इन हिमाचल डेस्क।। हिमाचल प्रदेश में एक लोकसभा और तीन विधानसभा सीटों पर होने जा रहे उपचुनाव को लेकर राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं। पहले एक बार टल जाने के बाद अचानक हुई घोषणा के बाद सबसे ज्यादा हड़बड़ी कांग्रेस के खेमे में देखने को मिल रही है। कांग्रेस के लिए सबसे असहज करने वाली स्थिति मंडी लोकसभा सीट पर है जहां से उसका कोई भी बड़ा नेता चुनाव लड़ने की इच्छा नहीं जता रहा। वहीं इस सीट पर टिकट लेने के लिए भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के बीच होड़ लगी हुई है।
कांग्रेस की स्थिति खराब
मंडी लोकसभा सीट पर पंडित सुखराम के बाद वीरभद्र सिंह और उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह को ही कांग्रेस का सबसे सशक्त उम्मीदवार माना जाता रहा है। दोनों ही यहां से सांसद भी रहे हैं। लेकिन 2014 में मिली करारी हार के बाद वीरभद्र सिंह परिवार ने 2019 के लोकसभा चुनाव में यहां से उतरने से इनकार कर दिया। वीरभद्र सिंह ने घोषणा की थी कि उनके परिवार का कोई सदस्य यहां से चुनाव नहीं लड़ेगा, कोई मकरझंडू ही यहां से लड़ेगा। फिर पंडित सुखराम के पोते आश्रय शर्मा को कांग्रेस ने यहां टिकट दिया जिन्होंने सबसे बड़े अंतर से हारने का रिकॉर्ड बनाया था।
2019 के चुनावों में कांग्रेस के सामने जो स्थिति थी, अब उपचुनाव में भी वही हालत देखने को मिल रही है। उस समय भी दिग्गज नेताओं ने हार की आशंका से चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था और अब दोबारा ऐसा हो रहा है। उस समय ठाकुर कौल सिंह ने किन्हीं मजबूरियों का हवाला दिया था और कहा था कि वह 2022 का विधानसभा चुनाव ही लड़ना चाहेंगे। कल उन्होंने फिर कह दिया कि उनकी इच्छा 2022 का चुनाव लड़ने की है और संसाधनों की कमी के कारण वह लोकसभा चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। हालांकि, राजनीतिक पंडितों का मानना है कि उनका यह बयान संसाधनों की नहीं बल्कि आत्मविश्वास की कमी के कारण आया है।
वीरभद्र परिवार का खोया आत्मविश्वास
वीरभद्र सिंह के निधन को अभी कुछ दिन ही हुए थे कि उनकी बेटे विक्रमादित्य सिंह ने फेसबुक पर मां प्रतिभा सिंह की तस्वीर पोस्ट करते हुए लिखा था- जीत और हार आपकी सोच पर निर्भर करती है, मान लो तो हार होगी ठान लो तो जीत होगी।’ उस समय इसे घोषणा माना गया था कि प्रतिभा सिंह चुनाव लडेंगी। मगर यह तय नहीं था कि वीरभद्र सिंह के निधन के कारण खाली हुई अर्की विधानसभा सीट से या फिर मंडी लोकसभा सीट से, जहां से वह सांसद रह चुकी हैं। यह भ्रम अब तक बना हुआ है क्योंकि अर्की में 2017 में वीरभद्र सिंह की जीत का अंतर भी बहुत ज्यादा नहीं रहा था। अब परिस्थितियां बदल गई हैं और प्रतिभा सिंह व विक्रमादित्य सिंह का जनता के बीच वैसा रसूख नहीं है जैसा वीरभद्र सिंह का हुआ करता था।
मंडी में भी यही स्थिति है। यहां भी वीरभद्र सिंह को आम लोगों से जो प्यार और सम्मान मिलता था, वही प्यार उनके परिवार के सदस्यों को मिल पाएगा, ऐसा दिखता नहीं है। दरअसल, आम लोगों के बीच यह धारणा बनी हुई है कि छह बार के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह को कभी पैसों का मोह नहीं रहा। इसलिए उनपर जो मनी लॉन्डरिंग व आय से अधिक संपत्ति के मामले चले, वह उनके कुछ करीबियों के लोभ की देन थी। हाालंकि ये मामले अभी लंबित हैं और वीरभद्र परिवार कहता रहा है कि राजनीतिक प्रतिशोध की भावना से ये बनाए गए हैं।
2019 के लोकसभा चुनावों के वक्त वीरभद्र सिंह और विक्रमादित्य विधायक थे। उस समय प्रतिभा सिंह चुनाव लड़ सकती थीं मगर उन्होंने हार की आशंका के कारण चुनाव नहीं लड़ा और राजनीतिक जमीन खाली छोड़ दी। अब तक वही स्थिति बनी हुई है। इस बार फिर विक्रमादित्य ने कहा कि उनके परिवार से कोई टिकट नहीं मांगेगा मगर हाईकमान के आदेश का पालन करेगा। यह दिखाता है कि 2014 और फिर 2019 में इस सीट पर बीजेपी को मिली बड़ी जीत ने कांग्रेस ही नहीं बल्कि एक समय प्रदेश की सत्ता के केंद्र रहे वीरभद्र परिवार के आत्मविश्वास को भी डिगा दिया है।
