हिमाचल के देवता क्या गूर के माध्यम से ऐसे आदेश दे सकते हैं?

यतिन पंडित।। आस्था और अंधविश्वास के निर्धारण के बीच उतनी ही महीन रेखा होती है जितनी साक्षरता और ज्ञान के बीच होती है। पिछले दिनों जिला मंडी के सरकाघाट में घटित हुई एक घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर किया गया। 81 वर्षीय महिला बुज़ुर्ग के साथ हुई इस हृदय विदारक घटना ने हमारे समाज के समक्ष बहुत सारे प्रश्न खड़े कर दिए हैं। सबसे बड़ा प्रश्न, क्या कोई देवता इस प्रकार के आदेश देता है? दूसरा प्रश्न, क्या हम अपनी मान्यताओं को उसके मूल रूप में समझते भी हैं या नहीं? क्या किसी देवता का गूर व चेला कोई भी ऐसे ही बन सकता है? क्या धर्म के नाम पर पाखंड की दुकान चलाने वाले लोगों को पहचानना इतना मुश्किल काम है?

पहले इस घटना के विषय में बात करें तो मानवीयता को शर्मसार करने वाली इस घटना के सोशल मीडिया पर उछलने के बाद इस मामले में अब तक कुछ लोगों की गिरफ़्तारी हो चुकी है और पुलिस द्वारा आगे की कारवाई की जा रही है। एक बुज़ुर्ग महिला को देव आज्ञा के नाम पर डायन घोषित कर, उसे निर्दयता से पीटना और घसीटना हमारी मानसिकता के किसी कोने में दबी हुई विकृति को उजागर करता है। तो प्रश्न यह भी है कि क्या कोई देवता इस प्रकार के आदेश अपने गूर या चेले के माध्यम से देता भी है या नहीं?

पर इस विषय से पहले हमे यह समझना होगा कि हिमाचल की देव प्रणाली वास्तव में है क्या?
हिमाचल प्रदेश में वर्तमान में देव प्रणाली के विभिन्न संस्करण मौजूद हैं। इसमे पहली प्रणाली जिसे आज सर्वमान्य रूप से स्वीकार किया जाता है, वह है वैदिक मान्यता के देवी देवताओं की प्रणाली। जिसे लोक समाज हिन्दू मान्यता या सनातन मान्यता के रूप में समझते हैं। यह प्रणाली प्रमुख रूप से हिमाचल के विभिन्न ज़िलों के उन इलाकों में विद्यमान है जहां समय के साथ हिन्दू मान्यताओं का प्रभाव बढ़ा है। या यूं कहें कि वे इलाके जो विभिन्न क्षेत्रों में मुख्य कस्बों के रूप में विकसित हुए। इन स्थानों पर अलग-अलग मान्यताओं के लोगों की आमद अधिक होने के कारण कालांतर में यहां बहु-प्रचलित मान्यताएं स्थापित हुईं। इसके अंतर्गत वैदिक देवताओं और हिन्दू देवताओं की मान्यता तथा उनके वैदिक व शास्त्रीय रीति-नीतियों का स्थान आता है।

दूसरी प्रणाली जो बहुधा हिमाचल के ऊपरी पहाड़ी इलाकों में प्रचलित है, वह अर्ध-अध्यात्मवाद की प्रणाली है। इसके अंतर्गत वे देवी देवता आते हैं जो आधे देव रूप व आधे यक्ष/नाग रूप माने जाते हैं। इस कड़ी में ही मनाली की हिडिम्बा देवी भी आती हैं। इस प्रणाली को प्रमुख रूप से हिमालय की कबाइली मान्यताओं में मौजूद देवप्रथा के आधार के रूप में देखा जा सकता है। हम यह मानकर चलें कि हिमाचल में प्रचलित जितनी भी परम्पराएं जिनपर आज सनातन वैदिक धर्म की दुहाई देकर बारंबार प्रश्रचिन्ह लगाए जाते हैं वे सभी परम्पराएं इसी अर्ध-अध्यात्मवाद की प्रणाली से जुड़ी होती हैं।

इस प्रणाली के प्रति समझ की अक्षमता के कारण बहुत से समाज के विभिन्न वर्गों में अक्सर विवाद उत्पन्न होते रहते हैं। गूर और चेला प्रथा इसी प्रणाली के अंतर्गत विकसित हुई प्राचीन परम्पराएं हैं। हिमाचल के ऊपरी इलाकों में पूर्वकाल में प्रकृति पूजा की प्रधानता रही है। कालांतर में यही प्रकृति पूजा अन्य मान्यताओं के प्रभाव में आकर विभिन्न चरणों से गुज़रते हुए अपने वर्तमान स्वरूप तक पहुंची है। गूर या चेले जिन्हें शामन्स व ओरेकल्स भी कहा जाता है, यह प्रथा केवल हिमाचल में ही नहीं अपितु विश्वभर में विद्यमान प्रथा है। आप विश्व का कोई भी हिस्सा ले लीजिए, आपको यह प्रथा हर स्थान पर किसी ना किसी रूप में मिल जाएगी। यहां इसे इंगित करने का मकसद केवल इतना है कि इस प्रथा के अस्तित्व पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।

दुनिया भर में मौजूद हैं शामन्स

तीसरी प्रणाली वह प्रणाली है जो विभिन्न स्थानों से आकर हिमालयी क्षेत्र में स्थापित हुई हैं। अर्थात वे अपने तद्भव रूप में यहां विद्यमान है। जिसमे बुद्धिज़्म और मंगोल मान्यताएं भी शामिल हैं। बेशक यही मान्यताएं आंशिक रूप से अर्ध-अध्यात्मवाद की प्रणाली में भी मौजूद हैं परंतु जहां पर इस प्रणाली में हिंदु मान्यताओं का प्रतिस्थापन नगण्य है, उन्हें हम इस प्रणाली के अंतर्गत मान सकते हैं। यह प्रमुख देव प्रणालियां हिमालय की मान्यताओं में हैं। जिनके आधार पर हिमाचल को देव भूमि का वह दर्जा प्राप्त है जो लोगों के लिए उत्सुकता और कौतूहल का विषय रहता है।

