आवारा गायों से करोड़ों की आमदनी कर सकती है प्रदेश सरकार

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  • आशीष नड्डा

पिछले कुछ अरसे से गाय की दशा दिशा पर समाज में चर्चा छिड़ी है। हिमाचल प्रदेश में भी हर छोटे बड़े शहर गांव कस्बे में गाय को बेचारगी की स्थिति में अवारा घूमते हुए देखा जा सकता है। शहरों में यह गाय डस्टबीन के आसपास कचरा प्लास्टिक तक खाने को मजबूर हैं तो गांवों में भूख के कारण खेतों में घुसकर डंडा खाने के लिए। पूजनीय पशु की यह दुर्गति वास्तव में चिंता और शर्म का विषय है। ऐसा क्यों हो रहा है इन कारणों पर मैं नहीं जाना चाहता न गाय के आगे पीछे होने वाली राजनीति पर मेरे कोई विचार हैं।

व्यक्तिगत रूप से कोई गाय को पूजनीय माने या मात्र एक पशु माने इससे मुझे कोई लेना देना नहीं है। परंतु समाज के रूप में फर्क इस चीज से जरूर पड़ता है की गाय एक घरेलू पशु है और इसका सड़क पर होना धार्मिक और साजाजिक रूप से सही नहीं है। सड़क पर आवारा घूमती गाय से लोगों की धार्मिक भावनायों आहत होती हैं साथ ही सड़कों पर दुर्घटना का भी खतरा बना रहता है साथ ही ग्रामीण इलाकों में फसलों पर भी मार पड़ रही है। हिमाचल प्रदेश में कई ऐसे इलाके हैं जहाँ लोगों ने आवारा गायों से लेकर बंदरों के प्रकोप के कारण खेती ही बन्द कर दी है।

Traffic moves slowly as a group of stray bulls walk on a road in New Delhi May 5, 2005. An Indian court has ordered officials to clean up one of the biggest menaces prowling the wide avenues, luscious parks and crowded bazaars of the capital New Delhi - holy cows. About 35,000 cows and buffaloes roam free in Delhi in the heart of north India's Hindu "cow belt", sharing roads with hordes of monkeys, camels and stray dogs and killing scores of people every year in gorings and traffic accidents. REUTERS/Kamal Kishore KK/CCK - RTRA7NM
REUTERS/Kamal Kishore KK/CCK – RTRA7NM

खैर अब चर्चा का विषय यह है की उपरोक्त जो भी समस्याएं गाय के सड़क पर होने के कारण पैदा हुयी हैं इनसे कम से कम अपने प्रदेश के रूप में हम सोचें की कैसे पार पाया जा सकता है। जैसा की सर्विदित है और किया भी जाता है गाय को सड़क से हटाने के लिए उसके पुनर्वास की जरुरत है जिसके लिए गौशाला निर्मण ही एक सार्थक ऑप्शन बचती है। ऐसा हो भी रहा है विभिन्न समाजसेवी और धार्मिक संस्थाएं गौ शाळा खोलकर इन गायों के सरंक्षण और उत्थान के लिए कार्य कर रही हैं। परन्तु यह स्वेछिक सेवा इतने वयापक स्तर पर नहीं है की सड़क से हर गाय को गौशाला के रूप में ठौर मिल जाए। व्यापक क्यों नहीं है इसके भी कारण है। सड़क पर वही गाय छोड़ी जाती है जो स्वार्थी इंसान के लिए किसी कार्य की घर में न रही हो साथ ही बैल सड़कों पर छोड़े जाते हैं क्योंकि अब उनसे हल नहीं जोता जाता ट्रेक्टर और अन्य उपकरण शामिल हो गए हैं। मुझे याद है हमारे घर में जब गाय थी और बछड़ा पैदा होता था तो वो एक चिंता का विषय था की इस बछड़े को कौन लेगा ? वर्तमान में जो गौशाला हैं वो स्वेछिक निधि लोगों के दान या मंदिर ट्रस्ट आदि के सहयोग से चल रही हैं उन्हें खुद ही ही जमीन का जुगाड़ करना होता है खुद ही संसाधन अरेंज करने होते हैं। उनके पास आय का कोई साधन भी नहीं है।

हालाँकि हिमाचल सरकार ने हाई कोर्ट के आदेशों पर पंचायतों को जमीन देखने के लिए कहा है जहाँ गौशाला का निर्माण किया जाए। परन्तु पंचायतों का रवैया इसके लिए उदासीन ही रहा इसका यह भी कारण है की पंचायत प्रतिधि पांच साल के लिए चुनकर आते हैं। साथ ही सरकार ने भी कोई डिटेल मॉडल रोडमैप लॉन्ग टर्म आर्थिक सपोर्ट पेश नहीं की जिससे की पंचायतों की चिंताएं दूर होती और वो इस दिशा में आगे बढ़ती। क्योंकि एक बार जमीन और निर्माण के लिए बेशक गौशाला को पैसा मिल जाए पर वो आगे कैसे सस्टेन करे इस पर सोच जरुरी है।

ऐसी हो सकती है गोशाला

इकनॉमिक ऐंड फाइनैंशल मॉडल
कोई भी संसथान (इस केस में गौशाला) तब तक लॉन्ग टर्म सस्टेनेबल नहीं हो सकते जब तक सर्वाइव करने के लिए उनके पास अपने आर्थिक संसाधन विकसित न हों। सरकार की सब्सिडी भी कब तक चलती रहेगी। पर हाँ सरकारें शुरुआत में अपने अधिकार क्षेत्र से कुछ योगदान दे सकती हैं। गाय के पुनर्वास के लिए गौशाला प्रथम स्तम्भ है और गौशाला का अपने संसाधनों से आत्मनिर्भर होना लॉन्ग टर्म के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। कुलमिलाकर मैं यहाँ इसी मॉडल पर चर्चा करूँगा की सरकार , हम नागरिक इसमें क्या योगदान दे सकते हैं और किस भूमिका में हो सकते हैं।

सबसे महत्वपूर्ण है सरकार का रोल। पंचायतों को यह जिम्मेदारी सौपने से बेहतर है सरकार गौ संवर्धन बोर्ड का गठन करे और तहसील स्तर पर खड्डों के आसपास लगती बंजर या बेकार जमीन को गौशाला निर्माण के लिए चिन्हित करे। कोई भी स्वयसेवी संस्था अगर उस इलाके की आगे आना चाहे तो सरकार वो जमीन उसे दे सकती है कोई नहीं मिलता है तो बोर्ड खुद गौशाला निर्माण में आगे आये। मंदिर ट्रस्ट के दान के पैसों को इन सब कार्यों में प्रयोग किया जा सकता है हम नागरिकों का भी कर्त्तव्य बनता है की सरकार इस दिशा में कदम बढ़ रही है तो अपनी धार्मिक आस्था के लिए ही सही वैतरणी गंगा पर करने के लिए ही सही अपने नगरों को रोड असक्सीडेन्ट से बचाने के नाम पर फसलों को बचाने के नाम पर किसी भी कारण सेस्वेच्छिक दान दे। हम में से कई लोग होंगे जो गाय के लिए चिंतित हैं पर उन्हें यह कहा जाए की सड़क से लाकर दो गाय घर में पाल लो तो उनके लिए यह संभव नही होगा पर हाँ कोई संस्था यह काम कर रही हो तो ऐसे भी बहुत लोग हैं जो स्वेच्छा से दान वहां देंगे। इसलिए यह जिम्मेदारी गौ संवर्धन बोर्ड को उठानी होगी। गौ शाला में गाय को गोद लेने के लिए भी अभियान शुरू हो वो पलेगी बढ़ेगी वहीँ पर वैतारनी गंगा पर करने का इछुक व्यक्ति गर घर में गाय नहीं पाल सकता। वहां उसका खर्च उठाये अ मौजूद परिस्थिति में वैतरणी गंगा पार करने के कांसेप्ट को अब गौदान से गौ पालन पुनर्वास से जोड़ना सार्थक है ।

