आवारा गायों से करोड़ों की आमदनी कर सकती है प्रदेश सरकार

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  • आशीष नड्डा

पिछले कुछ अरसे से गाय की दशा दिशा पर समाज में चर्चा छिड़ी है। हिमाचल प्रदेश में भी हर छोटे बड़े शहर गांव कस्बे में गाय को बेचारगी की स्थिति में अवारा घूमते हुए देखा जा सकता है। शहरों में यह गाय डस्टबीन के आसपास कचरा प्लास्टिक तक खाने को मजबूर हैं तो गांवों में भूख के कारण खेतों में घुसकर डंडा खाने के लिए। पूजनीय पशु की यह दुर्गति वास्तव में चिंता और शर्म का विषय है। ऐसा क्यों हो रहा है इन कारणों पर मैं नहीं जाना चाहता न गाय के आगे पीछे होने वाली राजनीति पर मेरे कोई विचार हैं।

व्यक्तिगत रूप से कोई गाय को पूजनीय माने या मात्र एक पशु माने इससे मुझे कोई लेना देना नहीं है। परंतु समाज के रूप में फर्क इस चीज से जरूर पड़ता है की गाय एक घरेलू पशु है और इसका सड़क पर होना धार्मिक और साजाजिक रूप से सही नहीं है। सड़क पर आवारा घूमती गाय से लोगों की धार्मिक भावनायों आहत होती हैं साथ ही सड़कों पर दुर्घटना का भी खतरा बना रहता है साथ ही ग्रामीण इलाकों में फसलों पर भी मार पड़ रही है। हिमाचल प्रदेश में कई ऐसे इलाके हैं जहाँ लोगों ने आवारा गायों से लेकर बंदरों के प्रकोप के कारण खेती ही बन्द कर दी है।

Traffic moves slowly as a group of stray bulls walk on a road in New Delhi May 5, 2005. An Indian court has ordered officials to clean up one of the biggest menaces prowling the wide avenues, luscious parks and crowded bazaars of the capital New Delhi - holy cows. About 35,000 cows and buffaloes roam free in Delhi in the heart of north India's Hindu "cow belt", sharing roads with hordes of monkeys, camels and stray dogs and killing scores of people every year in gorings and traffic accidents. REUTERS/Kamal Kishore KK/CCK - RTRA7NM
REUTERS/Kamal Kishore KK/CCK – RTRA7NM

खैर अब चर्चा का विषय यह है की उपरोक्त जो भी समस्याएं गाय के सड़क पर होने के कारण पैदा हुयी हैं इनसे कम से कम अपने प्रदेश के रूप में हम सोचें की कैसे पार पाया जा सकता है। जैसा की सर्विदित है और किया भी जाता है गाय को सड़क से हटाने के लिए उसके पुनर्वास की जरुरत है जिसके लिए गौशाला निर्मण ही एक सार्थक ऑप्शन बचती है। ऐसा हो भी रहा है विभिन्न समाजसेवी और धार्मिक संस्थाएं गौ शाळा खोलकर इन गायों के सरंक्षण और उत्थान के लिए कार्य कर रही हैं। परन्तु यह स्वेछिक सेवा इतने वयापक स्तर पर नहीं है की सड़क से हर गाय को गौशाला के रूप में ठौर मिल जाए। व्यापक क्यों नहीं है इसके भी कारण है। सड़क पर वही गाय छोड़ी जाती है जो स्वार्थी इंसान के लिए किसी कार्य की घर में न रही हो साथ ही बैल सड़कों पर छोड़े जाते हैं क्योंकि अब उनसे हल नहीं जोता जाता ट्रेक्टर और अन्य उपकरण शामिल हो गए हैं। मुझे याद है हमारे घर में जब गाय थी और बछड़ा पैदा होता था तो वो एक चिंता का विषय था की इस बछड़े को कौन लेगा ? वर्तमान में जो गौशाला हैं वो स्वेछिक निधि लोगों के दान या मंदिर ट्रस्ट आदि के सहयोग से चल रही हैं उन्हें खुद ही ही जमीन का जुगाड़ करना होता है खुद ही संसाधन अरेंज करने होते हैं। उनके पास आय का कोई साधन भी नहीं है।

