कंगना रनौत और विक्रमादित्य सिंह: न एक गंभीर, न दूजा सयाना

आई.एस. ठाकुर।। हिमाचल प्रदेश में लोकसभा की चार सीटों के छह विधानसभा सीटों पर भी चुनाव हो रहा है। पहले तो चर्चा इस बात पर हो रही थी कि छह विधानसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव में कौन जीतेगा और कांग्रेस की सरकार को खतरा बना रहेगा या टल जाएगा। लेकिन मंडी लोकसभा सीट पर कंगना रनौत और विक्रमादित्य सिंह के मैदान में उतरने के बाद चर्चा के केंद्र में यह सीट ज्यादा आ गई है।

हिमाचल में लोकसभा के चुनाव कभी मुद्दों के आधार पर नहीं लड़े गए। कम से कम स्थानीय मुद्दों के आधार पर तो बिल्कुल नहीं। इस बार भी वैसा ही है। एक ओर कंगना रनौत हैं जो लंबे समय से चुनावी राजनीति में आना चाहती थीं। एक दौर वह भी था जब उनके कांग्रेस के करीब होने की भी चर्चाएं थीं। उनके परदादा कांग्रेस के नेता थे और उनके पिता भी कांग्रेस में पदाधिकारी रह चुके हैं। लेकिन उनकी चुनाव लड़ने की इच्छा पूरी हो रही है बीजेपी के साथ।

जब अचानक बढ़ी बीजेपी से करीबी

जिसके प्रति उनका अनुराग उसी दौर में अचानक बढ़ गया था, जब बॉलिवुड के कई अभिनेता राष्ट्रवाद की लहर पर सवार होकर सुर्खियां और अपनी फिल्मों के लिए दर्शक बटोरने लग गए थे। यह दौर 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को मिले भारी बहुमत के बाद अपने चरम पर पहुंच गया था।

उस समय कंगना ने खुलकर ट्विटर (जो आजकल x बन चुका है) पर ऐसे बयान देना शुरू कर दिया जो या तो बीजेपी की हिंदुत्व की विचारधारा से मेल खाते थे या फिर उन्हें एक राष्ट्रवादी के रूप में पेश करते थे। फिर महाराष्ट्र की शिवसेना सरकार के साथ विवाद के बाद वह खुलकर बीजेपी के करीब आ गईं और बीजेपी जो उनसे दूरी बनाकर चल रही थी, उसने भी खुलकर कंगना का साथ देना शुरू कर दिया था।

यह कोई संयोग नहीं था कि उस दौर में हिमाचल प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने कंगना को हिमाचल की बेटी बताते हुए पूरे प्रदेश में रैलियों और प्रदर्शनों का आयोजन कर दिया था। ऐसा किसी केंद्रीय नेता की सहमति के बिना होना मुश्किल है क्योंकि हिमाचल में बीजेपी तो अपने दम पर स्वत: संज्ञान लेकर उन मुद्दों पर भी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस तक नहीं करती, जो प्रदेश के लिए अहमियत रखते हैं।

परिधान पर ध्यान, समाधान पर नहीं

अब बीजेपी ने कंगना को टिकट दे दिया है और वह अपने चुनाव क्षेत्र का दौरा कर रही हैं। इस दौरान वह अलग-अलग क्षेत्रों के स्थानीय परिधानों में नजर आ रही हैं। शायद उनकी कोशिश होगी कि इससे वह लोगों के कनेक्ट कर पाएंगी। लेकिन उनके भाषण को सुनें तो उसमें कोई भी बात ऐसी नहीं लगती, जिससे लगे कि वह लोगों से कनेक्ट कर पा रही हैं। होना यह चाहिए कि वह भरमौर जाएं तो वहां की समस्याओं के बारे में दो शब्द कहें। पांगी जाएं तो वहां की जरूरतों पर बात करें। आनी आएं तो वहां के चार चीज़ों के बारे में दो बातें कहें।

इससे लोगों को लगता है कि इसे तो हमारे बारे में कुछ पता है। जितना ध्यान वह परिधान पर दे रही हैं, उतना ही अगर समस्याओं और उसके समाधान पर बात करने पर दें तो बेहतर होगा। लेकिन कंगना को यह बात उनके साथ चल रहे वरिष्ठ नेताओं की फौज तक नहीं समझा पा रही। यह दिखाता है कि कंगना को चुनाव लड़वाने का फैसला निस्संदेह ऊपर से ही लिया गया था और ऊपर से लिए गए फैसले और वहां से भेजे गए शख्स के आगे प्रदेश का कोई नेता कैसे कुछ बोल सकता है? पार्टियों की यही परंपरा तो रही है।

