इसी टिंबर ट्रेल में 30 साल पहले भी फंसे थे 11 लोग, एयरफोर्स ने बचाई थी जान

टिंबर ट्रेल

डेस्क।। सोलन जिले के परवाणू में टिंबर ट्रेल रोपवे में आज 11 यात्री काफी देर तक हवा में लटके रहे। एनडीआरफ ने सभी को रेस्क्यू कर लिया। मगर 30 साल पहले इसी टिंबर ट्रेल में हुए हादसे ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था। उस दौरान भी 11 लोग फंसे थे जिन्हें बचाने के लिए एक जटिल अभियान चलाया गया था।

शिवालिक पर्वत माला पर मौजूद यह टिंबर ट्रेल रिजॉर्ट, जिसका नाम मोक्षा हिमालया स्पा रिजॉर्ट हो चुका है, 80 के दशक से ही पर्यटकों को अपनी ओर खींचता रहा है। खासकर चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा के लोगों को क्योंकि यह चंडीगढ़ से मात्र 35 किलोमीटर दूर है। यह रिजॉर्ट दो हिस्सों में है। एक सड़क के साथ वैली के इस ओर है और दूसरा सामने की घाटी के दूसरी ओर पहाड़ी की चोटी पर। दोनों को जोड़ता है दो किलोमीर 800 मीटर लंबा रोपवे।

आज हिमाचल समेत अन्य पहाड़ी राज्यों में कई सारे रोपवे बन रहे हैं। लेकिन हिमाचल और उत्तर भारत का पहला रोपवे लाने का श्रेय दिया जाता है रमेश गर्ग को, जिनका दो साल पहले 76 साल की उम्र में निधन हो गया था। गर्ग 70 के दशक में टिंबर के कारोबार से जुड़े हुए थे। काम के सिलसिले में उनका मिडल ईस्ट भी जाना होता था। इस दौरान उनके मन में ख्याल आया कि क्यों न टूरिजम की दृष्टि से एक केबल कार शुरू किया जाए।

रमेश गर्ग ने दिसंबर 1982 में परवाणू में टूरिजम की दृष्टि से कारोबार शुरू किया और नाम रखा टिंबर ट्रेल। अप्रैल 1988 में उन्होंने पहाड़ी के ऊपरी हिस्से में बने रिजॉर्ट के लिए केबर कार सुविधा भी शुरू कर दी। बड़ी संख्या में रोमांच के लिए लोग यहां आने लगे। शिमला, चैल या कसौली जाने वाले लोग भी यहां रुकने लगे।

असंभव को संभव कर दिखाने वाले वीर

जब कैबिन के साथ अटक गई जिंदगियां

तीन दशक पहले, 13 अक्तूबर 1992 को भी परवाणू के इसी टिंबर ट्रेल के रोपवे में एक कार कैबिन जमीन से 3000 फुट की ऊंचाई पर अटक गया था। रोपवे के कार में ऑपरेटर समेत 11 यात्री सवार थे। इनमें ज्यादातर नवविवाहित जोड़े थे। जैसे ही रोपवे पहाड़ी के दूसरी ओर ऊंचाई वाले हिस्से पर पहुंचा, अचानक इसका केबल टूट गया और कार कैबिन पीछे की ओर चलने लगा।

घबराहट में ऑपरेटर ने कूदने की कोशिश की मगर नीचे चट्टान से टकराने के कारण उसकी मौत हो गई। कार कैबिन पीछे हटता रहा और कुछ दूर जाकर बीच हवा में फंस गया। ऊपर हवा में 11 जानें अटकी हुई थीं और ठीक नीचे बह रही थी कौशल्या नदी।

इन हालात में रेस्क्यू करना किसी के बस की बात नहीं थी, लिहाजा सेना को सूचना दी गई। उत्तर प्रदेश के सरस्वा में 152 हेलिकॉप्टर यूनिट और नाहन में 1 पैरा कमांडो यूनिट को अलर्ट किया गया। इस बीच चंडीमंदिर स्थित इंजीनियर्स यूनिट ने भी मौके का मुआयना किया। यह पाया गया कि लोगों को रेस्क्यू करना आसान नहीं होगा।

असंभव सा लगने वाला मिशन
इस असंभव से लग रहे ऑपरेशन को सफल बनाने की कमान दी गई थी वायुसेना के तत्कालीन ग्रुप कैप्टन फली एच. मेजर को जो बाद में वायुसेना प्रमुख के पद से रिटायर हुए। उनके साथ इस ऑपरेशन की जिम्मेदारी दी गई कर्नल क्रैस्टो को. जो उस समय मेजर थे।

कर्नल क्रैस्टो जो उस समय मेजर थे

पैरा कमांडोज़ ने मुआयना किया और पाया कि कार के जो पहिए रस्सी पर चलते हैं, वे घूमकर अटक गए हैं। अगर कार को चलाने की कोशिश की जाती तो हो सकता था कि ये नीचे गिर जाए।

संकट बड़ा था। टीम ने एक योजना बनाई। यह तय किया गया कि कार कैबिन के ऊपर का ढक्कन हटाकर एक-एक करके लोगों को हेलिकॉप्टर के जरिये रेस्क्यू किया जाएगा।

14 अक्तूबर को जब इस योजना पर अमल शुरू किया गया, तेज हवाएं चल रही थीं। मेजर क्रैस्टो हेलिकॉप्टर से रस्सी के सहारे कार कैबिन के ऊपर उतरे और शाप्ट हटाकर अंदर पहुंचे। अंदर उन्होंने हर यात्री को रेस्क्यू बेल्ट बांधी। उस रोज चार लोगों को एक-एक करके हेलिकॉप्टर के माध्यम से निकाला गया। अंधेरा होने पर रेस्क्यू मिशन रोक दिया गया।

कैबिन में बचे हुए छह लोग घबराए हुए थे। उनका मनोबल बनाए रखने के लिए मेजर क्रैस्टो ने फैसला किया कि वह कैबिन में ही रुकेंगे। अगले दिन फिर से अभियान शुरू हुआ। क्रैस्टो और टीम ने बाकी लोगों को भी सुरक्षित निकाल लिया। मेजर क्रैस्टो सबसे आखिर में कैबिन से बाहर निकले।

इस जटिल अभियान को सफल बनाने वाली पूरी टीम को सम्मान मिला। कर्नल क्रैस्टो को कीर्ति चक्र दिया गया और फली मेजर को शौर्य चक्र दिया गया। ग्रुप कैप्टन पी उपाध्याय जो उस समय फ्लाइट लेफ्टिनेंट थे, उन्हें वायु सेना मेडल मिला।

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