ऐसी हो सकती हैं गोशाला
हिमाचल प्रदेश में सरकारी जमीन और चारे की कोई कमी है नहीं है इसलिए पहले स्टेप में कोई दिक्कत नहीं है। गौशाला निर्माण के बाद बात आती है उसके सस्टेन करने की सब्सिडी के बोझ से प्रदेश को नहीं दबाया जा सकता। जहाँ गौ शाला और गाय होंगी जाहिर है वहां गोबर भी होगा गाय के गोबर में 86 प्रतिशत तक द्रव पाया जाता है। गोबर में खनिजों की भी मात्रा कम नहीं होती। इसमें फास्फोरस, नाइट्रोजन, चूना, पोटाश, मैंगनीज़, लोहा, सिलिकन, ऐल्यूमिनियम, गंधक आदि कुछ अधिक मात्रा में विद्यमान रहते हैं तथा आयोडीन, कोबल्ट, मोलिबडिनम आदि भी थोड़ी थोड़ी मात्रा में रहते हैं। इन्ही खनिजो से गोबर खाद के रूप में, मिट्टी को उपजाऊ बनाता है। पौधों की मुख्य आवश्यकता नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटासियम की होती है। वे वस्तुएँ गोबर में क्रमश: 0.3- 0.4, 0.1- 0.15 तथा 0.15- 0.2 प्रतिशत तक विद्यमान रहती हैं। मिट्टी के संपर्क में आने से गोबर के विभिन्न तत्व मिट्टी के कणों को आपस में बाँधते हैं, किंतु अगर ये कण एक दूसरे के अत्यधिक समीप या जुड़े होते हैं तो वे तत्व उन्हें दूर दूर कर देते हैं, जिससे मिट्टी में हवा का प्रवेश होता है और पौधों की जड़ें सरलता से उसमें साँस ले पाती हैं। गोबर का समुचित लाभ खाद के रूप में ही प्रयोग करके पाया जा सकता है।

हालाँकि हमारे किसान ऐसा सदियों से कर रहे हैं । परंतु ज्यादातर किसान कच्चा गोबर खेतों में प्रयोग करते हैं जिसे कम्पोस्ट होने में समय लग जाता है और तब तक बारिश के कारण यह सब खेतों से बह जाता है। रासायनिक खाद के केस में तुरंत इफ़ेक्ट होता है इसलिए प्रयोग के साथ हमें लगने लगा की यह केमिकल खाद हमारे गोबर से ज्यादा असरदायक है। परन्तु इसके नुक्सान पंजाब और साउथ के राज्यों में देस्ख सकते हैं। अत्यधिक रासायनिक खाद के प्रयोग से ग्राउंड वाटर में कैंसर पैदा करने वाले तत्व मिल गए हैं जिस कारण पंजाब का मालवा इलाका तो कैंसर बैल्ट के रूप में जाना जाने लगा है।

गोबर आधारित ऑरगैनिक खाद पैक करके भी बेची जा सकती है

छोटी सी खेती के लिए पहाड़ी किसान गोबर को एक लेवेल तक डिकंपोस करने का फिर प्रयोग करने का झंझट नहीं पालते। पर गौ संवर्धन बोर्ड प्रदेश की हर गौशाला में ओर्गानिक खाद जिसे कहते हैं उसे बड़े स्तर पर बना सकता है। उसी खाद को बढ़िया नाम पैकिंग देकर कृषि डिप्पों में किसानों को रासायनिक खाद की जगह बेचा जा सकता है वैसे भी रासायनिक खाद पर सब्सिडी हम दे ही रहे हैं। अभी मक्की की फसल के लिए 50 किलो पैकिंग की रासायनिक खाद हमने गावं में अपने खेतों के लिए ली है। उसी पैकिंग में उसी डिप्पों में अच्छी तरह से तैयार हुई गोबर की खाद वैसी ही पैकिंग में हमें मिले तो हमें या किसी भी किसान को क्या दिक्कत है। यह एक टेलर मेड रिप्लेसमेंट हो सकती है।

अब मुझे यह कहा जाए की पहले गाय पालो फिर गोबर गड्ढे में डालो केंचुए डालो कम्पोस्ट खाद बनायो तब खेत में प्रयोग करो तो यह मुझसे नहीं हो पायेगा। पर हाँ मार्किट में डीपो में सरकार अपने ही प्रदेश में बनी उच्च स्तर की गोबर खाद उपलब्ध करवाये तो हम ले लेंगे। इस खाद की सेल गौशाला के लिए आय का स्त्रोत भी रहेगी और बाज़ार भी उपलब्ध है। मैं इस विषय का एक्सपर्ट नहीं हूँ पर हाँ इस क्षेत्र के एक्सपर्ट्स से चर्चा करके यह रिसर्च किया जा सकता है की गोबर से जो खाद बनेगी क्या उसमे थोड़े अमाउंट में रसय्यानिक खाद मिलाई जा सकती है जिससे जो भी कमी पेशी गोबर खाद में खनिज तत्वों की रह गयी हो वो पूरी हो सके। ऐसा हो सकता है है नहीं भी रहती हो मुझे आईडिया नहीं है। एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के सइंटेस्ट की मदद ली जा सकती है।

हिमाचल प्रदेश के जनसँख्या 70 लाख है और हर परिवार में पांच सदस्य रॉ कॉकलशन के लिए मैं लेकर चलूँ तो 14 लाख परिवार बनते हैं अगर यह मान लिया जाए की औसतन एक परिवार मक्की की फसल के लिए 50 किलो की यूरिया हर वर्ष लेता है और गेहूं की फसल के लिए 50 किलो रासायनिक खाद हर वर्ष लेता है तो लगभग 300 रूपए यूरिया की पैकिंग और लगभग 1000 रूपए गेहूं वाली खाद हर वर्ष लेने में हम हिमाचली लोग लगभग 15. 5 करोड़ रूपए व्यय कर रहे हैं। अगर उसके आधा भी गौ संवर्धन बोर्ड गौशाला में उत्पादित आर्गेनिक गोबर खाद को बेच पाए तो लगभग 8 करोड़ की सालाना आय यहाँ से आएगी। (डाटा उपलब्ध नहीं होने के आकड़ें असंप्शन पर आधारित हैं , डिटेल एस्टिमेशन के लिए रासायनिक खाद की बिक्री के आंकड़ों का प्रयोग किया जा सकता है )

बायोगैस (गोबर गैस) डाइजेस्टर

यह बताना भी मैं जरुरी समझता हु की गोबर से गैस भी बन सकती है सब जानते हैं। 90 के दशक में सब्सिडी बाँट के सरकार ने लोगों से प्लांट लगवाये थे पर टेक्नीकल और बिना रीसरसच के सब फ्लॉप हो गए। किसान के लिए एक दो पशु से गोबर गैस प्लांट चलाना वाएअबल नहीं है। परंतु गौ शाला में जहाँ सैंकड़ों की संख्या में गाय होंगी प्रचुर मात्रा में गोबर होगा वहां यह प्लांट बढ़िया तरीके से वर्क करेंगे। गोबर गैस बनाने के बाद जो अपशिष्ट बचता है वो कम्पोस्ट खाद की तरह जल्दी असरदायक और ज्यादा उर्वरक क्षमता वाला होता है , यानी डबल पर्पस सॉल्व खाद भी ऊर्जा भी। गौ शाला से इस गैस को सीलेंडर में पैक करके बेचा भी जा सकता है .हालाँकि यह बताना मैं जरुरी समझता हु की गोबर गैस की कैलोरिफिक वैल्यू (एनर्जी कंटेंट) एलपीजी से कम होता है। एलपीजी का एनर्जी कंटेंट जहाँ 44 MJ /k g है वहीँ गोबर गैस का 20 -22 MJ/kg है। यानी एक एक चाय का कप बनाने के लिए जितनी एलपीजी आपको खर्च करनी होती है उसके लिए आपको डबल मात्रा में बायो गैस खर्च करनी होगी। आज हिमाचल में एक डोमेस्टिक एलपीजी सिलेंडर लगभग 500 रूपए में मिल रहा है गौ संवर्धन बोर्ड गोबर गैस पैदा करके एक सीलेंडर 250 रूपए में बेच सकता है।

गोबर गैस डाइजेस्टर
अगर मैं यह मानू की 14 लाख हाउसहोल्ड में से सिर्फ 10 लाख ही एलपीजी उपभोगता हिमाचल में हैं और वो हर महीने एक एलपीजी सीलेंडर प्रयोग करते हैं तो बायो गैस के उन्हें दो करने करेंगे। यानी 5 करोड़ एक महीने में आय गौ संवर्धन बोर्ड को हो सकती है। सालाना यह आय 60 करोड़ हो गयी आठ करोड़ खाद के अब क्या 68 करोड़ सालाना आया वाले बोर्ड को जिसकी रॉ मटेरियल कॉस्ट जीरो है सब्सिडी की जरुरत रहेगी ?

