लेख: शव के अपमान पर अफसरों और नेताओं से दो टूक

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अवर्ण दीपक।। अगर तमाम मोटी किताबें, फर्राटेदार अंग्रेज़ी और महंगी तरबीयत आपको इंसानियत की इतनी सी इज़्ज़त करना नहीं सिखा सकता तो अच्छा ही होगा कि अपनी औलादों को डीसी, मेजिस्ट्रेट बनने की सपने ना देकर एक कुशल किसान ही बनाएं जो घर-गांव में अपने दुश्मन के घर हुई मौत को भी इससे बेहतर सम्मान देला सकता है.. और उस पर अब बच्चों की तरह अधिकारी आपस में लड़ रहे हैं..अपने मालिक को दिखा रहे हैं- हुजूर गलत मैं नहीं वो था..। किस काम का ऐसा प्रशासनिक ज्ञान जो आपको नौकरी बचाने से ज़्यादा और किसी काबिल नहीं बना सकता..। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने गलत नहीं कहा था- ‘शिक्षे! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनीं..’

कल्पना करके देखिए कोई तो वो रहा होगा जिसने डर से या लापरवाही से, किसी कुर्सी पर बैठे या अपने लॉन में टहलते या अपने बच्चों के साथ सोफे पर टीवी देखते अनुमोदन दिया होगा या आदेश जारी किया होगा- ‘रातो-रात जला दो’। पूछना बनता है जिन्हें ये धतकर्म करने भेजा, उन्हें कैसे बिना किसी सुरक्षा किट के मरने झोंक दिया आपने..आप ये भी पूछिए इन हाकिमों से, क्या उनकी पूरी ट्रेनिंग उन्हें आईपीसी की धारा 297 के बारे में नहीं बता पाई, जिसके मुताबिक एक शव तो क्या कब्रगाह या श्मशान घाट का अपमान भी आपको साल भर के लिए जेल पहुंचा सकता है?

आर्टिकल 21 जो गरिमामयी जीवन का हक देता है, वो तो दसवीं क्लास में पढ़ाया जाता है? इस मरहूम के पिता जब-जब अपने चश्मो-चिराग के आखिरी अपमान को याद करेंगे, क्या वो गरिमा के साथ आईने में अपनी शक्ल देख पाएंगे? इस अनुभव के बाद उसके भाई से आज्ञाकारी नागरिक होने की उम्मीद करने का हक होगा आपको? महान हिंदू धर्म का ज्ञान तो हमें बचपन से ही मिल जाता है. उसी के ग्रंथों का मान रख लेते..जिनमें सूरज ढलने के बाद अंतिम संस्कार की इजाज़त नहीं होती..।

और मां…क्या कोई भी ये अंदाज़ा लगा सकता है कि इस वक्त उसके मन में 21 साल के बेटे को खोने का ग़म ज़्यादा हावी होगा या फिर खुद की रिपोर्ट पॉजीटिव आने के बाद अपने बेटे जैसे ही अंजाम का डर? काश उस मां के आंसू किसी ऋषि के कमंडल से निकले छींटे बनकर सभी दोषियों पर गिरें और उन्हें रोज़ सपने में डीज़ल से जली अधजली लाश दिखने का श्राप दें..।
और हमारे मालिक, हमारे आका..अपने दरबारियों पर लगी लॉकडाउन तोड़ने की तोहमत से ध्यान हटाने के लिए पहले खुद ही प्रदेश के दरवाज़े खोले.. उस वक्त तो आपने खूब फुटेज ली, बाहर फंसे बच्चों के दयावान गार्डियन बने आप..। उसके बाद सीमा पर टेस्टिंग का कोई इंतज़ाम नहीं कर सके..और जब बच्चे अपने घर, अपने गांव में बीमारी का शिकार हो ही गए तो उनसे ऐसा सलूक..। फिर आप रोज़ फरमान निकालेंगे कि बीमारी छिपाने वालों को बख्शा नहीं जाएगा..। अगर आप मिसाल ही ऐसी पेश करेंगे तो कोई कैसे खुद चलकर आएगा और कहेगा कि वो बीमार है..।

आप तो 70 लाख के परिवार के मुखिया हैं. आपने तो सुना होगा अमेरिका ने अपने दुश्मन नंबर एक को भी समुद्र में ही सही, रस्मो-रिवाज के साथ अंतिम संस्कार का हक दिया था..। सेना की आप कसमें खाते हैं, उनसे ही सीख लेते, किस तरह भारी हिंसा का जोखिम उठाकर भी चरमपंथियों को उनके गांवों में दफनाए जाने की इजाज़त कश्मीर में दी जाती है..। अच्छा, करगिल की जीत का झंडा तो आपकी ही पार्टी के सबसे आला नेता के हाथ ने उठाया था..उस जंग की वो तस्वीरें याद हैं आपको जब दुश्मन की लावारिस लाशों को पूरे ऐहतराम के साथ दफनाया था हमने..।

उस वक्त मुझ जैसे हर हिंदुस्तानी का सिर फख़्र से ऊंचा हुआ था..वक्त मिले तो खुद से पूछिएगा, क्या इस मामले में महज़ जांच का झुनझुना थमा देने से भी वो सिर ऊंचा हो सकता है? क्या कम से कम जांच होने तक जो भी ज़िम्मेदार हैं, उनकी छुट्टी नहीं होनी चाहिए? जो दरियादिली आपने इतना बड़ा जोखिम उठाकर प्रदेश के बच्चे-बच्चियों को वापस बुलाने में दिखाई थी, वही दरियादिली आपको इस बच्चे के परिवार से माफी मांगकर नहीं दिखानी चाहिए..। अगर सच्चे राम भक्त हैं तो जानेंगे ऐसी माफियों से कद घटते नहीं, बढ़ते ही हैं…।

(लेखक पत्रकार हैं, यह लेख उनकी फेसबुक टाइमलाइन से साभार लिया गया है)

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