मुख्यमंत्री जी! हमें मुआवजा नहीं, सुरक्षित यात्रा की गारंटी चाहिए

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आई. एस. ठाकुर।। कुल्लू के बंजार में हुए दुखद हादसे ने एक बार फिर हिमाचल प्रदेश के उस जख्म को हरा कर दिया है जो ठीक नहीं हो पा रहा। और यह ठीक इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि इसके इलाज के लिए दवा नहीं लगाई जाती बल्कि इस जख्म के ऊपर सीधे नोट ही चिपका दिए जाते हैं। जी हां, मरने वालों के परिजनों और घायलों को मुआवजे के तौर पर कुछ पैसे देकर नेता औऱ सरकारें अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती हैं। जिस समस्या को सुलझाया जा सकता है, अगर उसे सुलझाया न जाए और उसके कारण लोगों की मौत हो जाए तो इसे हादसा नहीं बल्कि हत्या करना उचित होगा।

अगर आप हिमाचल प्रदेश से हैं तो बचपन से आपने असंख्य बस हादसों की खबरें सुन ली होंगी जिनमें दर्जनों लोगों की मौत हुई होगी। आए दिन होने वाले कार, ट्रक और बाइक हादसों का तो कोई हिसाब ही नहीं है। हेड ऑन कलिज़न यानी आमने-सामने की टक्कर से ज्यादा जानें यहां पर वाहनों के खाई में गिर जाने सो होती है। बहुत कम मामले ऐसे होते हैं जिनमें सीधी और अच्छी सड़क पर कोई लापरवाही के कारण शराब या नींद के प्रभाव में नीचे उतर गया हो। अधिकतर मामलों में ये हादसे होते हैं मोड़ों पर या ऐसी जगहों पर जहां सड़क की स्थिति खराब होती है।

कैसे होते हैं हादसे
इसके अलावा हिमाचल प्रदेश की सड़कों पर दौड़ते खटारा वाहन, अनाड़ी चालक और ओवरलोडिंग भी लोगों की जान असमय लेने के लिए जिम्मेदार है। खटारा वाहन मोड़ों पर या तो स्पीड कम नहीं कर पाते या फिर उनके स्टीरिंग जाम हो जाते हैं। एचआरटीसी की बसों से ही स्टीरिंग जाम होने की खबरें कतनी बार आ चुकी हैं। अनाड़ी चालक अक्सर बाहरी राज्यों के होते हैं जो छुट्टी मनाने के इरादे से पहाड़ी सड़कों पर अडवेंचर के लिए निकल आते हैं और फिर या तो खुद खाई से बाहर निकल जाते हैं या फिर ऐसा कट मारते हैं कि बचने-बचाने के चक्कर में कोई और गाड़ी हादसे की शिकार हो जाती है।

ओवरलोडिंग बड़ा कारण
जो सबसे बड़ा कारण है, वह है वाहनों की ओवरलोडिंग और ऊपर से ओवरस्पीडिंग। जी हां, चाहे छोटी गाड़ियां हों या बड़ी, मालवाहक गाड़ियां हों या यात्री वाहन,  हर गाड़ी बारीक इंजीनियरिंग से तैयार की गई होती है। एक-एक हिस्सा, एक-एक नट-पेंच, एक-एक स्क्रू निश्चित आकार का होता है, निश्चित वजन का होता है। वाहन की स्टेबिलिटी के लिए उसमें बैठने वाले लोगों की सीटें भी इस हिसाब से बनाई जाती हैं ताकि उनका बैलंस बना रहे। उनके पुर्जे इस हिसाब से बने होते हैं ताकि मोड़ों पर या झटके लगने पर पैदा होने वाली ताकत कैसे वाहन को अनियंत्रित न कर दे।

मगर हम न बारीक बातों पर ध्यान नहीं देते। ट्रकों और टिप्परों को ओवरलोड कर देंगे या फिर बेतरतीबी से लोड करेंगे और नतीजा यह होगा कि मोड़ पर गाड़ी नियंत्रित नहीं होगी और सीधे बाहर गिरने का खतरा होगा। कारों और बसों में भी ऐसा होता है। पहाड़ी सड़कों पर तो यात्रियों को ढंग से बिठाना चाहिए। यात्री एक ही तरफ बैठ जाएंगे और दूसरी तरफ कम लोग होंगे तो इससे भी उस बस या गाड़ी के पलटने का खतरा होगा और मोड़ों पर उसके अनियंत्रित होने की आशंका बढ़ जाएगी। ओर अगर तय क्षमता से अधिक लोग बैठेंगे तो हादसे का खतरा और हो जाएगा।

