अठारह महाशक्ति पीठों में से एक है कांगड़ा का ज्वालामुखी मन्दिर

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  • विवेक अविनाशी
भारत की महाशक्ति पीठों में से  हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिला में स्थित  ज्वालामुखी मन्दिर है जहाँ देश के कोने –कोने से भक्तजन मन्नते मांगने शारदीय नवरात्रों में भी आते हैं। वैसे तो भक्तों का आना-जाना समस्त वर्ष ही यहाँ लगा रहता  है लेकिन नवरात्रों में माता के दर्शनों का जो पुण्य प्राप्त करता है उस पर  माता विशेष कृपा करती है।

यह नवरात्र आश्विन मास की शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ हो कर 9 दिन  तक चलता है। इस मन्दिर का निर्माण राजा भूमि चंद ने करवाया था और महाराजा रंजीतसिंह ने मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये शक्ति पीठ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं।

मंदिर की तस्वीर

देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं।  वर्तमान में भारत में 42, पाकिस्तान में 1, बांग्लादेश में 4, श्रीलंका में 1, तिब्बत में 1 तथा नेपाल में 2 शक्ति पीठ  है।

आदिशंकराचार्य के द्वारा वर्णित 18 महाशक्ति पीठो में भी ज्वालामुखी मन्दिर का उल्लेख है। माता के इन 51 शक्तिपीठों के बनने की कथा के अनुसार  राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने सती के रूप में जन्म लिया था और भगवान शिव से विवाह किया। एक बार मुनियों का एक समूह यज्ञ करवा रहा था। यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया गया था। जब राजा दक्ष आए तो सभी लोग खड़े हो गए लेकिन भगवान शिव खड़े नहीं हुए।

भगवान शिव दक्ष के दामाद थे। यह देख कर राजा दक्ष बेहद क्रोधित हुए। दक्ष अपने दामाद शिव को हमेशा निरादर भाव से देखते थे। सती के पिता राजा प्रजापति दक्ष ने कनखल (हरिद्वार) में ‘बृहस्पति सर्व / ब्रिहासनी’ नामक यज्ञ का आयोजन किया था। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता और सती के पति भगवान शिव को इस यज्ञ में शामिल होने के लिए निमन्त्रण नहीं भेजा था। जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए।

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई।

यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये।

तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा।

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते।

‘तंत्र-चूड़ामणि’ के अनुसार इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिव को पुन: पति रूप में प्राप्त किया। कहते हैं इस क्षेत्र में सती की जीभ गिरी थी।

ज्वाला मुखी मन्दिर के भीतर 9 ज्योतियां हैं जो 9 देवियों का प्रतीक हैं l इस मन्दिर में कुछ सीढियां चढ़ कर बाबा गोरखनाथ का मन्दिर है  जिसे गोरख डिब्बी भी कहते हैं। यहाँ खौलता हुआ पानी है जो हाथ लगाने पर बिलकुल ठंडा होता है।  इसके दर्शन  लपटों के रूप में पुजारी करवाते हैं। यहाँ चढावे के रूप नारियल चढाया जाता है।

कहते हैं अकबर के काल में ध्यानु भगत ने यहाँ अपना सिर काट कर भेंट चढाया था । दरअसल अकबर को मातारानी की महिमा के बारे में ध्यानु भगत ने ही बताया था लेकिन अकबर को विश्वास नही आया उसने ध्यानु भगत के घोड़े का सिर काट दिया और ध्यानु से कहा कि इसे माता रानी से जुडवा लो। ध्यानु भगत माता रानी के दरबार में फिर आया लेकिन कई दिन बीत जाने पर जब  सिर नही जुड़ा तो उसने अपना सिर माता के चरणों में काट कर भेंट चढ़ा दिया।

माता  प्रकट हुई और ध्यानु का सिर तो जोड़ ही दिया घोड़े की सिर भी दुबारा  लगा दिया। माता का करिश्मा देख अकबर नंगे पांव  आ कर सोने का छत्र चढ़ा गया था। तब से माता रानी ने यह निर्देश दिया था कि यहाँ नारियल ही चढ़ेगा।  ज्वालामुखी से कुछ ही दूर पहाड़ी में टेढ़ा मन्दिर है जो 1905 के काँगड़ा भूकम्प में टेढ़ा हो गया पर गिरा नही। ज्वालामुखी के पास सपडी के जंगलों में चन्दन के वृक्ष भी हैं।

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