सुरेश चंबयाल।। पांच राज्यों के चुनाव में बीजेपी बिना चेहरे के उतरी और चार में सरकार बनाने में कामयाब रही। देखने वाली बात यह है की जिन राज्यों में बीजेपी का अकेले मुकाबला सत्ता में बैठी पार्टियों से था वहां बीजेपी प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्ता में आई। चुनावी रिजल्ट बता रहे हैं कि अर्से बाद बीजेपी व्यक्तिवाद से उठकर संगठनवाद की तरफ जाती दिख रही है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बीजेपी प्रचंड बहुमत के बावजूद मुख्यमन्त्री तय नहीं कर पाई है। वही गोवा में फिर से रक्षा मंत्री पर्रिकर भेजकर कांग्रेस को कंपीट करते हुए बीजेपी ने सरकार बना ली। बदलाव की इस बयार का रुख क्या होता है, इसके लिए हिमाचल प्रदेश में भी कौतूहल देखने को मिल रहा है क्योंकि अगला चुनाव हिमाचल प्रदेश और गुजरात में होने वाला है।
गुजरात को छोड़कर हिमाचल प्रदेश की हम बात करें तो बीजीपी चुनावी वर्ष में भी अपने पत्ते नहीं खोल रही है। संग़ठन के नाम पर ही सब किया जा रहा है, मुख्यमंत्रीं कैंडिडेट की जब बात आ रही है तो पूर्व मुख्यमंत्रीं धूमल को भी यह ब्यान देना पद रहा है कि आलाकमान मुख्यमंत्रीं तय करेगा। कुलमिलाकर यह इस बात का आभास दिला रहे हैं की मोदी के मित्र कहलाने वाले धूमल भी इस बार अपने नाम के लिए हमेशा की तरह आश्वस्त नहीं हैं। उनके आश्वस्त न होने के दो कारण हैं- पहला कारण प्रदेश में हालिया रूप से सक्रिय हुए केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डा है तो दूसरा कारण बीजेपी की वो रणनीति है जो हर राज्य में उसे कामयाबी दिलवा रही है। बीजेपी बिना मुख्यमंत्रीं घोषित किये मोदी के नाम से चुनाव लड़ रही है, इस कारण राज्यों में गुटबाज़ी खत्म हो गई है। क्योंकि किसी को पता नहीं कौन मुख्यमंत्री होगा। हिमाचल प्रदेश की बात करें तो पिछले अनुभव और वर्तमान सफलताओं से से लग रहा है केंद्रीय आलाकमान यही करने वाला है।
2012 के चुनाव में धूमल शांता रार और धूमल विरोध में हिलोपा के रूप में हुई बगावत से बीजेपी के हाथ से सत्ता आते आते रह गई थी। यह तथ्य पुख्ता कर रहे हैं हिमाचल का चुनाव भी बीजेपी बिना मुख्यमंत्रीं कैंडिडेट घोषित किये ही लड़ेगी। और सत्ता आने पर किसी नौजवान चेहरे को आगे कर दे इसमें भी कोई बड़ी बात नहीं है। क्योंकि महाराष्ट्र से लेकर हरियाणा में बीजेपी ने नए चेहरे आगे किए और अब उत्तराखंड में भी यही करने वाली है। जेपी नड्डा का नाम इस कड़ी में सबसे आगे चल रहा है। बेशक पार्टी उन्हें सीएम कैंडिडेट के तौर पर न भेजे परंतु बाद में मनोहर पार्रिकर की तरह राज्य के सत्ता सौप सकती है। इसके दो कारण लग रहे हैं। पार्टी संगठन को लगता है कि हिमाचल प्रदेश की जनता में वीरभद्र सिंह और धूमल की राजनीति से सैचुरेशन आ गया है। साथ ही बरसों से चली आ रही धूमल-शांता रार में उलझी पार्टी को अब बाहर निकालने की जरुरत भी महसूस हो गई है। इसीलिए चेहरा बदलने और कद्दावर नेता नया उत्साह भरने के लिए नड्डा को भेजने की रणनीति पर विचार किया जाए इसमें संदेह नहीं है।’
नड्डा आज मोदी और शाह के साथ बीजेपी की सबसे शक्तिशाली तिकड़ी का हिस्सा हैं। वह पार्टी के हर बड़े फैसले में शामिल रहते हैं, साथ ही पार्टी और सरकार के बीच में कड़ी की भूमिका भी निभाते हैं। उन्हें आरएसएस से भी समर्थन मिलता है । पहाड़ी राज्य उतराखण्ड में जिस तरह से सरकार बीजेपी आई है, उससे वहां प्रभारी रहे जेपी नड्डा का कद पार्टी में बहुत बढ़ गया है। साथ ही प्रधानमंत्री ने मोदी के वाराणसी हल्के की जिम्मदेदारी भी नड्डा को दो गई थी। वहां प्रधानमंत्री मोदी ने तीन दिन तक रुकर पूर्वांचल में सपा कमर तोड़ दी थी। नड्डा पिछले कुछ समेटी से हिमाचल प्रदेश में बहुत समय गुजार रहे हैं, यह संकेत कुछ अलग ही बयां कर रहे हैं।
