HRTC की दशा ही नहीं, दिशा सुधारने की भी होनी चाहिए कोशिश

बिलासपुर में चलती बस से डीजल टैंक गिर गया

आई.एस. ठाकुर।। हिमाचल प्रदेश सरकार ने हाल ही में घोषणा की है कि सरकारी यानी एचआरटीसी की बसों में महिलाओं को सामान्य के मुकाबले आधा किराया ही देना होगा। पहले महिलाओं को किराये में 25 प्रतिशत की छूट थी, जिसे जयराम सरकार ने बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया है। इससे रोज बस यात्रा करने वाली कामकाजी महिलाओं को तो राहत मिलेगी ही, साथ ही उन गृहिणियों को भी कुछ बचत होगी जो एचआरटीसी की बसों से यात्रा करेंगी।

जिन परिवारों के पास निजी वाहन नहीं हैं, उन परिवारों को कुछ राहत मिलेगी क्योंकि महिलाएं तो लगभग हर परिवार में हैं। सरकार का कहना है कि उसने यह फैसला महिला सशक्तिकरण के लिए किया है। यह ठीक है कि बचत होने से महिलाओं के पास जो कुछ पैसा बचेगा, उसे वो अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकेंगी। हो सकता है कि अब महिलाएं निजी बसों के बजाय सरकारी बसों में यात्रा करने लगे और एचआरटीसी को पहले की तुलना में कुछ और लाभ हो जाए। लेकिन इससे एचआरटीसी की दशा में सुधार हो पाएगा, ऐसा होना संभव नहीं दिखता।

खस्ताहाल एचआरटीसी बसें
हिमाचल प्रदेश में पिछले कुछ दिनों से एचआरटीसी को लेकर नकारात्मक खबरों की बाढ़ सी आई हुई है। पंडोह में बस हादसे में ड्राइवर की जान चली गई, चंबा में चलती बस में आग लग गई, कहीं बस को छह की जगह पांच टायरों के सहारे चलाया जा रहा है तो कहीं चलती बस से डीजल का टैंक गिर जा रहा है। बसों को धक्का लगाकर स्टार्ट करना या अचानक कहीं पर ठप हो जाना तो एचआरटीसी के लिए आम बात हो गई है।

ऐसा नहीं है कि सारी बसें ही खराब हैं, लेकिन हर रोज बसों के खराब होने या हादसे की खबरें आना यह तो दिखाता ही है कि निगम के बेड़े की हालत ठीक नहीं है। सरकार नई बसें भी खरीद रही है लेकिन पूरे बेड़े को रीप्लेस कर पाना तो संभव नहीं। पहाड़ी इलाकों में कच्ची-पक्की सड़कों पर भी एचआरटीसी सेवाएं देती है और ऐसे में उनका मैदानी इलाकों की तुलना में पहले खराब हो जाना लाजिमी है। लेकिन इस संबंध में कोई नीति नहीं दिखती कि बसों को कब बदला जाना है, कब उन्हें स्क्रैप करके नई बसें खरीदनी हैं।

तय किलोमीटर चलने के बाद बदली जाएं बसें
जिस तरह से विभिन्न विभागों के सरकारी वाहनों को निश्चित समय या किलोमीटर चल जाने के बाद बदला जाता है, उसी तरह एचआरटीसी की बसों को भी बदलना चाहिए। जुगाड़ से मरम्मत करके चलाते रहना लोगों की जान से खिलवाड़ करना है। माना कि एकदम से ऐसा करना संभव नहीं हैं, लेकिन भविष्य के लिए तो ऐसी नीति अपनाई ही जा सकती है। और किसी न किसी को तो शुरुआत करनी ही चाहिए। एकसाथ सैकड़ों बसें खरीदने और फिर उनके एकसाथ खराब होने का इंतजार करने के बजाय नई बसों की खरीद और पुरानी बसों को हटाने की प्रक्रिया लगातार चलती रहनी चाहिए।