(इन एस्टिमेशन में एक्चुअल में कितने उपभोगता है इस संख्या को नहीं लिया गया है साथ ही पूरी एल पी जी सप्लाई को गोबर गैस से रिप्लेस करना संभव नहीं है क्योंकि इतने मवेशी सड़कों पर नहीं है पर यह एक ऑप्टिमिस्टिक पोटेंशियल फिगर है) अगर हम इसका 25 % भी लें तो 17 करोड़ की आय गौ संवर्धन बोर्ड अपने संसाधनों (जिनमे सिर्फ आवारा गाये शामिल) हैं से अर्जित कर सकता है।

जो मैं यहाँ बता रहा हूँ यह कोई नया मॉडल या खोज नहीं है IIT डेल्ही के रूरल सेंटर में इसपे बहुत काम हुआ है वो तो अपने दो व्हीकल गोबर गैस से चलाते हैं। राजस्थान में जयपुर वाला गौ सेवा संघ एक बार मैंने विजिट किया था वहां मैंने देखा की गोबर गैस का प्रयोग वो लोग डेरी के लिए जनरेटर चलाने के लिए कर रहे थे साथ ही कम्पोस्ट खाद को भी पैकिंग के साथ बेच रहे थे , हमारे हिमाचल में भी तो यह हो सकता है।

बायोगैस से चलने वाला ऑटो

इसके अलावा प्रदेश में दूध के सैम्पल फेल हो रहे हैं गौ शाला में जरुरी नहीं है की नकारा और बूढी गायें पाली जाएँ। दुधारू और नस्ल की गायें भी साथ में रखी जा सकती हैं जिनसे पाप्त दूध से डेरी प्रोडक्ट बनाये जाएँ और हिम फेड की तर्ज बार गौ संवर्धन बोर्ड अपने ब्रांड से मार्किट में बेचकर आय अर्जित करे।

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कुछ इस तरह हो सकता है गौ पुनर्वास का फाइनैंशल और आत्मनिर्भर मॉडल

यह सब हो सकता है बस एक इच्छाशक्ति ईमानदार टास्क फोर्स और मार्किट बेस्ड मॉडलिंग की जरुरत है। मैं तो यहाँ तक कहता हु सरकार अगर यह सुनिश्चित कर दे की निर्द्धारित दाम पर वो आर्गेनिक गोबर खाद खरीदने के लिए तैयार है और इसके लिए बाकायदा 10 साल का अग्र्रमेन्ट करने की नीति लाये तो बोर्ड की जरुरत भी नहीं रहेगी। निजी संस्थाएं खुद ही सड़कों से गाय को उठाकर अपने फायदे के लिए गौशाला खोलकर ओरगनिक गोबर खाद की फैक्ट्री लगा देंगी।

अंत में मैं यह कहना चाहूंगा आंकड़े आगे पीछे हो सकते हैं पर मिल बैठकर सबंधित क्षेत्र के वैज्ञानिकों से सलाह लेकर किसान से लेकर बिज़नेसमैन को हिस्सा बनाकर इकोनॉमिकल और फाइनेंसियल मॉडलिंग की जा सकती है। शुरू में व्यापक स्तर पर न सही परंतु कम से कम एक दो ज़िलों में पायलट आधार पर ऐसे प्रोजेक्ट तो शुरू किया ही जा सकता है। पायलट प्रोजेक्ट से भविष्य के लिए क्या हो सकता है इस पर सीख मिलेगी साथ ही कहीं कमी रह गयी होगी वहां भी सुधार के लिए गुन्जाईस रहेगी। बाकी हिन्दू लोग वैतरणी गंगा पर करने के लिए गोद लेने वाले गौ पालन कांसेप्ट पर जरूर सोचें।

(लेखक मूल रूप से ज़िला बिलासपुर के रहने वाले हैं और IIT दिल्ली में रिन्यूएबल एनर्जी, पॉलिसी ऐंड प्लैनिंग में रिसर्च कर रहे हैं। लेखक प्रदेश के मुद्दों पर लिखते रहते हैं। उनसे aashishnadda@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

मंडी में ऑनर किलिंग: भाइयों ने काट दी 20 साल की बहन की गर्दन

एमबीएम न्यूज नेटवर्क, मंडी।। प्रदेश के मंडी जिले की सराज घाटी में 20 साल की युवती का शव एक खाई में मिला था। हत्यारों ने बेरहमी से उसका गला काट दिया था। अब साफ हुआ है कि उसकी हत्या किसी और ने नहीं, बल्कि उसके भाइयों ने ही की थी। वह भी झूठी इज्जत के नाम पर। इन लोगों को शक था कि उनकी बहन के किसी से रिश्ते हैं।

20 साल की कृष्णा तलाकशुदा थी और अपने मायके में ही रहती थी। पिता की मौत हो चुकी थी, ऐसे में कभी-कभार अपने चाचा के यहां भी रहना होता था। पुलिस के मुताबिक गुनहगारों ने अपनी बहन को भटकीधार में किसी शख्स के साथ देखा तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। घर लौटते वक्त जब वह पैदल आ रही थी, रास्ते में तेजधार हथियार से उसकी हत्या कर दी गई।

Source: MBM News Network

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पुलिस ने इस मामले में शक के आधार पर तीन लोगों रोशन लाल, सुभाष और निर्मल को अरेस्ट किया था। सुभाष और निर्मल मृतका के भाई हैं। एक ममेरा भाई और दूसरा चचेरा। मृतका की उंगलियां भी कटी हुई थीं, जिससे पता चलता है कि उसने हमले से बचने की कोशिश की होगी। वह अपने चाचा को भी फोन लगाने में कामयाब रही थी, जिन्होंने उसकी चीख-पुकार सुनी थी। इसके बाद ही उसकी तलाश शुरू की गई थी।

डीएसपी हितेश लखनपाल ने दो गिरफ्तारियों की पुष्टि कर दी है। उन्होंने कहा कि हत्या का मकसद पता चल गया है, अब वारदात में इस्तेमाल किए गए हथियार को बरामद करना बाकी है।

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शिमला में दो शव मिलने से सनसनी, दो टुकड़ों में मिली एक लाश

एमबीएम न्यूज नेटवर्क, शिमला।। प्रदेश में घिनौने अपराध के मामले बढ़ते नजर आ रहे हैं। आए दिन ऐसी खबरें आ रही हैं, जिनकी उम्मीद हिमाचल प्रदेश में नहीं की जा सकती थी। शिमला की ही बात करें तो यहां पर नन्हे युग का अपहरण करके बेरहमी से हत्या का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ है कि दो और घटनाएं देखने को मिली हैं। रविवार के संजौली में जहां एक युवक अपने निवास स्थल के पास मृत पाया गया, वहीं शिमला में एक शव दो टुकड़ों में पाया गया। एक जगह टांगें और दूसरी जगह धड़।

Crime

संजौली वाली घटना की बात करें तो पर मृत पाए परमजीत नाम के युवक के बारे में पुलिस फिलहाल इस नतीजे पर पहुंच रही है कि तीसरी मंजिल से गिरने के कारण उसकी मौत हुई। बताया जा रहा है कि परमजीत किसी बीमारी से जूझ रहा था। ऐसे में पुलिस आत्महत्या और हत्या दोनों का ऐंगल लेकर चल रही है। पुलिस ने दोहराया है कि हत्या की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता।

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वहीं दूसरा सनसनीखेज मामला है दो हिस्सों में शव मिलने का। सुबह उस वक्त सनसनी फैल गई, जब एक शख्स का कुत्ता एक तरफ भौंकने लगा। वहं देखा गया कि किसी की टांगें पड़ी थीं। बाद में पुलिस ने खोजबीन की तो पास ही धड़ भी मिल गया। फिलहाल इस मामले में पुलिस अंतिम नतीजे पर नहीं पहुंची है, क्योंकि पहले क्षत-विक्षप्त हालत में दो हिस्से में मिले शव की शिनाख्त की जानी है। पहली नजर में तो यह हत्या का मामला तो लग रहा है, लेकिन पुलिस पोस्टमॉर्टम और फरेंसिक जांच को प्राथमिकता दे रही है।

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ओलिंपिक में भारत का प्रदर्शन आस जगाने वाला है, निराश करने वाला नहीं

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  • विजय इंद्र चौहान

आंकड़ों के हिसाब से देखें तो यह ओलिंपिक गेम्स भारत के लिए कोई ख़ास सफलता वाले नहीं रहे। पर इम्पैक्ट या प्रभाव के नजरिए से देखें तो यह भारत के लिए अब तक की सबसे सफल ओलिंपिक गेम्स रहे हैं। ओलिंपिक शुरू होने से पहले ये उम्मीदें लगाई जा रही थीं कि इस बार भारत पिछली बार के मुकाबले अच्छा प्रदर्शन करेगा और ज्यादा मेडल जीतकर लाएगा। क्योंकि ओलिंपिक में भाग लेने जा रहा भारतीय दल अब तक का सबसे बड़ा दल था। इसलिए जाहिर सी बात है कि मेडल्स की उम्मीदें भी ज्यादा की थी।

