सुखविंदर सिंह सुक्खू: दूध बेचकर पढ़ाई करने वाला आम परिवार का बेटा जो अब प्रदेश चलाएगा

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इन हिमाचल डेस्क।। नादौन के विधायक सुखविंदर सिंह सुक्खू हिमाचल के सातवें मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। वह सुक्खू जो बेबाक रहे हैं। जब उन्होंने पहली बार चुनाव लड़ा था तो प्रचार के दौरान अपनी ही पार्टी की सरकार की नीतियों की आलोचना करने से भी पीछे नहीं हटे थे। बावजूद इसके विधायक बने थे। समय के साथ आगे बढ़े तो एक दौर वह भी आया जब वह हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का पर्याय माने जाते रहे वीरभद्र सिंह के विरोध के बावजूद कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष बने। इस पद पर बैठने के बाद उन्होंने बिना किसी के प्रभाव या दबाव में आकर पार्टी को चलाया। पार्टी की सरकार बनी और खुद चुनाव हारे तो कभी मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह से कोई चेयरमैनशिप नहीं मांगी। वह सुक्खू जो अपनी संगठन और नेतृत्व क्षमता के कारण बिना कभी मंत्री बने सीधे मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं।

क्या है सुक्खू की ताकत
एक ओर कांगड़ा जिले के नेताओं की मांग कि इस बार मुख्यमंत्री कांगड़ा से होना चाहिए। दूसरी ओर प्रतिभा सिंह का दावा कि वीरभद्र सिंह के नाम पर चुनाव जीते इसलिए उनके परिवार से सीएम होना चाहिए। तीसरी ओर मुकेश अग्निहोत्री का दबे स्वर में यह कहना कि मैंने कांग्रेस को सत्ता में लाने की जिम्मेदारी निभाई, अब सीएम बनाने का काम हाईकमान का। एक ओर जहां राजीव भवन से लेकर सीसिल ऑबरॉय होटेल तक कांग्रेस कार्यकर्ता अपने-अपने नेताओं के पक्ष में नारेबाजी कर रहे थे और मुख्यमंत्री बनने के दावेदार चेहरे पर तनाव लेकर कार्ट रोड से चौड़ा मैदान की दौड़ें लगा रहे थे, तब सुक्खू चेहरे पर मुस्कान लेकर घूम रहे थे। मानो मालूम हो कि सीएम उन्हें ही बनना है। सुक्खू की ताकत है- विधायकों का समर्थन और हाईकमान का आशीर्वाद, दोनों।

आपको याद होगा कि हिमाचल विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस आलाकमान ने सुक्खू को चुनाव प्रचार कमेटी के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी थी। इस पद का महत्व कितना था, इसका पता इस बात से लगाया जा सकता है कि दिवंगत वीरभद्र सिंह भी चुनावों से ठीक पहले इस पद को अपने पास रखने की कोशिश किया करते थे। लेकिन इस बार इस पद की जिम्मेदारी सुक्खू को मिली। फिर चुनाव हुए और नतीजे आए तो सुक्खू सबसे ताकतवर नेता के रूप में उभरे क्योंकि उनके पास वह चीज थी, जो सीएम बनने का ख्वाब देख रहे अन्य कांग्रेसी नेताओं के पास नहीं थी- विधायकों का समर्थन। कम से कम डेढ़ दर्जन विधायक सुक्खू को सीएम देखना थे।

दूध बेचते हुए की पढ़ाई और परिवार की देखभाल
सुक्खू के सत्ता का सुख पाने के लिए संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। 26 मार्च 1964 को उनका जन्म ऐसे परिवार में हुआ जहां बच्चों से थोड़ा बहुत पढ़-लिखकर घर की जिम्मेदारी उठाने की आस रखी जाती थी। राजनीति में जाना तो कल्पना से भी परे था। चार भाई बहनों में वह दूसरे नंबर पर हैं। पिता सरकारी नौकरी करते थे और मां घर संभालती थीं। पिता एचआरटीसी में चालक थे और उनकी नौकरी के कारण सुक्खू शिमला में रहे। यहीं एलएलबी तक पढ़ाई हुई और छात्र राजनीति में सक्रिय होने के बाद प्रदेश की राजनीति में जाने का ख्वाब देखा।