इसके विपरीत कंगना जो कुछ कह रही हैं, उससे स्विंग वोटर्स.. यानी वो वोटर जो हर चुनाव में परिस्थिति, मुद्दों या उम्मीदवार के आधार पर वोट देते हैं, किसी पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता के आधार पर नहीं, वो वोटर्स चिढ़ रहे हैं। हल्के और छिछले बयान समझदार वोटरों को परेशान करते हैं। और कुछ के बीच यह अवधारणा बनती जा रही है कि इससे बेहतर तो वही विक्रमादित्य सिंह हैं, जिन्होंने पिछले कुछ समय में राजनीतिक अपरिपक्वता और अधीरता के अनंत उदाहरण पेश कर दिए हैं।

विक्रमादित्य- कुछ चतुराई, कुछ अपरिपक्वता

विक्रमादित्य सिंह में कुछ चतुराई वाले गुण तो हैं। जैसे कि उन्होंने भी उसी दौर में जय श्री राम के नारे को खुलकर अपनाना शुरू कर दिया, जब से कंगना का झुकाव अचानक बीजेपी की ओर बढ़ गया था। विक्रमादित्य ने देखा कि हिमाचल में भी एक बड़ा वर्ग मोदी-बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे से प्रभावित है। ऐसे में उनकी पोस्ट्स में वह जय श्रीराम नारा अचानक दिखने लगा, जो पहले नहीं दिखता था।

फिर उनका केंद्र के साथ तालमेल होने की बार-बार बातें करना, पार्टी लाइन से अलग जाकर बीजेपी के मुद्दों को यह कहते हुए समर्थन देना कि वह सही को सही और गलत को गलत कहते हैं, वास्तव में उसी वोटर को अपनी ओर करना था, जो बीजेपी के एजेंडे से अभिभूत है। और पिछले कई महीनों की मेहनत रंग भी ला रही है। हिमाचल में जो वर्ग बिना गुण-दोषों की विवेचना किए बस नरेंद्र मोदी और बीजेपी का समर्थन करता है, वही विक्रमादित्य की भी तारीफ करता है। इससे एक कदम आगे जाकर विक्रमादित्य ने पिछले दिनों आरएसएस और वीएचपी के करीबी बताना शुरू किया क्योंकि उन्हें लगता है कि कंगना के बीफ वाले बयान पर नाराज हिंदुओं को इस तरीके से साधा जा सकता है।

भले ही विक्रमादित्य पिछले एक दशक में राजनीतिक रूप से गंभीर हुए हों, लेकिन कुछ मौकों पर उनके कदम दिखाते हैं उनके अंदर राजनीतिक अपरिपक्वता बनी हुई है। जैसे कि मंचों पर भाषण देते हुए बहक जाना और ऐसा कह देना जिससे अपना या पार्टी का नुकसान हो जाए। बड़बोलेपन में ऐसी बातें कह देना, जिनका कोई सिर-पैर न हो। हाल की बात करें तो जैसे कंगना पर खुद ही निजी हमले करना, खान-पान पर सवाल उठाना, फिर सामने से भी वैसे उत्तर मिलने पर मर्यादाओं की बात करना।

सुक्खू पर हमलों का इतिहास

राजनीतिक अपरिपक्वता का एक सबसे बड़ा उदाहरण उनका वह बयान भी था, जब प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो रहे थे, तब एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि सुक्कू कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री वही बनेगा, जो विधायक होगा। उस पर विक्रमादित्य सिंह ने कह दिया था- He is not competent enough to talk on these matters. यानी वह इस विषय पर बात करने की योग्यता नहीं रखते। भले विक्रमादित्य सिंह के सुक्खू के प्रति ऐसे विचार हों, लेकिन ऐसी बातें सार्वजनिक तौर पर कहना उन्हें मुश्किल में डाल गया। सुक्खू सीएम बन गए और विक्रमादित्य को उन्हीं के नेतृत्व में काम करना पड़ा। और यह बात राजनीतिक गलियारों में हर कोई जानता है कि मंत्री बनाने के बावजूद सुक्खू ने ऐसी घेराबंदी कर दी कि पीडब्ल्यूडी महकमे में सारे अहम फैसले सीएम की मंजूरी के बिना हो ही नहीं पा रहे थे।

फिर जब राज्यसभा चुनाव में छह कांग्रेसी विधायक बागी हो गए और ऐसा संकट पैदा हो गया कि सरकार कभी भी गिर सकती है, तो उसी दौरान विक्रमादित्य ने अनदेखी का आरोप लगा इस्तीफा दे दिया। तब राजनीतिक विश्लेषकों का कहना था कि शायद विक्रमादित्य ने हड़बड़ी में यह फैसला ले लिया कि सरकार गिरने वाली है और कहीं मैं कांग्रेस में ही न रह जाऊं। और फिर संकट टला तो विक्रमादित्य मान भी गए और सुक्खू की तारीफों के पुल बांधते आए।

