संकट के इस दौर में हम अपने घर न आएं तो और कहां जाएं?

आदर्श राठौर के फ़ेसबुक पेज से साभार।। आराम से अपने घरों में दुबककर बैठे कुछ लोग हायतौबा मचा रहे हैं कि बाहर से लोगों को हिमाचल लौटने दिया जा रहा है। आप क़िस्मत वाले हैं जो आपको अपने प्रदेश में रहकर कमाने (कुछ को बैठकर खाने) का मौक़ा मिला। मगर सभी आपकी तरह सौभाग्यशाली नहीं।

बहुत से लोगों को लगता है कि हिमाचल तो लगभग कोरोना मुक्त हो गया था, ये तो बाहर से लौटे लोगों ने काम बिगाड़ दिया। कुछ अख़बारों की सुर्खियों और नेताओं के प्रचार ने उन्हें आँकड़ों में ऐसा उलझाया है कि वे इंसानियत से मुँह मोड़ बैठे हैं

जो कुछ लोग कोरोना पॉज़िटिव पाए जा रहे हैं, वे शौक़ से संक्रमित नहीं हुए और न ही वे आप लोगों को संक्रमित करने के लिए लौट रहे हैं। वे तो परेशानी और बेबसी में अपने घर लौटना चाहते हैं। और मुश्किल आने पर हर कोई यही करता है। घर-परिवार ही तो इंसान का आख़िरी सहारा होता है।

क्या आप चाहते हैं कि वे लोग घर से दूर पराये शहर में एक छोटे से कमरे में बेबसी में कोरोना से दम तोड़ दें और फिर कई दिन बाद उनकी लाश मिले तो वहाँ का प्रशासन तुरंत लावारिस बताकर फूंक दे? शिमला का उदाहरण आपके सामने है कि सरकाघाट के बच्चे के साथ क्या हुआ। बाहर क्या होगा, इसकी आप कल्पना कर सकते हैं। परिवारवालों को अपनों की राख भी मिल पाएगी, इसकी गारंटी नहीं है।

हिमाचल में रोज़गार के पर्याप्त अवसर मिले होते तो कौन ठंडे पहाड़ों से उतरकर गर्म मैदानी इलाक़ों में जाना चाहता? हिमाचल की ही बात नहीं है, कोई भी अपनी जन्मभूमि शौक़ से नहीं छोड़ता। वे परिवार का पेट पालने के लिए भारी मन से बाहर जाते हैं, छोटे-छोटे कमरों का भारी-भरकम किराया चुकाते हैं, कई घंटों तक मेहनत करते हैं और जो कमाई होती है, उसे घर भेज देते हैं।

उदाहरण के लिए कितने ही हिमाचली हैं जो दिल्ली में गाड़ी चलाते हैं और साल में बमुश्किल एक बार घर लौट पाते हैं। उनका भेजा पैसा हिमाचल में खर्च होता है, वे घर भी बनाते हैं तो हिमाचल में ही। ऐसे कई लोग है जो अपनी उम्र बाहर खपा देते हैं और उनके भेजे पैसे से हिमाचल की आर्थिकी मज़बूत होती रहती है।

आज जब लॉकडाउन के कारण काम न मिलने से उनके पास खाने और किराये के लिए पैसे नहीं हैं तो वे घर लौटना चाह रहे हैं। ख़ुद तो वे बाहर रह भी जाएं, मगर घर से बुजुर्ग माँ-बाप, पत्नी या छोटे बच्चे रो-रोकर वापस आने के लिए कह रहे हैं। इन हालात में उनके अपने ही प्रदेश के लोग उनसे मुँह मोड़ रहे हैं, सोशल मीडिया पर भला-बुरा कह रहे हैं। अगर किसी व्यक्ति में लक्षण होंगे भी, तो इस ग़लत व्यवहार के कारण वह टेस्टिंग के लिए सामने नहीं आएगा। इसका नतीजा क्या होगा, आप जानते हैं।

यह सही है कि लौट रहे लोगों की बॉर्डर पर टेस्टिंग होनी चाहिए और ऐसा करने के संसाधन नहीं हैं तो लोगों को क्वॉरन्टीन करना चाहिए। सरकार के पास सबको संस्थागत क्वॉरन्टीन करने के साधन नहीं हैं, ये भी सच है। इसलिए, जिन लोगों घरों में अलग कमरे हैं, उन्हें वहीं पर और जिनके परिवार के सदस्य अधिक मगर कमरे कम हैं, उन्हें पंचायत या स्कूल के कमरों में क्वॉरन्टीन रखा जाए।

बाक़ी डरिए मत, ये लोग आपके घर में घुसकर आपके मुँह में नहीं थूक देंगे। न ही कोरोनावायरस कोई ‘करंट’ है कि संक्रमित व्यक्ति के गाँव में कदम रखने से ही गाँववासी संक्रमित हो जाएँगे। अगर आप ढंग से सोशल डिस्टैंसिंग, मास्क पहनने और हाथ धोने जैसे काम करते रहेंगे तो आपको कैसे कोरोना हो जाएगा?

हाँ, अगर ज़्यादा ही चिंता है तो आसपड़ोस में नज़र रखें कि जिन्हें क्वॉरन्टीन किया गया है, वे नियम तो नहीं तोड़ रहे। इस मुश्किल दौर में शांति और समझदारी से पेश आइए, संक्रमित लोगों के प्रति संवेदना रखिए। जो लोग बेरोज़गार होकर, हताश होकर घर लौट रहे हैं, उनका सहारा बनिए।

(यह लेख पत्रकार आदर्श राठौर के फ़ेसबुक पेज से साभार लिया गया है, ये उनके निजी विचार हैं)

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