हालाँकि हिमाचल सरकार ने हाई कोर्ट के आदेशों पर पंचायतों को जमीन देखने के लिए कहा है जहाँ गौशाला का निर्माण किया जाए। परन्तु पंचायतों का रवैया इसके लिए उदासीन ही रहा इसका यह भी कारण है की पंचायत प्रतिधि पांच साल के लिए चुनकर आते हैं। साथ ही सरकार ने भी कोई डिटेल मॉडल रोडमैप लॉन्ग टर्म आर्थिक सपोर्ट पेश नहीं की जिससे की पंचायतों की चिंताएं दूर होती और वो इस दिशा में आगे बढ़ती। क्योंकि एक बार जमीन और निर्माण के लिए बेशक गौशाला को पैसा मिल जाए पर वो आगे कैसे सस्टेन करे इस पर सोच जरुरी है।

ऐसी हो सकती है गोशाला

इकनॉमिक ऐंड फाइनैंशल मॉडल
कोई भी संसथान (इस केस में गौशाला) तब तक लॉन्ग टर्म सस्टेनेबल नहीं हो सकते जब तक सर्वाइव करने के लिए उनके पास अपने आर्थिक संसाधन विकसित न हों। सरकार की सब्सिडी भी कब तक चलती रहेगी। पर हाँ सरकारें शुरुआत में अपने अधिकार क्षेत्र से कुछ योगदान दे सकती हैं। गाय के पुनर्वास के लिए गौशाला प्रथम स्तम्भ है और गौशाला का अपने संसाधनों से आत्मनिर्भर होना लॉन्ग टर्म के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। कुलमिलाकर मैं यहाँ इसी मॉडल पर चर्चा करूँगा की सरकार , हम नागरिक इसमें क्या योगदान दे सकते हैं और किस भूमिका में हो सकते हैं।

सबसे महत्वपूर्ण है सरकार का रोल। पंचायतों को यह जिम्मेदारी सौपने से बेहतर है सरकार गौ संवर्धन बोर्ड का गठन करे और तहसील स्तर पर खड्डों के आसपास लगती बंजर या बेकार जमीन को गौशाला निर्माण के लिए चिन्हित करे। कोई भी स्वयसेवी संस्था अगर उस इलाके की आगे आना चाहे तो सरकार वो जमीन उसे दे सकती है कोई नहीं मिलता है तो बोर्ड खुद गौशाला निर्माण में आगे आये। मंदिर ट्रस्ट के दान के पैसों को इन सब कार्यों में प्रयोग किया जा सकता है हम नागरिकों का भी कर्त्तव्य बनता है की सरकार इस दिशा में कदम बढ़ रही है तो अपनी धार्मिक आस्था के लिए ही सही वैतरणी गंगा पर करने के लिए ही सही अपने नगरों को रोड असक्सीडेन्ट से बचाने के नाम पर फसलों को बचाने के नाम पर किसी भी कारण सेस्वेच्छिक दान दे। हम में से कई लोग होंगे जो गाय के लिए चिंतित हैं पर उन्हें यह कहा जाए की सड़क से लाकर दो गाय घर में पाल लो तो उनके लिए यह संभव नही होगा पर हाँ कोई संस्था यह काम कर रही हो तो ऐसे भी बहुत लोग हैं जो स्वेच्छा से दान वहां देंगे। इसलिए यह जिम्मेदारी गौ संवर्धन बोर्ड को उठानी होगी। गौ शाला में गाय को गोद लेने के लिए भी अभियान शुरू हो वो पलेगी बढ़ेगी वहीँ पर वैतारनी गंगा पर करने का इछुक व्यक्ति गर घर में गाय नहीं पाल सकता। वहां उसका खर्च उठाये अ मौजूद परिस्थिति में वैतरणी गंगा पार करने के कांसेप्ट को अब गौदान से गौ पालन पुनर्वास से जोड़ना सार्थक है ।