संजौली कॉलेज में पढ़ाई के दौरान सुक्खू परिवार के खर्चे चलाने के लिए सुबह दूध भी बेचा करते थे। कॉलेज के बाद फिर से एक पार्ट टाइम जॉब करते थे। नगर निगम में पार्ट टाइम जॉब से वह परिवार चलाने में पिता की मदद किया करते थे। कॉलेज मे एनएसयूआई से जुड़े और ग्रैजुएशन के पहले ही साल में सीआर चुने गए। दूसरे साल जनरल सेक्रेटरी और फाइनल इयर में कॉलेज के प्रेजिडेंट चुने गए।

ग्रैजुएशन के बाद उन्होंने एचपीयू में एडमिशन ली। भाई सेना में भर्ती हुए तो जाहिर है परिवार की आकांक्षा थी कि सुक्खू भी कोई नौकरी करें। नौकरी तो उन्होंने नहीं की मगर एलआईसी से जु़ड़कर लोगों को पॉलिसी सेल करते रहे। उधर 1989 में सुक्खू NSUI के प्रदेश अध्यक्ष बने। 1992 में पहली बार नगर निगम पार्षद चुने गए। 1997 में फिर जीते। 1998 में उन्हें यूथ कांग्रेस का प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया।

फिर 2003 के चुनावों में वह नादौन से चुनावी मैदान में उतरे और जीते भी। 2007 के चुनावों में फिर से जीते। 2008 से 2012 तक प्रदेश कांग्रेस महासचिव रहे। 2012 में वह चुनाव हार गए मगर फिर बड़ा मोड़ तब आया जब 2013 में वीरभद्र की अनिच्छा के बावजूद हाईकमान ने सुक्खू की संगठन क्षमता को देखते हुए उन्हें कांग्रेस का प्रदेशाध्यक्ष बनाया। 2017 में वह फिर से नादौन से जीतकर विधानसभा पहुंचे। इस बार वह चौथी बार विधायक चुने गए हैं।

ऐसा अध्यक्ष जो किसी के आगे नहीं झुका
सुखविंदर सिंह सुक्खू जब कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष बने तब वह चुनाव हारे हुए थे मगर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी। वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री थे। वह वीरभद्र सिंह जो पार्टी को अपने हिसाब से चलाते रहे थे। मगर सुक्खू ने वीरभद्र सिंह के प्रभाव में रहकर कभी काम नहीं किया। बल्कि 2018 तक पद पर बने रहने तक संगठन को उन्होंने सरकार के समानांतर चलाया।

कई मौकों पर वीरभद्र सिंह और सुखविंदर सुक्खू के बीच जुबानी जंग भी चली। एक घटना यह है कि कांग्रेस ने पदयात्रा निकालने की योजना बनाई तो वीरभद्र सिंह उसमें शामिल नहीं हुए। पत्रकारों से उन्होंने कहा कि मुझे नहीं पता कि कांग्रेस पदयात्रा निकाल रही है। पत्रकारों ने सुक्खू से पूछा तो उन्होंने कहा- मैंने खुद मुख्यमंत्री जी को पदयात्रा की जानकारी दी है। वह बुजुर्ग हो गए हैं, उन्हें अब याद नहीं रहता। जब पत्रकारों ने सुक्खू के इस बयान की प्रतिक्रिया वीरभद्र सिंह से मांगी तो उन्होंने भड़कते हुए कहा था- मुझे वो दिन भी याद है जब सुक्खू पैदा हुए थे।