कई मामलों में पर बार बार उनके पलटने से उनकी छवि यूटर्न लेने वाले नेता की भी बन गई है। जेओएआईटी वाले अभ्यर्थियों के किए गए वादे और फिर उससे हटना भी इसी कड़ी का हिस्सा है। वास्तव में वह कुछ मामलों पर क्लियर स्टैंड न लेकर गोल-मोल बातें करते हैं। ऐसी बातों को भले एक आम व्यक्ति न समझ पाता हो, लेकिन हिमाचल प्रदेश समझदार मतदाताओं का राज्य माना जाता है। वे मतदाता इस अस्पष्टता को भांप जाते हैं। इसीलिए कई राजनीतिक विश्लेषक यह कयास भी लगाते हैं कि शायद विक्रमादित्य लंबी रेस का घोड़ा साबित न हो पाएं।

नवीनता का अभाव

मंडी लोकसभा चुनाव के दौरान वह कहते हैं कि मुद्दों पर बात करेंगे। लेकिन उनका विज़न ही विज़नहीन नजर आता है। जैसे कि स्मार्ट सिटी से मंडी सिटी के लिए फंड लाना। चलिए मान लिया कि कांग्रेस की सरकार बनने पर वे फंड ले भी आएंगे, तो भी उनका वादा है कि ब्यास के किनारे रिवर फ्रंट बनेगा। रिवर फ्रंट विकसित करना हो तो जगह चाहिए होती है। मंडी के पास से ब्यास एक महाखड्ड यानी खड़ी घाटी से गुजरती है और किनारों तक निर्माण हुए पड़े हैं। फिर नदी के अंदर घुसकर रिवर फ्रंट कैसे बनाया जा सकता है?

वह भुभुजोत सुरंग की बात करते हैं जिसकी बात कई दशकों से हो रही है और आज तक नहीं बन पाई और शायद जिसकी अब जरूरत भी नहीं फोरलेन बन जाने के बाद। और फिर बतौर युवा एंव खेल मंत्री (लंबे समय तक महकमा उनके पास रहा) और लोकनिर्माण मंत्री उनकी उपलब्धियां क्या हैं, वह गिनाने में असफल रहे हैं। वह जिन सड़कों के निर्माण या टारिंग आदि की बात कर रहे हैं, या भविष्य के लिए मंजूर परियोजनाओं की बात कर रहे हैं, वे रूटीन काम हैं। शायद उनके पास एक अच्छी टीम और सलाहकारों की कमी है।

इसके विपरीत वह कंगना पर सवाल उठाते हैं कि आपदा के समय वह कहां थीं। यह प्रश्न तो एक हद तक वाजिब हो सकता है कि अगर आप प्रतिनिधित्व करना चाहती थीं इस इलाके का और आप सक्षम थीं (आर्थिक रूप से) तो आपको एक दिन के लिए ही सही, उस सरकाघाट या मनाली तो आना चाहिए था जहां आपदा की सबसे ज्यादा मार पड़ी। हां, अगर आपको अनिच्छा से किसी पार्टी ने जबरन टिकट देकर भेज दिया हो, तो अलग बात है। लेकिन इस मामले में तो ऐसा नहीं हुआ।

पूर्वग्रहों से घिरा नेतृत्व

लेकिन कांग्रेस के कई नेता यह कह रहे हैं कि कंगना अभिनेत्री हैं, उनका राजनीति में क्या काम। विक्रमादित्य ही नहीं, सुदंर सिंह ठाकुर, कौल सिंह ठाकुर और यहां तक सीएम सुक्खू और उप मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री तक ये बातें कर चुके हैं। उनकी ये बातें हैरान कर सकती हैं। अगर एक पत्रकार (अग्निहोत्री) आगे चलकर राजनीति में आने के बाद डेप्युटी सीएम बन सकता है या दूध बेचने से शुरुआत कर (सुक्खू) कोई सीएम बन सकता है तो कोई अभिनय की दुनिया से आकर सफल और अच्छा राजनेता क्यों नहीं बन सकता? या आप यह कहना चाहते हैं कि राजनीतिक परिवार से आने वाले व्यक्ति की योग्यता ज्यादा होती है? अगर ऐसा है तो सीएम सुक्खू ने भले ही छात्र राजनीति से होते हुए मुख्य राजनीति में कदम रखा, मगर उनके खुद के परिवार की तो कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी।