ऐसी हो सकती हैं गोशाला
हिमाचल प्रदेश में सरकारी जमीन और चारे की कोई कमी है नहीं है इसलिए पहले स्टेप में कोई दिक्कत नहीं है। गौशाला निर्माण के बाद बात आती है उसके सस्टेन करने की सब्सिडी के बोझ से प्रदेश को नहीं दबाया जा सकता। जहाँ गौ शाला और गाय होंगी जाहिर है वहां गोबर भी होगा गाय के गोबर में 86 प्रतिशत तक द्रव पाया जाता है। गोबर में खनिजों की भी मात्रा कम नहीं होती। इसमें फास्फोरस, नाइट्रोजन, चूना, पोटाश, मैंगनीज़, लोहा, सिलिकन, ऐल्यूमिनियम, गंधक आदि कुछ अधिक मात्रा में विद्यमान रहते हैं तथा आयोडीन, कोबल्ट, मोलिबडिनम आदि भी थोड़ी थोड़ी मात्रा में रहते हैं। इन्ही खनिजो से गोबर खाद के रूप में, मिट्टी को उपजाऊ बनाता है। पौधों की मुख्य आवश्यकता नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटासियम की होती है। वे वस्तुएँ गोबर में क्रमश: 0.3- 0.4, 0.1- 0.15 तथा 0.15- 0.2 प्रतिशत तक विद्यमान रहती हैं। मिट्टी के संपर्क में आने से गोबर के विभिन्न तत्व मिट्टी के कणों को आपस में बाँधते हैं, किंतु अगर ये कण एक दूसरे के अत्यधिक समीप या जुड़े होते हैं तो वे तत्व उन्हें दूर दूर कर देते हैं, जिससे मिट्टी में हवा का प्रवेश होता है और पौधों की जड़ें सरलता से उसमें साँस ले पाती हैं। गोबर का समुचित लाभ खाद के रूप में ही प्रयोग करके पाया जा सकता है।

हालाँकि हमारे किसान ऐसा सदियों से कर रहे हैं । परंतु ज्यादातर किसान कच्चा गोबर खेतों में प्रयोग करते हैं जिसे कम्पोस्ट होने में समय लग जाता है और तब तक बारिश के कारण यह सब खेतों से बह जाता है। रासायनिक खाद के केस में तुरंत इफ़ेक्ट होता है इसलिए प्रयोग के साथ हमें लगने लगा की यह केमिकल खाद हमारे गोबर से ज्यादा असरदायक है। परन्तु इसके नुक्सान पंजाब और साउथ के राज्यों में देस्ख सकते हैं। अत्यधिक रासायनिक खाद के प्रयोग से ग्राउंड वाटर में कैंसर पैदा करने वाले तत्व मिल गए हैं जिस कारण पंजाब का मालवा इलाका तो कैंसर बैल्ट के रूप में जाना जाने लगा है।

गोबर आधारित ऑरगैनिक खाद पैक करके भी बेची जा सकती है

छोटी सी खेती के लिए पहाड़ी किसान गोबर को एक लेवेल तक डिकंपोस करने का फिर प्रयोग करने का झंझट नहीं पालते। पर गौ संवर्धन बोर्ड प्रदेश की हर गौशाला में ओर्गानिक खाद जिसे कहते हैं उसे बड़े स्तर पर बना सकता है। उसी खाद को बढ़िया नाम पैकिंग देकर कृषि डिप्पों में किसानों को रासायनिक खाद की जगह बेचा जा सकता है वैसे भी रासायनिक खाद पर सब्सिडी हम दे ही रहे हैं। अभी मक्की की फसल के लिए 50 किलो पैकिंग की रासायनिक खाद हमने गावं में अपने खेतों के लिए ली है। उसी पैकिंग में उसी डिप्पों में अच्छी तरह से तैयार हुई गोबर की खाद वैसी ही पैकिंग में हमें मिले तो हमें या किसी भी किसान को क्या दिक्कत है। यह एक टेलर मेड रिप्लेसमेंट हो सकती है।

अब मुझे यह कहा जाए की पहले गाय पालो फिर गोबर गड्ढे में डालो केंचुए डालो कम्पोस्ट खाद बनायो तब खेत में प्रयोग करो तो यह मुझसे नहीं हो पायेगा। पर हाँ मार्किट में डीपो में सरकार अपने ही प्रदेश में बनी उच्च स्तर की गोबर खाद उपलब्ध करवाये तो हम ले लेंगे। इस खाद की सेल गौशाला के लिए आय का स्त्रोत भी रहेगी और बाज़ार भी उपलब्ध है। मैं इस विषय का एक्सपर्ट नहीं हूँ पर हाँ इस क्षेत्र के एक्सपर्ट्स से चर्चा करके यह रिसर्च किया जा सकता है की गोबर से जो खाद बनेगी क्या उसमे थोड़े अमाउंट में रसय्यानिक खाद मिलाई जा सकती है जिससे जो भी कमी पेशी गोबर खाद में खनिज तत्वों की रह गयी हो वो पूरी हो सके। ऐसा हो सकता है है नहीं भी रहती हो मुझे आईडिया नहीं है। एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के सइंटेस्ट की मदद ली जा सकती है।

