आई.एस. ठाकुर।। पंजाब और हरियाणा में एक नहीं, कई सारे डेरे हैं। बहुत सारे धर्मगुरु हैं और उनके समर्थक उन्हें भगवान से कम नहीं समझते। डेरा सच्चा सौदा तो एक चर्चित नाम है, इसके अलावा भी कई ऐसे डेरे चल रहे हैं जिनका नाम आपने शायद न सुना हो। मगर इन डेरों के समर्थकों की संख्या बहुत ज्यादा है। उदाहरण के लिए बहुत कम लोगों ने हरियाणा के उस संत रामपाल का नाम सुना था, जिसके समर्थकों ने कई दिनों तक फायरिंग करके पुलिस की नाक में दम कर दिया था।
कौन जुड़ता है डेरों से?
आखिर कौन लोग होते हैं जो इन लोगों से जुड़ते हैं? इसके लिए हमें पहले पंजाब और हरियाणा के समाज का अध्ययन करना होगा। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल पहले एक ही राज्य पंजाब के हिस्सा थे। फिर तीनों अलग-अलग राज्य बने। हिमाचल पहाड़ी राज्य था, जहां की जनसंख्या में जाति के आधार पर मिश्रण है। यहां पर समाज जातियों और जनजातियों में बंटा बेशक है, मगर किसी भी जाति समूह का दबदबा नहीं है। मगर पंजाब और हरियाणा में जाट और सिखों की तादाद काफी ज्यादा है और इनका राजनीतिक और सामाजिक दबदबा भी है।
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डेरों के अंदर नहीं होता भेदभाव
ऐसे में विभिन्न डेरों की तरफ वे लोग आकर्षित होते हैं जो वंचित लोग हैं। इनमें पिछड़े हुए, दलित और उपेक्षित शामिल हैं। ये विभिन्न धर्मों के हैं। डेरा सच्चा सौदा की ही बात करें तो वहां पर जाति को नहीं माना जाता। डेरे के समर्थक खुद को प्रेमी कहते हैं और खुद इंसां कहलाना पसंद करते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे डेरा प्रमुख अपना नाम- गुरमीत राम रहीम इंसां बताते हैं। ऐसे में जो लोग डेरे से जुड़ते हैं, उनका समाज डेरे के सदस्य ही हो जाते हैं। उनमें बड़ी एकता रहती है और वे एक-दूसरे की मदद के लिए उद्यत रहते हैं। समाज में बाहर उन्हें जो भेदभाव का सामना करना पड़ता है, उन्हें यहां वह देखने को नहीं मिलता।
सहयोग का नेटवर्क
डेरों के प्रति लोगों का झुकाव कैसे होता है, इसे एक उदाहरण से समझते हैं। जिस कंपनी में मैं काम करता हूं, वहां पर एक यंग सॉफ्टवेयर इंजिनियर है और हरियाणा के सिरसा से है। आज चर्चा हुई तो उसने बताया कि अगर किसी डेरा प्रेमी (डेरा सदस्य) के परिजन को अस्पताल में खून की जरूरत पड़ती है तो जैसे ही इसकी सूचना अन्य सदस्यों को मिलती है, वे खून देने सबसे पहले पहुंच जाते हैं। वैसे ही किसी डेरा प्रेमी की बेटी की शादी होनी है और उसके पास पैसा आदि नहीं है तो डेरे के अन्य सदस्य अपनी तरफ से सहयोग करते हैं। ये तो कुछ उदाहरण हैं, एक-दूसरे की दुकानों से सामान खरीदने से लेकर एक-दूसरे को सुविधाएं पहुंचाने तक काम किया जाता है। इससे पता चलता है कि डेरों का एक अपना समाज बन गया होता है।
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गुरु या बाबा को मानने लगते हैं मसीहा या अवतार
