आई.एस. ठाकुर।। कोई भी व्यक्ति राजनीतिक रूप से तटस्थ नहीं हो सकता। उसकी कोई न कोई विचारधारा या पसंद होती है। हिमाचल प्रदेश में भी ऐसा ही है। कुछ लोग बीजेपी को पसंद करते हैं, कुछ कांग्रेस को, कुछ वीरभद्र को, कुछ धूमल को, कुछ शांता कुमार को तो कुछ नड्डा को। अपनी राजनीतिक पसंद के मामले में हम इतने पक्के हो जाते हैं कि हमें अपनी पार्टी या अपने नेता के खिलाफ कही जाने वाली सभी बातें झूठी लगती हैं और ऐसा करने वाला हमें या तो विरोधी पार्टी का एजेंट लगता है या फिर बेवकूफ। यह सही है कि जिन नेताओं के आप समर्थक हों, उन्होंने आपके लिए बहुत काम किए होंगे और आपका उनसे अच्छा रिश्ता होगा। अच्छी बात है, होना भी चाहिए और ऐसा होता भी है। मगर आज वक्त आ गया है कि हमें शांत मन से सोचना होगा कि क्या हमारे लिए अच्छा है, क्या हमारे लिए खराब।
प्रदेश का हित सीधे तौर पर हरेक व्यक्ति के हित से जुड़ा है। यानी प्रदेश अगर तरक्की करता है तो यह हर व्यक्ति की तरक्की है। प्रदेश का नुकसान हर व्यक्ति का नुकसान। चूंकि यह चुनावी साल है और इस साल के आखिर में विधानसभा चुनाव हो जाएंगे, इसलिए प्रदेश की जनता का खुले मन सोचना विचारना बहुत जरूरी हो जाता है। हमें यह तय करना होगा कि प्रदेश के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। बड़े ही अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि प्रदेश के मौजूदा नेतृत्व में कोई भी बात ऐसी नहीं दिखाई देती, जो हिमाचल को नई दिशा दे सकती है। प्रदेश की राजनीति नूरा-कुश्ती यानी फिक्स्ड मैच सा लगने लगी है। कभी एक पार्टी सत्ता में आती है और कभी दूसरी पार्टी। नेताओं ने मानो सोच लिया हो कि बारी-बारी नंबर आना है, टेंशन क्यों ली जाए। इसलिए सत्ताधारी पार्टी अपने हिसाब के ऊल-जुलूल कदम उठाती रहती है और विपक्ष सुस्त पड़ा ऊंघता रहता है।
इस वक्त प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है इसलिए शुरुआत सत्ताधारी पार्टी और इसके नेताओं से ही करूंगा। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का बयान आता है कि प्रदेश जुगाड़ से चला रहा हूं। उनका आरोप है कि केंद्र से पैसा नहीं आता और बड़ी मुश्किल से प्रदेश चलाना पड़ रहा है। मगर हैरानी होती है उनके इस बयान से क्योंकि वह इधर का पैसा उधर खर्च कर रहे हैं। ऐसी-ऐसी घोषणाएं की जा रही हैं जिनका कोई तुक नही ंहै। पहले से ही स्कूलों की गुणवत्ता सुधारने के बजाय नए स्कूल खोलने के ऐलान किए जा रहे हैं। वह भी तब जब आज या कल में ही शिक्षा विभाग 5 से कम छात्रों वाले 99 स्कूलों को बंद करने की सिफारिश कर चुका है। 99 स्कूल बंद करने का मतलब है कि यहां के लिए बने भवन और संसाधनों पर खर्च करोड़ों रुपया जीरो। क्यों बिना प्लैनिंग के ये ऐलान कर दिए जाते हैं राजनेताओं द्वारा? कहीं गए तो स्थानीय नेता ने मांगपत्र पकड़ाया तो ऐसे ऐलान कर दिया मानो राजा रेवड़ियां बांट रहा हो। मुख्यमंत्री या मंत्री या विधायक जनता के सेवक होते हैं और जनता के टैक्स के पैसे को खर्च करने का अधिकार रखते हैं। यह उनका पुश्तैनी धन नहीं कि इसे लुटाते रहें।
