प्रणव घाबरू।। लॉकडाउन के दौरान हिमाचल प्रदेश सरकार ने शराब की दुकानों को बंद रखने का फैसला किया है। कुछ देर के लिए नैतिकता को परे रख दें तो इस विषय पर गंभीरता से विमर्श करने की जरूरत है। इन दुकानों को बंद रखने का फैसला लेने के पीछे जो कारण बताए गए हैं वे बहुत अस्पष्ट हैं।
सोशल मीडिया पर लोग सवाल उठाने लगे थे कि आख़िर क्या सोचकर शराब को ज़रूरी वस्तु बताते हुए ठेके खोलने का फ़ैसला किया सरकार ने। अख़बारों ने भी ऐसी सुर्ख़ियाँ लगाईं मानो सरकार ने ग़लत काम कर दिया हो। फिर सरकार ने भी प्रेशर में आकर शराब की दुकानें बंद रखने का फ़ैसला कर दिया।
ये वही सरकार है जिसने पिछली सरकार में एक परिवार द्वारा अपने हिसाब से बनाई गई आबकारी नीति में सुधार लाने की हिम्मत दिखाई थी और शराब के अत्यधिक बढ़े मूल्यों को सही स्तर पर लाने का फ़ैसला किया था। मगर सरकार के इसी फैसले से शराब के दाम कम होने की ख़बर को अख़बारों ने ऐसे पेश किया मानो जबरन सबको शराब पिलाई जानी हो। इसी दबाव में आकर सरकार ने अपना फ़ैसला पलटा और शराब महँगी कर दी थी।
कुछ अख़बारों द्वारा अजीब ढंग से सनसनी फैलाने और सरकार के बैकफ़ुट पर आने की बात समझ से परे है। अगर नैतिकता की इतनी ही चिंता है तो हिमाचल प्रदेश में शराब बेची ही क्यों जा रही है? महँगी शराब अच्छी और सस्ती शराब ख़राब कैसे हो जाती है? कोरोना काल में शराब की बिक्री अगर ग़लत है तो बाक़ी दौर में ठीक कैसे?
हिमाचल प्रदेश की सरकारों, मीडिया संस्थानों और जनता के इन्हीं दोहरे मापदंडों के कारण प्रदेशभर में शराब की कालाबाज़ारी हो रही है और साथ ही नशे के अन्य साधन भी पनप रहे हैं।
नैतिकता नहीं, व्यावहारिकता ज़रूरी
लॉकडाउन के दौरान शराब की बिक्री पर रोक के फ़ैसले से साफ दिखा कि सरकार ने सोशल मीडिया पर हुए हो-हल्ले के आगे घुटने टेक दिए। सरकार ने ये भी नहीं सोचा कि अगर शराब की दुकानें खुली रहतीं तो उससे क्या फायदा हो सकता था।
जीएसटी लागू होने के बाद से राज्यों के लिए शराब की बिक्री पर रोक लगाना महंगा सौदा साबित हो सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि जीएसटी लागू होने के बाद से राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता काफी हद तक कम हो गई है। सरकारों को टैक्स से मिलने वाले कुल राजस्व में से राज्यों का अपना राजस्व घट गया है।
शराब और पेट्रोलियम पदार्थ उन वस्तुओं में से हैं जिनपर राज्य सरकारों को अभी भी अपने टैक्स लगाने का अधिकार है। इसमें भी पेट्रोलियम उत्पादों के दाम अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर निर्भर करते हैं और उनपर राज्य सीमित मात्रा में ही टैक्स लगा सकते हैं। जबकि शराब ऐसी चीज़ है जो राज्य के लिए राजस्व यानी आमदनी का महत्वपूर्ण स्रोत है।
राज्य के खजाने में आने वाले पैसे का बड़ा हिस्सा शराब से होने वाली कमाई का ही होता है। यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि पिछले वित्त वर्ष में हिमाचल प्रदेश ने शराब की बिक्री से लगभग 1500 करोड़ रुपये की कमाई की थी और इस वित्त वर्ष के लिए उसने 1840 करोड़ रुपये के राजस्व का लक्ष्य रखा है।
संकट के इस दौर में राज्यों को ख़ुद जुटाना होगा पैसा