गेम्स शुरू हुए और धीरे-धीरे जिन खिलाड़ियों से मेडल की उम्मीद थी, वे शुरू के मुकाबलों में ही बाहर हो गए। जैसे ही ऐसा हुआ, कुछ भारत सरकार विरोधी या यूं कहें कि देश में रह कर भी देश विरोधी रवैये वाले लोगों ने यह माहौल बनाना शुरू कर दिया कि इस बार भारत को कोई भी मेडल नहीं मिलेगा और यह भारत सरकार की नाकामी है। सोशल मीडिया और अन्य परंपरागत हर तरह के मीडिया में निराशा का माहौल बनाने की भरपूर कोशिश की गई। देशवासी जिन्हें खिलाड़ियों से मैडल की उम्मीद थी वह तो निराश थे ही, साथ में खिलाड़ी जो ओलिंपिक में भाग लेने ए हुए थे उनके लिए भी निराशा का माहौल बनाया गया। जिन खिलाड़ियों के मुकाबले अभी होने थे उनके लिए रास्ता और कठिन हो गया था।
एक तो दिग्गज खिलाडी जिनसे मैडल की उम्मीद थी वह प्रतियोगिताओं से बाहर हो गए थे और उधर देश में कुछ लोग यह माहौल बनाने में लगे हुए थे कि यह ओलिंपिक भारत के लिए अब तक की सबसे असफल रहेगी और भारतीय खिलाड़ियों का दल खाली हाथ वापिस घर लौटेगा। किसी भी खेल में अच्छे प्रदर्शन के लिए खिलाड़ी का मनोबल बहुत महत्बपूर्ण होता है पर यहाँ पर उनका मनोबल बढ़ाने के बजाए उनको हतोत्साहित करने के पूरा प्रयास किया। माहौल ऐसा बन गया था कि आशावादी से आशावादी व्यक्ति भी यह सोचने लगा था कि इस बार तो भारत को कोई भी मैडल नहीं मिलेगा।

जब सारी उम्मीदें लगभग खत्म होती हुई लग रहीं थी तब एक ऐसे खेल में जिसमे भारत की विश्व स्तर पर कोई पहचान नहीं है उसमे भारतीय महिला खिलाड़ी दीपा कर्मकार ने ऐसा प्रदर्शन किया की सारा देश गर्व और खुशी से झूम उठा।

दुर्भाग्य रहा कि इतने शानदार प्रदर्शन के बाद भी दीपा कर्माकर को कोई मैडल नहीं मिला और वह चौथे स्थान पर रहीं। मैडल तो नहीं मिला पर दीपा ने अपना काम कर दिया था। पूरा देश जो निराशा में डूबा हुआ था वह गर्व के मारे फूले नहीं समा रहा था। सारे सोशल मीडिया पर दीपा के प्रदर्शन पर बधाई के सन्देश ही घूम रहे थे और किसी को भी यह मलाल नहीं था कि दीपा मैडल नहीं जीत पाई। अब लोग यह सोचने लगे थे कि मैडल नहीं मिला तो क्या हुआ दीपा कर्माकर ने जो प्रदर्शन किया क्या वह कम है। पर अब क्या था। समर्थकों के साथ साथ खिलाड़ियों में भी माहौल निराशा से आशा में बदल गया था और परिणाम आने में कोई ज्यादा वक़्त नहीं लगा। अगले दिन ही दूसरी महिला खिलाडी शाक्षी मलिक ने कुश्ती में मैडल जीत कर भारत का ओलिंपिक में खाता खोल दिया।


और सिलसिला यहीं पे नहीं रुका। उससे अगले दिन बेडमिंटन में एक और महिला खिलाड़ी पी वी सिंधु ने फाइनल में प्रवेश पा लिया और भारत के लिए सिल्वर मैडल पक्का करवा दिया। जैसे ही पी वी सिंधु ने सेमिफाइनल जीता सारा देश एक जुट हो कर पी वी सिंधु और भारतीय महिलाओं की जय जय कार करने लगा। इससे पहले शायद ही कभी पूरे देश ने एक जुट हो कर महिलाओं का गुणगान किया होगा।
Image result for PV sindhuयह पहला मौका था जब भारतीय महिलाओं की क्षमता को पुरे देश ने माना और सराहा भी। यह भारतीय महिलाएं ही थी जिन्होंने चारों ओर फैले निराशा के माहौल को आशा में बदल दिया और उन लोगों के मुँह बंद करवा दिए जो यह बोल रहे थे की भारत ओलिंपिक से खाली हाथ लौटेगा। इस ओलिंपिक में भारत मैडल बेशक कम जीत के लाया होगा पर इसी ओलिंपिक ने हम भारतियों को महिलाओं की क्षमताओं से अवगत करवाया।

इसी ओलिंपिक ने हमें सिखाया की निराशा चाहे जितनी मर्जी हो एक आशा की किरण सब कुछ बदल देती है। जिस हिसाब से सारा देश पी वी सिंधु के सेमीफाइनल मैच जितने पर एक जुट हुआ था ऐसा शायद नहीं होता अगर कुछ लोगों ने देश में निराशा का माहौल बनाने की कोशिश न की होती। लोगो का एक जुट होना इस बात का संकेत है की जब की देश की क्षमता के ऊपर प्रशन चिन्ह जगाया जायेगा तो सारा देश एक साथ खड़ा होगा। जय हिन्द।

(लेखक पालमपुर से हैं और एक मल्टीनैशनल में कार्यरत हैं। उनसे vijayinderchauhan@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

हॉरर एनकाउंटर: क्या था हवा में दिखने वाली तस्वीरों और मंत्रों का रहस्य?

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DISCLAIMER: हम न तो भूत-प्रेत पर यकीन रखते हैं न जादू-टोने पर। ‘इन हिमाचल’ का मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है। हम लोगों की आपबीती को प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि अन्य लोग उसे कम से कम मनोरंजन के तौर पर ही ले सकें और कॉमेंट करके इन अनुभवों के पीछे की वैज्ञानिक वजहों पर चर्चा कर सकें।

  • संकेत शर्मा

यह मेरी आपबीती है, जिसे आपमें से बहुत से लोग झूठ करार देंगे। वैसे अब मैं बिल्कुल ठीक हूं, मगर उस दौर की याद आती है तो डर लगने लगता है। वैसे तो जो कुछ मैंने अनुभव किया, उसे बहुत से लोग मानसिक समस्या भी करार देते हैं। और इसके चक्कर में मुझे कई बड़े मनोचिकित्सकों के चक्कर भी काटने पड़े। मुझे भी लगने लगा था कि मैं पागल हो गया हूं और मतिभ्रम (hallucination) का शिकार हो गया हूं। मगर मेरी समस्या का इलाज डॉक्टर भी नहीं कर पाए थे। खैर, आप लोग मुझे जज करने के लिए स्वतंत्र हैं, मगर मैं अपनी बात रखना चाहता हूं। मुझे लगता है कि आज भी ऐसी चीजें हैं, जिनका कोई एक्सप्लैनेशन नहीं है।

यह सिलसिला तब शुरू हुआ, जब हमारा परिवार शिमला ट्रांसफर हुआ। पापा का तबादला शिमला हो गया था और मम्मी का ट्रांसफर भी वहीं करवा लिया। हम सब भी सोलन से वहां चले आए। जहां हमने क्वॉर्टर लिया था, वह जगह जरा वीराने में है। जिस बिल्डिंग मे ंहम रहते थे, वह अंग्रेजों के जमाने की थी। उसके ठीक सामने भी कुछ मकान बने थे। अंग्रेजों के टाइम में वे सर्वेंट क्वॉर्टर हुआ करते थे, लेकिन आज किराए पर चढ़े हैं। कहने को सर्वेंट क्वॉर्टर हैं, मगर शानदार मकान हैं। शिमला मे ंरहने वाले लोग इस बात को समझ रहे होंगे। खैर, बीटेक करने के बाद मैं खाली बैठा हुआ था और डिसाइड कर रहा था कि आगे क्या करना है। पहले मैंने जॉब का मन बनाया था सो एमटेक में ऐडमिशन नहीं लिया। मगर फिर जॉब मनमाफिक मिल नहीं रही थी।

दिन को मम्मी-पापा ऑफिस चले जाते और मैं घर पर अकेला रह जाता। दिन भर टीवी देखता और कभी बालकनी में आकर जंगल के नजारे देखता। एक दिन मेरी नजर सामने वाले क्वॉर्टर्स पर गई। वहां मैंने देखा कि एक लड़की खड़ी होकर मेरी तरफ देख रही है। वो क्वार्टर हमारे क्वॉर्टर से मुश्किल से 20 मीटर दूर होगा। पहले मैंने सोचा कि किसी और की तरफ देख रही होगी। मगर मैंने दाएं-बाएं झांककर देखा कि इस तरफ और कोई नहीं है, मैं ही हूं। खैर, मैंने इग्नोर मारा और अंदर चला गया।

