शिमला।। हिमाचल प्रदेश में ताबड़तोड़ कैबिनेट मीटिंगें हो रहीं है, जिनमें आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुए फ़ैसले लिए जा रहे हैं।
आज भी कैबिनेट की मीटिंग है और सोमवार शाम को ही मंत्री शिमला पहुंच चुके हैं। राजनीतिक हलकों मे चर्चा है कि यह मीटिंग वीरभद्र सरकार के इस कार्यकाल की अंतिम कैबिनेट मीटिंग हो सकती है। सूत्रों का कहना है कि आज कैबिनेट विधानसभा भंग करने का प्रस्ताव पारित कर सकती है।
कांग्रेस में संगठन बनाम वीरभद्र जंग चली है और दिल्ली में में फ्री हैंड लेने गए वीरभद्र सिंह को सोनिया गांधी और अहमद पटेल से सकारात्मक इशारा नहीं मिला। इसे देखते हुए वीरभद्र सिंह चुनाव नहीं लड़ने के अपने दबाव वाले दांव से एक कदम आगे जाते हुए हुए विधानसभा को जल्द भंग करने का अस्त्र चला सकते हैं।
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वीरभद्र सिंह मान रहे हैं कि उन्हें कमान मिलने में जितनी देरी होगी, उतनी ही उनकी ताकत कम हो जाएगी। हालांकि 2012 में भी चुनाव से सिर्फ एक महीना पहले ही जब कौल सिंह को हटाया गया था, तब वीरभद्र सरकार बनाने में कामयाब रहे थे। मगर इस बार उन्हें पता है कि 2012 से हालात अलग हैं।
2012 में बीजेपी सत्ता में थी और ऐंटीइनकम्बेंसी कांग्रेस से फेवर में थी। दिल्ली में कांग्रेस की सरकार थी जिसमें वीरभद्र मंत्री रहे थे। ऊपर से बीजेपी की गुटबाजी कांग्रेस के लिए आसान हालात बना रही थी।
मगर इस बार हालात अलग हैं। मोदी लहर है और कांग्रेस कई राज्यों से साफ हो चुकी है। वीरभद्र इस दांव को इसलिए भी खेल सकते हैं कि पार्टी पर सीधे प्रेशर बन जाए कि अब क्या करना है, क्योंकि चुनाव सिर पर आ गए हैं। वह नेतृत्व से पूछ सकेंगे कि मेरे नेतृत्व में लड़ना है या नहीं; या फिर मैं लड़ूं ही नहीं?
दूसरा कारण यह भी सकता है कि उनकी नजर वर्तमान में भाजपा की स्थिति भांपने पर है। एम्स मामले में नड्डा अनुराग के टकराव और मंत्रिमंडल विस्तार में सामने आयी अफवाहों से भाजपा काडर असमंजस में है कि उनका नेता होगा कौन। वीरभद्र सिंह इस स्थिति का फायदा उठाना चाह रहे हैं। वह नहीं चाहते कि बीजेपी को इस भ्रम को सुलझाने के लिए समय मिले।
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तीसरा कारण यह भी है कि कांग्रेस के बजाय बीजेपी में इस बार हर सीट से टिकट चाहने वालों की फौज तैयार हो गई है। पहले सिटिंग विधायकों वाली जगह पर टिकट के दावेदार नहीं होते थे। मगर इस बार कहा जा रहा है कि सर्वे के आधार पर टिकट मिलेंगे। ऐसे में सिटिंग विधायकों के भी टिकट कट सकते हैं। इसीलिए दावेदार मजबूती से सामने आ रहे हैं। वीरभद्र इस स्थिति का फायदा उठाने के लिए भी जल्दी चुनाव करवा सकते हैं।
व्यक्तिगत रूप से भी वीरभद्र सिंह मनी लॉन्ड्रिंग के केस में घिर गए हैं। ED द्वारा जब्त उनकी प्रॉपर्टी पर भी कोर्ट ने मुहर लगा दी है। कहीं इस मुद्दे पर पार्टी में ही उनके विरोधी आलाकमान के सामने उनपर हावी न हो जाएं, इससे पहले ही वह आरपार की लड़ाई के मूड में हैं।
गुड़िया मामले में भी हिमाचल पुलिस ने जो फजीहत अपने साथ-साथ मुख्यमंत्री की करवाई है, इस से भी वह बहुत आक्रोशित और दुखी बताए जा रहे हैं। सीबीआई इस मामले में किसी ठोस नतीजे तक पहुंचे, इससे पहले ही वह अपने नेतृत्व में चुनाव में उतर जाना चाहती है।
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अंतिम कारण यह भी माना जा रहा है कि सरकार के पास अब कोई ऐसी योजनाए, कार्य और फैसले नहीं बचे है जो चुनावी समय में जनता को लुभाने के लिए बचे हुए रह गए हैं। सरकार कार्यकाल में जो कर सकती थी, कर चुकी है। इसलिए चुनाव को लंबा खींचकर अभ फायदा नहीं है।
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि वीरभद्र सिंह के विरोधी माने जाने वाले बड़े नेता अभी मानते है कि मुख्यमंत्रीं ने चुनाव नहीं लड़ा तो प्रदेश में जो एक कांग्रेस काडर फैला है, जिसके लिए कांग्रेस मतलब ही वीरभद्र सिंह है, उसका हौसला टूट जाएगा और इसका खामियाजा उन्हें भी चुनावों में हो सकता है। इसलिए अगर नेतृत्व पर जल्द फैसला लेने की स्थिति बनती है तो उन्हें भी वीरभद्र को नेता मानना पड़ेगा, ताकि अपनी सीट बच जाए।
ऐसे में आज कैबिनेट में मुख्यमंत्री इस संबंध में चर्चा कर सकते हैं। अगर कैबिनेट ने विधानसभा भंग करने की अनुशंसा की तो हिमाचल प्रदेश में ज्यादा नहीं तो तय वक्त से कम से कम 3-4 हफ्ते पहले चुनाव हो सकते हैं।