जब ट्वेन्टी टू बुलवाने की ज़िद हो तो फिर बाईस कौन बोले?

प्रतीकात्मक तस्वीर

राजेश वर्मा।। बेटे को आवाज देकर कहा कि डायरी में से देखकर मोबाइल नंबर लिखवाना। उसने शुरू किया “नाइन्टी फोर…” मैंने कहा हिंदी में बोलो। वो हंसते हुए बोला- पापा, हिंदी में नहीं आता, मुझे बस “तैंतीस” तक हिंदी में मालूम है, उसके आगे नहीं । प्रश्न खुद से ही था कि जिस भाषा को बोलने व सुनने में हम खुद को सहज महसूस करते हैं, उस भाषा में न तो विद्यालयों में पठन-पाठन किया जा रहा है, न ही घर-परिवार में उसके बारे में चर्चा होती है; फिर बच्चों को कैसे पता चलेगा कि 40 को अंग्रेज़ी में फॉर्टि तो हिंदी में चालीस कहते हैं।

आखिर हमारी हिंदी हमसे दूर क्यों हो गई या हमने इसको दूर क्यों कर दिया? बच्चा अभी चलना-फिरना भी नहीं सीखता और हम उसके मुंह में जबरन अंग्रेजी के शब्द डालने लग जाते हैं। हम इस बात से डर रहे हैं कि हमारे बच्चे गलती से कहीं हिंदी में बात न करने लगें, जिससे कि हमें शर्मिंदगी न झेलनी पड़े। हम तब प्रफुल्लित महसूस करते हैं जब हमारा बच्चा अंग्रेज़ी में गिनती जानता है। लेकिन हिंदी में उसे न एक का पता है, न दस का और न सौ का।

यह कोई प्रफुल्लित होने वाली चीज नहीं है, इससे तो हमारे अंदर के खोखलेपन का पता चलता है। जब तक हम स्वयं अपने देश की धरोहर, अपनी मातृभाषा का सम्मान नहीं करेंगे, तब तक हम इसे इसका खोया हुआ सम्मान दिला नहीं पाएंगे। अपनी भाषा से प्रेम भी राष्ट्रभक्ति है। वहीं, ठीक इसके उल्ट भी ऐसा ही है। किसी भी तरह की भाषा को सीखना, उसे बोलना कोई अपराध नहीं हैं परन्तु अपनी भाषा के प्रति हीन-भावना रखना देश के प्रति गद्दारी के समान हैं।

अक्सर देखने में आता है कि पढ़ा-लिखा युवा वर्ग, जो बड़ी-बड़ी कंपनियों में नौकरियां कर रहा है, उसे आज के समय में न तो हिंदी का कोई भविष्य दिखता है, न ही हिंदी में अपना भविष्य दिखाई देता है, क्योंकि वह अपने आस-पास के दायरे में रहकर सोच रहा है। उस दायरे में, जो हमने उसे दिया है।

उसे एक सफल भविष्य चाहिए, जिसमें नौकरी, पैसा व नाम हो। उसके लिए हिंदी का होना जरूरी नहीं लगता। लेकिन जब वही युवा एक क्षितिज पर खड़ा होकर देश के भीतर झांकता है तो उसे अपने ही लोगों के बीच एक खाई नजर आती है। यह खाई इन पढ़े-लिखे युवाओं को ही अकेला खड़ा कर देती है क्योंकि देश में आज भी हिंदी भाषाई ज्यादा हैं। इन पढ़े-लिखे युवाओं में तकनीकी एकता भले ही हो, लेकिन मानवीय एकता के लिए हमें अपनी मातृभाषा की ही जरूरत है। भाषा ही वह इकाई है जो व्यक्ति को आपस में जोड़ती है, व्यक्ति आगे परिवार को जोड़ता है वही परिवार समाज को जोड़ता है और इस तरह समाज से गांव, नगर, शहर व देश बनता है।

हमारे देश की असली पहचान है विविधता, और यह हर चीज में है। धर्म-कर्म से लेकर प्रत्येक क्षेत्र तक फैली विविधता। इसी विविधता की पहचान है- देश के विभिन्न भागों में बोली जाने वाली भाषाओं की विविधता। हर भाषा का अपना वजूद है, पहचान है। इसी विविधता को आपस में एक सूत्र में जोड़ने वाली भाषा है- हिंदी। आप देश के किसी भी कोने से संबंधित हों, लेकिन आपको एक भारतीयता का पहचान करवाती है- हिंदी।

14 सितम्बर 1949 के दिन आजादी के बाद हिंदी को देश की राजभाषा से गौरवान्वित किया गया। सन् 1953 में हुए निर्णय के बाद प्रति वर्ष 14 सितम्बर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। संविधान के अनुच्छेद 343 में चाहे हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ व अनुच्छेद 351 के अनुसार बेशक हिंदी का प्रसार बढ़ाने की बात की गई लेकिन शायद यह सब कागजों तक सिमट कर रह गया।