चूंकि डेरे से पहले से ही बहुत लोग जुड़े होते हैं, वे डेरों को चंदा देते हैं, डेरे काफी अमीर हो गए होते हैं। इनके चंदे से डेरे स्कूलों, कॉलेजों, धर्मशालाओं और अस्पतालों को निर्माण करते हैं। डेरा सच्चा सौदा की ही बात करें तो उसने इन चीजों के अलावा कई भव्य स्टेडियम तक बनवाए हैं। ऐसे में लोग जब डेरे के संपर्क में आते हैं तो हैरान रह जाते हैं। साथ ही उन्हें बाकी सदस्यों से जो सहयोग और अपनापन मिलता है, वह उनके लिए अनोखा अनुभव होता है। यह अनुभव उनका दिल जीत लेता है। सुविधाएं आदि मिलने से उनके जीवन स्तर में हल्का ही सही, बदलाव आता है। ऐसे में उनकी आस्था डेरा प्रमुख में बढ़ जाती है। धीरे-धीरे यह आस्था इतनी बढ़ती है कि वे डेरे के प्रमुख को, अपने गुरु को एक मसीहा, एक अवतार मानने लग जाते हैं।
अंधविश्वास बन जाती है आस्था
यह श्रद्धा अंधविश्वास की हद तक बढ़ जाती है। फिर आप जो मर्जी आरोप लगा लो, उन्हें यकीन ही नहीं होगा। वे अपने डेरे या गुरु के अपराध को अपनी आंखों के सामने भी देख लेंगे, मगर वे उसे नजरअंदाज कर देंगे क्योंंकि वे उस सिस्टम का हिस्सा बन गए होते हैं। विवेकहीन हो जाना इसी को कहते हैं। वे अपने सिस्टम, अपने डेरे के समाज और गुरु के लिए कुछ भी कर सकते हैं। सिस्टम से भिड़ सकते हैं, देश से भिड़ सकते हैं और जान देने और लेने पर उतारू हो जाते हैं। ऐसा ही डेरा केस में भी देखने को मिला। बलात्कार का दोष सिद्ध होने के बावजूद उन्होंने उपद्रव किया।
..तो शायद लोग डेरों की तरफ न जाएं
जैसा कि ऊपर बताया, वे लोग डेरे के अंदर मिलने वाले सहयोग से आकर्षित होते हैं। सोचिए, अगर यही सहयोग उन्हें सामान्य रूप से मिलने लगे तो? अगर उनका पड़ोसी जाति, धर्म, आर्थिक स्तर आदि के आधार पर उनसे भेदभाव न करे तो? उनका पड़ोसी उनके दुख-दर्द में भागीदार बने तो? अगर सरकार ऐसी व्यवस्था बनाए कि नागरिकों को किसी तरह की असुविधा न हो तो? तो क्या लोग इन डेरों की तरफ अपनी समस्याओं का हल ढूंढने जाएंगे? इसका जवाब होगा- नहीं।
भेदभाव तो हम भी करते हैं
ऊपर जो बातें कही गई हैं, वे सामान्य बातें हैं। हिंदुस्तान का समाज तो इसीलिए अच्छा माना जाता है क्योंकि यहां एक-दूसरे के दुखदर्द को बांटना फर्ज समझा जाता है। मगर अफसोस, इस काम में भी हमारा समाज यह देखता है कि कौन किस जाति का है, मेरा परिचित है या नहीं, या मेरा कितना फायदा होगा… वगैरह-वगैरह। इसी से उपेक्षित होकर लोगों को डेरों में उम्मीद की किरण दिखाई देती है और वे उनकी शरण में चले जाते हैं। फिर उन डेरों में उन भोले-भाले लोगों के साथ क्या होता है, किससे छिपा नहीं है।
हम ही ला सकते हैं बदलाव
इन लोगों पर गुस्सा करने या इनसे नफरत करने से कुछ नहीं होगा। बल्कि हमें अपने गिरेबान में झांककर देखना होगा कि उन्हें ऐसा बनाने में हमारी कितनी भूमिका है। सच यह है कि हरियाणा में हुई मौतों के लिए कहीं न कहीं वह समाज जिम्मेदार है, जिसमें हम रहते हैं और जिसे बनाने में हमारा भी योगदान है। जब तक हम खुद को नहीं बदलेंगे, तब तक लोग डेरों की तरफ खिंचते रहेंगे और पंचकुला जैसी घटनाएं होती रहेंगी।
(लेखक हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले से संबंध रखते हैं और इन दिनों आयरलैंड में एक कंपनी में कार्यरत हैं। उनसे kalamkasipahi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
(DISCLAIMER: ये लेखक के अपने विचार हैं, इनके लिए वह स्वयं उत्तरदायी हैं)