विजय शर्मा।। हिमाचल प्रदेश की गिनती देश के उन राज्यों में होती है जहां स्वास्थ्य सेवाएं ठीकठाक हैं। प्रदेश सरकार का दावा है कि सरकार प्रति वर्ष, प्रति व्यक्ति 26,000 हजार स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च कर रही है लेकिन हैरानी की बात यह है कि करीब 20 प्रतिशत पंचायतों में कोई स्वास्थ्य केंद्र ही नहीं हैं। प्रदेश की 739 पंचायतों में कोई स्वास्थ्य केन्द्र नहीं हैं और जहां यह स्वास्थ्य केन्द्र हैं भी, वहां डॉक्टरों और दवाइयों का अभाव है। आपात स्थिति चिकित्सकों की सेवाएं, ऐम्बुलेंस या प्राथमिक उपचार की कोई व्यवस्था नहीं है। सबसे ज्यादा खराब हालत जनजातीय क्षेत्रों एवं निचले यानि नए हिमाचल हमीरपुर, कांगड़ा, ऊना की है जहां स्वास्थ्य केन्द्रों का अभाव है। अस्पतालों में डॉक्टरों, ढांचागत सुविधाओं और दवाओं की भारी कमी है। तहसील एवं जिला स्तर पर गाइनोकॉलजिस्ट की भारी कमी के चलते प्रसव पीड़ित महिलाओं को टांडा और शिमला रैफर करने की बात की जाती है। यह अस्पताल इतनी दूरी पर हैं कि आपात स्थिति में वहां पहुंचना जच्चा और बच्चा दोनों के लिए खतरनाक है। अतः विवश होकर परिजनों को प्राइवेट नर्सिंग होम्स या अस्पतालों की शरण लेनी पड़ती है। इसके अलावा प्रशासनिक स्तर पर भ्रष्टाचार के चलते सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों द्वारा दवाइयाँ और टेस्ट बाहर से कराने पर जोर दिया जाता है। अब तो यह प्रचलन सा हो गया है कि जब भी प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होती है नए हिमाचल के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों का भारी टोटा रहता है। यही कारण है कि प्राइवेट नर्सिंग होम और अस्पताल फल-फूल रहे हैं और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का भट्टा बैठता जा रहा है।
मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के गृह जिले की 30 और उनके विधानसभा क्षेत्र की 6 पंचायतों में कोई भी स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के गृह जिले की 54 पंचायतों में कोई चिकित्सा सुविधा नहीं है और स्वास्थ्य मंत्री श्री कौल सिंह ठाकुर के विधान सभा क्षेत्र की 8 पंचायतों में कोई चिकित्सा सुविधा नहीं है। इसी प्रकार मंडी जिले की 93 पंचायतों में कोई चिकित्सा सुविधा नहीं है। इसके अलावा चंबा की 57, कांगड़ा की 242, कुल्लू की 80, सिरमौर की 59 और ऊना की 83 ग्राम पंचायतों में कोई स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। यहां आशा वर्कर एवं आंगनबाड़ी केन्द्रों की मदद से ही काम चलाया जा रहा है। हालांकि कहने को तो इन पंचायतों को किसी न किसी स्वास्थ्य केन्द्र से जोड़ा गया है लेकिन इनकी दूरी एवं चिकित्सा सुविधाओं और डॉक्टरों की कमी के कारण यहां के लोग प्राइवेट डॉक्टरों या फिर गंभीर हालत में बड़े सरकारी अस्पतालों की शरण लेते हैं। बड़े सरकारी अस्पतालों में ढांचागत सुविधाओं की कमी, दवाओं का अभाव एवं बाहर से कराये जाने वाले टेस्टों की मार से रोगी एवं उनके परिजन खुद को ठगा महसूस करते हैं. इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज शिमला में ढांचागत सुविधाओं की भारी कमी है। टांडा मेडिकल कॉलेज अस्पताल में जितनी सुविधाएं हैं, उससे कहीं अधिक मरीज हैं। खासतौर पर स्त्रीरोग विभाग में प्रसव के सामान्य मामले भी तहसीलों और जिला अस्पतालों से टांडा रेफर कर दिए जाते हैं. टांडा मेडीकल कॉलेज के डॉक्टर अत्यधिक दबाव में काम करते हैं।
केन्द्र सरकार की आर्थिक मदद के बावजूद प्रदेश की राजधानी शिमला में पिछले साल बड़े पैमाने पर पीलिया फैला, जिसमें 35 लोगों की मौत हो गई और करीब 33000 से अधिक लोग प्रभावित हुए थे। डेंगू और अब स्क्रब टाइफस 25 से अधिक लोगों को अपना शिकार बना चुका है। केंद्र सरकार ने प्रदेश के 4 मेडिकल कॉलेजों के लिए 600 करोड़ रूपए जारी किये हैं और 5 जिलों में ट्रॉमा केयर सेन्टर स्वीकृत किए हैं. इसके अलावा वित्त वर्ष 2014-15 में नेशनल हेल्थ मिशन के तहत 234 करोड़ तथा वर्ष 2015-16 के लिए 298करोड़ रूपए की आर्थिक सहायता प्रदान की है लेकिन इसके बावजूद स्वास्थ्य सेवाओं की कमी चिंता का विषय है।
केन्द्र सरकार ने प्रदेश में 7552 आशा वर्कर्स लगाने के लिए 15.24 करोड़ रूपए के साथ 2744 अनुबन्ध पर रखे जाने वाले कर्मियों के पदों की स्वीकृति दी है। जननी सुरक्षा योजना के लिए प्रदेश को 33 करोड़ रूपए और गरीबों को मुफ्त दवाईयां उपलब्ध करवाने के लिए 61 करोड़ रूपए स्वीकृत किए हैं। इसके अलावा आधारभूत संरचनाएं खड़ी करने के लिए 60 करोड़ रूपए और ऐम्बुलेंस खरीदने के लिए 3.46 करोड़ रूपए का प्रावधान किया है। अब यह प्रदेश सरकार पर निर्भर करता है कि वह इसका कितना सदुपयोग करती है।
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(लेखक हमीरपुर के हिम्मर डाकघर के गांव दरब्यार से हैं। उनसे vijaysharmaht@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)
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