फसलों के नाम पर इतने जानवर मारे, क्या मिला? ये है समाधान

प्रतीकात्मक तस्वीर

आदर्श राठौर।। केरल में हथिनी की मौत का मामला न उठा होता तो हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर की पुलिस शायद ही गर्भवती गाय का मुंह बम से उड़ा देने के लिए जि़म्मेदार शख्स को गिरफ्तार करती। घटना हुई थी 25 मई को, केस दर्ज हुआ 26 मई को आरोपी को गिरफ्तार किया गया छह जून। 11 दिन बाद ये गिरफ्तारी तब हुई जो जख्मी गाय का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया।

अच्छी खबर ये है कि गाय की जान बच गई है और उसने घटना के दो दिन बाद स्वस्थ बछड़े को जन्म दिया है। गाय की सर्जरी हुई है मगर पूरी तरह से ठीक होने की गारंटी नहीं। फिलहाल डॉक्टरों की टीम उसकी देखभाल कर रही है। इस तस्वीर को देख सुखद आश्चर्य हुआ कि जिन गाय के जबड़े गायब हो गए थे, आज वो अपने बछड़े को सहला पा रही है। इसके लिए डॉक्टर प्रशंसा के पात्र हैं।

गिरफ्तार किए गए आरोपी का कहना है कि उसने तो सुअरों के लिए आटे में बम मिलाकर रखा था मगर गाय ने खा लिया। बहुत सारे लोग इस व्यक्ति के प्रति सहानुभूति भी जता रहे हैं और कर रहे हैं गाय तो गलती से जख्मी हुई है। पिछले दिनों मेरे मित्र आशीष भरमौरिया ने लिखा था कि ‘जिस हिमाचल में बंदरों को जहर देकर मारा जाता है, वहां पर हथिनी की मौत पर केरल को क्यों कोसा जा रहा है?’ इस पर कुछ लोग उनपर सवाल उठाने लगे कि आप किसान नहीं है, इसलिए आपको किसानों का दर्द नहीं पता।

गाय का नीचे का जबड़ा फट चुका है, ऊपर भी चोट आई है। डॉक्टर इलाज मे ंजुटे हैं उम्मीद है जान बच जाएगी।

इतने जानवार मारे, हासिल क्या हुआ?
वे पूछ रहे थे कि अगर फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले जीवों को अगर मारा न जाए तो क्या किया जाए। उनके इस सवाल का जवाब बाद में, पहले मैं इन्हीं लोगों से सवाल करना चाहता हूं कि आप लोग इतने सालों से बंदरों और सुअरों को मार रहे हैं, आपने क्या हासिल कर लिया? क्या बंदरों या सुअरों की संख्या घट गई? क्या उन्होंने डर के मारे आपके खेतों या बागीचों में आना बंद कर दिया? अगर नहीं तो फिर क्यों आप लगातार जहर, करंट, कारतूस, बम, फाही (फंदा) और कड़ाकी इस्तेमाल करके इन जीवों को मारे जा रहे हैं? कहीं आपको इस काम में आनंद तो नहीं आने लग गया है?

मैं जानता हूं कि कड़ी मेहनत करके बच्चों की तरह पाले जा रहे खेतों और बागीचों को जब नुकसान पहुंचता है तो कितना गुस्सा आता है। मगर ये भी जानता हूं कि बंदरों या सुअरों को मारना स्थायी समाधान नहीं है। मैं ही क्या, सभी इस बात को जानते हैं और फिर भी इन्हें मारने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं। किसलिए? सिर्फ संतुष्टि के लिए कि मैंने इन बंदरों से बदला ले लिया? शायद इसी कारण बहुत से लोग, जो खेती नहीं करते, वे भी जहर मिलाए जा रहे हैं।

एक और बात- बंदरों और सुअरों को मारने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए जाते हैं। जहर के गोले और रोटियां होती हैं सिर्फ बंदरों के लिए क्योंकि यहां उनका मीट नहीं खाया जाता। मगर जंगली सुअरों को मारने के लिए करंट, कड़ाकी, फंदा और बम जैसे तरीके अपनाए जाते हैं ताकि वे मरें तो उनके मीट का लुत्फ उठाया जा सके। अगर वे जहर खाकर मरेंगे तो दावत का इंतजाम नहीं होगा। मुझे यकीन है कि बिलासपुर में भी बम सुअर को भगाने के लिए नहीं, उसे मारने के लिए रखा गया ताकि वो उसे खाए, बम फटे, वो मरे और फिर पूरा गांव दावत उड़ाए। लेकिन बेचारी गाय ने उसे खा लिया और जख्मी हो गई।