यह पहले से मान लेना कि कोई अभिनेता है, इसलिए राजनीति में काम नहीं कर पाएगा या अभिनेता से राजनेता बनकर फ्लॉप किसी और व्यक्ति का हवाला देकर सभी को खारिज कर देना कितना सही है?  नाकाम तो फुल टाइम पॉलिटीशियन भी होते हैं। उदाहरण के लिए अगर इतने ही काम किए होते और योग्यता इतनी ही होती तो प्रतिभा सिंह दोबारा यहां से चुनाव लड़ रही होतीं।

सीएम सुक्खू की स्क्रिप्ट और डायरेक्शन 

बहरहाल, विक्रमादित्य को संभवत: उन्हीं के समर्थकों की तरह लगता हो कि वह मुख्यमंत्री बनने के हकदार हैं और मंडी सीट जीती तो उनका कद और दावेदारी बढ़ेगी। रणनीति सही प्रतीत भी होती है। उनके पिता वीरभद्र सिंह लंबे समय तक सीएम रहे प्रदेश के। उनकी अपनी एक राजनीतिक विरासत भी है। इस बात विक्रमादित्य में आत्मविश्वास है, वह होना भी चाहिए। लेकिन यह अतिआत्मविश्वास में कभी कभी बदला दिखता है। साथ ही उनमें धीरज की कमी दिखाई देती है, उससे उन्हें पार पाना होगा। वो खुद को खुद ही विनम्र बताते हैं लेकिन अपने भाषण एक बार सुनें, विनम्रता कहीं पर नहीं झलकती।

उन्हें ये भी याद रखना होगा कि पहली बार सीएम बनने के लिए जो एडवांटेज उनके पिता को उस समय के राजनीतिक हालात में मिला था, तब परिस्थितियां अलग थीं और आज अलग हैं। आज उनका सामना सुखविंदर सिंह सुक्खू से है, जो मंडी के सेरी मंच से एलान कर चुके हैं कि वह जयराम ठाकुर से बेहतर स्क्रिप्ट राइटर और डायरेक्टर हैं और उनकी बनाई फिल्म हिट होगी।

ऐसे में आज की परिस्थितियों से पार पाने के लिए संयम जरूरी है। आप अपने काम से छाप छोड़ने, अपने साथ लोग जोड़ने, अपना कद बढ़ाने में जुटे होते तो आज आपकी स्थिति मजबूत होती। लंबी रेस का घोड़ा बनना है तो दूर की सोचिए। तभी पार्टी आलाकमान भी आपके आगे वैसे ही नतमस्तक होगा, जैसे लाख चाहते हुए भी वीरभद्र सिंह के आगे नतमस्तक था और लाख चाहकर भी उनका पीछे नहीं कर पाया था।

मोदी नाम के सहारे चलतीं कंगना

दूसरी ओर कंगना हैं, जिन्होंने आते ही कह दिया कि मुझे लगता है कि हम अपने दम पर नहीं, मोदी जी के नाम और परिश्रम के दम पर जीतेंगे। पार्टी और नेता के नाम,काम और छवि का सहारा लेना अच्छा है। लेकिन आपको जब इतने सारे लोगों को नजरअंदाज करके चुना गया है तो क्या आपका फर्ज नहीं बनता कि कुछ मेहनत करें? कुछ समझें, पढ़ें-लिखें, लोगों को बताएं कि हां, मैं कोई एलियन नहीं हूं, मुझे आपकी समस्याओं और मुद्दों की समझ है। तभी तो लोगों में विश्वास जगेगा कि आप उन्हें सिर्फ संसद पहुंचकर अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा नहीं करना चाहतीं, आपके दिन में वाकई कुछ करने का जुनून है। मगर फिलहाल ये जुनून तो नहीं दिख रहा, ऊल-जुलूल बातें जरूर सुनने को मिल रही हैं।

काबिल बनिए, अपेक्षाकृत बेहतर नहीं

बेहतर होगा अगर दोनों उम्मीदवार अपने व्यक्तित्व के ज़िम्मेदार और गंभीर पहलू को सामने रखें। ये बयान, ये तीखे हमले, ये प्रहार… ये सिर्फ मीडिया और जनता का मनोरंजन करते हैं। जनता वोट उसी को डालती है, जिसे डालना होता है। तो अपने आप को योग्य उम्मीदवार साबित कीजिए। ताकि वोटर को साफ पता हो कि मुझे इसे वोट डालना है क्योंकि ये वाकई लायक है। वरना अंधों में काने राजा की तर्ज पर जीत हासिल की भी तो क्या फायदा? रैलियों में या सोशल मीडिया पर जय-जयकार करने वालों पर जाएंगे तो घमंड बढ़ेगा। आगे बढ़ना है तो आलोचकों को सुनिए, समझिए और सुधार कीजिए।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)