Stroy

दो-तीन दिन बाद जब मैं फिर बालकनी में गया तो फिर वही लड़की दिखी। वह इसी तरफ देख रही थी। उसके हाथ में स्टील का गिलास था और अजीब सी स्थिर सी खड़ी थी। न कोई हरकत, न कुछ। बस देखे जा रही थी। मैं हैरान सा उसकी तरफ देख रहा था कि उसने इशारा किया गिलास से। ठीक वैसे, जैसे आप पूछ रहे हों कि ये गिलास लोगे या मतलब जैसे चाय का गिलास लेकर दूसरों से पूछते हैं कि चाय पिओगे। मैं हैरान था कि कौन लड़की है, क्या कर रही है। अजीब है, लाइन मार रही है क्या। खैर, सच बताऊं तो मुझे इतने अट्रैक्टिव भी नहीं लगी थी वो कि मैं खुश हो जाऊं कि लड़की लाइन मार रही है। और उन दिनों वैसे भी जॉब को लेकर ज्यादा सोच रहा था। मैंने उसे इग्नोर किया और इधर-उधर देखने लगा। मैंने कुछ देर दूर के मकान के आंगन में खेल रहे बच्चों को देखा। और फिर कमरे में अंदर जाने से पहले एक बार फिर उस तरफ देखा, जहां वह लड़की खड़ी थी। इस बार वह वहां नजर नहीं आई। मगर जैसे ही मैं कमरे में जाने ही वाला था, बालकनी के ठीक नीचे वही लड़की ऊपर की तरफ देखती हुई नजर आई। गिलास के साथ और मुस्कुराते हुए।

बड़ी अजीब बात लगी। मैंने फिर इग्नोर किया और कमरे के अंदर चला आया। उसके बाद भी कई दिन तक वह लड़की मेरे सामने आती और बात करने की कोशिश करती, मगर मैं टाल देता। कभी नमस्ते कहती, कभी मिल जाने पर मुस्कुराती। मगर मेरे मन में उसके प्रति धीरे-धीरे आकर्षण पैदा हो रहा था शायद। एक दिन जब मैं अकेला था दिन में, किसी ने दरवाजा खटखटाया। मैंने खोला तो वही खड़ी थी। मैंने पूछा कि क्या हुआ, तो बोली कि पापा बुला रहे हैं तुमसे बात करनी है। मैंने कहा मुझे कोई बात नहीं करनी और दरवाजा बंद कर दिया। इसके बाद मैं जैसे ही आकर बिस्तर पर बैठा। कमरे में सफेद प्रकाश में उस लड़की की तस्वीरें बननी शुरू हो गईं। उसका बाप भी दिखा उस तस्वीर में और उसके पीछे कुछ लोग खड़े थे। मैं दो-तीन सेकंड के लिए हक्का-बक्का रह गया। दीवारों से आगे हवा में रोशनी में ऐसी तस्वीर बन रही थी, जैसे 3डी फिल्म चल रही हो। अजीब-अजीब सीन दिख रहे थे। कभी दिख रहा था कि उस लड़की को ऐंबुलेंस में ले जा रहे थे और वो मर रही हो। मैं घबरा गया और आंखें बंद कर लीं। जब खोलीं तो फिर वही सब सामने था। यह कोई भ्रम नहीं था। मैंने सिहराने के पास रखी थाली (ब्रेकफस्ट के बाद यहीं छोड़ दी थी) उठाई और जोर से दरवाजे पर दे मारी। जोर से आवाज आई बर्तन गिरने की और वे तस्वीरें गायब हो गईं।

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर

इस घटना के बाद मैंने घर से बाहर जाना ही बंद कर दिया। मगर जब कभी बाहर जाता, बस वगैरह में भी वैसी ही तस्वीरें हवा में बनना शुरू हो जातीं। फिर मैंने घरवालों को इस बारे में नहीं बताया। मुझे लगा कि भ्रम हो गया है और दिमाग खराब हो गया है मेरा घर पर रहकर फ्रस्ट्रेशन में। मैंने उन्हें बोला कि टेस्ट के लिए प्रिप्रेशन करने चडीगढ़ जाना है। चंडीगढ़ आया मैं और एक मकान में रहने लगा। कुछ दिन तो ठीक रहा। रोज मैं नॉन-वेज खाता बाहर से मंगवाकर, मौज से रहता। ऐसी कोई घटना नहीं हुई। 15 दिन ही यह सिलसिला चला होगा कि 16वें दिन दादा जी की मृत्यु का समाचार मिला। यहां आया तो घरवालों को बताया कि ऐसे-ऐसे हुआ था मेरे साथ शिमला में, ऐसा-ऐसा दिखता था। डॉक्टर के पास ले गए वे मुझे और दवाई दी। डॉक्टर ने समझाया कि कैसे भ्रम का शिकार हुआ हूं मैं और सब इमैजिन कर रहा हूं।

इसके बाद मैं जब मैं वापस चंडीगढ़ आया। अजीब बातें होने लगीं। मुझे फिर वैसे ही दृश्य दिखने लगे। अजीब से गाने सुनाई देने लगे। मार्बल पर कुछ मंत्र लिखे मिलने लगे, जिन्हें मैंने डायरी ने नोट किया था। कुछ तस्वीरें दिखतीं कि उसका बाप कुछ लोगों के साथ खड़ा है औऱ उनके आगे लोमड़ी मरी हुई है। इतना डरावना अनुभव कभी नहीं रहा। न तो नींद आ रही थी और कुछ करने का मन करता था। आखिर में मैंने घरवालों को बताया कि मुझे ले जाओ। वे वापस मुझे  शिमला ले गए। डॉक्टर (मनोचिकित्सक) को दिखाया तो वह कहता कि इसे थॉट ब्रॉडनिंग कहते हैं, ऐसा है, वैसा है। मगर जब दवाओं से आराम नहीं हुआ तो उसने ही मेरे परिजनों को पालमपुर के किसी चेले का नंबर दिया।

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर

मेरे घरवाले उस चेले से मिले। उसने पता नहीं क्या-क्या करवाया। मुझे तो उन दिनों डर के मारे कुछ समझ नहीं आता था। मगर श्मशानघाट मे ंले जाकर वह कुछ करता था। उसमें बकरे की कलेजी, मछली की आंख और न जाने क्या-क्या करता था। और उसके बाद से वे सारी चीजें ठीक हो गई हैं। न कुछ दिखाई देता है, न सुनाई देता है। अब मैं एमटेक कर चुका हूं और बिना किसी डर के रात को कहीं भी आ-जा सकता हूं। इस घटना के बारे में मेरे गांव वाले कहते हैं कि किसी ने मेरे ऊपर ओपरा कर दिया था तो कुछ लोग कहते हैं कि मैं भांग पीने लगा था और मेरी बुद्धि फिर गई थी। यह बात अलग है कि मैंने कभी सिगरेट तक नहीं पी। कुछ लोगों का कहना है जॉब न लगने से डिप्रेशन में चला गया था और यह सब इमैजिन कर रहा था। मैं डिप्रेशन मे ंगया जरूर था, मगर मेरे साथ जो-कुछ हो रहा था, उससे तंग आकर। कई बार तो खुदकुशी का भी मन किया था सब खत्म करने को, मगर ऐसा कर नहीं पाया। जितने लोग, उतनी बातें। मगर मैं जानता हूं कि सच क्या है। आप भी अपनी राय बनाने के लिए स्वतंत्र हैं।

हॉरर एनकाउंटर सीरीज में अन्य लोगों की आपबीती पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

(लेखक ने हिंग्लिश में लिखकर यह आपबीती हमें भेजी थी, जिसे हम मूल घटनाओं से छेड़छाड़ किए बिना देवनागरी में पेश कर रहे हैं। लेखक का नाम बदल दिया गया है।)

जानें, भूकंप आने पर क्या करें

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इन हिमाचल डेस्क।। हिमाचल प्रदेश में पिछले दिनों से लगातार भूकंप के झटके महसूस किए जा रहे हैं। महीने भर में शिमला में कई छोटे भूकंपों का केंद्र रह चुका है। इससे पता चलता है कि भूगर्भीय हलचल में तेजी आई है। वैसे भी हिमाचल प्रदेश भूकंप के लिहाज से संवेदनशील है, क्योंकि अभी भी भूगर्भीय प्लेटों के बीच घर्षण हो रहा है। ऐसे में वैज्ञानिक आशंका जता चुके हैं कि बड़ा भूकंप कभी भी आ सकता है। ऐसा हुआ तो तबाही मचना तय है, क्योंकि कांगड़ा में आए 1905 के भूकंप से कोई सबक न लेते हुए हिमाचल में बेतरतीब निर्माण हो रहा है। बहरहाल, जब भूकंप आए, तो उसके नुकसान को कुछ कदम उठाकर कम किया जा सकता है। बस सही जानकारी होना जरूरी है। नीचे लिखी बातों को याद कर लें और बच्चों व परिजनों को भी समझा दें। बातें छोटी-छोटी हैं, मगर काम की हैं-

