- विशाल राणा
बात उन दिनों की है, जब मैं 6-7 साल का था। एक बार पड़ोस के गांव किसी के यहां रातजागरा (जागरण) था। हमारे गांव और दावत वाले गांव के बीच में एक नाला था। पहाड़ों में रहने वाले लोग समझ रहे होंगे कि कैसे हिमाचल के ज्यादातर इलाकों में गांवों में दूर-दूर घर होते हैं। कुछ परिवार इस रिढ़ी (टीले) में बसे हैं तो कुछ सामने वाले में। खैर, मैंने जल्दी खाना खा लिया और वहां से जल्दी आने की जिद करने लगा। पापा और चाचा वगैरह पुरुष जल्दी घर लौट आए थे, मगर मां, चाची और बुआ की इच्छा भजन-कीर्तन करने की थी। मैं भी वहीं रुक गया। मगर जब सब बच्चे अपने-अपने घरों को चले गए तो मैं वहां बोर होने लगा और मैंने रोना शुरू कर दिया कि घर चलो।
मैं बुआ का बहुत लाडला हुआ करता था। ऐसे में बुआ ने न चाहते हुए भी मां और ताई को कहा कि मैं अप्पू को लेकर घर जा रही हूं। सबने समझाया कि कहां जाओगी अकेली, आजकल मिरग का भी खतरा है। थोड़ी देर में सब साथ चलेंगे। पड़ोस की महिलाएं भी वहां गई हुई थीं और सुबह के प्रहर में सबका साथ लौटने का इरादा था। मगर मैंने कोहराम मचा दिया। ऐसे में बुआ ने टॉर्च ली और मैं उनके साथ-साथ चलने लगा। घुप्प अंधेरा था, बरसात के दिन थे और खेतों के बीच से रास्ता था। धान की खेती के लिए खेतों में पानी भरा था और हजारों मेंढक टर्रा रहे थे। टॉर्च की रोशनी जब-जब खेत के पानी पर पड़ती, दूर तक वे चमकने लगते।
तो हमें सामने वाले गांव से नीचे किए लिए उतरना था, एक नाला पार करना था और फिर थोड़ी चढ़ाई पर हमारा घर था। दूसरा रास्ता लंबा था, मगर चौड़ा था और नाले को पार करने के लिए पुल भी था। मगर यूं समझ लीजिए कि दूरी तीन-गुना हो जाती थी। बुआ ने फैसला लिया कि शॉर्ट कट मारेंगे और नाला पार करके घर पहुंच जाएंगे। मैंने बुआ का हाथ पकड़ा हुआ था और पतले से रास्ते में संभल-संभलकर चल रहा था। जरा सी चूक होती कि पानी से भरे खेतों में जा गिरना था। जैसे ही खेत खत्म हुए, हम ढलान से नाले में उतरने लगे। बरसात के दिन होने की वजह से नाला में पानी ज्यादा था। इस बात का ध्यान बुआ को भी नहीं रहा था।
खैर, जहां से हम आम दिनों में उस नाले को क्रॉस किया करते थे, उसके पत्थरों के ऊपर से पानी बह रहा था। अब दूसरा रास्ता यह था कि या तो वापस चढ़कर जाओ और दूसरा रास्ता पकड़ो। या फिर नाले के साथ-साथ थोड़ा नीचे चलो, जहां श्मशान घाट है, वहां पर बड़े-बड़े पत्थर इधर से उधर तक बिछाए गए हैं। उनके जरिए नाले को पार करना आसान होता। बुआ ने वापस लौटने के बजाय उस श्मशान घाट वाले रास्ते से ही गुजरने का मन बनाया।
हम थोड़ा सा नीचे गए और उस जगह पहुंच गए, जहां से नाला क्रॉस करना था। दाहिनी तरफ वह पत्थर था, जिससे टिकाकर शव जलाए जाते थे और और बाईं तरफ वह मैदानी हिस्सा, जहां पर शिशुओं का दफनाया जाता था। खैर, डर तो लग रहा था मुझे, मगर बुआ के साथ था तो हिम्मत भी थी। हमने देखा कि यहां उन पत्थरों के ऊपर से भी पानी बह रहा है, जिनसे होकर हमें नाला पार करना है। मगर पानी उतना ज्याद नहीं था। यानी ऊपर से छूता हुआ बह रहा था। बुआ पहले आगे वाले पत्थर पर कूदे और फिर वहां से मेरा हाथ पकड़कर उस पत्थर पर लाए। हम तीन-चार पत्थर लांघ चुके थे और नाले के एकदम बीच में थे।