यही नहीं, पटवारखाने खोले जा रहे हैं, जब साइबर लोकमित्र केंद्रों से नक्शे लिए जा सकते हैं। कॉलेज खोले जा रहे हैं, जब मौजूदा कॉलेजों में बच्चों की संख्या कम है, क्योंकि वे प्रफेशनल कोर्स करना चाहते हैं। इन हिमाचल पर ही एक अच्छा लेख पढ़ा था जिसमें खूबसूरती से लिखा गया है कि हिमाचल के नेताओं ने हिमाचल में वक्त पर बीएड कॉलेज और इंजिनियरिंग कॉलेज और यूनिवर्सिटियां नहीं खोलीं और नतीजा यह रहा कि कई सालों तक प्रदेश के बच्चे बीएड करने के लिए, नर्सिंग करने के लिए या अन्य प्रेफेशनल कोर्सों के लिए पड़ोसी राज्यों का रुख करते रहे। मगर सबक अब तक नहीं सीखा। जहां जाओ, वहां नए कॉलेज का ऐलान कर दो। यह भी मत सोचो कि बच्चों को इससे फायदा होगा या नहीं।
न जाने जातियों के आधार पर कितने बोर्डों का ऐलान कर दिया मुख्यमंत्री ने। ब्राह्मण बोर्ड, राजपूत बोर्ड, धीमान बोर्ड, फ्लां बोर्ड ढिमकाणा बोर्ड। कुछ दिन पहले मंडी में मुख्यमंत्री जाति की राजनीति पर ज्ञान दे रहे थे। उनसे कोई पूछे कि सरकार का काम सभी जातियों का मिलकर विकास करना है तो अलग से बोर्ड बनाकर रेवड़ियां क्यों बांटी जा रही हैं? किसी जाति के भवन के नाम पर पैसा दिया जा रहा है जहां उस जाति के लोग शादी आदि के आयोजन करवा सकें और इसी तरह से अन्य जातियों को भी दिया जा रहा है। यह कदम न सिर्फ समाज में खाई पैदा करने वाला है बल्कि सरकार के पैसे की बेकद्री भी है। अरे बनवाना ही है तो एक सामुदायिक केंद्र बनाओ जहां किसी से जाति न पूछी जाए। मगर नहीं, जाति की राजनीति से बाज नहीं आना है।
कुछ दिन पहले ही इन हिमाचल पर टांडा मेडिकल कॉलेज की दुर्दशा की तस्वीरें देख सिर चकरा गया। अस्पताल के नाम पर क्या बना डाला है? प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल की यह दुर्दशा है तो अन्य छोटे अस्पतालों की क्या होगी। दांतों का इलाज करवाने सीएम पीजीआई जाते हैं, स्वास्थ्य मंंत्री पर फोन पर कुछ अभद्र बातों का आरोप लगता है तो दिल का दर्द होने पर पीजीआई जाते हैं, परिवहन मंत्री और आईपीएच मिनिस्टर तक इलाज के लिए प्रदेश से बाहर का रुख करते हैं। क्या इस सरकार को शर्म नहीं आती कि प्रदेश के बड़े मंत्री भी इलाज करने बाहर जाते हैं तो प्रदेश की जनता को प्रदेश के अस्पतालों के भरोसे क्यों छोड़ा है? लापरवाही का आलम यह है कि कहीं कोई ऑक्सिजन की कमी से मर जाता है तो कोई पीजीआई जाते-जाते। एक हादसा हो जाए तो रेफर करने की गेम चलती है और आखिर में पीड़ित इस दुनिया को छोड़कर चला जाता है। ये निष्ठुर नेता क्या समझेंगे जनता का दर्द? अपनों को बेवक्त किसी मामूली हादसे या बीमारी की वजह से खोना पड़े तब पता चलता है। जनता की याद्दाश्त कमजोर है। भूल जाती है कि कितने कष्ट सहे हैं। सत्ताधारी ही नहीं, आज जो विपक्ष में बैठे हैं, वे भी इस दुर्दशा के जिम्मेदार हैं क्योंकि सत्ता में वे भी रह चुके हैं।