  • भूकंप आते ही तुरंत इमारत से बाहर आने की कोशिश करें। आप जहां कहीं हों, वहां से बाहर खुले मैदान में आ जाएं।
  • भूकंप के झटके तेज हों तो कहीं और भागने के बजाय किसी दीवार से सटकर खड़े हो जाएं या फिर बेड, डेस्क आदि जैसे मजबूत फर्निचर वगैरह के नीचे छिपने की कोशिश करें।
  • भीड़-भाड़ हो या इमारत से बाहर निकलने के लिए लंबा रास्ता तय करना हो तो स्टेप 2 ही अपनाएं, क्योंकि हड़बड़ी में भूकंप शायद उनका नुकसान न करे, मगर गिरने या भगदड़ मचने से चोट जरूर लग सकती है।
  • बड़ी इमारतों, पेड़ों और बिजली के खंबों वगैरह से दूर रहें। लिफ्ट के बजाय सीढ़ियों का इस्तेमाल करें, क्योंकि लिफ्ट टूटने या फंसने का खतरा बना रहता है।
  • भूकंप आने पर खिड़की, अलमारी, ऊपर रखे भारी सामान वगैरह से दूर हट जाएं। यह सामान आपको जख्मी कर सकता है।
  • कोई मजबूत चीज न हो, तो किसी मजबूत दीवार से सटकर शरीर के नाजुक हिस्से जैसे सिर, हाथ आदि को मोटी किताब या किसी मजबूत चीज़ से ढककर घुटने के बल टेक लगाकर बैठ जाएं।
  • खुलते-बंद होते दरवाजे के पास खड़े न हों, वरना चोट लग सकती है।
  • अगर गाड़ी चलाते वक्त भूकंप का अहसास हो तो सुरक्षित जगह पर सड़क किनारे गाड़ी लगा दें और रुकने का इंतजार करें।
  • किसी तरह का नुकसान हो तो तुरंत प्रशासन को जानकारी दें।

क्यों है कांगड़ा के क्षत्रपों में रार, अचानक क्यों पैदा हो गए OBC के पैरोकार?

  • सुरेश चम्ब्याल

हिमाचल की राजनीति में अहम रोल रखने वाला कांगड़ा जिला चुनावी बेला के नजदीक आते-आते अशांत होता जा रहा है। कभी भाजपा दिग्गज यहां आर-पार की लड़ाई पर उतारू थे तो अब कांग्रेसी नेता तलवारें निकाल बैठे हैं। कांगड़ा किले के आसपास के इलाकों की यह लड़ाई नगरोटा, ज्वाली और कांगड़ा के क्षत्रपों के बीच की तनातनी पर चर्चा का विषय बनी हुई है।

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प्रदेश के राजनीतिक पटल पर नगरोटा लाइमलाइट में तब आया था, जब तेज-तर्रार नेता जीएस बाली यहां से विधायक बनके 1998 में हिमाचल प्रदेश विधासनभा में पहुंचे। गौरतलब था कि बाली ब्राह्मण समुदाय से थे और 70 फीसद ओबीसी जनता ने उन्हें अपना नेता चुना। जनता को अपना यह फैसला सटीक लगा इसका पता इस बात से चलता है कि बाली लगातार 3 बार उसके बाद भी विधानसभा में जाते रहे हैं।

नगरोटा में चंगर क्षेत्र को आधारभूत सुविधाओं से जोड़ने के लिए सड़कों के निर्माण से लेकर पेयजल योजनाओं को गांव-गांव तक पहुंचाने के लिए बाली का ही नाम लिया जाता है। नगरोटा के ताज में में विभिन विभागों के कार्यालय , राजकीय इंजीनियरिंग कॉलेज से लेकर फार्मेसी संस्थान, मॉडर्न आईटीआई, बस डिप्पो वगैरह बाली के कार्यकाल में जुड़े। व्यक्तिगत रूप से भी बाली ने नगरोटा की जनता को अपने से जोड़ने में कई तरीके अपनाए। नगरोटा वेलफयर सोसाइटी के माध्यम से मेडिकल कैंप बाल मेला जैसे आयोजन हर साल चर्चा का विषय बन गए। यहां तक कहा जाने लगा कि बाली नगरोटा के बाहर सोचते ही नहीं है और नौकरियों में भी नगरोटा को ही तवज्जो देते हैं।

यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि बाली को विकास के नाम पर घेर पाना कांगड़ा तो क्या प्रदेश में भी किसी नेता के लिए आसान नहीं है। बाली ने नगरोटा में पालम और चंगर की खाई को विकास से पाटा है, इसमें दो राय नहीं है। इसलिए नगरोटा की जनता जब विधानसभा के लिए वोटिंग करती है तो बीजेपी कांग्रेस नहीं, बल्कि लड़ाई बाली बनाम नॉन बाली वोटर्स के मध्य रहती है। राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी का समर्थक वोट बैंक विधानसभा चुनाव में बाली का वोटर होता है। बाली को घेरने के लिए उनकी ही पार्टी के नेता चौधरी ओबीसी वर्ग के हितैषी होने का कार्ड खेलने लगे हैं। इसी कड़ी में ओबीसी कार्ड खेल रहे ज्वाली के विधायक नीरज भारती और बाली की रार प्रदेश में चर्चा का विषय बनी हुई है।


नीरज भारती के राजनीतिक उद्गम की कहानी परिवारवाद के स्तम्भ पर टिकी है । भारती के पिता प्रफेसर चंद्र कुमार कई वर्षों कांगड़ा से ओबीसी लीडर के रूप में राजनीतिक आसमान पर छाये रहे हैं। एक बार तो अपने ओबीसी कैडर के समर्थन से उन्होंने शांता कुमार जैसे दिग्गज नेता को भी लोकसभा चुनाव में पटखनी दे दी थी। इसमें कोई दो राय नहीं है की उन्हें जनता का भरपूर समर्थन भी मिला। परंतु प्रदेश सरकार में कई बार मंत्री रहने और और सांसद होने के बावजूद चन्द्र कुमार कांगड़ा या ओबीसी वर्ग के विकास में कोई ख़ास योगदान नहीं दे पाए। इस कारण उनके अपने ही लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया और लगातार दो बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा। वहीं उनके बेटे नीरज भारती ज्वाली में ‘गुलेरिया बनाम अर्जुन ठाकुर’ की लड़ाई का फायदा उठाकर विधानसभा पहुंच गए। भारती अपने तीखे तेवरों और फेसबुक पोस्ट के लिए आजकल चर्चा का विषय रहते हैं। बेबाक भारती कई बार इतना बेबाक कह जाते हैं की कांग्रेस संगठन और प्रवक्ता भी मीडिया के सामने जबाब नहीं दे पाते। परोक्ष रूप से भारती ने इस बार विपक्ष नहीं बल्कि अपनी ही पार्टी के सीनियर लीडर पर शब्द बाण चला दिए है । इससे कांगड़ा की सियासत गरमा गई है।


जहाँ तक पवन काजल की बात है, काजल कभी भाजपाई हुआ करते थे। 2012 चुनाव में टिकेट न मिलने पर काजल कांगड़ा से बागी लाडे और चुनाव भी जीते। काजल काफी संयमित और मिलनसार माने जाने वाले नेता है। ओबीसी वर्ग से ताल्लुक रखने वाले काजल को ऐसा ऐसा नहीं है कि ओबीसी वर्ग ने ही वोट दिए, मृदुभाषी काजल को हर जाति के व्यक्ति से कांगड़ा में वोट मिले हैं। काजल अभी कांग्रेस के असोसिएट विधायक हैं। काजल की चिंता है कि एक बार तो वह जीत गए, परंतु वह जानते हैं भाजपा उन्हें छोड़ कर आगे बढ़ चुकी है और अगर कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया तो उनके लिए काठ की हांडी को फिर चढ़ाना बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि कांग्रेस के ही चौधरी समुदाय के नेता विशेष को काजल फूटी आंख नहीं सुहाते। हो सकता है इन्ही कारणों से ओबीसी शुभचिंतक का चोला काजल को भी पहनना अनिवार्य सा हो गया है। परंतु काजल यह रास्ता अपनाते हैं तो कांगड़ा सीट से सर्वमान्य और हर वर्ग का लीडर होने की उनकी छवि को नुकसान हो सकता है।

भारती ने जिस तरह से ओबीसी के मुद्दे को हथियार बनाकर काजल के कन्धों पर बन्दूक रखकर बाली को घेरने की कोशिश की है, इससे बाली से ज्यादा नुकसान काजल के कन्धों का नजर आ रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि बाली नगरोटा को जातिवाद से ऊपर ले जा चुके हैं। वहीं काजल अगर ओबीसी के चक्कर में जातिवाद की राजनीति में घुसते हैं तो अन्य जातियां नाराज हो जाएंगी और उनकी बनी बनाई छवि का नुकसान होगा वो अलग। इन्ही समीकरणों और चर्चाओं की धुरी पर कांगड़ा कांग्रेस की राजनीति नाच रही है। लेकिन वीरभद्र सिंह और सुक्खू की ख़ामोशी ऐसे मामलों को हवा दे रही है। कांगड़ा में क्षत्रपों की लड़ाई इसी तरह जारी रही तो अगले चुनाव में कांग्रेस के साथ भी वही होगा, जो भाजपा के साथ हुआ था। वीरभद्र सातवीं बार कांगड़ा किले को फ़तह किए बिना सत्ता की सीढ़ी नहीं चढ़ सकते। बाकी फैसला आम जनता को करना है कि उसे जातियों के ठेकेदार चुनने हैं या हिमाचल हितैषी नेता।

