वॉकआउट कर-करके विधानसभा का मजाक बना दिया है विपक्ष ने

विधानसभा में पक्ष-विपक्ष के विधायकों का एक जगह पर एकत्रित होने का एक महत्व है। साल में होने वाले 3 सेशंस में जनहित से जुड़े मुद्दों पर चर्चा की जा सकती है और प्रदेश के तरक्की से सबंधित कोई कानून पास किया जा सकता है। इसे भारतीय सविंधान और लोकतंत्र की सुंदरता ही कहा जा सकता है कि विधानसभा के अंदर विपक्ष सरकार से भी ज्यादा महत्वपूर्व और अनिवार्य हो जाता है। यानी पक्ष और विपक्ष को विधानसभा की छत बराबरी पर लाकर खड़ा कर देती है ताकि सरकार कोई भी फैसला लेने में मनमर्जी न कर सके। यह सत्ता को निरंकुश होने से रोकने और सबको साथ लेकर चलने का एक बहुत ही शानदार जरिया है।

विधानसभा सत्र एक ऐसा प्लैटफॉर्म है जहां विधायक अपने अपने क्षेत्र से जुड़ी समस्याएं उठा सकते हैं। विपक्ष के विधायकों के लिए यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां वे लंबित मामलों और योजनाओं पर जबाबदेही ले सकते हैं। सत्ता पक्ष अगर विपक्ष की बात को अनसुनी करता है तो विपक्ष वॉक आउट करके अपना विरोध दर्ज करा सकता है। विपक्ष के न होने से सरकार को भी कई फैसले लेने में दिक्कत आती है।

परन्तु बीते कुछ वर्षों से यह देख कर मन बहुत निराश हो जाता है कि शांत माने जाने वाले हिमाचल प्रदेश के विधानसभा सत्र अशांत चल रहे हैं। यह देखने में आ रहा है की नेता जनहित के मुद्दों के लिए नहीं बल्कि अपने व्यक्तिगत मुद्दों के लिए वॉकआउट को ढाल बना रहे हैं। विधानसभा में विधायकों का शोर शराबा सिर्फ अपने अपने राजनितिक आकाओं को खुश करने तक सीमित है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा के कुछ सत्र हिमाचल प्रदेश क्रिकेट असोसिएशन पर लगे आरोपों की भेंट चढ़ गए।

मामला कोर्ट में है जांच एजेंसिया अपना कार्य कर रही हैं परन्तु सत्ता पक्ष फैसला आने से पहले ही भाजपा नेताओं को दोषी बता चुका है। विपक्ष भी कम नहीं है। 2 सत्र से इस मामले पर वॉकआउट करना बहुत ही निंदनीय है। क्या विधानसभा का सत्र सिर्फ इन्ही मुद्दों के लिए है? क्या सत्तर लाख की जनसंख्या वाले प्रदेश में जनता को कोई और समस्या ही नहीं है? रोजगार , शिक्षा सुधार आदि से जुड़े मसले प्रदेश में खत्म हो गए हैं?

विधानसभा का मॉनसून सत्र सब से महत्वपूर्ण माना जाता है। क्योंकि यह सब से लंबा चलता है। जनता के चुने हुए नुमइंदों को इस सत्र में जनहित से जुड़ी बात करने के लिए लगभग एक महीने का समय मिलता है। पिछले कल मॉनसून सत्र के पहला दिन था। अभी कार्यवाही सही ढंग से शुरू भी नहीं हुई थी कि विपक्ष ने फिर वॉकआउट कर दिया। मांग क्या थी कि कांग्रेस की प्रदेश में चार लोकसभा सीटों और एक विधानसभा उपचुनाव में हार हुई है, इसलिए मुख्यमंत्री नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दें। क्या यह एक जनहित से जुड़ा मुद्दा है कि जिस पर वॉकआउट किया जा सके? किसी पार्टी की हार पर कौन नेता इस्तीफा दे या न दे, यह उस पार्टी संगठन  का निजी मामला है या विपक्ष का? अगर विपक्ष को आपत्ति है तो उसका संगठन सड़क पर जाकर विरोध करे।

विधानसभा सत्र के लिए लाखों रुपये हर दिन के खर्च होते हैं। वहां कौन से मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए यह जानकारी हर विधायक को होनी चाहिए और उसका पालन करना उसका कर्तव्य है। यही सही मायनों में नैतिकता है। क्या हिमाचल प्रदेश विधानसभा के सत्र कांग्रेस और बीजेपी नेताओं की व्यक्तिगत इच्छा पूर्ति और विरोध दर्ज करवाने के लिए हैं?

पिछले कुछ वर्षों से यही देखा गया है आज बीजेपी की यह नीति है। जब बीजेपी की सरकार थी और केंद्र में वीरभद्र सिंह के ऊपर आरोप लगे थे तब कांग्रेस की भी यही नीति थी। कांग्रेस विधायक भी अपने नेता के प्रति निष्ठा दिखाने के लिए सदन छोड़कर वॉकआउट करने चले जाते थे। इन वर्षों में ऐसा कोई भी बिल या चर्चा सदन के पटल पर नहीं आए है जिसमे जनता से सीधे कुछ जुड़ा हो और जिस पर पक्ष विपक्ष में गहमा-गहमी हुए हो। हिमाचल प्रदेश विधानसभा की गहमा गहमी सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट असोसिएशन और वीरभद्र सिंह के ऊपर लगे आरोपों तक सीमित हो गए है। क्यों न यही नेता अपने अपने क्षेत्रों की लंबित योजनाओं के लिए इस तरह उग्र हों ताकि अपने विधायक की निष्ठा देख कर क्षेत्र की जनता का सीना भी गर्व से फूल सके। परन्तु नहीं, विधानसभा सत्र की हालत और वहां के मुद्दे देखकर नहीं लगता यहां प्रदेश के चुने हुए प्रतिनिधि बैठे हैं।

सत्र और मुददे देख कर लग्गता है यह हिमाचल विधानसभा नहीं कांग्रेस और बीजेपी की कोई कंबाइंड मीटिंग है, जहां वो आपस में आरोप-आरोप खेल रहे हैं। यह सचमुच निराशाजनक है। यही सब चलता रहा तो हिमाचल प्रदेश आने वाले समय में सम्पनता से गरीबी की आवर चला जाएगा। राजनीति मात्र आपसी रंजिश और गुंडागर्दी बन कर रह जाएगी। प्रदेश की जनता को अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए  कूछ सोचना होगा। विधान सभा में बैठा विधायक सिर्फ एक चुना हुआ प्रतिनिधि होता है। वह अपने क्षेत्र की समस्या वहां उठाता है जवाबदेही लेता है। वो सिर्फ किसी पार्टी का नुमाइन्दा नहीं होता यही नैतिकता है।

लेखक: आशीष नड्डा, ईमेल: aksharmanith@gmail.com

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(Disclaimer: यह रीडर द्वारा भेजा गया लेख है। इसकी सामग्री के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी है।)

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