‘वफ़ादारियां’ जिंदा रहीं तो वीरभद्र परिवार ही रहेगा कांग्रेस का पावर सेंटर

सुरेश चम्बयाल।। वीरभद्र ही कांग्रेस हैं, यह नारा भी हिमाचल में चलता रहा। और चले भी क्यों न? प्रदेश की राजनीति में 1983 में वीरभद्र सिंह आए तो 2017 के चुनाव तक वही कांग्रेस के सिरमौर रहे।

आलाकमान से कितनी भी टसल रही पर अंत में हुआ वही जो वीरभद्र सिंह ने चाहा और आलाकमान को भी हर हाल में उनके आगे नतमस्तक होना पड़ा।

वीरभद्र सिंह को किनसे मिलती रही चुनौतियां

रामलाल ठाकुर, पंडित सुखराम, विद्या स्टोक्स जैसे नेता समय-समय पर वीरभद्र सिंह को चुनौती देने की कोशिश करते रहे। परंतु पार्टी के अंदर शह मात की इस गेम में वीरभद्र हमेशा उन पर भारी पड़े। 1993 के निर्णायक चुनाव में तो विद्या स्टोक्स अपनी सीट तक से हार गईं। वहीं कहते है कि दिल्ली तक पंडित सुखराम अपने समर्थक विधायकों संग दौड़े, तो वीरभद्र सिंह ने वफ़ादारियों के दम पर शिमला से ही अपने रसूख को जिंदा रखा और सत्ता पाई।

हालांकि 1998 में सुखराम अलग पार्टी बनाकर वीरभद्र सिंह को सत्ता से दूर रखने में कामयाब हुए। परंतु सत्ता के संघर्ष में एक बार फिर 2003 से 2007 के टेन्योर में वीरभद्र सिंह विद्या स्टोक्स पर भारी पड़े।

2012 में आलाकमान जब एक बार फिर अड़ियल मूड में दिखा और वीरभद्र के ही कभी सिफलसार रहे कौल सिंह ठाकुर को अध्यक्ष के रूप में उनके सामने लाकर खड़ा कर दिया। तो वीरभद्र सिंह कमान लेने के लिए बगावती तेवर दिखाने से भी नहीं चूके, हालांकि वो केंद्र में मंत्री थे।

कहा जाता है एक ऐसी भी रात आई, जब वीरभद्र सिंह ने आलाकमान को सख्त संदेश दिया कि सुबह तक उनके कहे अनुसार होता है तो ठीक है अन्यथा शरद पवार की नेशनल कांग्रेस पार्टी तले वो अपने समर्थकों के साथ चुनाव लड़ेंगे और कांग्रेस से इतर फ्रंट तैयार कर देंगे। आलाकमान के पास तोड नहीं था और चुनाव से महीना पहले पुनः वीरभद्र सिंह को कमांड मिली और सत्ता भी।

सिटिंग सीएम रहते 2017 का चुनाव भी उनके नेतृत्व में लड़ा गया। जिसमें कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज हारे। पर वीरभद्र सिंह बेटे के साथ हिमाचल विधानसभा का हिस्सा बने।

1983-2017 यानी 35 वर्ष तक हिमाचल कांग्रेस की धुरी उनके आसपास घूमती रही। यह कैसे संभव हो पाया। यह जानना-समझना जरूरी है। यह संभव हो पाया वफ़ादारियों की वजह से।

वीरभद्र की वफादार नेताओं की फौज

पूरे हिमाचल में वीरभद्र सिंह के पास ऐसे वफादार नेताओं की फ़ौज रही कि जब-जब पार्टी के भीतर शक्ति प्रदर्शन की नौबत आई, यह फौज अपने नेता के साथ खड़ी रही। इस कारण हर चुनौती, हर विरोधी को उनके आगे झुकना पड़ा। यह फौज यह वफ़ादारियाँ वीरभद्र सिंह ने विरासत में नहीं पाई। इसके लिए ताली का एक हाथ उनका भी था। टिकट से लेकर हार जाने की स्थिति में राजनीतिक रूप से इस फौज।ल के सिपाहियों को जिंदा रखने के लिए बोर्ड निगमों पर बिठाना वीरभद्र सिंह जो कर सकते थे वो किया। यही वो नीति थी जिससे यह नेता हमेशा वीरभद्र सिंह के वफादार रहे।

रोहड़ू, रामपुर, किन्नौर इन सीटों पर बीते वर्षो में जो भी नेता सत्ता में है वीरभद्र समर्थक हैं। रोहड़ू उपचुनाव में धर्मपत्नी प्रतिभा सिंह को टिकट न मिलने की स्थिति में दूसरा कांग्रेस उम्मीदवार हार जाता है और भाजपा वहां जीतती है। यह संभव होता है तो सिर्फ वीरभद्र के एक इशारे से।

रामपुर से सिंघी राम को कब वो दूध में मक्खी की तरह बाहर कर देते है यह उनका वर्चस्व है। शिमला से हरीश जनारथा पार्टी के घोषित उम्मीदवार से ज्यादा वोट लेते हैं , यह किस कारण संभव था कहने की जरूरत नहीं है। लगातार हारों के बाद भी रंगीला राम राव, गंगू राम मुसाफिर, रामलाल ठाकुर को बोर्ड निगमों में एडजस्ट किया जाता है। ऊना से पत्रकार मुकेश अग्निहोत्री आज नेता प्रतिपक्ष हैं। कभी भाजपाई रहे राजेन्द्र राणा अपने गुरु सीएम उम्मीदवार धूमल को कांग्रेस टिकट से हरा देते हैं। इसकी नींव कौन, कैसे रखता है लिखने की जरूरत नहीं है।