हिमाचल प्रदेश के जनसँख्या 70 लाख है और हर परिवार में पांच सदस्य रॉ कॉकलशन के लिए मैं लेकर चलूँ तो 14 लाख परिवार बनते हैं अगर यह मान लिया जाए की औसतन एक परिवार मक्की की फसल के लिए 50 किलो की यूरिया हर वर्ष लेता है और गेहूं की फसल के लिए 50 किलो रासायनिक खाद हर वर्ष लेता है तो लगभग 300 रूपए यूरिया की पैकिंग और लगभग 1000 रूपए गेहूं वाली खाद हर वर्ष लेने में हम हिमाचली लोग लगभग 15. 5 करोड़ रूपए व्यय कर रहे हैं। अगर उसके आधा भी गौ संवर्धन बोर्ड गौशाला में उत्पादित आर्गेनिक गोबर खाद को बेच पाए तो लगभग 8 करोड़ की सालाना आय यहाँ से आएगी। (डाटा उपलब्ध नहीं होने के आकड़ें असंप्शन पर आधारित हैं , डिटेल एस्टिमेशन के लिए रासायनिक खाद की बिक्री के आंकड़ों का प्रयोग किया जा सकता है )

बायोगैस (गोबर गैस) डाइजेस्टर

यह बताना भी मैं जरुरी समझता हु की गोबर से गैस भी बन सकती है सब जानते हैं। 90 के दशक में सब्सिडी बाँट के सरकार ने लोगों से प्लांट लगवाये थे पर टेक्नीकल और बिना रीसरसच के सब फ्लॉप हो गए। किसान के लिए एक दो पशु से गोबर गैस प्लांट चलाना वाएअबल नहीं है। परंतु गौ शाला में जहाँ सैंकड़ों की संख्या में गाय होंगी प्रचुर मात्रा में गोबर होगा वहां यह प्लांट बढ़िया तरीके से वर्क करेंगे। गोबर गैस बनाने के बाद जो अपशिष्ट बचता है वो कम्पोस्ट खाद की तरह जल्दी असरदायक और ज्यादा उर्वरक क्षमता वाला होता है , यानी डबल पर्पस सॉल्व खाद भी ऊर्जा भी। गौ शाला से इस गैस को सीलेंडर में पैक करके बेचा भी जा सकता है .हालाँकि यह बताना मैं जरुरी समझता हु की गोबर गैस की कैलोरिफिक वैल्यू (एनर्जी कंटेंट) एलपीजी से कम होता है। एलपीजी का एनर्जी कंटेंट जहाँ 44 MJ /k g है वहीँ गोबर गैस का 20 -22 MJ/kg है। यानी एक एक चाय का कप बनाने के लिए जितनी एलपीजी आपको खर्च करनी होती है उसके लिए आपको डबल मात्रा में बायो गैस खर्च करनी होगी। आज हिमाचल में एक डोमेस्टिक एलपीजी सिलेंडर लगभग 500 रूपए में मिल रहा है गौ संवर्धन बोर्ड गोबर गैस पैदा करके एक सीलेंडर 250 रूपए में बेच सकता है।

गोबर गैस डाइजेस्टर
अगर मैं यह मानू की 14 लाख हाउसहोल्ड में से सिर्फ 10 लाख ही एलपीजी उपभोगता हिमाचल में हैं और वो हर महीने एक एलपीजी सीलेंडर प्रयोग करते हैं तो बायो गैस के उन्हें दो करने करेंगे। यानी 5 करोड़ एक महीने में आय गौ संवर्धन बोर्ड को हो सकती है। सालाना यह आय 60 करोड़ हो गयी आठ करोड़ खाद के अब क्या 68 करोड़ सालाना आया वाले बोर्ड को जिसकी रॉ मटेरियल कॉस्ट जीरो है सब्सिडी की जरुरत रहेगी ?

