देव परंपरा के नाम पर कुछ के फितूर को सरकारें ही दे रही हैं बढ़ावा

प्रतीकात्मक तस्वीर

पत्रकार आदर्श राठौर के ब्लॉग से साभार।। मंडी के सरकाघाट में जादू-टोना करने का आरोप लगाकर वृद्ध महिला की पिटाई करने की घटना आजकल पूरे हिमाचल में छाई हुई है। वैसे तो हर कोई इस घटना की आलोचना कर रहा है मगर इस बारे में कोई विचार नहीं कर रहा कि ये घटना आख़िर हुई क्यों और दोबारा ऐसा न हो, इसके लिए क्या करना चाहिए।

पुलिस ने भी कुछ लोगों को गिरफ्तार कर दिया मगर किसी के मन में ये ख़्याल नहीं आया कि इस मामले में पुजारिन से लेकर उसके आदेशों को ज़ॉम्बी बनकर फ़ॉलो करने वाले लोगों को अच्छे मनोचिकित्सक को दिखाया जाए, उनकी काउंसलिंग की जाए ताकि ‘देवता के आदेश’ के नाम का फ़ितूर उनके दिमाग़ से निकाला जा सके।

आज मैं देखता हूँ कि गाँव-गांव में किसी प्राचीन और लोकप्रिय देवता के नाम पर नए मंदिर खुल रहे हैं, नए देवरथ (पालकियाँ) बन गई हैं और उनके चेले या गूर लोगों की समस्याओं का इलाज करने के नाम पर ज़हर फैला रहे हैं। इनमें आधे से ज़्यादा लोग किसी न किसी मानसिक समस्या के कारण यह भ्रम पाल बैठे हैं कि उनके ऊपर किसी देवता की कृपा हो गई है और वह देवता उनके माध्यम से संवाद करता है।

कुछ ऐसे भी लोग हैं जो जानबूझकर नाटक करते हैं और अपने ऊपर देवता की कृपा होने का प्रचार करते हैं ताकि उसके नाम पर अपनी दुकान चला सकें। मैदानी इलाक़ों में कुछ लोग फ़र्ज़ी पालकी बनाकर सड़क किनारे बैठ जाते हैं या फिर वाहनों को रोककर उनसे पैसे एंठते है।

पाखंडियों की हिम्मत बढ़ाता है हमारा डर
हममें से बहुत सारे लोग इस विषय पर बात करने से बचते हैं क्योंकि अभी हमारे अंदर से अंधविश्वास गया नहीं है। हम जगह-जगह दुकान चला रहे पाखंडी पुजारियों के ढोंग और उनके ‘खेलने’ या दैवी शक्ति के आधार पर लोगों के प्रश्नों के जवाब देने के पाखंड पर इसलिए सवाल नहीं उठाते क्योंकि डरते हैं कि…

  1. वाक़ई देवता नाराज़ न हो जाए या फिर देवता में आस्था रखने वाले हमारे अपने न ख़फ़ा हो जाए।
  2. एक देवता और उसके पुजारी के पाखंड पर सवाल उठाया तो पूरी देव परंपरा पर ही प्रश्न चिह्न लग जाएगा।

देव परंपरा हमारी संस्कृति का हिस्सा है और हम इसी को देखते हुए, इसी को मानते हुए बड़े हुए है। ऐसे में ऊपर वाली बातों का डर हमें लॉजिकल होने से रोकता है। और इसी कारण उन नए-नए ‘चेलों’ को बढ़ावा मिल रहा है जिन्हें वास्तव में अच्छे मनोचिकित्सक की ज़रूरत है।