(लेखक हिमाचल से जुड़े मसलों पर लंबे समय से लिख रहे हैं। इन दिनों In Himachal के लिए नियमित रूप से लेखन कर रहे हैं)

युग हत्याकांड: शिमला के लोगों के लिए एक बदलाव ला रहा है यह केस

MBM न्यूज नेटवर्क, शिमला।। पूरे हिमाचल प्रदेश में इस वक्त नन्हे युग की मौत का मामला चर्चा में है। अब उस बेरहमी भरी वारदात का 60 सेकंड का विडियो भी सीआईडी को मिला है। लेकिन मासूम युग ने अपनी जान देकर राजधानी शिमला के पेयजल वितरण को लेकर सुधार की उम्मीद भी जगा दी हैै।

युग
युग

यह साफ दिख रहा है कि राजधानी के पेयजल वितरण में सुधार होगा। मासूम का कंकाल कैलेस्टन में पानी के टैंक से बरामद हुआ था। इसके बाद से जबरदस्त बहस छिड़ी हुई है। विधानसभा में भी युग हत्याकांड की गूंज पहुंची तो निशाने पर पेयजल वितरण प्रणाली पहले आई। नगर निगम की अपनी बैठक में मामले पर हंगामा हुआ।

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जब राजधानी में पीलिया फैला था तो टैंकों की सफाई के बड़े-बड़े दावे हुए थे। मगर टैंक से मिली युग की अस्थियों ने साबित कर दिखाया कि शहर को दूषित पानी मिल रहा था और टैंकों की सफाई के नाम पर क्या खेल हुआ था। मगर अब उम्मीद की जा रही है कि इस मामले में कोई पॉलिसी बनेगी।

युग मर्डर केस क्या है, अब तक इसमें क्या हुआ, क्लिक करके पढ़ें

वैसे भी शिमला ही नहीं, पूरे प्रदेश में टैंकों की सफाई को लेकर एक नीति बननी चाहिए औऱ साथ ही पानी के स्रोतों को बंद करने और ताला लगाने का इंतजाम होना चाहिए। वरना कल को कोई जहर या अन्य चीज डालकर पूरे इलाके के लोगों की जान खतरे में डाल सकता है।

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लेख: मिस्टर नीरज भारती! ओबीसी लोगों के सिर पर कोई और नहीं, आप राजनीति चमका रहे हैं

  • संजीव चौधरी

पक्षपातपूर्ण और सनसनीखेज रिपोर्टिंग कर रही हिमाचल की एक वेबसाइट पर खबर पढ़ी कि नीरज भारती ने इस बात का खंडन किया है कि उन्होंने कांगड़ा के विधायक पवन काजल को थप्पड़ मारे हैं। पहले तो मुझे नहीं पता था, मगर इस खबर को पढ़कर जरूर पता चल गया कि कुछ मामला हुआ है। वैसे नीरज भारती नाम सुनकर कोई भी आंख मूंदकर कह सकता है कि वह ऐसा काम कर सकते हैं। जो खुलेआम अंट-शंट बक सकता हो, जिसे पार्टी आलाकमान और मुख्यमंत्री की शह मिली हो, जो कानून को अपनी मुट्ठी में समझता हो, जो लोगों को मां-बहन की गालियां देता हो, जो खुलेआम धमकियां देता फिरता हो, अगर उसके बारे में ऐसी खबर आए तो हैरानी नहीं होती। बहुत संभव है कि नीरज भारती ने पवन काजल को एक झापड़ क्या, 4-5 लगाए हों और पवन काजल मारे शर्म के कुछ बोल न पा रहे हों। खैर, यह उन दोनों का आपस का मसला है। जब पवन काजल खुद कह रहे हैं कि ऐसा नहीं हुआ, तो इस विषय पर बात करना बनता नहीं है। इसलिए इस विषय पर मैं भी बात नहीं करूंगा। भले ही नीरज भारती कह रहे हों कि उनकी किसी बात को लेकर पवन काजल से गहमागहमी जरूर हुई थी।

खैर, मसला यह है कि उस पोर्टल पर नीरज भारती का बयान पढ़ा, जिसमें ओबीसी हितों की बात की गई थी। इसमें कहा गया था कि कांगड़ा के ही किसी ब्राह्मण नेता ने हम ओबीसी नेताओं (पवन काजल और नीरज भारती दोनों ओबीसी बहुल विधानसभा क्षेत्रों से हैं) में फूट डालने के लिए यह बयान चलाया है।

आज सुबह से एक गलत खबर को सोशल मीडिया पर हवा दी जा रही है और अब कुछ इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के लोगों के भी फ…

Posted by Neeraj Bharti on Thursday, August 25, 2016

अफवाह किसने चलाई, किसने नहीं, यह तो दावे के साथ कोई नहीं कह सकता। मगर इस पोस्ट के बहाने नीरज भारती ने जो जातिवाद का सहारा लेकर मामले को अलग रंग देने की कोशिश की है, वह अटपटी लगती है। अटपटी इसलिए भी लगती है, क्योंकि मैं खुद नीरज भारती के विधानसभा क्षेत्र से हूं और उसी जाति से हूं, जिससे नीरज भारती खुद हैं और जिस वर्ग का वह खुद को नेता बताते हैं। शर्म आती है मुझे नीरज भारती पर, जिन्होंने हम सभी को बदनाम किया है। जब वह फेसबुक पर किसी की मां-बहन को गालियां देते हैं, तब उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग खास कर घिर्थ आदि की मर्यादाओं की चिंता नहीं होती? तब वह ज्वाली की जनता का मान बढ़ा रहे होते हैं? अरे नीरज भारती जी, जब आप लोगों को गालियां दे रहे होते हैं, राजनीतिक विरोधियों पर ओछी टिप्पणियां कर रहे होते हैं, लोगों को कानिया कह रहे होते हैं, गाय का अपमान कर रहे होते हैं, तब हमें शर्म आती है कि हमने आप जैसे नेता को जन्म दिया। हमारे अभिभावकों को शर्म आती है कि उन्होंने आपके पिता के साथ-साथ चलकर उन्हें आगे बढ़ाने में योगदान दिया। हमें शर्म आती है कि आप हमारे विधायक हैं। आप किस मुंह से ओबीसी हितों की बात कर रहे हैं?

नीरज भारती
नीरज भारती

और इस बयानबाजी के अलावा आपने किया क्या है अपने इलाके के लिए? आपके पिता को हमने सांसद बनाया, यहां से कई बार विधायक रहे, सरकार में मंत्री रहे, आपको विधायक बनाया, आप सीपीएस हैं, मगर ज्वाली की हालत क्या है? यहां के मासूम लोगों को आप और चंद्र कुमार जी जाति के नाम पर ठगकर चुने जाते रहे, मगर आपने उसी जाति के नाम पर शोशेबाजी के अलावा कुछ नहीं किया। बाकी बातें छोड़ दो, यहां सड़कों की हालत इतनी खराब है कि सड़कों पर नाले बहने लगे हैं।

मैंने आपकी फेसबुक पोस्ट पढ़ी। आपने लिखा है- “”ये खबर फैलाने की चाल कांगड़ा जिला के ही एक कांग्रेसी नेता की है जो अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के सिर के उपर ही अपनी राजनीति चमकाता रहा है और आज भी जो कुछ है वो वहाँ के अन्य पिछड़ा वर्ग की वजह से है।””

हम सभी को पता है कि आपका इशारा किस तरफ है। और आपने चूंकि नाम नहीं लिखा, इसलिए मैं भी नाम नहीं लिखूंगा। आपने कहा कि वह ओबीसी लोगों के सिर पर ही अपनी राजनीति चमकाता रहा है। मुझे हंसी आती है आपके तर्कों पर। अरे वह ब्राह्मण होकर ओबीसी बहुल इलाके से जीत रहा है। अगर ओबीसी जनता उसने ब्राह्मण होकर जिता रही है, तो भाई इसका मतलब है कि यहां जाति का फैक्टर काम नहीं कर रहा। उल्टा जाति का फैक्टर आपके यहां काम कर रहा है, जहां आप ओबीसी बहुल इलाके में ओबीसी होने की वजह से जीत रहे हैं। और आप ही नहीं, आपके पिता जी भी ओबीसी होने की वजह से अपनी राजनीति चमकाते रहे हैं। वरना न तो आपमें रत्ती भर का टैलेंट है, न कोई विजन, न योग्यता। ऐसा ही चौधरी चंद्र कुमार के साथ भी था।

