- सुरेश चम्ब्याल
हिमाचल की राजनीति में अहम रोल रखने वाला कांगड़ा जिला चुनावी बेला के नजदीक आते-आते अशांत होता जा रहा है। कभी भाजपा दिग्गज यहां आर-पार की लड़ाई पर उतारू थे तो अब कांग्रेसी नेता तलवारें निकाल बैठे हैं। कांगड़ा किले के आसपास के इलाकों की यह लड़ाई नगरोटा, ज्वाली और कांगड़ा के क्षत्रपों के बीच की तनातनी पर चर्चा का विषय बनी हुई है।
प्रदेश के राजनीतिक पटल पर नगरोटा लाइमलाइट में तब आया था, जब तेज-तर्रार नेता जीएस बाली यहां से विधायक बनके 1998 में हिमाचल प्रदेश विधासनभा में पहुंचे। गौरतलब था कि बाली ब्राह्मण समुदाय से थे और 70 फीसद ओबीसी जनता ने उन्हें अपना नेता चुना। जनता को अपना यह फैसला सटीक लगा इसका पता इस बात से चलता है कि बाली लगातार 3 बार उसके बाद भी विधानसभा में जाते रहे हैं।
नगरोटा में चंगर क्षेत्र को आधारभूत सुविधाओं से जोड़ने के लिए सड़कों के निर्माण से लेकर पेयजल योजनाओं को गांव-गांव तक पहुंचाने के लिए बाली का ही नाम लिया जाता है। नगरोटा के ताज में में विभिन विभागों के कार्यालय , राजकीय इंजीनियरिंग कॉलेज से लेकर फार्मेसी संस्थान, मॉडर्न आईटीआई, बस डिप्पो वगैरह बाली के कार्यकाल में जुड़े। व्यक्तिगत रूप से भी बाली ने नगरोटा की जनता को अपने से जोड़ने में कई तरीके अपनाए। नगरोटा वेलफयर सोसाइटी के माध्यम से मेडिकल कैंप बाल मेला जैसे आयोजन हर साल चर्चा का विषय बन गए। यहां तक कहा जाने लगा कि बाली नगरोटा के बाहर सोचते ही नहीं है और नौकरियों में भी नगरोटा को ही तवज्जो देते हैं।
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि बाली को विकास के नाम पर घेर पाना कांगड़ा तो क्या प्रदेश में भी किसी नेता के लिए आसान नहीं है। बाली ने नगरोटा में पालम और चंगर की खाई को विकास से पाटा है, इसमें दो राय नहीं है। इसलिए नगरोटा की जनता जब विधानसभा के लिए वोटिंग करती है तो बीजेपी कांग्रेस नहीं, बल्कि लड़ाई बाली बनाम नॉन बाली वोटर्स के मध्य रहती है। राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी का समर्थक वोट बैंक विधानसभा चुनाव में बाली का वोटर होता है। बाली को घेरने के लिए उनकी ही पार्टी के नेता चौधरी ओबीसी वर्ग के हितैषी होने का कार्ड खेलने लगे हैं। इसी कड़ी में ओबीसी कार्ड खेल रहे ज्वाली के विधायक नीरज भारती और बाली की रार प्रदेश में चर्चा का विषय बनी हुई है।
नीरज भारती के राजनीतिक उद्गम की कहानी परिवारवाद के स्तम्भ पर टिकी है । भारती के पिता प्रफेसर चंद्र कुमार कई वर्षों कांगड़ा से ओबीसी लीडर के रूप में राजनीतिक आसमान पर छाये रहे हैं। एक बार तो अपने ओबीसी कैडर के समर्थन से उन्होंने शांता कुमार जैसे दिग्गज नेता को भी लोकसभा चुनाव में पटखनी दे दी थी। इसमें कोई दो राय नहीं है की उन्हें जनता का भरपूर समर्थन भी मिला। परंतु प्रदेश सरकार में कई बार मंत्री रहने और और सांसद होने के बावजूद चन्द्र कुमार कांगड़ा या ओबीसी वर्ग के विकास