हिस्टीरिया और साइकोसिस का ‘खेल’
1950 के आसपास जब राहुल सांकृत्यायन हिमाचल के दौरे पर आए थे, तब उन्होंने देव परंपरा को लेकर अनुमान लगाया था कि जैसे-जैसे स्वतंत्र भारत में शिक्षा का प्रचार होगा, यह परंपरा ख़त्म हो जाएगी। मगर हुआ इसका उल्टा। गाँव-गांव में कुकुरमुत्तों की तरह तथाकथित ‘पुजारी’ पैदा होने लगे हैं और देवताओं के नाम पर बड़ा कारोबार खड़ा हो गया है।

ये सब हिस्टीरिया का परिणाम है और हिस्टीरिया ऐसी चीज है जो बढ़ती चली जाती है। उदाहरण के लिए चोटी जाने की एक ख़बर को किसी मीडिया ने क्या दिखाया, पूरे देश में चोटी कटने की ख़बर आने लगी। ठीक इसी तरह से स्थापित देवताओं के नाम पर कई मंदिर खुले हैं। अगर कोई एक शख़्स हिस्टीरिया का शिकार होकर ट्रांस में जाकर (ज़िसे ‘खेलना’ कहते हैं हिमाचल में) देवता के तौर पर बात करता है तो हमारा समाज तुरंत मान लेता है कि उस बंदे में फलां देवता या देवी आई है।

एक बार ख़बर फैलती है तो फिर उसका रुकना मुश्किल है। फिर कुछ लोग जो कई परेशानियों से जूझ रहे होते हैं, मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के कारण अजीब हरकतें करने वाले अपने रिश्तेदारों को भूत की गिरफ़्त में आया मानकर ऐसे मंदिरों में ले जाने लगते हैं। फिर शुरू होता है महापाखंड का सिलसिला जिसका कोई वैज्ञानिक आधार है। ये हॉरर फ़िल्मों में दिखने वाले एक्सॉरसिज़म जैसा होता है।

जो लोग, ख़ासकर बच्चे, इस नज़ारे को देखते हैं, उनके सबकॉन्शस माइंड या अवचेतन मन में डर बैठ जाता है और पूरी आशंका पैदा हो जाती है कि कल को किसी परेशानी के दौरान उनका दिमाग़ भी ऐसा ही व्यवहार करने लगे। वे भी कल को भूत या देवता के प्रभाव में होने का दावा करके अजीब हरकतें कर सकते हैं। आज जो अचानक चेले बन रहे हैं, बहुत संभव है कि ऐसी किसी घटना को देखने से मन में बैठे डर के कारण उनकी मानसिक स्थिति ऐसी हुई हो। और इस मानसिक समस्या (Psychosis) के साथ दिक़्क़त यह है कि इसमें आदमी को पता नहीं चलता कि वह क्या करता है। वह वास्तविकता से पूरी तरह कट जाता है।

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पाखंडियों के आगे नतमस्तक है सिस्टम
अफ़सोस कि डॉक्टरी सहायता के ज़रूरतमंद इन मानसिक रोगियों और कुछ जानबूझकर नाटक कर रहे ढोंगियों को हमारी सरकारें ही संरक्षण दे रही हैं। सरकारें जानती है कि देवताओं के नाम पर दुकानें चल रही हैं और ये लोग समाज का सत्यानाश कर रहे हैं। इन्हें रोकने के लिए कोई कदम उठाना तो दूर की बात है, उल्टा बढ़ावा दिया जा रहा है। हिमाचल में कई सारे मेले होते हैं। मेलों में बहुत सारे ‘पुजारियों’ के ‘देवरथों’ को बुलाया जाता है और उनके साथ आने वालों को सरकारी खर्च पर ठहराने का इंतज़ाम किया जाता है, उनके लिए ‘नज़राने’ के तौर पर कुछ रक़म भी दी जाती है। लेकिन सवाल उठता है कि इन देवताओं को न्योता देने का आधार क्या है?

