नए जिले नहीं, नई राजधानी और प्रशासनिक दफ्तर हैं हिमाचल की ‘संजीवनी’

प्रतीकात्मक तस्वीर (The Palace of Parliament | Bucharest, Romania)

कुमार अनुग्रह।। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर लेकिन संसाधनों के तथाकथित अभाव वाले राज्य हिमाचल प्रदेश को नए जिले नहीं नई राजधानी और प्रशासनिक दफ्तर ही संजीवनी दे सकते हैं। हिमाचल जैसे ही चुनावी वर्ष में प्रवेश करता है नए जिले बनाने की चर्चाएं, अटकलें और अफवाहें तेज हो जाती हैं। नए जिलों को लेकर जितने मुंह उतनी बातें जैसा हाल रहता है। यानी जितने बड़े उपमंडल, उतने ही नए जिले बनाने की बातें।

खैर, हिमाचल का मुद्दा जिलों को लेकर है ही नहीं। हिमाचल जैसे बेहद छोटे राज्य में नए जिले बनाने की चर्चा उतनी ही बेमानी है जितना विक्रमादित्य का यह कहना कि केंद्र ने कृषि कानून इसलिए वापस लिए क्योंकि हिमाचल में कांग्रेस उपचुनावों में जीती।

नए जिले बनाने के राजनीतिक शिगूफे

राजनीतिक नजरिए से बात करें तो नेता जरूर नए जिलों की पैरवी करते मिलेंगे। उनके नजरिए से ये वाजिब है क्योंकि चुनाव जीतने के लिए कोई न कोई वादा किया जाता है और उसके सपने दिखाए जाते हैं। साम, दाम, दंड, भेद वाली राजनीति में नए जिलों का सपना दिखाना इतना भी बुरा नहीं माना जा सकता। पालमपुर, नूरपुर, सरकाघाट, रामपुर, बद्दी, सुंदरनगर, देहरा को नए जिले बनाने के सपने दिखाए जाते और लोगों द्वारा देखे भी जाते रहे हैं। इसलिए ‘ख्वावी’ नए जिलों की लिस्ट में और भी नाम जुड़ जाएं तो क्या फर्क पड़ता है।

फर्क तो इस बात से पड़ता है कि हिमाचल प्रदेश और उसके लोगों के लिए सही क्या है? इस बात पर चर्चा हो भी रही है या नहीं। यहीं सबसे ज्यादा निराशा देखने को मिलती है। किसी नए जिले के समर्थक से पूछें कि इससे फायदा क्या होगा तो वो आपको ठीक वैसे ही फायदे गिनवाएगा जैसे गोबर खाने के फायदे गिनवाकर एक डॉक्टर साहब फेमस हुए थे।

नए जिलों के गठन के पीछे क्या हैं तर्क?

असल में नए जिलों का गठन आमदनी अट्ठनी और खर्चा रुपैया से ज्यादा कुछ नहीं है। हालांकि कुछ सर्मथक कहेंगे- ‘अरे क्या बात कर रहे हो, जनता को ज्यादा सुविधा मिलेगी।’ मेरी नजर में ये बात ठीक उतनी ही दिलासा देने वाली है जितनी इंडियन क्रिकेट टीम की हार सामने होने के बाद भी फैन का ये सोचकर आखिरी बॉल तक मैच देखना कि अब शायद कुछ ‘चमत्कार’ हो सकता है।

ऐसा इसलिए क्योंकि अभी तक जो सरकारी दफ्तरों की कार्यशैली रही है, उसमें नए जिलों के गठन से बदलाव कैसे आ जाएगा? नए जिले में भी एक डीसी दफ्तर ही बनेगा। उस एक डीसी दफ्तर के बनाने में भी करोड़ों के बजट का प्रावधान करना होगा, जबकि कानून भी रहेंगे और प्रावधान भी। हां वो करोड़ों रुपये किसी पुल, सड़क या दूसरे जरूरी कार्य पर जरूर खर्च किए जा सकते हैं, जिसकी उस क्षेत्र के लिए ज्यादा जरूरत है।

काम की रफ्तार के कानून और प्रावधान तो वही रहेंगे

अभी भी नए जिले के समर्थक एक और बाण अपने तरकश से निकाल कर दागेंगे और कहेंगे, ‘नए जिले बनने के बाद लोगों को अपने कार्यों के लिए ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा।‘

इन बुद्धिजीवियों को ये समझना चाहिए कि आखिर नया जिला बनने के बाद भी उस जिले का कोई आखिरी छोर तो होगा ही। जैसे मंडी जिला के लिए करसोग और लड-भड़ोल है। चंबा के लिए भरमौर औऱ द्रमण है। यानी वो लॉजिक धराशाई हो जाता है, जिसके दम पर नए जिले बनाने की बात की जाती है।

इससे भी बढ़कर बात करें तो किन्नौर और लाहौल स्पीति को ही देख लीजिए। एक-एक-एक ही विधानसभा क्षेत्र है और वो भी पूरा का पूरा जिला। फिर भी कहें कि हर घर तक सड़क पहुंच गई होगी तो सच आप जानते हैं। जबकि इन दोनों ही जिलों के लिए तो जनजातीय क्षेत्र का फंड अलग से केंद्र सरकार देती है।

नए जिलों से ज्यादा जरूरी हैं कुछ खास दफ्तर

नए जिलों के गठन से विकास तो पता नहीं किस किताब में होगा बल्कि आर्थिक बोझ जरूर पड़ेगा। आप अपने दिल पर हाथ रखें-  यदि आप एक 30 से 35 साल या उससे ज्यादा की उम्र के व्यक्ति हैं तो जरा अपनी स्मृतियों को ताजा करें। अब बताएं कि जीवन में कितनी मर्तबा आप डीसी दफ्तर गए और किस काम के लिए?