में कोई ख़ास योगदान नहीं दे पाए। इस कारण उनके अपने ही लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया और लगातार दो बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा। वहीं उनके बेटे नीरज भारती ज्वाली में ‘गुलेरिया बनाम अर्जुन ठाकुर’ की लड़ाई का फायदा उठाकर विधानसभा पहुंच गए। भारती अपने तीखे तेवरों और फेसबुक पोस्ट के लिए आजकल चर्चा का विषय रहते हैं। बेबाक भारती कई बार इतना बेबाक कह जाते हैं की कांग्रेस संगठन और प्रवक्ता भी मीडिया के सामने जबाब नहीं दे पाते। परोक्ष रूप से भारती ने इस बार विपक्ष नहीं बल्कि अपनी ही पार्टी के सीनियर लीडर पर शब्द बाण चला दिए है । इससे कांगड़ा की सियासत गरमा गई है।
जहाँ तक पवन काजल की बात है, काजल कभी भाजपाई हुआ करते थे। 2012 चुनाव में टिकेट न मिलने पर काजल कांगड़ा से बागी लाडे और चुनाव भी जीते। काजल काफी संयमित और मिलनसार माने जाने वाले नेता है। ओबीसी वर्ग से ताल्लुक रखने वाले काजल को ऐसा ऐसा नहीं है कि ओबीसी वर्ग ने ही वोट दिए, मृदुभाषी काजल को हर जाति के व्यक्ति से कांगड़ा में वोट मिले हैं। काजल अभी कांग्रेस के असोसिएट विधायक हैं। काजल की चिंता है कि एक बार तो वह जीत गए, परंतु वह जानते हैं भाजपा उन्हें छोड़ कर आगे बढ़ चुकी है और अगर कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया तो उनके लिए काठ की हांडी को फिर चढ़ाना बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि कांग्रेस के ही चौधरी समुदाय के नेता विशेष को काजल फूटी आंख नहीं सुहाते। हो सकता है इन्ही कारणों से ओबीसी शुभचिंतक का चोला काजल को भी पहनना अनिवार्य सा हो गया है। परंतु काजल यह रास्ता अपनाते हैं तो कांगड़ा सीट से सर्वमान्य और हर वर्ग का लीडर होने की उनकी छवि को नुकसान हो सकता है।
भारती ने जिस तरह से ओबीसी के मुद्दे को हथियार बनाकर काजल के कन्धों पर बन्दूक रखकर बाली को घेरने की कोशिश की है, इससे बाली से ज्यादा नुकसान काजल के कन्धों का नजर आ रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि बाली नगरोटा को जातिवाद से ऊपर ले जा चुके हैं। वहीं काजल अगर ओबीसी के चक्कर में जातिवाद की राजनीति में घुसते हैं तो अन्य जातियां नाराज हो जाएंगी और उनकी बनी बनाई छवि का नुकसान होगा वो अलग। इन्ही समीकरणों और चर्चाओं की धुरी पर कांगड़ा कांग्रेस की राजनीति नाच रही है। लेकिन वीरभद्र सिंह और सुक्खू की ख़ामोशी ऐसे मामलों को हवा दे रही है। कांगड़ा में क्षत्रपों की लड़ाई इसी तरह जारी रही तो अगले चुनाव में कांग्रेस के साथ भी वही होगा, जो भाजपा के साथ हुआ था। वीरभद्र सातवीं बार कांगड़ा किले को फ़तह किए बिना सत्ता की सीढ़ी नहीं चढ़ सकते। बाकी फैसला आम जनता को करना है कि उसे जातियों के ठेकेदार चुनने हैं या हिमाचल हितैषी नेता।
(लेखक हिमाचल से जुड़े मसलों पर लंबे समय से लिख रहे हैं। इन दिनों In Himachal के लिए नियमित रूप से लेखन कर रहे हैं)