संस्कृति के संरक्षण के लिए होने वाले मेलों में उन प्राचीन मंदिरों वाले स्थापित देवताओं को बुलाना तो समझ आता है, जो कई सदियों, कई पीढ़ियों से आस्था के केंद्र में रहे हैं। ऐसे देवता गिने-चुने ही हैं। मगर हिस्टीरिया के शिकार मानसिक रूप से अस्वस्थ लोगों द्वारा खुद पर देवकृपा मान लेने से बना दिए नए-नए रथों को भी जगह देना क्या अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है? जबकि वहम के शिकार इन लोगों को इलाज की ज़रूरत होती है। ठीक शिमला के ठियोग वाले मामले की तरह जहां कुछ बच्चे ख़ुद को शिव का अवतार बता रहे थे और उनके यहाँ चमत्कार की उम्मीद में आने वाले लोगों का ताँता लग गया था। जब उन बच्चों को मनोचिकित्सक से मिलवाया गया तो उनका फ़ितूर ठीक हो गया। अगर समय पर प्रशासन न जागता तो वहाँ भी देवरथ बन गया होता।

कुछ सालो से रिवाज चल गया है कि अगर किसी को वहम हो गया कि उसके ऊपर देवता आ गया है तो वह कुछ ही दिनों में उसकी पालकी या रथ तैयार कर देता है। पॉप्युलर देवताओं के नए रथ तो बने ही हैं, ऐसे-ऐसे देवताओं के भी रथ बन गए हैं जो हिमाचल की प्राचीन देव संस्कृति से मेल नहीं खाते। उदाहरण के लिए संतोषी माता का देवरथ। संतोषी माता का किसी प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथ में ज़िक्र नहीं। मगर 60-70 के दशक में कुछ लोग देखादेखी में संतोषी माता के नाम पर कार्ड भेजने लगे, फिर फ़िल्में बनीं संतोषी माता पर और देशभर में (ख़ासकर, उत्तर भारत) में संतोषी माता के मंदिर बनने लगे। अब तो किसी संतोषी माता का भी रथ बना दिया है जो मेलों में आपको दिख सकता है।

इसी तरह जब शनि देवता को एक टीवी चैनल पर आने वाले बाबा ने पॉप्युलर किया तो आजकल शनि मंदिरों की देश में (हिमाचल में भी) बाढ़ आ गई है। पहले शनि देव का नाम तक कोई नहीं लेता था। और तो और, अब उनके नाम पर भी देवरथ बन रहे हैं। कल को मानसिक रूप से अस्वस्थ कोई व्यक्ति चाट-पकौड़े खिलाने वाले निर्मल बाबा का भी देवरथ बना देगा और हमारे मंत्री, विधायक, डीसी, एसडीएम किसी मेले में उसी फर्जी रथ की आरती उतार रहे होंगे। इसी का फर्जी पुजारी भूत-प्रेत, जादू-टोने के नाम पर समाज में जहर घोल रहे होगा। हो भी ऐसा ही रहा है।

संस्कृति और बीमारी का फ़र्क़ समझे सरकार
इन नए-नए ‘देवता’ के फ़र्ज़ी पुजारियों को ढंग से मानसिक इलाज मिले तो वे ठीक हो सकते हैं। मगर इसके लिए प्रदेश में अच्छे मनोचिकित्सक होने चाहिए, अच्छे अस्पताल होने चाहिए। साथ ही सरकारों के पास परंपरा और अंधविश्वास के बीच की लाइन को गहरा करने की हिम्मत होनी चाहिए। अगर सरकारें स्टैंड लें और अंधविश्वास के खिलाफ मुहिम छेड़े तो सब ठीक हो सकता है। उसे रेडियो, अख़बार, पोस्टर, बैनर के ज़रिए मुहिम चलानी होगी कि भूत-प्रेत आना और देवता आना कुछ नहीं होता, यह सब मानसिक विकार हैं और समय पर इलाज करवाने पर आप ठीक हो सकते हैं। मगर मानसिक स्वास्थ्य की ओर सरकारों का बिल्कुल ध्यान नहीं है।