क्या देवता किसी व्यक्ति के लिए आदेश जारी कर सकता है?
अब बात करें उस घटना की जिसे केंद्र में रखकर यह सब बातें निकल कर आ रही हैं। सरकाघाट के गांव में हुई उस निर्मम घटना के पश्चात देव प्रथाओं के गलत इस्तेमाल की बात भी लोगों के सामने आई है। सबसे पहले तो हम सभी यह समझ लें कि गूर प्रथा के अंतर्गत कोई भी देवता या शक्ति कभी किसी व्यक्ति विशेष को सीधे तौर पर इंगित कर इस प्रकार का कोई आदेश पारित नहीं करती हैं। अतः जो उन लोगों ने किया है, वह सरासर उदण्डता और देव आस्था के साथ खिलवाड़ है।

आजकल यह देखा गया है कि लोग इस विधा का प्रयोग अपने आर्थिक फायदे के लिए अधिक करने लगे हैं। कुछ लोग नए-पुराने नामों से देवता के रथ बनाकर खुद उनके गूर चेले बन समाज में स्वयं को स्थापित करने का ढोंग भी रचाने लगे हैं। जबकि देव नीति को बारीकी से समझने वाले लोगों की माने तो कोई भी देवता गूर और चेले के माध्यम से आदेश देने के लिए कुछ घड़ी ही किसी के शरीर में प्रविष्ट होता है। जो लोग अपने निजी देवस्थल बनाकर पूरा-पूरा दिन पूछ और देव खेल का आयोजन करते हैं, वे केवल जनता को देव शक्तियों के नाम पर छल रहे होते हैं और कुछ नहीं। इन लोगों को वास्तव में ही किसी मनोवैज्ञानिक की सलाह और इलाज की आवश्यकता है।

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गूर का चयन जटिल प्रक्रिया
गूर प्रणाली के अंतर्गत गूर का चयन किया जाना एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जिसके लिए बहुत सावधानी से और बड़ी रीति निर्धारित प्रक्रिया के तहत चुनाव होता है। ऐसे हर कहीं गूर चेला नहीं निकल आता, जैसा आजकल देखने में आ रहा है।
ऐसे पाखण्डी लोग वास्तव में देव शक्तियों के नाम पर अपनी दुकान चलाने का काम कर रहे होते हैं। इन लोगों के कारण एक तो लोगों की आस्थाओं से खिलवाड़ किया जाता है और दूसरा आम जनमानस की मान्यताओं को भी खंडित करने का काम किया जाता है। कल की घटना के बाद ना जाने कितने ही लोगों की माहूंनाग जी में आस्था खंडित हुई होगी?

यह परिस्थिति उत्पन्न होने का कारण, आस्था और अंधविश्वास की वही महीन रेखा है जिसका ज़िक्र शुरू में किया है। हम लोग जब तक अपनी मान्यताओं के मूल को नहीं समझेंगे, तब तक इस प्रकार के पाखण्डी जन्म लेते रहेंगे और हमारी आस्थाओं को खंडित करते रहेंगे।

सर्वप्रथम हमें अपनी मान्यताओं के प्रति यह स्वीकार्यता उत्पन्न करनी होगी कि हम पहाड़ी लोग अर्ध-अध्यात्मवाद को मानने वाले लोग हैं। ईश्वरीय सत्ता या परम सत्ता तो इससे ऊपर की चीज़ है जो सभी देव, दानव, मानव का मूल आधार है। हमे समझना होगा कि यह प्रणालियां वास्तव में हैं क्या, इनका आधार क्या है, हमारे वास्तविक देवता जिन्हें पूर्वज भी कह सकते हैं, वे हैं कौन? जब तक देव रीतियों के प्रति साक्षरता और ज्ञान का अंतर रहेगा , हम लोगों के सामने इस प्रकार के घटनाक्रम आते रहेंगे।

निजी रूप से मैं सभी चीजों को स्वीकार करने का भाव रखता हूँ। तंत्र, मंत्र, देव, दानव सबको। परंतु इसका यह अर्थ नहीं हो जाता कि इस आधार पर हम अपनी तार्किक बुद्धि को तिलांजलि देकर अंधों की तरह हर चीज़ पर विश्वास करने लग जाएं। आस्थाओं को जीवित रखिये, बेशक रखिये, परंतु अंध-आस्थाओं और अंधविश्वासों के प्रति जागरूक बनिये। तभी हमारा समाज हमारी पुरातन संस्कृति के पहलुओं का अस्तित्व व औचित्य बना रहेगा। अन्यथा जगह-जगह देवताओं के नाम पर मोहल्ला क्लिनिक खोलकर बैठे पाखंडी लोग धर्म के नाम पर लोगों को गुमराह करते रहेंगे और अपनी दुकान चलाते रहेंगे।

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हिमाचल की देव परंपरा और इसके नाम पर कुछ लोगों द्वारा अपनी दुकान चलाए जाने से फैले भ्रम को लेकर दो हिस्सों के लेख का पहला भाग है. दूसरा हिस्सा पढ़ने के लिए नीचे क्लिक करें-

देवता के नाम पर खुल रही दुकानों पर सरकार मूकदर्शक क्यों?

(लेखक यतिन पंडित कुल्लू से हैं और हिमाचल प्रदेश की संस्कृति व देव परंपराओं के इतिहास में दिलचस्पी रखते हैं।)

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