मशाला उपचुनाव लड़ने से इनकार और पार्टी का वहां से नया चेहरा उतारना।
2017 विधानसभा चुनाव में किशन कपूर से हार का सामना करने के बाद सुधीर शर्मा के पास मौका था कि वह फिर से उस जनता से खुद को जोड़ते जिसने चुनावों में उनसे मुंह मोड़ लिया था। राजनीति का चतुर खिलाड़ी यही करता है। वह हार होने पर मनोबल गिराकर बैठ नहीं जाता। वह अपने लोगों की हिम्मत बढ़ाता है, उनके जरिये लोगों से मिलता है और पूरी विनम्रता से यह दिखाने की कोशिश करता है कि उसे जनता का फैसला बेशक मंजूर है मगर वह गलती को नहीं दोहराएगा और कमियों को दूर करने के लिए तैयार है। यह भरोसा हार के साथ ही शुरू हो जाना चाहिए और अगले चुनाव तक चलना चाहिए ताकि फिर चुनाव हो तो आपकी तैयारी पूरी हो।
खो दिया बैठे बिठाए मिला मौका
सुधीर शर्मा सौभाग्यशाली थे कि बीजेपी ने किशन कपूर को लोकसभा का टिकट दिया। अगर सुधीर पहले सक्रिय नहीं हुए थे तो उन्हें उसी समय सक्रिय हो जाना चाहिए था। मगर उस समय सुधीर के लोकसभा चुनाव लड़ने की खबरें आने लगी थीं और उनका भी सुधीर ने खंडन नहीं किया। राजनीतिक आकलन करते तो पता होता कि किशन कपूर का चुनाव जीतना तय है और फिर जो सीट खाली होगी, उस पर उपचुनाव होगा। ऐसा मौका किसे मिलता है? हार के कुछ ही महीनों के बाद फिर से चुनाव लड़ने का अवसर नसीब वालों को ही मिलता है। वरना लोग पांच साल तरसते रह जाते हैं। लेकिन सुधीर तब भी हरकत में नहीं आए। किशन कपूर जीत गए, सीट खाली हो गए, उपचुनाव तय था मगर जो तैयारी उन्हें करनी चाहिए, वह सुधीर ने नहीं की।
फिर चुनाव नजदीक आने लगे तो सुधीर को लेकर ऐसी खबरें आने लगीं कि वह बीजेपी में जा सकते हैं। हो सकता है वह बीेजेपी से मोलभाव भी कर रहे हों। लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि बीजेपी पहले से मजबूत स्थिति में है और वह मोलभाव कर रही है तो सिर्फ आपका टाइम वेस्ट करने के लिए। वह आपको लेगी नहीं क्योंकि उसके अंदर ही विरोध के स्तर उठेंगे कि जब हम पहले ही मजबूत हैं, तो क्यों अपने प्रतिद्वद्वी नेता को मौका दे दें, जिसे हम वैसे ही हरा सकते हैं। लेकिन उसके बाद कांग्रेस के कार्यक्रमों से सुधीर का गायब रहना और फिर कथित तौर पर बहाने बनाना; अब सब समझ आ रहा है।
एक दिन अखबार में एक खबर छपना और फिर अगले दिन उसका खंडन जारी हो जाना। इससे दिनोदिन सुधीर की छवि खराब होती चली गई। कांग्रेस कार्यकर्ताओं की रहा सहा मनोबल टूटा कि जिस बंदे ने चुनाव लड़ना है, वो तो पार्टी से दूरी बना रहा है और कभी उसके बीजेपी में जाने की खबरें आ रही हैं तो कभी वो प्रदेशाध्यक्ष को ही निशाने पर ले रहा है। आखिरकार वही हुआ, जिसका डर था। सुधीर ने चुनाव लड़ने से हाथ खड़े कर दिए और कांग्रेस ने भी नया चेहरा उतार दिया। विजय इंद्र करण कांग्रेस से चुनाव लड़ेंगे। सुधीर शर्मा ने खराब स्वास्थ्य का हवाला दिया है। ईश्वर करे वह जल्द स्वस्थ हों, जो भी उन्हें समस्या है, वह ठीक हो। मगर उन्हें याद करना चाहिए कि कैसे बेहद बुजुर्ग वीरभद्र ने भी मुश्किल हालात में सेहत एकदम ठीक न होने पर भी चुनाव लड़ा था। इसलिए यह सवाल पूछा ही जाएगा और पूछा भी जा रहा है कि आखिर सुधीर शर्मा ने चुनाव न लड़ने का फैसला क्यों लिया और अब उनका राजनीतिक भविष्य क्या होगा?