आश्रय और कौल सिंह की स्थिति
इस पूरे खेल में कौल सिंह की स्थिति अजीब बनी हुई है। वह पिछली दो बार के विधानसभा चुनावों को अपना संभावित आखिरी चुनाव बताते रहे हैं। अब फिर कह रहे हैं कि अभी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे, 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ने की इच्छा है। यानी पार्टी और संगठन जिसने आपको मौका दिया, उसकी जरूरतों को नहीं समझेंगे, अपनी इच्छा के लिए चुनाव लडेंगे। 2019 चुनावों से पहले भी उन्होंने यही कहा था। आत्मविश्वास की यही कमी रही तो 2022 में शायद ही पार्टी उन्हें टिकट दे। इस बीच आश्रय कहते हैं कि उन्हें टिकट नहीं, सम्मान चाहिए। उनका तर्क है कि जब 2019 में सबने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था और उन्हीं ने मोर्चा संभाला था तो इस बार टिकट पर उन्हीं का हक है। मगर आलाकमान ने 2019 में देख लिया था कि आश्रय अपने दम पर तो कुछ कर नहीं सकते, उल्टा पार्टी कैडर का वोट भी उनके कारण शिफ्ट हो गया। ऐसे में उन्हें टिकट उसी स्थिति में दिया जा सकता है जब कोई और कैंडिडेट न मिलने की स्थिति में बस खानापूर्ति करनी हो।
निगम भंडारी बनाम यदोपती?
इस बीच हिमाचल यूथ कांग्रेस अध्यक्ष निगम भंडारी ने कहा है कि वह मंडी लोकसभा से टिकट की मांग करेंगे। उन्होंने परीक्षाओं को लेकर जो अभियान चलाया था, उसे सफल मानते हुए खुद को वह यूथ के बीच लोकप्रिय नेता समझने लगे हैं। हालांकि आम लोगों के बीच उनकी गंभीरता और समझदारी को लेकर संदेह है। खासकर सोशल मीडिया पर कुछ भी पोस्ट कर दिए जाने के कारण उन्होंने अपनी छवि एक अपरिपक्व शख्सियत की बनाई हुई है। लोग उनसे बेहतर विकल्प सरकाघाट से युवा नेता यदोपती ठाकुर को मानते हैं जो इस समय हिमाचल यूथ कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हैं। वीरभद्र सिंह के करीबी रहे यदोपती पूरे प्रदेश में एक जाना पहचाना चेहरा हैं। यह भी माना जा रहा है कि अगर वीरभद्र परिवार खुद चुनाव लड़ने आगे नहीं आया तो वह यदोपती की पैरवी कर सकता है। हालांकि इन दिनों यदोपती ने सोशल मीडिया पर प्रतिभा सिंह के पक्ष में अभियान चलाया हुआ है।
बीजेपी में मची होड़
इससे इतर बीजेपी के नेताओं में मंडी से टिकट लेने ही होड़ मची हुई है। जाहिर है, मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के जिले और उनके क्षेत्र की सीट है तो उनकी कोशिश रहेगी कि यहां से बीजेपी का उम्मीदवार भारी अंतर से जीते। यह चर्चा हो रही है कि मुख्यमंत्री दो करीबी मंत्री पेशकश कर चुके हैं कि वे मंडी से चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं। इनमें एक मंत्री मंडी से है और एक कुल्लू से। जाहिर है, लोगों का इशारा महेंद्र सिंह और गोविंद ठाकुर की ओर है। लेकिन उनके अलावा भी कई ऐसे नेता हैं जो टिकट के चाहवान हैं। इनमें महेश्वर सिंह, पंडित रामस्वरूप शर्मा के कवरिंग कैंडिडेट रहने वाले ब्रिगेडियर खुशहाल सिंह, बिहारी लाल शर्मा, पायल वैद्य, पंकज जमवाल, प्रियंता शर्मा और राम सिंह शामिल हैं। लेकिन बीजेपी का इरादा सिर्फ चुनाव जीतना नहीं बल्कि भारी मार्जन से चुनाव जीतना है। क्योंकि अगले साल विधानसभा चुनाव होंगे और इन उपचुनावों को एक तरह से सेमीफाइनल समझा जाएगा। इसलिए बड़े अंतर से मंडी सीट पर जीत हासिल करने की कोशिश होगी ताकि पहले से ही कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाई जा सके। लेकिन यह काम आसान नहीं है क्योंकि महंगाई और कोरोना संकट के कारण काफी चीजें अब 2019 की तुलना में बदल गई हैं।