सड़कों की खराब हालत- नीम पर चढ़ा करेला
अनाड़ी और लापरवाह चालक अगर मोड़ पर स्पीड कम नहीं करेगा तो यह ओवरलोडेड वाहन हादसे का शिकार होगा ही। दुख की बात ये है कि अधिकतर सड़कों पर मोड़ों में बैंकिंग नहीं की गई है। बैंकिंग यानी मोड़ पर एक कोण में झुकाव बनाना ताकि सेंट्रीफ्यूगल फोर्स के कारण गाड़ियां स्किड न हो जाएं। ऐसे समझिए कि अगर बाईं ओर का मोड़ है तो सड़क दाईं ओर से ऊंची और बाईं ओर से नीची होनी चाहिए। मगर ऐसा होता कहां है? कई जगह तो उल्टी ही बैकिंग कर दी गई है।

नैशनल हाइवेज़ पर तो बैंकिंग है मगर अन्य सड़कों की बुरी हालत है।

लापरवाह अधिकारी, बेपरवाह सरकार
समस्या पूरे सिस्टम में है। सड़कों को ढंग से बनाने और खतरनाक जगहों पर बैरियर आदि लगाने जैसे काम शुरू में ही हो जाने चाहिए और बजट में ही इसका प्रावधाना होना चाहिए। ऐसा न कर पाने वाले पीडब्ल्यूडी के अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। खटारा बसों और वाहनों को पास कर देने वाले ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट के अधिकारियों पर कार्रवाई होनी चाहिए। साथ ही साथ पुलिस को भी कसा जाना चाहिए और ट्रांसपोर्ट विभाग को भी कि वे समय समय पर चेकिंग करें कि कौन सा वाहन ओवरलोडिंग कर रहा है, कौन सा ड्राइवर नियम तोड़ रहा है, कहां क्या कमी है।

ट्रांसपोर्ट मंत्रालय का काम है कि वह विभिन्न विभागों से फीडबैक ले। जहां सड़कें ठीक नहीं हैं वहां पर संबंधित विभाग से संपर्क करके उन्हें ठीक करवाए। जहां बसें कम हैं, वहां बसें चलाए। जहां नियमों का पालन नहीं हो रहा, वहां नियमों का पालन करने के लिए पुलिस की मदद ले। मगर जब बयानों से काम चल जाता है तो काम की क्या जरूरत? शायद इसी बात ने हमारे नेताओं को संवेदनहीन बना दिया है। वे नहीं सोचते कि इन हादसों से मरने वालों की जान को वे बचा सकते हैं अगर अपना काम गंभीरता से करें।

फरवरी 2018 की खबर जिसमें लोग मांग कर रहे है कि निजी बसों से यात्रा करनी पड़ती है, अधिक बसें चलाई जाएं।

फिर दे दिया जाएगा मुआवजा और होगा अगली दुर्घटना का इंतजार?
सबसे बड़ी बात, हर हादसे पर जांच होनी चाहिए और जांच की रिपोर्ट के आधार पर जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई होनी चाहिए और एक संदेश मिलना चाहिए। खटारा वाहन हो तो पासिंग करने वाले अधिकारी को रगड़ा जाए, सड़क खराब हो तो पीडब्ल्यूडी को पूछा जाए। मगर इतनी सरकारें आई, इतनी सरकारें गई, इतने हादसों की जांच हुई पर ऐक्शन किसी पर नहीं लिया गया। नेताओं ने बस एक ही मंत्र अपनाया है- हादसों पर दुख के दो बोल कहते हैं, मुआवजे का मरहम चिपकाते हैं और फिर हमारी कमजोर यादाश्त का फायदा उठाकर चार दिन बाद फिर राजनीति में मशगूल हो जाते हैं।

पैसा लोगों की जान बचाने में लगाया जाए तो बेहतर

अब तक हुए हादसों में दिए गए मुआवजे की रकम के बारे में सोचिए। कितना बेहतर होता अगर वह रकम हिमाचल की सड़कों को सुरक्षित बनाने पर खर्च होती। ऐसा होता तो परिजन घर पर इंतजार न करते रहते और उनके अपने किसी हादसे का शिकार होकर चीथड़ों में तब्दील न हुए होते। सरकार की बाकी योजनाएं तो तब काम आएंगी जब जिंदा रहेंगे। घर से कहीं जाते हुए बिना वजह मारे जाएंगे तो योजनाएं किस काम की? तो मुख्यमंत्री जी, हिमाचल के लोग सुरक्षित यात्रा की गारंटी चाहते हैं। क्या आप दे सकते हैं?

(लेखक हिमाचल प्रदेश से जुड़े विषयों पर लिखते रहते हैं, उनसे kalamkasipahi @ gmail. com पर संपर्क किया जा सकता है)

ये लेखक के निजी विचार हैं