राजनीतिक गलतियां
सुधीर शर्मा के लिए धर्मशाला की जमीन आसान नहीं थी। प्रचार करते समय बीजेपी के लिए यह कहना आसान रहता था कि सुधीर शर्मा बाहरी कैंडिडेट है। दरअसल पंडित संतराम बैजनाथ के बड़े नेता थे। सुधीर ने 2003 में पहला चुनाव बैजनाथ से ही लड़ा था और यहीं से जीतकर विधानसभा भी पहुंचे थे। 2007 में भी जीते। मगर फिर पुनर्सीमांकन हुआ और बैजनाथ सीट आरक्षित हो गई। फिर वीरभद्र ने सुधीर को धर्मशाला से उतारा और 2012 में वह धर्मशाला से जीते भी। वीरभद्र सरकार में शही विकास मंत्री भी रहे मगर 2017 में हार का सामना करना पड़ा। हार के कई कारण रहे। बीजेपी की लहर, किशन कपूर के स्थानीय गद्दी समुदाय के मतदाताओं की संवेदना, आसपास के प्रभावी कांग्रेस नेताओं का दखल और अपने रवैये से लोगों में नाराजगी।
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अपने इलाके में लोगों का नाराज रहना सामान्य बात है क्योंकि आप हर किसी को खुश नहीं कर सकते, प्रदिद्वंद्वी उम्मीदवार के प्रति संवेदना या उसका समर्थन होना भी स्वाभाविक है क्योंकि वह राजनीति में है तो उसका प्रभाव होगा ही। इन सबसे आप निपट सकते हैं मगर अपनी ही पार्टी के नेता आपकी जड़ें खोदने लगें तो आप नहीं बच सकते। सुधीर शर्मा के साथ ऐसा ही हुआ। सुधीर की हार के कारणों में एक बात यह भी थी कि वह कांगड़ा के नेताओं से अलग हमेशा वीरभद्र के वफादार रहे और इसके लिए उन्होंने अपने आसपास के क्षेत्रों में उभर रहे नेताओं से दुश्मनी मोल ली। बड़े नेताओं का आसपास के क्षेत्रों में प्रभाव होता ही है। 2017 में यही हुआ और उन नेताओं ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए सुधीर शर्मा की जीत की संभावनाओं पर पानी फेर दिया।
हिमाचल की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले वीरभद्र सिंह के प्रति निष्ठा के कारण सुधीर ने क्षेत्रीय नेताओं से यह दुश्मनी मोल ली थी। मगर उसी चाणक्य से वह सही शिक्षा लेते तो उन्हें पता होता कि राजनीति में आगे बढ़ना है तो पहला काम यह कहना है कि कूटनीति के तहत आसपास के नेताओं से ही संबंध ठीक रखने हैं ताकि वे आपकी राह में रोड़े न डालें। मगर सुधीर न पहले इस बात को समझ पाए थे और न अब समझे। उनके फिर से चुनाव न लड़ने के पीछे भी यही कारण था कि उन्हें लगता था कि फिर कांग्रेसी नेता उन्हें हराने में जुट जाएंगे। उनके अंदर जीत के लिए आत्मविश्वास ही पैदा नहीं हुआ। मगर राजनीति में कई बार लंबे गेम के तहत चुनाव लड़ने पड़ते हैं, भले आपको अपनी हार तय दिख रही हो।
धर्मशाला से तोड़ दिया नाता?