प्रतीकात्मक तस्वीर

मेरे इलाके के गांवों में भी कुछ लोगों ने रोटी और आटे की गोली में जहर मिलाकर रखना शुरू कर दिया था। बंदरों के साथ-साथ कुछ बेसहारा कुत्ते जरूर उन्हें खाकर मर गए थे। बहुत सारे कुत्ते फंदों में फंसकर कट मरे। सुअरों के लिए लगाए गए करंट में पालतू पशु और यहां तक कि इंसानों के मारे जाने की भी खबरें आती रही हैं। फिर भी लोग बाज नहीं आ रहे।

मुझे लगता है कि लोगों को स्थायी समाधान चाहिए ही नहीं। उन्हें जानवरों से लड़ने और उन्हें मारकर खुश होने में मजा आने लगा है। अगर फसलों की चिंता होती तो वे अपने राजनेताओं से पूछते कि इतने सालों से आप इस मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे हैं, जीत भी रहे हैं लेकिन समस्या को सुलझाने के लिए आपने किया क्या? इस समस्या को सिर्फ और सिर्फ सरकारें सुलझा सकती हैं, फिर भी हम उनसे कभी सवाल नहीं करते।

तीन दशकों में मैंने बंदरों की समस्या कम होती नहीं दिखी। हां, हर चुनाव में बंदरों का मुद्दा उछला जरूर। सरकारों ने बड़ी-बड़ी बातें कीं और तरह-तरह की योजनाएं लाईं। चुनाव के दौरान कुछ नेताओं ने तो एक-दूसरे को ही बंदर कह दिया। सरकारों ने इधर के बंदर उठाकर उधर छोड़े, नसबंदी के नाम पर पैसा बहाया, बंदरों को मारने पर इनाम घोषित किया और करोड़ों की रकम खर्च करने के बाद नतीजा- शून्य। हर पार्टी चुनाव से पहले अपने घोषणापत्र में जंगली जानवरों से फसलों की रक्षा की बात करती है मगर सत्ता में आते ही इसे भूल जाती है।

Wild animals add to Uttarakhand hill farmers' woes - dehradun ...

बंदरों और सुअरों से किसानों का संघर्ष
अगर आप हिमाचल प्रदेश के गांवों मे रहते हैं और आपने खेती छोड़ दी है, तब भी आप एकदम फिट रहेंगे। इसलिए, क्योंकि घर के आसपास कुछ बेलें, सब्जियां और धनिया वगैरह तो आपने लगाया ही होगा। एक आध फलदार पौधा भी होगा। दिन में एक-दो बार इन्हें बचाने के लिए आपको बंदरों की टोलियों को भगाने के लिए मशक्कत करनी ही पड़ेगी। हालांकि, कई लोग इस चक्कर में घुटने और दांत तुड़वा बैठते हैं।

परेशान होकर लोगों ने क्या नहीं किया। पहले वे कहते थे कि बंदर हनुमान जी की सेना होते हैं, इन्हें नहीं मारना चाहिए। फिर थक-हारकर उन्होंने बंदरों को मारना शुरू कर दिया। पहले वे बंदूक इस्तेमाल करते थे मगर फिर देखा कि इससे अपना ही नुकसान हो रहा है। कारतूस महंगे हैं और बंदर फिर लौटकर आ रहे हैं। उतने की तो फसल नहीं है जितना खर्च बंदरों से बचाने में हो जाएगा। फिर हुआ ये कि डिपो से मिल रहे सस्ते राशन को देखते हुए उन्होंने सोचा कि क्यों मेहनत भी की जाए और खून भी जलाया जाए। वे खेती से विमुख हो गए।

लेकिन हर कोई सक्षम नहीं कि बाजार से अनाज खरीदकर परिवार का पेट पाल ले। इसलिए उन्हें खेती तो करनी ही पड़ती है। लेकिन जब कुछ लोगों ने खेती छोड़ चुके हैं तो इन लोगों के खेत और खतरे में आ गए हैं। पहले ज्यादा खेती होती थी तो बंदरों से सभी लोगों को थोड़ा-थोड़ा नुकसान होता था। अब कम ही खेत बचे हैं तो बंदरों के निशाने पर वही रहते हैं। अब बंदर ही फसल खा जाएंगे तो वे खुद क्या खाएंगे? इसी डेस्परेशन में शायद कुछ लोग जहर देने जैसे काम उठाने लगे हैं। हालांकि ये कदम सिर्फ बदले की भावना से आत्मसंतुष्टि ही दे सकता है, बंदरों की समस्या से स्थायी निजात नहीं दिला सकता।