दरअसल मुश्किल भौगोलिक परिस्थितियों वाले हिमाचल में नए जिलों की जगह जिला मुख्यालयों से दूरस्थ क्षेत्रों में नए पटवार सर्किल, उपतहसीलें, तहसीलें और एसडीएम ऑफिस और संबंधित विभागों के दफ्तर खोलने की ज्यादा जरूरत है। एक आम व्यक्ति को सबसे ज्यादा कार्य तहसील, पटवार सर्किल, एसडीएम दफ्तर और अन्य संबंधित विभागों में ही पड़ते हैं।

आप एक और उदाहरण से समझ सकते हैं कि आज जमीन के कार्य करवाने के लिए आपको कितनी मर्तबा पटवार खाने और तहसील के चक्कर काटने पड़ते हैं। नए जिले बनने से उन कार्यों में किसी तरह से तेजी आ जाएगी।

क्या है मौजूदा राजधानी की स्थिति?

ये तो बात हुई नए जिलों की अब बात करते हैं राजधानी की। नई राजधानी का शिगूफा भी किसी न किसी सरकार में गाहे-बगाहे छूटता रहता है। लेकिन यह हकीकत है कि शिमला की हालत पतली हो चुकी है और उस शहर के विस्तार की अब और कोई संभावना नहीं है। संसाधन कम हैं और राजधानी होने के नाते हर साल इस शहर पर आबादी और इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर वर्टिकल कंस्ट्रक्शन का बोझ बढ़ता जा रहा है। तीखी ढलान वाली पहाड़ियों पर एक के ऊपर एक बन रही इमारतें भूकंप के लिहाज से भी खतरनाक हैं।

लेकिन हम तो मानते हैं कि हिमाचल की राजधानी शिमला, पहाड़ों की राजधानी शिमला, अंग्रेजों की राजधानी शिमला की कुछ अलग ही बात है। यानी शिमला को राजधानी के लिहाज से बेस्ट जगह बताया जाता रहा है। लेकिन हमें इस सोच से बाहर आने की नितांत आवश्यकता है। अगर राजधानी को शिमला से कहीं और शिफ्ट करने की बात की जाएगी तो शिमला वालों से ज्यादा इधर-उधर के लोग विरोध करने लगेंगे।

लेकिन विरोध तो देश की आजादी का भी होता था। आज की राजनीति में विरोध की कोई परिभाषा नहीं है। विरोध तब भी हुआ जब देश में पहली बार कंप्यूटर आया, ये तब भी हुआ जब देश में पहली मेट्रो चली। ये तब भी हो रहा है जब हम नई शिक्षा नीति पर पग धर रहे हैं।

राजनीति का दूसरा नाम विरोध है। लेकिन हिमाचल को एक नई राजधानी की उतनी ही जरूरत है जितनी जरूरत राजस्थान के रेगिस्तान को पौंग के पानी की। इस जरूरत को दो दशकों से राजनीति की चक्की में पीसा गया। हालांकि उस चक्की से राजधानी नामक आटे की जगह उसके भीतर का धुआं ही निकला। जैसे चक्की में घुसने पर हवा में धुएं की शक्ल में आटा तैरता हुआ दिखता है।

शिमला! बहुत कड़े शब्दों में कहा जाए तो हिमाचल की इस राजधानी पर अंग्रेजों के बाद प्रदेश के प्रशासकों से लेकर हर वो व्यक्ति हमला करता रहा है जो यहां रहता है। हां, ये बात अलग है कि यहां रहने वाले भी अधिकतर यहां के मूल निवासी नहीं हैं। शिमला के लिए उसके आत्मीय भाव उतने ही गहरे हैं जितने आपके अपने पड़ोसी के लिए। हकीकत यह है कि शिमला शहर अब रहने लायक बचा ही नहीं है। सुबह-शाम केवल जाम ही जाम और टूरिस्ट सीजन में पत्रकारों के लिए खबरें छापने का आम काम।

जिस ऐतिहासिक शहर शिमला के रिज का एक छोर वर्षों से धंसता रहे और उसे ठीक करना ही चुनौती बन जाए उस शहर के लिए हम और व्यवस्थाएं बोझ नहीं तो हम क्या बन चुके हैं? ढली से विश्वविद्यालय और बालूगंज से सचिवालय के लिए निकला हर व्यक्ति अपना ट्रैफिक का रंज बसों और गाड़ियों के एक्सलरेटर की तरह खुद को दबाते मिलता है। यहां की पानी का कहानी तो पूरी दुनिया जानती है। प्रदेश की राजधानी में कई इलाके आज भी पानी के लिए अपने आंसू और पसीना दोनों बहाते हैं। ऐसी राजधानी जहां सुविधाओं के नए निर्माण के लिए फाइलों के चक्कर में ही सरकारें उलझ कर रह जाती हैं, क्या वो राजधानी अब रहने लायक है?