अभी तक हिमाचल प्रदेश में जितनी भी रैलियां होती थीं, भीड़ जुटाने से लेकर कार्यक्रम तय करने, जिमेदारिया सौंपने और तैयारियां देखने यह सब कार्य पूर्व मुख्यमंत्री धूमल के नेतृत्व में उनके ख़ास सिपहसलार ही करते थे। परन्तु इस बार धूमल सक्रिय भूमिका में कहीं नहीं दिख रहे हैं। संगठन फ्रंट फुट पर रखते हुए यह जिम्मेदारी इस बार जेपी नड्डा ने ले ली है। केंद्रीय स्वास्थय मत्रीं बनने और राज्यसभा के लिए चुने जाने से पहले वह हिमाचल प्रदेश में विधायक थे। नड्डा 1993 से 1998, 1998 से 2003 और 2007 से 2012 तक बिलासपुर सदर से हिमाचल प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे। साल 1998 से 2003 तक वह राज्य से स्वास्थ्य मंत्री रहे और 2008 से 2010 तक वन एवं पर्यावरण, विज्ञान एवं तकनीकी मंत्री रहे। अप्रैल 2012 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुना गया और कई सारे संसदीय कमिटियों में जगह दी गई। नड्डा बीजेपी के अध्यक्ष पद की रेस में भी थे, लेकिन बाद में उन्होंने अपना समर्थन अमित शाह को दे दिया था।
दरअसल टीम मोदी ने इन राज्यों के चुनाव नतीजों से एनालिसिस करके यह भी निचोड़ निकाला है कि बीजेपी की अभूतपूर्व जीत में युवा वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। नई पीढ़ी की राजनीति में बनी इस दिलचस्पी को बीजेपी भुनाना चाहती है। वह इस कोशिश में है कि जिस फॉर्म्यूले की मदद से नरेंद्र मोदी ने लगातार तीन बार गुजरात में सरकार बनाई थी, उसी फॉर्म्यूले को दूसरे राज्यों में भी लागू किया जाए। यह साब बाते और संग़ठन में उनकी भूमिका का नड्डा को इनाम मिल सकता है।
गौरतलब है कि हिमाचल प्रदेश भाजपा प्रभारी श्रीकांत शर्मा जिनका नाम उत्तर प्रदेश में सीएम के लिए भी आगे चल रहा है नड्डा के बहुत क्लोज़ हैं ऐसा फीडबैक आलाकमान को दे सकते हैं। हालाँकि कुछ लोगों का मानना है कि पूर्व मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार धूमल की प्रदेश राजनीति में मंडल स्तर तक जो पकड़ है, उसे दरकिनार करते हुए नड्डा के हाथ कमांड देना पार्टी को महंगा भी भी पड़ सकता है। इससे बचने के लिए पार्टी अगर बिना सीएम डिक्लेयर किये चुनाव जीतती है तो पूर्व मुख्यमंत्रीं धूमल की उम्र को देखते हुए नया मुख्यमंत्री मिलना लगभग तय माना जा रहा है। अब नड्डा प्रदेश का रुख करते भी हैं या सोचते भी हैं, तब भी कद इतना बढ़ गया है की पार्टी के अंदर किसी भी तरह के विरोध का सामना उन्हें नहीं करना पड़ेगा । दूसरे गुट के नेता तो खुलकर नड्डा का विरोध नहीं कर पाएंगे । नड्डा का रुतबा पार्टी में अब इतना बड़ा है कि कोई चाहकर भी यह नहीं जता पाएगा कि वह नड्डा के प्रदेश में आने से खुश नहीं है।
केंद्रीय चुनाव सिमिति और पार्लियामेंट्री बोर्ड में बैठे व्यक्ति से कोई भी मंझा हुआ नेता टकराव नहीं पालना चाहेगा। ऊपर से नड्डा अभी 55 साल के हैं। वो मुख्यमंत्री बनकर आएं या न आ पाएं, परन्तु उनसे घोषित टकराव करके कोई भी विरोधी भविष्य के लिए रार नहीं पालना चाहेगा। हालाँकि केंद्र में उनकी व्यवस्ता को देखते हुए एक बार यह भी कहा जा सकता है की उन्हें प्रदेश में न भेजा जाए फिर भी बीजेपी बिना सीएम कैंडिडेट के लड़ के जीत गई जिसकी की वर्तमान परिस्थिति में पूरी सम्भावना है तो अगला सीएम नड्डा की मर्जी से ही तय होगा। हालाँकि हाल फिलहाल सीएम पद के दावेदारों में जय राम ठाकुर, अजय जमवाल, राम स्वरुप शर्मा, राजीव बिंदल, अनुराग ठाकुर और पूर्व मुख्यमंत्री धूमल के नाम तो चल ही रहे हैं।
(लेखक हिमाचल प्रदेश से जुड़े विभिन्न मसलों पर लिखते रहते हैं। इन दिनों इन हिमाचल के लिए नियमित लेखन कर रहे हैं।)