एक बार सुधीर शर्मा धर्मशाला से चुनाव हार गए और इस बार उन्होंने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। यानी उन्हें भरोसा नहीं कि धर्मशाला की जनता उन्हें फिर जिताने के मूड में है। और यही मेसेज आपने जनता को दे दिया कि सुधीर अब धर्मशाला से जीत के लिए आश्वस्त नहीं है। तो अब आप भूल जाइए कि 2022 में आपको पार्टी टिकट दे देगी और अगर कोई गोटी बिठाकर टिकट मिल भी गया तो उम्मीद छोड़ दीजिए कि जनता आपको जिता देगी। बीजेपी के लोग याद दिलाएंगे कि यह वही नेता है जिसने 2019 में चुनाव लड़ने से पहले ही मैदान छोड़ दिया था। और जब धर्मशाला में आप अपनी संभावनाएं अभी खत्म कर रहे हैं तो फिर कहां जाएंगे? बैजनाथ जाने से तो आप रहे। फिर कोई नया इलाका ढूंढेंगे?
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ऐसा लग रहा है कि सुधीर खुद ही जाकर राजनीतिक कुल्हाड़ी पर कूद गए हैं। अगर वह इस उपचुनाव को लड़ते तो उनके पास मौका होात जनता का विश्वास जीतने का। वो ढंग से कैंपेन करते कि मैं आपकी आवाज रहा हूं पहले भी इस बार भी विधानसभा में आपके मुद्दों के लिए लड़ूंगा। आप कहते कि यहां से अगर बीजेपी का जीतता है तो वह तो मंत्री बनेगा नहीं, तो मुझे ही जिताइए ताकि मैं अपने राजनीतिक अनुभव को इस्तेमाल करते हुए विधायक निधि से भी काम करवा सकूं और स्मार्ट सिटी के लिए केंद्र से आ रहे पैसे का सही उपयोग करवाकर अपने इलाके के लिए बहुत कुछ कर सकूं।
ढंग से चुनाव लड़ा जाता और तैयारी शुरू से की होती तो चुनाव जीतना आसान था। क्योंकि आपके सामने बीजेपी का भी नया ही चेहरा होता। मगर आपने युद्ध से पहले हथियार डाल दिए और धर्मशाला में अपनी जमीन खुद सामने वालों को सौंप दी और शायद इसी के साथ आपने अपनी राजनीतिक पारी का अंत कर लिया। वरना आप चुनाव लड़कर हार भी जाते, तो भी धर्मशाला के लोगों को संदेश जाता कि यह बंदा यहीं से लड़ना चाहता है, यहीं इसका दिल है और यहीं से इसका जुड़ाव है। इसे पता था कि हार होगी, फिर भी लड़ा। लोग इमोशनल होते हैं और भावनाओं के आधार पर नेताओं का चयन करते हैं। सुधीर को तो यह बात याद होनी चाहिए क्योंकि इसी इमोशन के दम पर वह चुनाव जीतते रहे थे।
बहरहाल, सुधीर का भविष्य एक ही स्थिति में उज्ज्वल हो सकता है। वह ये कि बीजेपी में शामिल हो जाएं। मगर बीजेपी भला क्यों एक चूकी हुई तोप को अपने बेड़े में शामिल करना चाहेगी? अगर सुधीर सोच रहे हैं कि अभी हालात अनुकूल नहीं है और जब अनुकूल होंगे तब चुनाव लड़ूंगा तो अफसोस की बात है कि यह उनकी गलतफहमी है। न जाने कल को राजनीतिक हालात क्या हों। कल आलाकमान में उनका समर्थन करने वाले लोग रहें न रहें। हो सकता है इस उपचुनाव में ही धर्मशाला की जनता को ऐसा नेता मिल जाए कि वह उसे अगली बार भी जिताना चाहे।
वीरभद्र से काश सुधीर शर्मा ने यह भी सीखा होता- कुछ भी हो जाए, राजनीति में मैदान को खाली नहीं छोड़ा जाता।
(लेखक लंबे समय से हिमाचल प्रदेश से जुड़े विषयों पर लिख रहे हैं. उनसे kalamkasipahi @ gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)
ये लेखक के निजी विचार हैं