खर्च और सुविधाओं के बीच का टकराव

शिमला में कमरों का किराया भी हिमालय से ज्यादा ऊंचाइयां छू रहा है, लेकिन सुविधाओं की बात करें तो लगता है ये हैंडपंप के लिए हुई खुदाई से भी नीचे जा चुकी हैं। देश की राजधानी और सिटी ब्यूटीफुल से ज्यादा महंगी हमारी पहाड़ों की रानी हो चुकी है, जबकि दिल्ली और चंडीगढ़ जैसी टैक्सी (ओला, ऊबर) फूड होम डिलीवरी की सुविधाएं यहां नगण्य है। टैक्सी वाले तो ऐसे किराया मांगते हैं जैसे उसी कस्टमर से गाड़ी की किस्त पूरी करेंगे। बरसात में आए दिन जमींदोज होती इमारतों की क्या ही बात की जाए।

शिमला के पास क्या नहीं है? अगर इस बात पर विचार करेंगे तो हर वो सही खाने का टिक मार्क होगा जो किसी भी क्षेत्र की आर्थिकी की जरूरत हो सकता है। पर्यटन, राज्य विश्वविद्यालय, ऐतिहासिक ईमारतें,सरकारी कार्यलय, हर वो ऐतिहासिक स्थल जिसे रिसर्च और डॉक्यूमेंनटेरियन खोजते हुए यहां पहुंचें।

इसलिए शिमला पर और अत्याधिक दबाव बढ़ाने की जगह इसे दबाव से मुक्त करने की जरूरत है। ठीक वैसे ही जैसे हम अपनी किसी दिल अजीज पुरानी चीज को सहेज कर उसे नई से बदलते हैं।

नई राजधानी के लिए कितना फिट है धर्मशाला?

अब गंभीर सवाल यह होगा कि नई राजधानी हो तो कहां? कुछ लोगों के दिमाग में जवाब धर्मशाला होगा, जोकि उतना ही गलत जवाब है जितना किसी परीक्षार्थी के लिए सही जवाब का पता होने के बाद भी गलत पर टिक कर देना।

धर्मशाला को राजधानी बनाना ठीक वैसा ही है जैसे किसी संपन्न परिवार को बीपीएल श्रेणी में डाल देना। अथार्त शिमला के बाद 12 महीने ट्रैफिक की समस्या में धर्मशाला को उलझाना। अभी धर्मशाला की जनता केवल टूरिस्ट सीजन में ही व्यवधानों को झेलती है। फिर उन्हें हर उस सरकारी चोंचलों के व्यावधान भी झेलने होंगे जो अत्यधिक ट्रैफिक के कारण शिमला झेल रहा है।

हालांकि, कागजी तौर पर धर्मशाला भी एक राजधानी है। जहां हिमाचल विधानसभा का शीतकालीन सत्र आयोजित होता है, लेकिन इस फैसले का जनता को क्या लाभ हुआ इसकी विवेचना राजनीतिक कारणों से नहीं हो पाता। दस दिनों के लिए जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों के वहां पहुंचने से सरकारी खर्च ही बढ़ सकता है। जनता के मर्ज नहीं दूर हो सकते।

राजधानी शिफ्ट हुई तो शिमला का क्या होगा?

शिमला से राजधानी जाने के बाद भी यहां का टूरिस्ट सीजन सदाबहार रहेगा। धर्मशाला में राजधानी न बनाने के बाद भी वहां का टूरिस्ट सीजन सदाबहार रहेगा। इन दोनों ही क्षेत्रों में आईटी हब विकसित किए जा सकते हैं।

कोरोना के बाद वर्क फ्रॉम होम ने एक नई व्यवस्था को जन्म दिया। आज बहुत सी कंपनियां और उसके कर्मचारी शिमला और धर्मशाला में काम करना पसंद कर रहे हैं। हां, यहां थोड़ी और सुविधाएं बढ़ाई जाए तो बहुत संभावनाएं हैं। तो हमें राजधानी के लिए उस क्षेत्र को देखना होगा जिस क्षेत्र में अनुकूल वातावरण भी हो जगह भी हो और जरूरत भी। इसलिए हमें नए जिले नहीं नई राजधानी की बहुत ज्यादा जरूरत है। एक नए सिरे से बसी व्यवस्थित राजधानी। अगर यह भी संभव न हो तो सरकारें शिमला के दबाव घटाने के लिए विभागों के कार्यालयों की विकेंद्रीकरण कर सकती है। लेकिन सवाल वही है, बिल्ली के गले में घंटी आखिर बांधेगा कौन? जवाब है- साहसी और दूरदर्शी नेतृत्व।

SHARE