दिमाग आदमी के शरीर का सबसे अहम अंग है लेकिन उसके इलाज के लिए हमारे पास अस्पताल और डॉक्टर नहीं। नतीजा- डिप्रेशन में आए शख्स को भी लोग ‘ओपरी कसर’ का शिकार मानकर किसी पुजारी या चेले के पास ले जाते हैं। झाड़-फूंक में पैसे तो बर्बाद होते ही हैं, मानसिक बीमारी भी बढ़ जाती है। फिर बहुत से लोग बाद में चिल्लाते फिरते हैं कि इलाज के नाम पर हमारी पिटाई हुई, बकरा माँगकर हमारा शोषण किया।

ऐसे मामलों में सरकारें और प्रशासन दखल ही नहीं देना चाहता। जैसे कि जानकारी आई है कि पुलिस ने सरकाघाट वाले मामले में सुस्ती बरती क्योंकि मामला देवता से जुड़ा था। बाद में मंडी के डीसी ने भी सरकाघाट मामले में सख़्त स्टैंड नहीं लिया। बल्कि उन्हें देव परंपरा की चिंता ज़्यादा दिखी और कहा- देव समाज ने कहा है कि ये घटना देवता के प्रभाव के कारण नहीं हुई।

देवता के प्रभाव के कारण हुई हो या न हुई हो, अथॉरिटी आप हैं या देव समाज? देव समाज क्या कोई आधिकारिक वैज्ञानिक या संवैधानिक संस्था है? और देवताओं के नाम पर बने मंचों पर आपको इतना यक़ीन क्यों है? ऐसे संगठनों के लोग देवता के नाम पर होने वाली भयंकर छुआछूत और भेदभाव को खत्म करने की दिशा में कदम क्यों नहीं उठाते। इन्होंने कुछ किया होता आज आंतरिक इलाकों से देवता का डर दिखाकर शोषण की घटनाएं सामने न आतीं। ये संगठन अच्छी भूमिका निभा सकते हैं, मगर इसके बारे में आगे बात करेंगे।

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हल क्या है
शायद किसी नेता में हिम्मत नहीं कि इस दिशा में सुधारवादी कदम उठाए। क्योंकि कुछ नेता तो इन देवताओं का डर दिखाकर या इनकी क़समें खिलाकर ही काफ़ी वोट बटोरते रहे हैं। वे हिमाचल की परंपरा और संस्कृति का हवाला देकर इस संबंध में सख़्त नियम लाए जाने का विरोध करेंगे। और अधिकारियों का तो कहना ही क्या, सबसे मुश्किल पढ़ाई करके अधिकारी बनने वाले लोगों को मानसिक रूप से बीमार लोगों को अस्पताल भेजने के बजाय उनके वहम को और मजबूत करता देख तरस आता है।

प्रदेश में अच्छे अस्पताल होंगे और वहाँ मनोचिकित्सकों की तैनाती होगी, साथ ही अगर मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सरकार व्यापक जागरूकता अभियान चलाएगी तो लोगों का चेलों और तांत्रिकों के पास जाना अपने आप ख़त्म या कम हो जाएगा। इसके अलावा सरकार को जादू-टोने को बढ़ावा देने वालों, अंधविश्वास फैलाने वालों और किसी और को डायन आदि कहकर किसी भी तरह प्रताड़ित करने वालों को रोकने के लिए सख्त क़ानून बनाना चाहिए। साथ ही पुलिस को चाहिए कि ऐसी शिकायतों को गंभीरता से ले। प्रदेश में पुलिस को लेकर कोई डर ही नहीं है। डर का मतलब डंडे का आतंक का नहीं बल्कि पुलिस की चुस्ती और मामलों को सुलझाने की क्षमता के कारण लोगों में होने वाला क़ानून का डर। ये डर है ही नहीं हिमाचल में।

