लेख: चुनाव आते ही ऐसे पैंतरे क्यों दिखाते हैं वीरभद्र?

आई.एस. ठाकुर।। साल 2012 के आखिर में हिमाचल आया हुआ था। चुनाव नजदीक थे और चारों तरफ चर्चा थी कि वीरभद्र सिंह कांग्रेस छोड़कर एनसीपी में जा रहे हैं। मेरे कुछ दोस्त हैं जो कांग्रेस के (दरअसल वीरभद्र) के खानदानी समर्थक हैं। वे बड़े परेशान नजर आ रहे थे और रह-रहकर कौल सिंह ठाकुर को कोस रहे थे, जो उन दिनों खुद को सीएम कैंडिडेट बनाने की दावेदारी पेश कर रहे थे। एक दोस्त का कहना था कि अगर हिमाचल में कांग्रेस अगर कुछ है तो वीरभद्र की वजह है और वीरभद्र के बिना कुछ भी नहीं। उसका यह भी कहना था कि अगर वीरभद्र कांग्रेस छोड़कर एनसीपी में जाते हैं तो उनके साथ कई बड़े नेता, पूर्व मंत्री और विधायक भी एनसीपी में चले जाएंगे और चुनाव में उतनी ही सीटें आएंगी, जितनी उनके कांग्रेस में रहते आती।

 

मैं अपने दोस्त की सादगी और भोलेपन पर मुस्कुरा सा दिया था। वह शायद चुनावी राजनीति के गणित को नहीं समझता। वह और उसके जैसे न जाने कितने ही लोग सीटों के आधार पर आकलन करते हैं किसी की कामयाबी का। उसे कितने वोट मिले, वोट शेयर कितना रहा, इसपर ध्यान नहीं देते। अक्सर देखा जाता है कि हिमाचल में सरकारें बदलने में कुछ प्रतिशत वोट का मार्जन ही सरकार पलट देता है। 2007 के विधानसभा चुनावों के बाद जब बीजेपी सत्ता में आई थी, तब उसे वोट प्रतिशत 43.78 पर्सेंट था और कांग्रेस का 38.90 पर्सेंट। मगर 2012 के चुनावों में मामला उलट-पलट हो गया। बीजेपी का वोट शेयर 38.47 पर्सेंट रह गया और कांग्रेस का 42.81 पर्सेंट हो गया। तो इस हालात में देखें पता चलता है कि साढ़े चार से साढ़े 5 फीसदी वोटरों का रुख ही तय करता है कि सरकार किसकी बननी है। अगर वीरभद्र उस वक्त एनसीपी में चले गए होते तो जनता कन्फ्यूज़ होती, आधे वोट कांग्रेस में बंटते, आधे एनसीपी में और फिर वह हो जाता जो हिमाचल में कभी नहीं होता। यानी बीजेपी लगतार दूसरी बार सत्ता में आ गई होती।

 

पिछले चुनावों में कौल सिंह से थी वीरभद्र को दिक्कत
अगर ऐसा होता तो कांग्रेस के लिए चिंता की बात हो जाती क्योंकि वह जानती है कि हिमाचल में बारी-बारी से सरकारें बदलती रही है। अब उसका नंबर आने वाला था, इसलिए वह नहीं चाहती थी कि बिना वजह यह मौका जाने दिया जाए। चूंकि उस वक्त वीरभद्र विरोधी खेमा मजबूती से एकजुटता दिखा रहा था, अचानक अखबारों में कहीं से खबर आई (शक है कि प्लांट करवाई गई) कि नाराज़ वीरभद्र एनसीपी में जॉइन करने जा रहे हैं। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कौल सिंह ठाकुर खुलकर न्यूज चैनलों को इंटरव्यू दे रहे थे और दावेदारी जता रहे थे। (वीडियो देखें)

पूरे प्रदेश में यह सुगबुगाहट रही कि अब तो तैयारी है। वीरभद्र को चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख तो बनाया ही गया था, आलाकमान ने कई मीटिंगों के बाद उन्हें प्रदेश अध्यक्ष भी बना ही दिया। दरअसल वीरभद्र के सारे करीबी विधायक उनके साथ लामबंद हो गए थे। कांग्रेस आलाकमान नहीं चाहती थी कि यह मौका हाथ से जाए सत्ता में आने का। इसलिए उसने वीरभद्र के आगे घुटने टेक दिए। फिर यह अलग बात है कि वीरभद्र कांग्रेस को सरकार में लाने में कामयाब भी रहे और फिर उन्होंने मुख्यमंत्री बनने पर कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष पद छोड़ दिया।

 

इस बार सुक्खू को हटाने की जुगत में लगे हैं
आज 2017 है और न जाने क्यों लग रहा है कि हालात 2012 जैसे हैं। पांच साल में वक्त कितना बदल गया, वीरभद्र नहीं बदले। जिस तरह से वीरभद्र के समर्थक उस वक्त के प्रदेशाध्यक्ष कौल सिंह के पीछे पड़े होते थे, इस बार वे मौजूदा प्रदेशाध्यक्ष सुक्खू के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। मुख्यमंत्री खुद कई टिप्पणियां करते रहे हैं उनपर। पिछले दिनों एक चिट्ठी भी लीक हुई थी जो वीरभद्र ने कथित तौर पर आलाकमान को सुक्खू की शिकायत करते हुए भेजी थी। और अब पिछले दिनों उन्होंने संगठन से सहयोग न मिलने की बात कहते हुए कहा कि यही हाल रहा तो मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा। उन्होंने इस संबंध में हाईकमान को सूचित करने की भी बात कही। इसके बाद उनके खास और कैबिनेट मंत्री प्रकाश चौधरी ने कहा कि वह नहीं लड़ेंगे तो मैं भी नहीं लड़ूंगा और बाकी विधायकों की भी यही राय है।