तभी हमें जोर की चीख जैसी आवाज सुनाई थी। जिस ओर से आवाज आई थी, हमने उस तरफ देखा। जिस तरफ हम जा रहे थे, उस तरह झाड़ियां हिलती हुई दिखाई दी। हवा नहीं चल रही थी, मगर बहुत सारी झाड़ियां अजीब तरीके से हिल रही थीं। एक अजीब जा जानवर सा दिखा और एक लड़की सी। मगर अंधेरे में कुछ साफ नहीं दिख रहा था। मैं घबराकर रोने लगा और चिल्लाने लगा। बुआ ने बोला कुछ नहीं हुआ और उन्होंने मुझे जोर से पकड़ लिया। वह बोली चल आगे और मैं जाने को तैयार नहीं। वह मुझे जबरन खींचने लगीं, तभी मेरा पैर फिसला और मैं पानी में गिर गया और बहने लगा। मैं घबराकर चीखने लगा और पत्थर पर खड़ी बुआ भी मुझे बहते हुए देखकर घबराकर चिल्लाने लगी। मैं कम से कम 50 मीटर ही बहा था कि ऐसा लगा कि किसी ने मुझे पकड़ लिया है। घुपप अंधेरे में कुछ पता नहीं चल रहा था, लेकिन मैं अपने बाजुओं पर जकड़न महसूस कर सकता था। किसी ने मुझे बाजू से पकड़कर पानी से निकाला और लगभग घसीटते हुए किनारे रास्ते पर पटक दिया। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। इतने में मैंने देखा कि बुआ अंधेरे में टॉर्च लेकर मेरी तरफ दौड़कर आ रही है।
बुआ ने मुझे उठाया और गले से लगा लिया रोते हुए। बोली चल घर चल। और हम दोनों घबराते हुए और बदहवास दौड़ते हुए घर की तरफ चल पड़े। हमने शोर इतना मचाया था कि जब तक हम घर पहुंचे, हमारी आवाज सुनकर घरवाले और पड़ोसी भी हमारी तरफ दौड़ रहे थे। सामने मुझे पापा दिखे और मैं उनसे लिपटकर रोने लगा। बुआ तो बेहोश हो गई। सबको मैंने बताया कि क्या हुआ। हर कोई परेशान था और घबराया हुआ था। मुझे दिलासा दिया गया कि कुछ नहीं हुआ। पैर फिसलकर गिर गया और घबराहट हो गई। सब लोग बातें कर रहे थे कि क्या जरूरत थी बरसात के नाले में वहां से आने की। ये तो बच गए, वरना बह जाते दोनों।
मगर मैं इस सब के बीच सोच यह रहा था कि बुआ अगर दूर से दौड़ती हुई आई, उस घुप अंधेरे में मेरी बांह पकड़कर किसने बाहर निकाला मुझे। ऐसा नहीं था कि मैं जलधारा के प्रवाह से निकारे लग गया था। मैं लगभग उसी तरह से उछलकर रास्ते पर गिरा था, जैसे कोई आदमी 6-7 साल के बच्चे को बाजू से पकड़कर एक जगह से उठाकर दूसरी जगह पटक दे। मेरी दादी ने किसी देवता का नाम लिया तो दादा ने बताया कि श्मशान घाट के पास वाली बौड़ी (बावली या बावड़ी) में पूर्वजों की मूर्तियां रखी होती हैं। यह उन्हीं के आशीर्वाद से बचना संभव हुआ है।
मैं आज भी भूत-प्रेत या ऐसी आत्मा-शात्मा में यकीन नहीं रखता, लेकिन आज भी उस घटना के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि कुछ तो था। हो सकता है मेरे बाल मन का वहम हो, मगर मैं इतना भी छोटा नहीं था कि चीजों को समझ न पाऊं। खैर, उस रात जो कोई ताकत थी, उसने मुझे बचा लिया। शायद किस्मत ही अच्छी थी, वरना यह कहानी लिखने के लिए जिंदा नहीं होता आज। बुआ को हर कोई डांटना चाहता था। पीठ पीछे सब बोलते थे कि इसने बेवकूफी की रात को उस रास्ते से आकर, मगर किसी ने सामने से नहीं डांटा। क्योंकि सब जानते थे कि वह डरी हुई है। उस घटना को आज 20 साल बीत गए हैं, मगर जहन में अब भी ताजा है।
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(लेखक मंडी के सरकाघाट से हैं और सरकारी स्कूल में गणित पढ़ाते हैं। उनकी गुजारिश पर उनका नाम बदल दिया गया है और जगहों के नाम नहीं दिए गए हैं।)
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