(इन एस्टिमेशन में एक्चुअल में कितने उपभोगता है इस संख्या को नहीं लिया गया है साथ ही पूरी एल पी जी सप्लाई को गोबर गैस से रिप्लेस करना संभव नहीं है क्योंकि इतने मवेशी सड़कों पर नहीं है पर यह एक ऑप्टिमिस्टिक पोटेंशियल फिगर है) अगर हम इसका 25 % भी लें तो 17 करोड़ की आय गौ संवर्धन बोर्ड अपने संसाधनों (जिनमे सिर्फ आवारा गाये शामिल) हैं से अर्जित कर सकता है।

जो मैं यहाँ बता रहा हूँ यह कोई नया मॉडल या खोज नहीं है IIT डेल्ही के रूरल सेंटर में इसपे बहुत काम हुआ है वो तो अपने दो व्हीकल गोबर गैस से चलाते हैं। राजस्थान में जयपुर वाला गौ सेवा संघ एक बार मैंने विजिट किया था वहां मैंने देखा की गोबर गैस का प्रयोग वो लोग डेरी के लिए जनरेटर चलाने के लिए कर रहे थे साथ ही कम्पोस्ट खाद को भी पैकिंग के साथ बेच रहे थे , हमारे हिमाचल में भी तो यह हो सकता है।

बायोगैस से चलने वाला ऑटो

इसके अलावा प्रदेश में दूध के सैम्पल फेल हो रहे हैं गौ शाला में जरुरी नहीं है की नकारा और बूढी गायें पाली जाएँ। दुधारू और नस्ल की गायें भी साथ में रखी जा सकती हैं जिनसे पाप्त दूध से डेरी प्रोडक्ट बनाये जाएँ और हिम फेड की तर्ज बार गौ संवर्धन बोर्ड अपने ब्रांड से मार्किट में बेचकर आय अर्जित करे।

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कुछ इस तरह हो सकता है गौ पुनर्वास का फाइनैंशल और आत्मनिर्भर मॉडल

यह सब हो सकता है बस एक इच्छाशक्ति ईमानदार टास्क फोर्स और मार्किट बेस्ड मॉडलिंग की जरुरत है। मैं तो यहाँ तक कहता हु सरकार अगर यह सुनिश्चित कर दे की निर्द्धारित दाम पर वो आर्गेनिक गोबर खाद खरीदने के लिए तैयार है और इसके लिए बाकायदा 10 साल का अग्र्रमेन्ट करने की नीति लाये तो बोर्ड की जरुरत भी नहीं रहेगी। निजी संस्थाएं खुद ही सड़कों से गाय को उठाकर अपने फायदे के लिए गौशाला खोलकर ओरगनिक गोबर खाद की फैक्ट्री लगा देंगी।

अंत में मैं यह कहना चाहूंगा आंकड़े आगे पीछे हो सकते हैं पर मिल बैठकर सबंधित क्षेत्र के वैज्ञानिकों से सलाह लेकर किसान से लेकर बिज़नेसमैन को हिस्सा बनाकर इकोनॉमिकल और फाइनेंसियल मॉडलिंग की जा सकती है। शुरू में व्यापक स्तर पर न सही परंतु कम से कम एक दो ज़िलों में पायलट आधार पर ऐसे प्रोजेक्ट तो शुरू किया ही जा सकता है। पायलट प्रोजेक्ट से भविष्य के लिए क्या हो सकता है इस पर सीख मिलेगी साथ ही कहीं कमी रह गयी होगी वहां भी सुधार के लिए गुन्जाईस रहेगी। बाकी हिन्दू लोग वैतरणी गंगा पर करने के लिए गोद लेने वाले गौ पालन कांसेप्ट पर जरूर सोचें।

(लेखक मूल रूप से ज़िला बिलासपुर के रहने वाले हैं और IIT दिल्ली में रिन्यूएबल एनर्जी, पॉलिसी ऐंड प्लैनिंग में रिसर्च कर रहे हैं। लेखक प्रदेश के मुद्दों पर लिखते रहते हैं। उनसे aashishnadda@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)