राजनीतिक पंडितों का मानना है कि दरअसल यह तो होना ही था। लंबे समय से ही सुक्खू और संगठन के खिलाफ बयानबाजी करके वीरभद्र माहौल बना रहे थे कि वह सहयोग नहीं दे रहा। और अब उस पूरी कवायद का क्लाइमैक्स आ गया जब उन्होंने कहा कि मैं चुनाव नहीं लडूंगा। यह ठीक उसी तरह से प्रेशर बनाने की रणनीति है, जिस तरह का प्रेशर उनके 2012 में एनसीपी में जाने की चर्चाओं से बना था।

 

काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती
मगर इस बात आलाकमान उनकी कितनी सुनेगा, यह देखना होगा। क्योंकि अब तक के प्रयास सुक्खू को हिला नहीं पाए, ऐसे में उन्हें हटाना भी कांग्रेस के लिए खतरनाक होगा क्योंकि वह लंबे समय से संगठन को संभाले हुए हैं। कई जगहों पर कांग्रेस संगठन के सामान्य पदाधिकारियों ने बड़े नेताओं और चुनौती दी है और अपना जनाधार बनाया हुआ है। साथ ही कांग्रेस से हिमाचल के मामले में जो चूक हुई है, उसे वह ठीक करना चाहती है। हिमाचल को कम महत्व का राज्य समझती रही कांग्रेस, क्योंकि उसका दखल बड़े-बड़े राज्यों में था। बड़ी पार्टियां हमेशा दो-दो नेताओं को बराबर रखकर चलती है ताकि एक ज्यादा उछले तो दूसरे को चढ़ा दिया जाए। इस तरह से बैलंस बना रहता है। मगर हिमाचल में वीरभद्र को खुला हाथ देने का खामियाजा वह 2012 में भुगत चुकी है, जिसे ब्लैकमेलिंग की तरह लिया गया।

सुक्खू के जरिये बैलंस बना रही है कांग्रेस
यही वजह रही कि उसकी क्षतिपूर्ति की कोशिश कर रही कांग्रेस ने इस बार सुक्खू को भी संगठन में खुला हाथ दिया। वीरभद्र को कहा कि आप सरकार संभालो, सुक्खू को कहा कि आप संगठन संभालो। वीरभद्र छटपटाते रहे, शिकायतें करते रहे, बयान देते रहे… मगर सुक्खू घनी मूछों पर हाथ फेरते हुए खामोशी से मुस्कुराते रहे। शायद संगठन समझ गया है कि एक व्यक्ति को सभी से दिक्कत है तो मतलब बाकियों में नही, उसी में कुछ लोचा है। वैसे बैलंस की यह रणनीति कांग्रेस को तभी बना लेनी चाहिए थी जब सुखराम जैसे नेता कांग्रेस में वीरभद्र को चुनौती देने की हैसियत रखते थे। अब बहुत देर हो चुकी है। अगर वीरभद्र को नहीं मनाया तब नुकसान, सुक्खू को हटाया तब नुकसान और टकराव के साथ चुनाव लड़ा तब नुकसान… मगर सवाल उठता है कि सब मिलजुकर पूरी ताकत से भी चुनाव लड़ लेंगे, तब भी जीत पाएंगे क्या? वहीं अगर सुक्खू को नहीं हटाया जाता है तो क्या वीरभद्र चुपचाप घर बैठ जाएंगे और अपने वादे के मुताबिक चुनाव नहीं लड़ेंगे? दोनों का जवाब है- नहीं.

 

भविष्य के लिए सुक्खू को तैयार कर रही कांग्रेस?
कांग्रेस आलाकमान जानती है कि हिमाचल में नतीजे क्या रहने वाले हैं। उसे पता है कि इस बार शायद उसका नंबर नहीं है सरकार में आने का। इसलिए वह आगे की सोच लेकर चलेगी। वह यथास्थिति बनाए रखते हुए चुनाव लड़ेगी। दरअसल वह सुक्खू को तैयार कर रही है भविष्य के लिए। वीरभद्र के बाद जो लोग कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे हैं, वे देखते रह जाएं और 2022 में जो चुनाव होंगे, उनमें सुक्खू को सीएम कैंडिडेट बनने का मौका मिल जाए।

मगर प्रश्न यह है कि वीरभद्र सब कुछ अपने हाथ में क्यों रखना चाहते हैं? वह ताकत को अपने पास रखने में क्यों यकीन रखते हैं? और उनके ऐसा करने से प्रदेश का कुछ फायदा भी जुड़ा है या नहीं? इन सवालों पर भी बात करेंगे, मगर किसी और दिन। फिलहाल तो इंतजार करके देखते हैं कि वीरभद्र के नए दांव का नतीजा क्या निकलता है।

(लेखक हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले से संबंध रखते हैं और इन दिनों आयरलैंड में एक कंपनी में कार्यरत हैं। उनसे kalamkasipahi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

(DISCLAIMER: ये लेखक के अपने विचार हैं, इनके लिए वह स्वयं उत्तरदायी हैं)

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