हर साल हिंदी के उत्थान को हिंदी पखवाड़ा, हिंदी सप्ताह, हिंदी दिवस मनाया जाता है सरकारों द्वारा इस उपलक्ष्य को मनाने के लिए थोक में बजट भी उपलब्ध करवाया जाता है। सरकारी व निजी कार्यालयों से लेकर स्कूलों, कॉलेजों, में निबंध लेखन, वाद-विवाद प्रतियोगिताएं, चित्र कला प्रतियोगिताएं, कवि सम्मेलन, संगोष्ठियां अर्थात तरह-तरह से हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए समारोह, पुरस्कार वितरण समारोह आयोजित होते हैं लेकिन इन समारोह में भी बड़े-बड़े नामचीन हस्तियों को ही आमंत्रित किया जाता है भले ही हिंदी की बेहतरी के लिए उनका योगदान नगण्य हो।

क्या एक दिवस, एक सप्ताह, एक पखवाड़ा, या ज्यादा से ज्यादा एक महीने तक हिंदी पर दिखावटी हो हल्ला करके हम इसके अस्तित्व को बचा पाएंगे? शायद हरगिज नहीं। यह सब कुछ भी तब होता है जब सरकारी कार्यालयों में जबर्दस्ती कुछ दिन तक हिंदी की जय करने के आदेश थोपे जाते हैं और इनकी खानापूर्ति महज काग़ज़ काले करके पूरी हो जाती है। अन्य समारोहों में भी हिंदी भाषा के प्रति दरियादिली तब दिखाई देती है जब फंड के रूप में सरकारी प्रोत्साहन मिलता है, तभी शायद हिंदी प्रेम कुछ वक्त के लिए जागता है।

देश का विकास तब होगा जब भाषा का विकास होगा भाषा का विकास तब होगा जब हम व्यक्तिगत रूप से इससे जुड़ेंगे व जोड़ेंगे। हमें यह इंतजार नहीं करना होगा कि आज 14 सितंबर है, हिंदी राष्ट्रीय दिवस या 10 जनवरी अंतरराष्ट्रीय हिंदी दिवस है। हमें तो प्रत्येक दिन को हिंदी दिवस समझना चाहिए क्योंकि जब तक आप मन से किसी चीज से नहीं जुड़ते तब तक आप पर चाहे सैकड़ों दिवस थोप दिए जाएं या सैंकड़ों आदेश जबर्दस्ती लागू करवा दिए जाए, उस भाषा का विकास नहीं हो सकता।

आज बेशक चाहे युवा वर्ग हिंदी को लेकर हीन भावना का शिकार है लेकिन यह उसकी कमी नहीं, यह कमी है हमारे संस्कारों की जो हमने हिंदी की बजाय अन्य भाषा में जबरन उस पर थोपे, जिस कारण आज वह खुद को हिंदी में बोलने लिखने से भी शर्म महसूस करने लग गया।

वह भाषा, जिसे विदेशों से लोग सीखने के लिए देश में आते हैं परंतु यहां के नागरिक ही उससे मुख मोड़ रहे हैं। यह आत्मचिंतन का विषय है। हिंदी प्रत्येक भारतीय नागरिक के विकास की नींव हैं। नींव को छोड़कर हम कुछ देर तक जरूर हवाई महल खड़ा कर सकते हैं परन्तु दीर्घकाल तक नहीं। शहरों और गांवों का मतभेद संसाधनों के रूप में ही नहीं, भाषा के रूप में भी है और इस मतभेद को अपनी भाषा से ही दूर किया जा सकता है।

हिंदी ही वह भाषा है जो हमारी अमूल्य संस्कृति को सहेज कर रखे हुए है। विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है हमारी हिंदी भाषा। हम सभी को इसके विकास के लिए न तो किसी दिवस का मोहताज होना चाहिए न ही हमें किसी पुरस्कार या सम्मान की आस रखनी चाहिए कि हमें यह मिलेगा हम तब इसको बढ़ावा देंगे। यदि हम अपनी राष्ट्र भाषा को बढ़ावा देंगे तो यह बढ़ावा भाषा ही नहीं बल्कि देश के विकास को बढ़ावा देने वाली बात होगी। देश के विकास से बड़ा कोई और पुरस्कार नहीं हो सकता।

हमें प्रण लेना चाहिए कि हर दिन अपनी भाषा के नाम हो, हो सके तो हर जरूरी काम अपनी भाषा में हो। हमारे संस्कार ऐसे हों कि आने वाली पीढ़ी में कम से कम अपनी भाषा का मौलिक ज्ञान तो जरूर हो। इसका विकास ना किसी दिवस से संभव होगा न ही विभिन्न आयोजनों से। यह हमारी भाषा है हमें इसको सहेजने की जरूरत है। हमें इससे आत्मीयता से जुड़ने की आवश्यकता है।

(स्वतंत्र लेखक राजेश वर्मा लम्बे समय से हिमाचल से जुड़े विषयों पर लिख रहे हैं। उनसे vermarajeshhctu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

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