अगर कोई महिला या पुरुष ख़ुद को चेला-चेली, माता, देवता घोषित करता है तो तुरंत उसपर इस नियम के तहत कार्रवाई होनी चाहिए। प्रशासन को भी मुस्तैद रहना चाहिए कि कहीं से ऐसी ख़बर आए तो तुरंत उस व्यक्ति की मानसिक सेहत की जाँच की जाए। इसके लिए स्वास्थ्य विभाग उसी तरह से आंगनवाड़ी या आशा वर्कर्स की मदद ले सकता है, जैसे किसी क्षेत्र में नए बच्चे पैदा होने को लेकर जानकारी जुटाई जाती है।

संस्कृति का संरक्षण, अच्छी परंपराओं को बनाए रखना हमारी ज़िम्मेदारी है। मगर यह भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है कि अगर कोई इसका लाभ ग़लत ढंग से उठाने की कोशिश करे तो उसे रोकें। एक नीति ये भी बनाई जाए कि मेलों और अन्य आयोजनों में उन्हीं देवताओं को न्योता भेजा जाएगा, जिनकी पंजीकृत संस्था होगी और उसके पदाधिकारी शपथपत्र देंगे कि उनके यहां झाड़फूंक, पूछ, प्रश्ना देना, या किसी तरह ‘इलाज’ नहीं होगा। साथ ही वे अपने यहाँ जाति या लिंग आधारित भेदभाव नहीं करेंगे। ऐसा न करने वालों को न्योता न भेजा जाए और अगर कोई मंदिर ऐसी गतिविधियाँ चलाता हो, उसपर कार्रवाई की जाए।

ये नियम उन सब लोगों को लाइन पर ले आएंगे जो देवताओं का डर दिखाकर अपना एजेंडा चला रहे हैं। अगर ये कदम उठा लिए गए तो प्राचीन और प्रतिष्ठित देवताओं का भी सम्मान बना रहेगा और फर्जी चेलों की दुकानें भी बन्द हो जाएगी। इन बातों को मानने में अगर कोई आनाकानी करता है तो समझ लो कि वो लोग देवता के नाम पर बेवकूफ बना रहे हैं क्योंकि मुझे नहीं लगता कि कोई पवित्र शक्ति होगी तो वो इस तरह की वाहियात बातों को बढ़ावा देगी। इस मामले में देव समाज या देवताओं से जुड़े संगठनों को आगे आना चाहिए क्योंकि ये उनकी प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है। उन्हें और सकारात्मक भूमिका निभानी होगी। उन्हें ही माँग करनी चाहिए कि इस संबंध में सरकार नियम बनाए ताकि देवता के नाम पर कोई भी शख़्स या लोगों का समूह अपना अजेंडा न चला पाए।

सरकाघाट की घटना चेतावनी है कि आस्था, परंपरा, संस्कृति और पाखंड के बीच का फ़र्क़ समझा जाए। वरना आज तो ऐसी एक घटना हुई है; जिस रफ़्तार से देवताओं के नाम पर मानसिक रोगियों की फ़र्ज़ी दुकानें खुल रही है, वे हिस्टीरिया से पूरे प्रदेश को मानसिक रोगी बनाकर तबाह कर देंगे। फिर इस तरह की घटनाएँ आम हो जाएगी। रास्ता एक ही है- अंधविश्वास को अंधविश्वास कहने की हिम्मत लाइए और जागरूकता अभियान चलाइए की भूत-प्रेत, ओपरी कसर कुछ नहीं होती और इसका इलाज चेलों के बजाय अस्पताल में करवाए। लेकिन इसके लिए पहले हर अस्पताल में मनोचिकित्सक की नियुक्ति करना ज़रूरी है।

यह लेख हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले संबंध रखने पत्रकार आदर्श राठौर के ब्लॉग से लिया गया है। आप यहां क्लिक करके उनके फेसबुक पेज से जुड़ सकते हैं।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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