राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उपचुनाव में युवा बड़ी संख्या में शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के उम्मीदवार सिमरनजीत सिंह मान के पक्ष में चले गए। सिमरनजीत सिंह मान 77 साल के बुजुर्ग हैं और खालिस्तान समर्थक हैं। वह पहले आईपीएस अधिकारी थे लेकिन ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था।
आम आदमी पार्टी के लिए यह हार इसलिए भी बड़ी है क्योंकि उसने इस सीट को जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी। भगवंत मान तो पूरी ताकत से प्रचार कर ही रहे थे, दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने भी यहां जमकर प्रचार किया था। लेकिन नतीजा उनकी आशा के विपरीत रहा।
हिमाचल पर असर
इस हार का पंजाब पर तो कोई खास असर नहीं पड़ने वाला। लेकिन हिमाचल और गुजरात में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के लिए पूरी तैयारी से साथ जुटी आम आम आदमी पार्टी की नींव तैयार कर रहे कार्यकर्ताओं के मनोबल पर जरूर पड़ा है। खासकर हिमाचल प्रदेश में, जहां आम आदमी पार्टी ने व्यापक अभियान छेड़ा हुआ है। दरअसल, आम आदमी पार्टी को लेकर पंजाब में यह छवि बनी हुई है कि सरकार तो पंजाब की है मगर चलाई जा रही है दिल्ली से।
पंजाब में बहुत तेजी से लोगों में धारणा बन गई है कि पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान खुद से कुछ खास नहीं कर रहे। वो वही कर रहे हैं जो उन्हें दिल्ली से कहा जा रहा है। वे उस कथित दिल्ली मॉडल की बातें सुनकर भी आजिज आ गए हैं, जिसका जिक्र अक्सर अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान कर रहे हैं। लोगों की अपेक्षा है कि पंजाब की सरकार को पंजाब की तासीर और यहां की अपेक्षाओं के हिसाब से चलाया जाना चाहिए।
इन्हीं सब बातों का खामियाजा संगरूर उपचुनाव में AAP प्रत्याशी को भुगतना पड़ा और इसी का असर हिमाचल प्रदेश में भी देखने को मिल सकता है। हिमाचल के लोग भी पंजाब के घटनाक्रम पर नजर रखते हैं। उन्हें भी लग रहा है कि जिस तरह से पंजाब में रिमोट कंट्रोल से चलने वाली सरकार बनी है, वैसा ही हिमाचल में भी होगा। यह बात इसलिए और उभर रही है क्योंकि हिमाचल में पार्टी के पास कोई भी चेहरा नहीं है।
हिमाचल में जितना माहौल AAP का पंजाब चुनाव के बाद बना था, अब उसमें कमी आई है। यही देखते हुए कांग्रेस और बीजेपी से कोई भी स्थापित नेता या चेहरा आप में नहीं गया। आज स्थिति यह है कि राज्य में उनके प्रमुख नेताओं को तो छोड़िए, प्रदेशाध्यक्ष तक को बहुत कम लोग जानते हैं। एक आध दिन के लिए मीडिया में तब माहौल जरूर बनता है जब मान, केजरीवाल या सिसोदिया यहां आते हैं, मगर अगले ही दिन सब सामान्य हो जाता है।
अच्छा मगर कम प्रभावी मुद्दा
आम आदमी पार्टी ने हिमाचल में जो मुद्दा उठाया है, वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। शिक्षा, खासकर सरकारी स्कूलों में मिलने वाली शिक्षा। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि तुष्टीकरण की राजनीति के चलते हिमाचल के नेताओं ने बिना किसी प्लैनिंग के अंधाधुंध स्कूल खोल दिए। इधर किसी पिछलग्गू ने मांग की और उधर नेताजी ने घोषणा कर दी। एक ही गांव में दो-दो स्कूल खोल दिए गए।
इससे न सिर्फ इन्फ्रास्ट्रक्चर का पैसा बंट गया बल्कि अध्यापकों को भी बांटना पड़ गया। अच्छे भले चल रहे पूरे स्टाफ वाले स्कूलों से अध्यापकों को नए स्कूलों में शिफ्ट कर दिया गया। न इधर अध्यापक पूरे हुए, न उधर। नतीजा, शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट। जहां एक ही स्कूल पर अच्छा पैसा खर्च करके उसकी सुविधाएं बढ़ाई जा सकती थीं, उसकी जगह नए ढांचे खड़े कर दिए गए। यानी पैसे की भी बर्बादी।
नतीजा यह हुआ कि हिमाचल के लोगों ने सरकारी स्कूलों के बजाय निजी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजना शुरू कर दिया। इसका असर यह हुआ कि नए खुले स्कूल क्या, कुछ पुराने स्कूल भी एडमिशन न होने के कारण बंद हो गए। इस अदूरदर्शिता के लिए किसी की तो जवाबदेही होनी चाहिए।
लेकिन आज तक किसी ने इस विषय पर ध्यान नहीं दिया और न ही सवाल उठाए। ऐसा लगता है कि हिमाचल के लोगों के लिए सरकारी स्कूल और शिक्षा कोई महत्व ही नहीं रखते। इस उदासीनता के बीच शिक्षा को मुद्दा बना रही आम आदमी पार्टी कितनी सफल हो पाएगी, ये बात तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन इस समय आम आदमी पार्टी को चाहिए कि कोई ऐसा विषय ढूंढे, जिसे लेकर लोग एकजुट होकर बाहर आ पाएं। जो विषय सभी को उद्वेलित करे। एक चेहरा तैयार करे, जिसे प्रदेश में सभी पहचानें। वरना जितना मर्जी ऊर्जा लगा लो, जितना मर्जी पैसा खर्च कर लो, कोई नतीजा नहीं निकलेगा। उल्टा ऐसा भी हो सकता है कि जो लोग अभी आपसे जुड़े हैं, वे भी चुनाव आने पर पतली गली से निकल जाएं।