कौन-कौन है वीरभद्र की वफादारी वाली लिस्ट में शामिल

किन्नौर से भरमौर तक नजर दौड़ाई जाए। जगत सिंह नेगी, मोहन लाल ब्राक्टा, नंद लाल, सुभाष मंगलेट, हरदीप बाबा, हर्षवर्धन चौहान, विनय कुमार, गंगू राम मुसाफिर , बम्बर ठाकुर, बीरू राम किशोर, मनसा राम, प्रकाश चौधरी, यदुपति ठाकुर, रंगीला राम राव, चेतराम ठाकुर, सुरेंद्र ठाकुर, चन्द्रशेखर, राजेन्द्र राणा, कुलदीप पठानिया, के के कौशल, प्रोमिला देवी, इंद्रदत्त लखनपाल, संजय रत्न, पवन काजल, यादवेंद्र गोमा, जगजीवन पाल  सिपहिया, केवल सिंह पठानिया, सुजान सिंह पठानिया परिवार, चन्द्र कुमार परिवार, कुलदीप पठानिया भटियात, ठाकुर सिंह भरमौरी। यह लिस्ट और भी लंबी है। हो सकता है इनमें से कुछ नाम राजनीति में आज सक्रिय हो कल न भी हों। और हो सकता है कुछ नाम छूट भी गए हों।

हालांकि इससे इतर ऐसे भी नेता है जो वीरभद्र के साथ अपनी आस्थाएं जोड़ते हैं या उनकी होंगी भी। फिर भी उपरोक्त लिस्ट में उन्हें जगह नहीं दी गई। क्योंकि आज वीरभद्र सिंह की विरासत पर उनकी खुद की नज़रें भी है और वो टकराव से नहीं प्यार से ही उसे पाने का सपना देख रहे हैं। चाहे वो कांगड़ा से सुधीर शर्मा हो, मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजरें गड़ाए मुकेश अग्निहोत्री हो या चंबा से आशा कुमारी हों। इनकी अपनी आकांक्षाएं हो सकती है, वीरभद्र से करीबियां बेशक हैं।

पर अगर प्रतिभा सिंह अर्की सीट से उपचुनाव जीतकर आती है तो इनका क्या रुख होगा यह समय के गर्भ में है। वफ़ादारियाँ जिंदा रहती है, तो ऐसे कैसे मान लिया जाए कि आफ्टर वीरभद्र कांग्रेस का पावर सेंटर खिसक सकता है या खिसक गया है।

मुख्यमंत्री की हसरते पाले वीरभद्र सिंह के कथित समर्थकों को बाहर भी रखा जाए तब भी ऐसे नेताओं की लंबी लिस्ट है जो अगर प्रतिभा सिंह के नेतृत्व में लामबंद रहे तो हिमाचल कांग्रेस का पावर सेंटर हौली लॉज ही रहता हुआ दिख रहा है।

कौन-कौन रख रहा है सीएम पद की चाहत

कांग्रेस में और कौन नेता है जिसके पास किन्नौर से भरमौर तक ऐसी फौज है। अग्निहोत्री और आशा, इस फौज की वफादारी का उनके प्रति सहज हस्तांतरण में अपने भविष्य को देख रहे हैं। सुधीर शर्मा सीएम पद की चाहत बेशक रखते होंगे पर उनकी फिलहाल प्राथमिकता कुछ और दिखती है।

वहीं रामलाल ठाकुर, कौल सिंह सिनियरटी की आस और आलाकमान के भरोसे इस कुर्सी के तबलगार हैं। जीएस बाली ने कांगड़ा फैक्टर और चंद नेताओं के संभावित समर्थन के आधार पर हुंकार भरी है। सुक्खू शांति से सब देख रहे हैं। इस विषय पर अलग से चर्चा बनती है और होगी भी। परन्तु फिलहाल इस विषय को इन्हीं कयासों के तले विराम दिया जाता है कि प्रतिभा सिंह अर्की से चुनाव लड़कर जीत कर आती है। तो पार्टी के भीतर बेगानों की तरह अपनों की नींदे भी हराम होंगी या नहीं। पावर सेंटर की क्या स्थिति रहेगी।

क्या विक्रमादित्य के साथ भी रहेंगी यही वफ़ादारियाँ

वफ़ादारियाँ जिंदा रहीं तो क्या होगा ? यही वफ़ादारियाँ क्या प्रतिभा सिंह के चुनाव में न आने से कम आयु वाले विक्रमादित्य के साथ रहेंगी? इसको फिलहाल यह लेखक न कहता है क्योंकि उसमें अहम और अनुभव का टकराव हो सकता है। इसलिए उपरोक्त स्थिति को प्रतिभा सिंह के परिपेक्ष में देखा गया है। वो दो बार सांसद रह चुकी हैं।

सबसे दिलचस्प यह देखना होगा कि जो नेता वीरभद्र सिंह के गुणगान तले उनकी विरासत को अपने हक में करने के सपने लेकर सत्ता की ओर नजरे गड़ाएं हैं, प्रतिभा सिंह या वीरभद्र परिवार खुद दिवगंत नेता के स्टाइल में अपने लिए समर्थन मांगता है तो उन नेताओं का क्या फैसला होगा?

(नोट: ये लेखक के निज़ी विचार हैं)

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