रोजगार नहीं मिल रहा युवाओं को। बैकडोर से भर्तियां हो रही हैं। हिमाचल प्रदेश मे सब जानते है कि चिट पर भर्तियां कौन करवाता है। 4 साल तक सरकार में रहकर इन नेताओं को पता नहीं चलता कि किन विभागों में कर्मचारियों की जरूरत है। सरकार जाने वाली होती है तो भर्तियां निकालते हैं, रिटन लेते हैं और इंटरव्यू लटका देते हैं ताकि बहुत से परिवार इस लालच में सत्ताधारी पार्टी को वोट दे दें कि दोबारा आएंगे तो हमारा कुछ हो जाएगा। यही नहीं, कमिशन बोर्ड से किसी भी भर्ती का टेस्ट नहीं लिया जा रहा। प्रतिभावान युवा इंतजार करते हैं कि भर्तियां निकलेंगी तो हम टेस्ट देंगे औऱ कुछ होगा। मगर नहीं, विभिन्न तरीकों से अपने बंदों को टेंपररी रखवा दो और बाद में उन्हें पक्का कर देंगे जब 5 साल बाद सरकार आएगी। अयोग्य व्यक्ति भी तरीके से नौकरी लग जाता है और योग्य व्यक्ति हताश होता रहता है।
दरअसल इस प्रदेश के नेताओं ने लोगों के मन में सरकारी नौकरी का जहर भर दिया है। जहर इसलिए कि हर कोई सरकारी नौकरी करना चाहता है। दोष सरकार का इसलिए है, क्योंकि वह युवाओं को बताती नहीं है कि प्राइवेट सेक्टर में कितना स्कोप है और स्वरोजगार कैसे पाया जा सकता है। हिमाचल की तो खरपतवार भी करोड़ों में बिक जाए, हिमाचल में क्षमता इतनी है। अऱे युवाओं को बताओ कि कैसे खेती की जा सकती है, बागवानी की जा सकती है आधुनिक तरीकों से। लोग मशरूम उगाकर, फूलों की बागवानी से और जड़ी-बूटियां उगाकर अपनी ही नहीं बल्कि हिमाचल और भारत तक की तस्वीर बदल सकते हैं। युवाओं के कौशल यानी स्किल का विकास करना चाहिए। एक कौशल विकास निगम तो बनाया मगर उसमें भी मुख्यमत्री ने अपना बेटा बिठा दिया। उनका बेटा तो सेट हो गया मगर प्रदेश के बेटे आज भी बेरोजगारी की फ्रस्ट्रेशन में नशे की तरफ रुख कर रहे हैं।
नशे की बात आई तो यह बात किसी से छिपी नहीं है। लोग पूरी दुनिया से हिमाचल आ रहे हैं नशा करने के लिए। मिनी इजरायल कहलाने में न जाने किसी गर्व होता होगा, मुझे तो शर्म आती है। सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है क्या? जब सबको पता है कि कहां से क्या मिलता है तो पुलिस तंत्र क्यों कुछ नहीं कर रहा? ऐसे में वे लोग गलत नहीं हैं जो कहते हैं कि नशे के कारोबारियों को नेताओं का संरक्षण मिला है।
पॉलिसी ऐंड प्लानिंग के नाम पर ठप हो चुका है प्रदेश। सड़कों की हालत खराब, बसों की हालत माड़ी, अस्पताल बीमार, शिक्षण संस्थानों में सुविधाओं का अभाव, विभिन्न विभागों में स्टाफ की कमी। मैं तो सोचकर हैरान होता हूं कि पिछले 5 सालों मे इस सरकार ने क्या पॉलिसी बनाई? बस ये कि 5 बीघा तक सरकारी जमीन पर कब्जे को रेगुलर कर दिया जाएगा? अपराधियों को बढ़ावा देने वाली नीति बनाई? प्रदेश की वन संपदा मैच्योर हो चुकी है और उसके दोहन का वक्त है। वरना पेड़ सड़ जाएंगे और करोड़ों का नुकसान। मगर वन मंत्री को नाचने से फुरसत नहीं। वह जरूर नाचें मगर अपना काम भी तो करें। शहरी विकास मंत्रालय की क्या उपल्बधि रही? स्मार्ट सिटी का क्रेडिट लेने वाले ये न भूलें कि यह केंद्र की योजना है और इसमें किसी न किसी शहर का नंबर तो प्रदेश में पड़ना ही था। यह आपकी अचीवमेंट नहीं है। टूरिजम में क्या नया काम हुआ, कौन सी नई जगह विकसित हुई या पहले वाली जगहों का उद्धार हो गया? आईपीएस मंत्री ने क्या काम ऐसा कर दिया कि जहां पहले लोग पानी की कमी से जूझते थे, वहां पानी आ गया? परिवहन मंत्रालय ने प्रदेश में परिवहन के वैकल्पिक साधनों के बारे में क्या नया किया?