वैसे भी मेरी रिश्तेदारी है उस नेता के विधानसभा क्षेत्र में और मैं हमेशा उनके मुंह से उनके विधायक की तारीफ सुनता हूं। वह इसलिए, क्योंकि लोग खुश हैं कि उनके विधायक ने उनके इलाके के विकास को नए आयाम दिए हैं। वे खुश हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में उनका इलाका आगे बढ़ रहा है। वे खुश हैं कि तमाम सुविधाएं उन्हें अपने इलाके में मिल जाती हैं। यही नहीं, आपने जिन दूसरे नेता को ‘अपनी जाति का नेता’ बताया है, वहां भी मेरी रिश्तेदारी है। उनके इलाके के लोग भी उस नेता को बहुत मानते हैं, जिसपर आपने निशाना साधा है। मैंने खुद जाकर उस इलाके का अपने इलाके से तुलनात्मक अध्ययन किया है। भारती जी, आपने हमारे इलाके का सत्यानाश कर दिया है।

और अगर वह इलाका आगे बढ़ा है तो यह उस नेता का बड़प्पन नहीं है। उस नेता की इसमें कोई उपलब्धि नहीं। बल्कि यह उपलब्धि हमारे उन ओबीसी भाइयों की है, जो उस नेता को अलग जाति का (जैसा कि आपने कहा ब्राह्मण) होने के बावजूद मौका देती है और लगातार जिताती आई है। कभी-कभी मुझे लगता है कि हमारे साथ लगते विधानसभा क्षेत्रों में रहने वाले हमारे ओबीसी भाई हमसे समझदार हैं, जो अपनी जाति के आधार पर नहीं, बल्कि काम के आधार पर नेता चुनते हैं। या जिस किसी भी आधार पर चुनते हों, ये तो वे जानें। मगर इतना साफ है कि इसमें जाति वाला फैक्टर नहीं है।

और आप अपनी भाषा देखिए। आप स्पष्टीकरण देते हुए लिखते है- ”इसी नेता को जिसने ये गलत अफ़वाह फैलाई है इसे जरूर एक बार इसके द्वारा मुझसे बदतमीजी किए जाने पर मुझसे थप्पड़ पड़ जाने थे (चाहे तो उससे पूछ सकतें हैं ये बात लगभग 1 साल पहले की है शिमला विधानसभा की) पर उस वक्त ये नेता वहाँ से भाग गया था इसीलिए वक्श दिया था पर शायद अब नहीं बक्शा जाएगा।”

यह रवैया और आपकी स्वीकारोक्ति दिखाती है कि आप थप्पड़ मार भी सकते हैं। इसलिए अफवाह उड़ी भी तो गलत नहीं। आपकी इमेज ही ऐसी है, जो आपने खुद गढ़ी है। आप कह रहे हैं कि अब नहीं बख्शा जाएगा। यानी आप थप्पड़ मारेंगे। और अगर मारेंगे तो इस बार कयों अपनी इमेज की चिंता करते हुए स्पष्टीकरण देते हुए घूम रहे हैं।

खैर, आपकी आखिरी लाइनें दिखाती हैं कि आप कितने घोर जातिवादी हैं और बौखलाकर कितनी घटिया बातें करते हैं। आप लिखते हैं- अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के बीच दरार डालने वाले ऐसे नेताओं से सावधान रहें जो की खुद तो अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंध नहीं रखता है और राजनीतिक रोटीयाँ हमेशा अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की बदौलत सेंकी हैं…..
खुद ये नेता अपने आप को ब्राह्मण बोलता है पर नाम में सिंह लगाता है….. तो इसके ब्राह्मण होने में भी शक है और सिंह लगाने पर राजपूत होने में भी….. अब पता नहीं कौन जात है…..

भारती जी, मैं ऐसे समाज की कामना करता हूं जिसके नाम से पता ही न चले कि उसकी जात क्या है। मैं किसी को किसी की जाति से नहीं पहचानना चाहता। औऱ एक सभ्य समाज में जाति के लिए कोई जगह भी नहीं है। नेता ऐसा होना चाहिए, जो न जाति को तवज्जो दें और न ही किसी और को ऐसा करने दें। मगर शिक्षा विभाग के सीपीएस होने के बावजूद आप ऐसी ओछी बातें कर रहे हैं, आप पर शर्म आती है। सबसे ज्यादा शर्म तो इस बात के लिए आती है कि अन्य पार्टियों के बीच कांग्रेस पार्टी ही खुद को धर्म, जाति, संप्रदाय, क्षेत्र निरपेक्ष बताती है, मगर आप जैसे नेता उस दावे को खोखला साबित कर रहे हैं। ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे। और आपको मिलेगी सद्बुद्धि, क्योंकि जिस तरह से हम ज्वाली और कांगड़ा के लोगों ने आपके पिता की जाति आधारित राजनीति को खारिज किया था, हम एक बार फिर आपको खारिज करने का मन बना चुके हैं। हमें अपनी जाति का फर्जी नेता नहीं, काम करने वाला असली नेता चाहिए, फिर वह किसी भी धर्म या जाति से क्यों न हो। और भारती जैसे तमाम नेताओं से अनुरोध, अब आप कृपया हम OBC लोगों को बदनाम न करें। हमारे लिए अच्छा नहीं कर सकते तो बेइज्जत तो न करवाइए। जय हिंद।

(लेखक मूलत: कांगड़ा जिले के ज्वाली से हैं और इन दिनों जालंधर में एक निजी विश्वविद्यालय में बतौर असिस्टेंट प्रफेसर कार्यरत हैं)

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DISCLAIMER: ये लेखक के अपने विचार हैं, इनके लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी है। ‘इन हिमाचल’ इनसे सहमत या असहमत होने का दावा नहीं करता।

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वॉल्वो बसों के जरिए हिमाचल में नशे की खेप पहुंचा रहे हैं तस्कर

इन हिमाचल डेस्क।।  हिमाचल प्रदेश में नशे का कारोबार खूब फल-फूल रहा है। पंजाब से लगते जिले इससे ज्यादा प्रभावित नजर आ रहे हैं। पिछले दिनों कांगड़ा जिले की पुलिस खूब सक्रिय है और इस काले धंधे से जुड़े बहुत से लोगों को गिरफ्तार कर चुकी है। फिर भी असल सप्लायर और बड़े पैमाने पर यह काम करने वाले अभी तक पुलिस की पहुंच से बाहर हैं।

हिमाचल में नशा लाने के लिए जो तरीका अपनाया जा रहा है, वह हैरान करता है। हिमाचल की शांत प्रदेश की जो छवि बनी हुई है, वही इसके लिए खतरनाक साबित हो रही है। यहां पर दिल्ली और अन्य जगहों से नशे की खेप आराम से लाई जा रही है और किसी को पता तक नहीं चल रहा। पिछले दिनों पुलिस के हत्थे चढ़े नशे के सौदागरों ने पूछताछ के दौरान बताया है कि वे वॉल्वो बसों में सफर करते थे और क्योंकि इन बसों में चेकिंग कम होती है।

Nasha
साभार: Divya Himachal

थाना इंदौरा में पकड़े गए युवकों से रिमांड के दौरान कई अहम खुलासे हुए हैं। नूरपुर के डीएसपी मोहिंदर सिंह मन्हास ने बताया था कि कुछ दिन पहले अरेस्ट नशे के मुख्य सप्लाय सोनीपत (हरियाणा) के ररहने वाले ऋषि ने इलाके के कुछ युवकों के नाम बताए थे, जिन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है। रिमांड में सभी ने जुर्म कबूल कर लिया था।

इस बारे में दिव्य हिमाचल की खबर कहती है कि इंदौरा में जो दिल्ली का गिरोह नशा सप्लाई करता था, वह हिमाचल प्रदेश के साथ-साथ देश के अन्य राज्यों में भी नशा सप्लाई कर रहा है। हिमाचल समेत देश के सभी राज्यों की वॉल्वों बसों की चेकिंग कम होती है, इसीलिए वे इनकी मदद से कहीं भी नशा पहुंचा देते हैं। हिमाचल में तो कुछ प्राइवेट वॉल्वो भी बिना परमिट चल रही हैं और पूरी संभावना है कि उनका इस्तेमाल भी इस काम में होता हो।

हिमाचल प्रदेश पुलिस को चाहिए कि पड़ोसी राज्य से जोड़ने वाली सड़कों पर नाके लगाए जाएं और सरकारी व निजी वाहनों की रैंडम चेकिंग की जाए। इससे नशे के सप्लायर्स हतोत्साहित होंगे। साथ ही ऐसे मामलों में पकड़े जाने वालों के प्रति जरा भी नरमी न बरती जाए और उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दिलवाने की कोशिश की जाए।