आत्मनिर्भर बन सकती है एचआरटीसी
एचआरटीसी की बसों की हालत खराब होने के पीछे तर्क दिया जाता है कि निगम के पास फंड की कमी है। एचआरटीसी का घाटे में रहना चिंता की बात नहीं है। घाटा होना लाजिमी है क्योंकि एचआरटीसी सजग साधना, सविनय सेवा के ध्येय पर काम करती है। एचआरटीसी का काम उन इलााकों में भी बस सेवा देना है, जहां इक्का-दुक्का यात्री ही होते हैं। एचआरटीसी का काम मुनाफा कमाना नहीं बल्कि जनता को सुविधा देना है। लेकिन घाटे को कैसे कम किया जाए, इस पर विचार होना चाहिए। आप अपने आसपास किसी भी प्राइवेट बस को देख लीजिए। उनके रूट और टाइमिंग पर ध्यान दीजिए, दोनों ही मुनाफे वाले हैं। ये मुनाफे वाले रूट एचआरटीसी अपने पास क्यों नहीं रख सकती?

एक नीति बननी चाहिए कि एचआरटीसी की बसें मुनाफे वाले रूट्स पर चलें और उससे होने वाले मुनाफे को घाटे वाले रूटों की भरपाई में खपाएं। अभी हो यह रहा है कि दूर-दराज के इलाकों में सेवा देने के अलावा एचआरटीसी की कुछ बसें ऐसे समय पर मुख्य रूट्स पर चलती हैं, जब सवारियां होती ही नहीं। ऐसी बस सेवाओं का क्या लाभ? उदाहरण के लिए देखिए, शिमला से धर्मशाला वाया मंडी रूट पर अच्छी डीलक्स बच चलाई जा सकती है। लेकिन एचआरटीसी ने कभी ऐसी कोई बच नहीं चलाई। इस रूट पर निजी बसें बेशक धड़ल्ले से चलती हैं। ऐसा क्यों है? यह सोचने वाली बात है।

दिशा सुधरेगी, तभी दशा सुधरेगी
एचआरटीसी बेशक के कॉर्पोरेशन है लेकिन इसके काम करने का तरीका कॉर्पोरेट वाला नहीं है। कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं मिलता, राजनीतिक दखल के हिसाब से रूट्स तय किए जाते हैं, मरम्मत के लिए स्टाफ और उपकरणों की कमी रहती है। क्या ऐसी अव्यवस्था आप किसी प्राइवेट कॉर्पोरेशन में सोच सकते हैं? जरूरत है कि एचआरटीसी यानी निगम की ओवरहॉलिंग की। इसके संस्थागत और प्रबंधकीय ढांचे में बड़ा परिवर्तन करने की जरूरत है। सरकारी अधिकारियों को इसका जिम्मा देने के बजाय प्राइवेट सेक्टर से प्रोफेशनल लोग उठाए जाने चाहिए।

चआरटीसी के कर्मचारी मांग कर रहे हैं कि निगम को रोडवेज बनाया जाए। रोडवेज बनाने से भले उनके वेतन और पेंशन की समस्या सुलझ जाए, लेकिन बस सेवाओं की हालत तो सुधरने से रही। निगम रहकर भी यह अच्छा काम कर सकती है। पहले तो योग्य और अनुभवी एजेंसी से अध्ययन करवाना चाहिए कि एचआरटीसी पिछड़ क्यों रही है और कैसे वह और अच्छा कर सकती है। फिर उस हिसाब से सही दिशा में सही तरीके से चलने के कदम उठाने चाहिए। अगर एक बार यह काम हो गया तो न कर्मचारियों की वेतन आदि की समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, न यात्रियों को असुविधा होगी और न खटारा होने की वजह से हादसे होने का डर रहेगा। लेकिन सवाल वही है, क्या सरकार ऐसा करेगी? क्या सरकार में ऐसा करने की इच्छाशक्ति है? फिलहाल तो इसका जवाब में ही मिलता नजर आता है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

लेखक लंबे समय से हिमाचल प्रदेश संबंधित विषयों पर लिख रहे हैं। उनसे kalamkasipahi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

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