अगर कोई मंत्रालय सही से काम नहीं करता है तो उसके मंत्री की ही नहीं, मुख्यमंत्री की भी बड़ी जिम्मेदारी होती है। क्यों मुख्यमंत्री जो सरकार का मुखिया है, अपने मंत्रि्यों को नहीं कसता। इसका मतलब साफ है कि मुख्यमंत्री कमजोर हैं। कमजोर इसलिए भी, क्योंकि 82 साल की उम्र हो चुकी है। आए दिन अजीब और अमर्यादित बयान दे रहे हैं। इससे पता चलता है कि अब इस उम्र में तो वह कुछ नया देने से रहे। अब भी वो सोचते है कि वह दौर है जब मंच से भाषण देकर घोषणा कर दो कहीं स्कूल या कॉलेज खोलने की तो जनता खुश हो जाती थी। उन्हें दरअसल पता ही नहीं है कि अब प्रदेश के युवाओं की जरूरतें क्या हैं। हिमाचल प्रदेश युवाओं से भरा प्रदेश है। इसे युवा नेता की जरूरत है जो समझे आज के दौर को। ऐसा नहीं कि दूसरी राजधानी का ऐलान करे। यह बाद मौजूदा मुख्यमंत्री और कांग्रेस पर ही लागू नहीं होती बल्कि विपक्षी पार्टी और विपक्ष के नेता पर भी लागू होती है।
4 साल तक मै हिमाचल प्रदेश के अखबारों में विधानसभा सत्र के दौरान यही पढ़ता रहा कि बीजेपी ने किया वॉकआउट, बीजेपी ने किया वॉकआउट। फालतू-फालतू बातों पर वॉकआउट। प्रेम कुमार धूमल के नेतृ्तव में बीजेपी वॉकाउट पार्टी बनकर रह गई। अरे विपक्ष का काम होता है सरकार की खबर लेना। सवाल पूछना जनता से जुड़े हुए और काम करवाना। मगर नौटंकी और करतब का अड्डा बना दिया विपक्ष ने विधानसभा को। कभी कोई विधायक खुद ही स्पीकर की कुर्सी पर बैठ जाता तो कभी कुछ। सवाल-जवाब सत्ता और विपक्ष में विधानसभा में नहीं, मीडिया के जरिए हुए। औऱ इन सवालों मे भी जनता के मुद्दे नहीं, पर्सनल मुद्दे हावी रहे। वीरभद्र और धूमल की बयानबाजी 50 पर्सेंट अनुराग को लेकर हुई है और 50 पर्सेंट करप्शन केस को लेकर। जनता की फसलों को सुअर और बंदर खा गए, सीमेंट प्रदेश में ही बनता है फिर भी महंगा मिलता, अस्पतालों में सुविधाएं नहीं हैं, सरकारी स्कूल बदहाल हैं, सड़कें उखड़ गई हैं, रोजगार नहीं मिल रहे– ये सब मुद्दे विपक्ष उठाना ही भूल गया।
ऐसा इसलिए क्योंकि पता है इन्हें कि सरकार कुछ भी करे, अगला नंबर हमारा आना है। जब नंबर बिना कुछ किए आ जाएघा तो कुछ क्यों किया जाए। यही सोच इस प्रदेश का बेड़ा गर्क कर रही है। इन नेताओं ने इस प्रदेश को अपनी जागीर समझ लिया है औऱ जनता को ढक्कन। पहले एक जनता को बेवकूफ बनाता है फिर दूसरा। एक को अपने बेटे को सेट करने की चिंता है तो दूसरे को अपने बेटे के स्टेडियम की चिंता। कुलमिलाकर हिमाचल की राजनीति अपने बेटों के लिए जूझ रहे दो पिताओं की राजनीति बन गई है। इन लोगों ने अब तक ऐसा क्या किया प्रदेश के लिए, जिसे देखकर लगता हो कि अभी कुछ और करना बाकी रह गया है? मेरा मानना है कि दोनों पार्टियों में बदलाव की लहर बहे या न बहे, हिमाचल में बदलाव की हवा चलनी चाहिए। बाकी इन पार्टियों या नेताओं के मसर्थकों को इनका झंडा उठाना है तो उठाएं, कम से कम मैं तो इन बूढ़े और नकारा हो चुके नेताओं को अपने हिमाचल का भविष्य नहीं सौंपना चाहता। हमें ऐसे नेता चाहिए जो अपने बच्चों के लिए नहीं, हिमाचल के बच्चों के लिए लड़ें, उनके भविष्य के लिए जूझें, उनके भविष्य के लिए समर्पित हों।
(लेखक आयरलैंड में रहते हैं और ‘इन हिमाचल’ के नियमित स्तंभकार हैं। उनसे kalamkasipahi@gmail.com से संपर्क किया जा सकता है।)
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