शिमला।। अक्सर मीडिया में रहने वाले मंत्री और नेता जब कोरोना काल में छिप गए हैं, तब भी कुछ मंत्री और नेता खुलेआम सोशल डिस्टैंसिंग और अन्य नियमों की धज्जियाँ उड़ाते मीडिया में नज़र आ रहे हैं। ऐसे ही नेताओं में से एक हैं मंडी के सांसद रामस्वरूप शर्मा जो मंडी और कुल्लू के विभिन्न स्थानों पर कोरोना योद्धाओं को सम्मानित करने के नाम पर उनपर पुष्पवर्षा करते नज़र आए।
लंदन से नहीं, इंदौर से चल रही है ‘दि वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड्स’
इसमें ड्यूटी में लगे डॉक्टरों, पुलिसकर्मियों, सफ़ाई कर्मियों और अन्य लोगों को लाइन में खड़ा किया गया ताकि सांसद महोदय उनपर फूल बरसा सकें। इस दौरान सांसद के साथ आए लोगों और मीडियाकर्मियों ने सोशल डिस्टैंसिंग की धज्जियाँ उड़ा दीं। हर इवेंट के बाद सांसद महोदय ने मीडिया से बात भी की और ‘तथाकथित’ नेताओं और ‘टुकड़े-टुकड़े’ गैंग को कोसा।
यानी वे इस दौरान मुखर रहे, खुलकर सामने आए और खुलकर बोले। लेकिन अब उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड्स नाम की ब्रितानी संस्था की ओर से ‘साइलेंट वॉरियर’ यानी मूक योद्धा का ख़िताब दिया गया है। यह संस्था ऐसे ही ख़िताब पूर्व डीजीपी सीताराम मरडी और शिक्षा मंत्री सुरेश भारद्वाज आदि कई लोगों को दे चुकी है।
अगर संस्था ने रामस्वरूप शर्मा को मुखर योद्धा और फियरलेस वॉरियर का टाइटल दिया होता तब तो बात होती। क्योंकि सांसद महोदय उम्रदराज़ हैं और दिल के मरीज़ भी हैं। वह कोरोना संक्रमण के प्रति संवेदनशील समझे जाने वाले आयु समूह में हैं। फिर भी वह घूमकर जिस तरह से कोरोना से निपटने के इंतज़ाम करने में लगे हैं और जगह-जगह प्रबंधन देख रहे हैं, वह वाक़ई बहादुरी का काम है। मगर उन्हें साइलेंट वॉरियर का टाइटल देना समझ से परे है।
बहरहाल, यह एक नेता या एक संस्था की बात नहीं है। कोरोना काल में असंख्य ऐसे संगठन उभर आए हैं जो सर्टिफिकेट बाँट रहे हैं। भले ही उनकी अपनी विश्वसनीयता सवालों के घेरे में हो। मगर दोष इन संगठनों का नहीं, इनके द्वारा दिए गए सर्टिफिकेटों को उपलब्धि के तौर पर बताने वाले नेताओं या अधिकारियों और इस बात आँख मूँदकर छाप देने वाले मीडिया संस्थानों का है।
सर्टिफिकेट देने वाले संगठनों का इरादा क्या है?
सवाल उठता है कि वर्ल्ड रिकॉर्ड वाली एक नवोदित पुस्तिका को हिमाचल में ऐसे अवॉर्ड या ख़िताब देने की ज़रूरत क्या आन पड़ी, यह तो चर्चा से ही परे है। क्योंकि देशभर में कई एनजीओ मीडियाकर्मियों और नेताओं को इस तरह के ख़िताब या सर्टिफिकेट बाँट रहे हैं और वे लोग अपनी फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल से लेकर अख़बारों तक को प्रेस रिलीज़ जारी करके इसे उपलब्धि के तौर पर दिखा रहे हैं।
इस दौरान यह नहीं देखा जा रहा कि अवॉर्ड या सर्टिफिकेट देने वाली संस्था या संगठन की अपनी क्रेडिबिलिटी क्या है और वह किस आधार पर पिक करके ऐसे ख़िताब दे रही है। दरअसल ये संस्थाएँ जानती हैं कि ख़ुद अपना प्रचार करेंगी, विज्ञापन देंगी तो लाखों खर्च होंगे। इसलिए नेताओं को ख़िताब दिए जाएं ताकि वे ख़ुद ख़बरें छपवाएं और हमारा प्रचार मुफ़्त में हो जाए।
ऐसी ही एक संस्था फ़र्ज़ी सर्वे का नाम लेकर बे सिर-पैर टाइटल नेताओं और अधिकारियों को देती रहती है। ऐसा नहीं है कि नेता या अधिकारी अच्छा काम नहीं करते। मगर सवाल ये है कि उन्हें अपने काम का सर्टिफिकेट ऐसी संस्थानों से लेने की ज़रूरत क्या है?
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