अब जो फसलें बंदरों से बचती हैं, वे सुअरों की भेंट चढ़ जाती हैं। सुअरों की टोलियां आती हैं। एक-साथ 10-20 बड़े-छोटे सुअर शाम या रात को फसलों को रौंदते हुए आते हैं और अपन नथुनों से पूरा खेत खोद डालते हैं। नई फसल की कोंपलों को चरते भी हैं। अब तो हमारे इलाके में हिरण प्रजाति के जीव भी फसलों को तबाह कर रहे हैं। यानी किसानों पर लगातार मार पड़ रही है।

Bovine, monkey scare everywhere

खेतों की ओर क्यों आ रहे जानवर?
सवाल ये है कि ये जीव जंगल छोड़कर खेतों में क्यों आने लगे? जब भी आप बड़े-बुजुर्गों से बात करें तो वे बताएंगे कि पहले ऐसी समस्या नहीं थी। बंदरों की टोलियां या जंगली सुअर कभी कभार ही नुकसान पहुंचाते थे। मगर पिछले 40 सालों में ये समस्या बढ़ी है। इसके लिए सीधे जिम्मेदार है- हिमाचल प्रदेश में जगह-जगह लगा दिए गए चीड़ के जंगल।

चीड़ ऐसा पेड़ है जो मैदानी इलाकों में भी उग जाता है। देखभाल भी कम मांगता है। एक बार लगा दो और भूल जाओ। कसैले स्वाद के कारण भेड़-बकरियां भी इन्हें नहीं चरतीं। इसलिए हिमाचल प्रदेश के गठन के बाद बड़े पैमाने पर चीड़ लगाने का अभियान छेड़ा गया। आप बड़े-बुजु़र्गों को पूछना कि आज जहां चीड़ के नए जंगल लगे हैं, पहले वहां क्या था। वहां खाली जमीन हुआ करती थी और अलग-अलग तरह के पेड़-पौधे और झाड़ियां हुआ करती थीं।

इन्हीं झाड़ियों में जंगली सुअरों का बसेरा होता था और बंदर ऊपरी इलाकों के घनघोर जंगलों में रहा करते थे। वे वहीं पर मस्ती करते, वहीं बेरियां और जंगली फल खाते और उछल-कूद करते रहते। यहीं पर विभिन्न जंगली जीव रहा करते थे जिनमें तेंदुए भी थे जो आहार शृंखला में सबसे ऊपर थे। ये बंदरों, सुअरों, हिरणों आदि का शिकार करके इनकी आबादी को भी नियंत्रित रखते थे।

मगर चीड़ के जंगल जैसे ही लगे, अन्य फलदार पेड़ और झाड़ियां खत्म हो गईं। आप देखेंगे कि चीड़ के जंगलों में बेकार सी झाड़ियों के अलावा और कुछ नहीं उगता। जमीन पर चलारू (पाइन नीडल्स, चीड़ की नुकीली पत्तियां) की परत बेहद ज्वलनशील होती है। जब इनमें आग लगती है तो पूरा का पूरा जंगल तबाह हो जाता है। कुछ भी नहीं बचता। न पौधे न जीव-जंतु। इन्हीं जगलों में लगी आग में तेंदुओं के शावक भी जल जाते हैं। इससे इनकी संख्या निश्चित तौर पर घटी है और नतीजा ये रहा कि सुअर और बंदरों की संख्या तेजी से बढ़ी है।

जब जंगल इनकी खाने की मांग पूरी नहीं करता तो ये आबादी का रुख करते हैं। सुअर, बंदर आदि खेतों पर धावा बोलते हैं और उनके पीछे आने वाले तेंदुए पालतू पशुओं और कुत्तों वगैरह पर। राहत की बात है कि वन विभाग ने इस समस्या को पहचानते हुए अब चीड़ की नई पौध लगाना बंद कर दिया है। मगर समस्या ये है कि जो पहले से मौजूद चीड़ के जंगल हैं, उनका क्या किया जाए?

Why cutting down Chirpine is not a solution to Uttarakhand forest ...