आज कोरोना के कारण अभूतपूर्व संकट खड़ा हो गया है। जो हालात पैदा हुए हैं, उनकी उम्मीद किसी ने भी नहीं की होगी। देश में डेढ़ अरब की आबादी लॉकडाउन के कारण घर पर है और उनमें भी लाखों लोग खाने और अन्य जरूरी चीज़ों के लिए पूरी तरह सरकार पर निर्भर हैं। ग़रीब और वंचित तबके की देखरेख का जिम्मा सीधे राज्य सरकारों पर आ चुका है जिससे वे भारी दबाव का सामना कर रही है।
राज्य कितना कर्ज ले सकते हैं, इसकी भी सीमा तय कर दी गई है। इस बात को लेकर भी अनिश्चितता है कि राज्यों को केंद्र से ग्रांट और जीएसटी में अपनी हिस्सेदारी की रकम कब मिलेगी। ऐसे में अपने यहाँ बढ़ रही मांग को पूरा करने के लिए राज्यों को अपने स्तर पर राजस्व जुटाने की नीतियां अपनानी चाहिए ताकि वहां से आए पैसे को ताकि आपात स्थिति से निपटने में खर्च किया जा सके।
कोविड 19 के कारण राज्य सरकारों को जनता के लिए पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ सकता है। ऐसे में इस तरह की नीतियां संकट से जूझने और राज्य की अर्थव्यवस्था को ढहने से बचाने में मददगार साबित हो सकती हैं। अभी हिमाचल सरकार संकेत दे रही है कि आने वाले समय में कर्मचारियों का वेतन काटा जा सकता है। अगर सरकार अपने स्तर पर पैसा कमा रही होती तो उसके सामने ऐसी नौबत न आती।
जब वेतन कटेगा तो उसका नुक़सान कर्मचारियों के साथ-साथ सरकार को भी होगा। सैलरी कम मिलने से जब लोगों की परचेजिंग पावर कम होगी तो सरकार का राजस्व और घटेगा। फिर भी, सैलरी कटने से कर्मचारी तो परेशान होंगी मगर नेताओं और सत्ता में बैठे लोगों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। दो महीने की सैलरी दान करके जो हीरो बन रहे हैं, उनके टेलिफ़ोन बिल से लेकर हेल्थ सुविधाएँ तक फ़्री हैं और बिल भी रीइंबर्स हो जाते हैं। मगर क्या आम जनता और आम कर्मचारियों के पास अपने फ़ोन और बिजली बिल रीइंबर्स करवाने की सुविधा होगी?
अवैध कारोबार को मिल रहा बढ़ावा
ध्यान देने की बात यह है कि लॉकडाउन पीरियड के कारण शराब की बिक्री पर लगी रोक से एक और बड़ी समस्या उभर रही है। बहुत सारी जगहों पर प्रतिबंध के बावजूद कुछ ठेकेदार शराब को मुंहमांगे दामों पर बेच रहे हैं। सरकार भले ही आँखें मूँदकर बैठी रहे मगर जनता जानती है कि उनके इलाक़े में कौन-कौन शराब अवैध ढंग से मुहैया करवा रहा है।
इसके अलावा बहुत सारे लोगों ने घर पर देशी शराब निकालना शुरू कर दिया है। घर पर निकाली अवैध शराब लोगों का कितना नुक़सान कर सकती है, यह कल्पना से भी परे है। दरअसल, जो शराब ठेकों में बिकती है, वह किसी भी ब्रैड की क्यों न हो, उसमें एल्कॉहल की मात्रा तय मानकों के अनुरूप होती है। साथ ही वह इथनॉल ही होती है जबकि घर पर या अवैध ढंग से निकाली गई शराब में मीथेनॉल (ज़हरीला अल्कॉहल) की मात्रा अधिक हो जाती है। यह ज़हरीली शराब किडनी, लिवर, ब्रेन और अन्य अंगों को तुरंत नुक़सान पहुँचाती है। अगर मौत न भी हो तो अंधे होने से लेकर शरीर में कई तरह की स्थायी समस्याएँ हो जाती हैं।
वैध शराब की बिक्री बंद होने से प्रदेश में अवैध या मिलावट वाली ज़हरीली शराब की खपत बढ़ेगी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। साथ ही कुछ लोग जो कालाबाज़ारी में लगे हैं, उससे सरकार को राजस्व का नुक़सान अलग से हो रहा है। इसलिए, सरकार को अपने फैसले पर एक बार फिर विचार करना चाहिए। इसलिए ज़रूरी है कि संकट के इस दौर में नैतिकता को छोड़ व्यावहारिकता अपनाई जाए।
(लेखक प्रणव घाबरू हिमाचल प्रदेश के पपरोला से हैं और दिल्ली हाई कोर्ट में अधिवक्ता हैं।)