जब कांग्रेस 2017 के चुनाव हारकर सत्ता से बाहर हुई तो वीरभद्र सिंह ने हार का ठीकरा कांग्रेस के सिर फोड़ा।  ऐसे कई मौके आए जब जुबानी तीर दोनों के समर्थकों के बीच तनाव का भी कारण बने। 18 जनवरी, 2019 को तो कांग्रेस कार्यालय में सुक्खू और वीरभद्र समर्थक तो हिंसक हो उठे थे। मारपीट में कुछ लोग जख्मी भी हुए थे। फिर मई 2019 में जब कांग्रेस चारों लोकसभा सीटें हारी, तब भी वीरभद्र सिंह ने हार का ठीकरा सुक्खू पर फोड़ा। वीरभद्र ने अपने कई राजनीतिक विरोधियों का राजनीतिक करियर अपनी कूटनीति से खत्म किया है। लेकिन सुक्खू ही थे, जिन्हें वीरभद्र भी मात नहीं दे सके।

संगठन क्षमता भी आई काम
जब सुक्खू हिमाचल कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष थे, तब उन्होंने पूरे प्रदेश में संगठन को नए सिरे खड़ा किया। उन्होंने प्रतिभावान कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाने का काम किया। कांग्रेस के विधायकों को लगता है कि सुक्खू उन नेताओं में से नहीं हैं जो किसी बात क्रेडिट खुद लें। वह क्रेडिट बांटने और सबको साथ लेकर चलने में यकीन रखते हैं। जबकि अन्य नेता जो सीएम बनने की चाहत रख रहे थे, उनका इतिहास ही रहा है अपनी पार्टी में तेजी से बढ़ने वालों को रोकना और खुद को ही केंद्र में रखना। ऐसे में बहुत से महत्वाकांक्षी विधायक भी दूर की सोचकर सुक्खू के समर्थन में आ खड़े हुए। ऐसे में केंद्र से आए वे नेता भी ज्यादा कुछ नहीं कर सके, जो सुक्खू को सीएम नहीं बनाना चाहते थे।

विधानसभा चुनावों से पहले जब वह चुनाव प्रचार कमेटी के अध्यक्ष बने तो उन्होंने हंगामा करने या मीडिया के सामने आकर माहौल बनाने के बजाय चतुराई और व्यवहार से पार्टी के संभावित उम्मीदवारों से करीबी बनाई। टिकट वितरण कमेटी के सदस्य रहते हुए भी उनकी भूमिका अहम रही। यही सब बातें अब नतीजे आने के सामने सुक्खू को मुख्यमंत्री पद तक ले गई। चतुराई, धैर्य, व्यवहार, जुखारुपान, नेतृत्व और संगठन क्षमता… ऐसी कई सारी बातें हैं जो एक आम परिवार से निकले सुक्खू को मुख्यमंत्री पद तक ले गई। मंडी के पंडित सुखराम तो कभी सीएम नहीं बन पाए, लेकिन उनके करीबी रहे सुक्खू इस पद पह पहुंच गए हैं।

पिछली विधानसभा में उनका कार्यकाल भी कमाल का रहा। भले वह नेता प्रतिपक्ष नहीं थे, लेकिन जब भी वह बोलते थे, तथ्यों और तर्कों के साथ बोलते थे। वह चीखते-चिल्लाते या राज्यपाल की गाड़ी के आगे कूदकर हंगामा करने जैसा कुछ तो नहीं करते थे, मगर अपने वक्तव्यों से सत्ता पक्ष को निरुत्तर कर देते थे। इस बार वह सत्ता में होंगे। सदन के नेता होंगे। इस बार विपक्ष के सवालों का सामना उन्हें करना होगा। सवाल काफी तीखे होंगे क्योंकि कांग्रेस ने ऐसे-ऐसे वादे इस बार किए हैं, जिनसे कांग्रेस के ही कई नेता सहमत नहीं थे। देखना होगा कि सुक्खू उन्हें कैसे पूरा करते हैं। साथ ही, चुनौती अपनी ही पार्टी के उस धड़े से भी होगी जो सीएम न बन पाने से नाराज है।