समाधान क्या है?
जवाब है- दीर्घकालिक योजना। हिमाचल प्रदेश निर्माता डॉक्टर यशवंत सिंह परमार का लक्ष्य था कि चीड़ के जंगलों से न सिर्फ हरियाली बढ़ेगी बल्कि कल को प्रदेश की आय के स्रोत भी बढ़ेंगे। चीड़ से निकाला जाने वाला बिरोजा कई जगह इस्तेमाल होता है और इसकी लकड़ी भी कीमती होती है। सोचिए, अगर चरणबद्ध तरीके से योजना बनाई जाए और एक सिरे से चीड़ के मैच्योर हो चुके जंगलों का कटान शुरू किया जाए तो कितना लाभ हो सकता है।

इस तरह से रोजगार के अवसर पैदा होंगे, प्रदेश को राजस्व मिलेगा और जो जगह खाली होगी वहां पर प्लान्ड तरीके से मिश्रित पेड़ लगाए जाएं। इमारती लकड़ी वाले वृक्ष भी हो, पर्यावरण के लिए लाभदायक पेड़ भी हों, फलदार पौधे भी हों और औषधीय पौधे भी हों। मगर ये काम बड़ी ही समझदारी के साथ प्रॉपर रिसर्च के साथ करना होगा, वैज्ञानिकों की निगरानी में। तभी ग्रीन ट्राइब्यूनल और कोर्टों को संतुष्ट किया जा सकेगा।

ऐसा नहीं होना चाहिए कि तुरंत बहुत बड़े हिस्से से पेड़ काट दिए और फिर उनकी भरपाई समय पर न हो पाए। एक वन सर्कल एक निश्चित क्षेत्रफल में पेड़ काटे और फिर उनकी जगह नए पौधे लगाए। अगले पांच साल विभाग का काम उन पौधों की देखरेख करना होगा। अगले पांच साल वहां और पेड़ नहीं कटेंगे। जैसे ही ये पौधे टिक जाएंगे और कटे हुए जंगल की जगह नया जंगल लहलहाने लगेगा, तब उसी वन सर्कल में नए जंगल में पेड़ों का कटान किया जाए।

इस तरह जब कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों से चीड़ के जंगल हट जाएंगे तो नए जंगल वरदान साबित होंगे। वहां जीव-जंतु भी आराम से रहेंगे और फल-दवाएं मिलेंगी सो अलग।

यह सतत प्रक्रिया होगी। 50 साल लंबी या शायद इससे भी आगे की। इससे तुरंत बंदरों और जंगली जानवरों की समस्या से मुक्ति नहीं मिलेगी लेकिन लॉन्ग टर्म में जरूर फायदा होगा। इसलिए भी क्योंकि आज जो लोग खेती से विमुख हो चुके हैं, आने वाले समय में वे फिर खेती की और लौटेंगे। तब उन्हें हमारी तरह समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा।

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तो फिलहाल क्या किया जाए?
आंकड़े कहते हैं कि 2006 के बाद हिमाचल में 14 लाख बंदरों की नसबंदी हुई और इससे उनकी संख्या घटी है। दावा है कि 2004 में ये 32 लाख थे मगर 2015 में 21 लाख रह गए। लेकिन जमीन पर यह फर्क दिखाई नहीं देता। सरकार को चाहिए कि जितना पैदा वो बंदरों की गणना में लगाती है, उसकी जगह ढंग से ट्रेन्ड लोगों से बंदरों की नसबंदी का अभियान चलाए। अब पुरुष बंदरों को इंजेक्शन के माध्यम से इन्फर्टल बनाया जा सकता है। ईमानदारी से अभियान चलाया जाए तो समस्या पर काबू पाया जा सकता है। ये तरीका प्रभावी भी होगा और अहिंसक भी। रही जंगली सुअरों की बात, उन्हें पर्याप्त वोल्टेज वाली फेंसिंग के माध्यम से फसलों से दूर रखा जा सकता है।

ये सब अस्थायी इंतजाम तब तक जारी रखे जा सकते हैं, जब तक कि हिमाचल में विविधता भरे जंगल न उगा दिए जाएं। इसके लिए चाहिए विजनरी नेतृत्व जिसपर जनता भी भरोसा करती हो और वो केंद्र से भी मंजूरी ले आए। समय लगेगा मगर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से बेहतर है शुरुआत कर देना।

हो सकता है मेरे सुझाव पर्यावरण या वन विज्ञानियों को हास्यास्पद लगें। मैं इस क्षेत्र का एक्सपर्ट नहीं हूं। मगर उनके पास कोई सुझाव हैं तो उनका स्वागत है।

(मंडी से संबंध रखने वाले पत्रकार आदर्श राठौर के फ़ेसबुक पेज पर डाले गए दो पोस्ट्स को मिलाकर तैयार किए गए इस लेख को उनकी अनुमति के साथ प्रकाशित किया गया है)

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